भाजपा जब से सत्ता में आई है एक देश एक चुनाव के मुद्दे को बार-बार उछालने का काम कर रही है।अब जब कि लोकसभा चुनाव-2024 का समय नजदीक आ रहा है तब भाजपा ने अपने गिरते वोट शेयर को देखते हुए फिर से इस मसले को कार्यरूप देने का उपक्रम शुरू कर दिया है। ज्ञात हो कि एक सितंबर को भाजपा सरकार ने देश में एक ही चुनाव (One Nation One Election) कराने को बड़ा फैसला लिया है। केंद्र ने एक देश एक चुनाव को लेकर एक समिति का गठन किया है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को इस समिति का अध्यक्ष बनाया गया है। यह समिति इस मुद्दे पर विचार करने के बाद अपनी रिपोर्ट सौंपेगी। इसके बाद ही यह तय होगा कि आने वाले समय में क्या सरकार लोकसभा चुनाव के साथ ही सभी राज्यों में विधानसभा के चुनाव भी कराएगी या नहीं। सोशल मीडिया पर पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को इस समिति का अध्यक्ष बनाने पर पद की अवमानना की बात कही है। अब सवाल ये उठता है कि क्या पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद इस समिति का अध्यक्ष बनने पर अपनी अवमानना मानते हैं अथवा सम्मान? जनता का तो यह भी भी मत है कि पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को भाजपा सरकार के हाथों की कठपुतली बनने से बचना चाहिए था।
विपक्ष के नेताओं ने इस मुद्दे को लेकर आपत्ति जताई है। बता दें कि एक देश-एक चुनाव का मतलब है कि देश में होने वाले सारे चुनाव एक साथ ही करा लिए जाएं। देश के आजाद होने के कुछ समय बाद तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही कराए जाते थे लेकिन इस प्रथा को बाद में खत्म करके विधानसभा और लोकसभा चुनाव को अलग-अलग कराया जाने लगा। गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने 18 से 22 सितंबर तक संसद का विशेष सत्र बुलाया है। सूत्रों के अनुसार सरकार इस दौरान एक देश एक चुनाव को लेकर बिल भी ला सकती है, जिसमें देश में होने वाले तमाम चुनावों को एक साथ कराने का प्रस्ताव लाया जा सकता है।
[bs-quote quote=”‘एक देश एक चुनाव’ की व्यवस्था देश में अधिनायकवाद या यूँ कहें कि हिटलरशाही और तानाशाही को ही जन्म देगी। देश में चौतरफा अराजकता का माहौल होगा। सत्तारूढ़ राजनीतिक दल का आचरण लोकतांत्रिक न होकर पूरी तरह अलोकतांत्रिक हो जाएगा। यदि एक देश एक चुनाव की व्यवस्था देश में लागू हो जाती है तो यह लोकतंत्र की हत्या का प्रस्ताव ही सिद्ध होगा यानी लोकतंत्र की असमय ही हत्या हो जाएगी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
एक देश एक चुनाव को लेकर लगाई जा रही अटकलों के बीच केंद्र सरकार ने इस दिशा में पहला कदम बढ़ा दिया है। केंद्र सरकार ने इस संबंध में एक कमेटी बनाई है। लॉ मिनिस्ट्री ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में कमेटी गठित की है। कमेटी में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी के साथ गुलाम नबी आज़ाद, एनके सिंह, सुभाष कश्यप, हरीश साल्वे और संजय कोठारी कुल 8 लोग शामिल हैं। इनमें से अधीर रंजन चौधरी ने अपना नाम वापिस ले लिया है। ऐसे में इस समिति का अर्थ क्या रह जाता है? क्योंकि इस समिति के चालक-संचालक अमित शाह ही होंगे, बाकी को इनके पीछे ही चलना होगा। दूसरे इस कमेटी से मात्र 15 दिनों में रिपोर्ट देने की बात की गई है जो इतने बड़े मुद्दे पर नितांत असंभव है। इसका अर्थ ये हो सकता है कमेटी बनाने से पहले ही रिपोर्ट तैयार कर दी गई होगी, समिति के सदस्यों को बस उस पर अंगूठा लगाना ही शेष है।
इससे पहले संसदीय कार्यमंत्री प्रह्लाद जोशी के एक ट्वीट ने हलचल मचा दी। उनकी ओर से जानकारी दी गई कि 18 से 22 सितंबर के बीच संसद का विशेष सत्र बुलाया गया है। हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि सत्र बुलाया किसलिए जा रहा है। बस इस वजह से अटकलों का बाज़ार गर्म हो गया। पक्ष या विपक्ष, किसी को इस बारे में आइडिया नहीं है। कहा जा रहा है कि इस सेशन में 10 से ज़्यादा विधेयक पेश किए जा सकते हैं। हालांकि मामला सामान्य बिल का तो नहीं होगा, क्योंकि ऐसे किसी बिल के लिए संसद का सत्र बुलाने की ज़रूरत नहीं। सरकार पहले भी अध्यादेश का सहारा ले चुकी है। अगर कोई सामान्य बिल का मामला होता, तो एक बार फिर सरकार ऑर्डिनेंस ला सकती थी। यहाँ यह सोचना होगा कि संविधान के अनुसार किन्हीं विशेष हालातों में ही विशेष संसद का सत्र बुलाने का प्रावधान है न कि सामान्य परिस्थितियों में।
सबसे ज़्यादा चर्चा हो रही है इस बिल की टाइमिंग को लेकर। दरअसल, इस साल के आखिर में ही राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में कयास लगाए जाने लगे कि क्या केंद्र सरकार पहले आम चुनाव करा सकती है। इस बात की चर्चा सियासी गलियारों में जोरों पर उठी है कि मोदी सरकार इस बार दिसंबर में ही आम चुनाव करा सकती है। इसे बल तब मिला, जब पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने भी इस पर बात की। यहाँ सवाल उठना लाजिम है कि हमारे प्रधान सेवक को एक देश एक चुनाव का तो ध्यान रहता है, किंतु एक देश-एक शिक्षा, एक देश,-एक स्वास्थ्य जैसे अन्य विषयों पर कोई ध्यान नहीं रहता, जो आम जनता की महती जरूरतें हैं।
इस मसले का विरोध इसलिए भी है कि अगर लोकसभा के साथ ही राज्यों के चुनाव हुए, तो स्थानीय मुद्दे दब जाएंगे। आम चुनावों में बात राष्ट्रीय मुद्दों की होती है, जनता भी उस चेहरे पर दांव लगाती है, जो विश्व मंच पर देश का सही प्रतिनिधित्व कर सके। दूसरी ओर, विधानसभा चुनावों में बात होती है सड़क, सीवर, बिजली जैसे लोकल इश्यूज की। अगर दोनों चुनाव साथ हुए, तो स्थानीय मुद्दे दब जाएंगे।
एक साथ चुनाव कराने की स्थिति में कुछ राज्यों में समय से पहले इलेक्शन कराने होंगे। अगर सरकार ऐसा बिल लाती है, तो हो सकता है जिन राज्यों में बीजेपी की सरकारें हैं, वहां से सहमति मिल जाए, लेकिन जहां विपक्ष की सरकारें हैं, क्या वहां से भी सपोर्ट मिलेगा?
बीजेपी ‘एक देश एक चुनाव’ के पक्ष में रही है। पीएम नरेंद्र मोदी इसकी हिमायत करते रहे हैं। इस मामले पर संसदीय समिति की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि अगर पूरे देश में एक साथ चुनाव कराए जाते हैं, तो इससे सरकारी ख़ज़ाने पर बोझ कम पड़ेगा। मानव संसाधन का बेहतर इस्तेमाल किया जा सकेगा। जो ख़ज़ाना बचेगा, उसे विकास पर खर्च किया जा सकेगा। किंतु सरकार के तर्क से सहमत नहीं हुआ जा सकता।
निष्कर्ष पर आने से पूर्व थोड़ा विगत को भी ध्यान में रखना जरूरी होगा कि 2014 व 2019 में हुए लोकसभा चुनावों में यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीति और नीयत पर भरोसा करने वालों की देश में कमी होती, तो वे पूर्ण बहुमत पा करके लोकसभा में न पहुंचे होते। किंतु उनके प्रधानमंत्री बनने के पहले और बाद के मोदी जी और उनके सबसे बड़े वफादार अमित शाह द्वारा जिस तरह की जुमलेबाजी और बीजेपी की पैतृक संस्था द्वारा किसी न किसी बहाने, जिस प्रकार से अराजकता/जातीय हिंसा को बढ़ावा दिया जा रहा है, मोदी और उनके समर्थक घटकों से समाज के आम आदमी का दम घुटने लगा है। लगता तो ये है कि मोदी की सरकार और सरकार के समर्थक हिन्दूवादी संगठनों ने 2019 में होने वाले चुनावों के मद्देनजर मतदाता की जड़ों में मट्ठा डालने का काम शुरू कर दिया है। इस कमी को पूरा करने के लिए मोदी जी का तानाशाही आचरण उजागर होने लगा है। यूँ तो हमारे देश में लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराने की चर्चा वर्षों से चली आ रही थी किंतु अपनी सरकार के नौ साल पूरे होते ही, मोदी जी ने अपनी जिस मुहिम को कार्यरूप देने की कवायद की है, वह है लोकसभा, विधानसभा, नगर निकायों और पंचायतों के चुनाव एक साथ कराना, जो किसी भी हालत में संभव नहीं है।
इस संबंध में मोदी का यह तर्क जरा भी यक़ीन करने लायक नहीं है कि वे चाहते हैं कि कभी कहीं, कभी कहीं, होने वाले चुनावों की उठापटक में ज़्यादा वक़्त देने के बजाय सामाजिक कार्यों पर ध्यान देने के लिए समय मिलेगा और राजनीतिक संस्थानों के चुनाव अलग-अलग न कराने पर होने वाले सरकारी खर्च में हज़ारों करोड़ रुपयों की बचत भी होगी। सिद्धांततः मोदी की इन दोनों दलीलों से पवित्रता की ख़ुशबू आती है। लेकिन मोदी अगर इतने ही सतयुगी होते तो फिर बात ही क्या थी? इसलिए उनके ये तर्क मानने को मन नहीं करता।
असल में मोदी जी को चिंता हो रही है कि 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों में उनकी काठ की हाँडी का क्या होगा। दोबारा चढ़ेगी कि नहीं? सत्ता के मद में शायद मोदी जी भूल गए कि काठ की हाँडी चूल्हे पर एक बार ही चढ़ पाती है। इस माने में मोदी जी की चिंता जायज़ ही है। इसलिए गुजरात से दिल्ली की छलांग लगाने की तैयारी के दौर में ही उन्होंने दिमाग बना लिया था कि तीसरी बार सिंहासन कब्जाने के लिए उन्हें देश भर में सारे चुनाव एक साथ करवाने का दांव खेलना होगा। इसलिए भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा के पिछले चुनाव के लिए जारी अपने घोषणा पत्र में चुपके से यह लिख दिया था कि सरकार में आने के बाद वह ‘लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का तरीक़ा निकालेगी।’ इसका सीधा सा अर्थ है कि लोकसभा में ये प्रस्ताव आसानी से पास हो जाएगा किंतु राज्यसभा में जरूर पास नहीं हो पाएगा। और न ही आधे राज्यों का समर्थन मिल पाएगा। तब मोदी जी को एक मुद्दा मिल जाएगा कि हमने जो वायदे जनता से किए थे, उन्हें लागू करने में विपक्ष टाँग अड़ा रहा है। वैसे भी संविधान में संशोधन करने के लिए दोनों सदनों में दो तिहाई सांसदों के समर्थन की जरूरत होती है। बीजेपी के साथ शायद इतना समर्थन नहीं है, यदि होता तो वो इस प्रस्ताव को केवल हवा में न उछालते, अब तक प्रस्ताव को लागू करा चुके होते। लगता तो यह है कि इस मुद्दे को हवा देने का आशय केवल और केवल अपनी नाकामियों का ठीकरा विपक्ष के सिर पर मढ़ना और अपने चिरपरिचित अन्दाज में मतदाता को पुन: मूर्ख बनाने का एक प्रयास है।
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इस प्रकार की आंकड़ेबाजी से सहमत हुआ जा सकता है किन्तु इस प्रस्ताव के व्यावहारिक पक्ष पर समिति ने कोई बात नहीं की कि यदि ऐसा हो जाता है तो केन्द्र और राज्य सरकारों का व्यवहार क्या होगा। इस प्रस्ताव के पीछे की सत्ताशीन राजनीतिक दल की मंशा को सियासी अखाड़े का कोई भी खिलाड़ी बड़ी सहजता से भाँप सकता है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि यदि केंद्र और राज्यों की सरकारों के लिए चुनाव एक साथ होंगे तो मतदाता एक ही राजनीतिक दल के पक्ष में मतदान करना पसंद करता है। यह एक आम अवधारणा है। इसमें कोई रहस्य की बात नहीं। ऐसा होने पर केन्द्र और राज्यों में किसी एक ही दल की सरकारें बनने की संभावना को नहीं नकारा जा सकता। जो न लोकतंत्र की परिभाषा को नकारता है अपितु लोकतंत्र की हत्या का द्योतक है। 1999 से अब तक देश लोकसभा और विधान सभाओं में एक साथ हुए चुनावों के आँकड़े इस बात का प्रमाण हैं। राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने पर 77 प्रतिशत मतदाताओं ने लोकसभा और विधान सभा के लिए एक ही पार्टी को वोट देना पसंद किया। मोदी इतने भोले तो नहीं हैं कि इस सत्य से अवगत न हों। इसलिए संविधान की तमाम व्यवस्थाओं से इतर 2024 में सभी चुनाव एक साथ कराने की उनकी ललक आसानी से समझी जा सकती है।
चिरपरिचित संविधान विशेषज्ञ माननीय आर. एल. केन के अनुसार संविधान की धारा 83 (2) में लोकसभा का कार्यकाल उसकी पहली बैठक से पांच साल तक के लिए तय है। इसी तरह धारा 172 (1) विधानसभाओं को भी पांच साल के कार्यकाल का अधिकार देती है। सामान्य स्थिति में यह कार्यकाल पूरा होना ही चाहिए। लोकसभा और विधानसभाएं समय से पहले भंग की जा सकती हैं। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री यह भी तय कर सकते हैं कि चुनाव कब कराए जाएं। लेकिन एक साथ चुनाव कराने के मक़सद से विधानसभाओं को समय से पहले भंग करना संविधान का दुरूपयोग ही माना जाएगा। असामान्य स्थित में राष्ट्रपति को किसी विधानसभा का कार्यकाल एक साल तक बढ़ाने का अधिकार है।
यहाँ एक सवाल उठना जरूरी है कि क्या किसी एक राजनीतिक दल की इच्छा पूरी करने के लिए अपने इस विशेषाधिकार का इस्तेमाल करना, क्या किसी भी राष्ट्रपति के लिए संवैधानिक और नैतिक नज़रिए से उचित होगा? लेकिन विगत ही नहीं वर्तमान भी इसका प्रमाण है कि राष्ट्रपति के विशेषाधिकार कहे जाने वाली बात केवल एक तकिया कलाम या मुहावरे जैसी है क्योंकि राष्ट्रपति अक्सर वही करता है जो केंद्रीय सरकार की मंशा होती है। यहाँ तक कि राष्ट्रपति के देश के नाम संदेश जैसे भाषण भी उनके अपने नहीं होते, सरकार के द्वारा अनुमोदित होते हैं। लेकिन संघ के किसी आदमी को राष्ट्रपति बनाने के बाद ये शंका भी है कि कागजों में तो राष्ट्रपति के वही अधिकार होंगे जो संविधान सम्मत हैं, किंतु व्यवहार में इसके उलट होने की सम्भावना है कि सरकार संघ के राष्ट्रपति के अनुसार अपने प्रस्ताव राष्ट्रपति के पास भेजने को विवश होगी।
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भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी ने भी भारत में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव को एक साथ करवाने पर जोर दिया है, हालाँकि इसके लिए सभी राजनीतिक दलों का एकमत होने के साथ-साथ संवैधानिक संशोधन भी जरूरी है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि ऐसा हो जाता है तो चुनाव आयोग लोकसभा चुनाव और राज्य विधानसभा के चुनावों को एक साथ करवाने के लिए तैयार है। केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने एक देश एक चुनाव को लागू करने के लिए राज्यसभा में दिए अपने एक लिखित जवाब में पांच प्रमुख बातों को जिक्र किया है। उन्होंने अपने जवाब में कहा है कि संविधान के कम से कम पांच अनुच्छेदों में संशोधन करना जरूरी होगा। संसद के सदनों की अवधि से संबंधित अनुच्छेद 83, राष्ट्रपति द्वारा लोकसभा को भंग करने से संबंधित अनुच्छेद 85, राज्य विधानसभाओं की अवधि से संबंधित अनुच्छेद 172, राज्य विधानसभाओं को भंग करने से सम्बंधित अनुच्छेद 174 और राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने से संबंधित अनुच्छेद 356। उन्होंने आगे कहा कि सभी राजनीतिक दलों में आम सहमति बनानी होगी| इसके लिए सभी राज्य सरकारों की सहमति जुटाना ज़रूरी होगा। साथ ही अतिरिक्त संख्या में EVMs/VVPATs की आवश्यकता होगी जिसकी लागत हजारों करोड़ रुपये हो सकती है अतिरिक्त मतदान कर्मियों एवं सुरक्षा बलों की आवश्यकता होगी।
लोकसभा और विधान सभाओं के एक साथ चुनाव कराने में कई और भी व्यवहारिक दिक्कतें आएंगी। एक ही दिन पूरे देश में चुनाव कराने के लिए पुलिस और अर्द्ध-सैनिक बलों की क़रीब चार हज़ार कंपनियां लगेंगी। अभी सरकार बमुश्किल एक हज़ार कंपनियों का इंतज़ाम कर पाती है। चार गुना ज़्यादा पुलिस-बल एकाएक हवा में से तो पैदा हो नहीं सकता। इसके लिए पैसा कहां से आएगा? एक ही दिन में सभी जगह चुनाव कराने के लिए लगने वाली मतदान मशीनों का इंतज़ाम भी एक मुद्दा है। मतदान का काग़जी सबूत रखने वाली इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनें लगाने पर दस हज़ार करोड़ रुपए से कम खर्च नहीं होंगे। एक साथ चुनाव कराने पर राज्यों में स्थानीय मुद्दे, राष्ट्रीय मुद्दों के शोर में ग़ुम हो सकते हैं या इसके उलट स्थानीय मुद्दे इतने हावी हो सकते हैं कि केंद्रीय मसलों का कोई मतलब ही न रहे। इस विचार से विमुख होने का कोई कारण भी नजर नहीं आता। इसमे किंतु-परंतु की कोई गुंजाइश ही नहीं दिखती।
मोटे तौर पर देखने वालों को मोदी की यह योजना देश-हित, समाज-हित और लोकतंत्र के हित में लगेगी। लेकिन मोदी इतने मासूम नहीं हैं कि स्व-हित की कसौटी पर कसे बिना किसी भी योजना को कार्यन्वित करने का मन बना लें। हाँ! इस योजना को लागू किए जाने की वकालत करना राजनीतिक दलों के हित में तो हो सकता है किंतु देश और देश की जनता के हित में कतई लाभकारी नहीं हो सकता। उदाहरण के रूप में 2019 के लोकसभा चुनावों को ही लिया जा सकता है। मान लो कि यदि इस वर्ष के लोकसभा चुनावों के साथ-साथ विधान सभाओं के चुनाव भी होते तो जनता का मत महज एक तरफ ही जाता। केन्दीय सरकार के मुद्दे और राज्य सरकारों के मुद्दे अलग-अलग न होकर घालमेल का शिकार हो जाते। इतना ही नहीं, यह भी जब केन्द्र में सत्तारूढ़ बीजेपी के चलते सरकार दो साल पूरे होने तक समाज में, बीजेपी की पैतृक संस्था आरएसएस का फैला आतंक किस हद तक चला जाता यदि राज्य सरकारें भी बीजेपी की ही होतीं तो देश की क्या हालत होती, इसका सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है। यह एक मनोवैज्ञानिक अवस्था है, किसी एक ही राजनीतिक दल पर ही लागू नहीं होती। एक देश एक चुनाव यदि लागू हो जाता है तो विपक्ष नाम की कोई संस्था शेष नहीं रह जाएगी और सत्तारूढ़ दल खुल कर बिना किसी कायदे कानून के कब्बडी खेलेगा।
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वर्तमान चुनावी व्यवस्था में अब कम से कम इतना तो है कि यदि देश की जनता केन्द्र सरकार के कार्यों से संतुष्ट नहीं होती है तो राज्यों में सरकार बदलने का विकल्प जनता के पास शेष रहता है। ‘एक देश एक चुनाव’ की व्यवस्था लागू हो जाने पर जनता से ये हक भी छिन जाएगा और देश में तमाम प्रकार के अराजक तत्व हावी हो जाएंगे। एक तरह से देश की जनता अपने ही देश में गुलाम की भूमिका में आ जाएगी। सबसे ज्यादा जो नुकसान होगा, वह देश की अनुसूचित और पिछड़े वर्ग की जातियों को होगा, इसमें शंका करने की कोई गुंजाईश नहीं है।
सारांशत: कहा जा सकता है कि ‘एक देश एक चुनाव’ की व्यवस्था देश में अधिनायकवाद या यूँ कहें कि हिटलरशाही और तानाशाही को ही जन्म देगी। देश में चौतरफा अराजकता का माहौल होगा। सत्तारूढ़ राजनीतिक दल का आचरण लोकतांत्रिक न होकर पूरी तरह अलोकतांत्रिक हो जाएगा। यदि एक देश एक चुनाव की व्यवस्था देश में लागू हो जाती है तो यह लोकतंत्र की हत्या का प्रस्ताव ही सिद्ध होगा यानी लोकतंत्र की असमय ही हत्या हो जाएगी। इतना ही नहीं एक देश एक चुनाव की कसरत संविधान को बदलने की दिशा में पहला कदम सिद्ध होगी और आरएसएस समर्थित भाजपा का संविधान को बदलना ही मूल आशय है।