Friday, April 19, 2024
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सामंतवाद के खिलाफ उठी रमाकांत यादव की आवाज, सियासी गलियारे में पहुँचकर सामंती चेहरे में बदल गई

उत्तर प्रदेश के बाहुबली -9 आजमगढ़ के आतंक बाहुबल का ऐसा रसूख कि पत्नी के खिलाफ जब पूर्व मुख्यमंत्री ने चुनाव लड़ा तो पूर्व मुख्यमंत्री को ना झण्डा उठाने वाले मिले, ना झण्डा लगाने की जगह मिली। आज भी हवा में फैली हुई यह बात मन को कंपा देती है कि इन्होंने चार ठाकुरों को […]

उत्तर प्रदेश के बाहुबली -9

आजमगढ़ के आतंक

बाहुबल का ऐसा रसूख कि पत्नी के खिलाफ जब पूर्व मुख्यमंत्री ने चुनाव लड़ा तो पूर्व मुख्यमंत्री को ना झण्डा उठाने वाले मिले, ना झण्डा लगाने की जगह मिली। आज भी हवा में फैली हुई यह बात मन को कंपा देती है कि इन्होंने चार ठाकुरों को जिंदा ही दफना दिया था, पर यह बात ना किसी कानून के पन्ने में दर्ज हुई है, ना इतिहास इसका कोई साक्ष्य देता है। लोग आज भी इस बात पर बस इतना बोलते हैं कि ‘सुना तो है पर जानते नहीं हैं कि सच्चाई क्या है?’ उत्तर प्रदेश की हर बड़ी पार्टी से मुहब्बत भी की और बगावत भी। दिग्गज राजनेता मुलायम सिंह यादव के खिलाफ भाजपा ने जब चुनाव मैदान में उतारा तो जीत के लिए मुलायम को भी लोहे के चने चबाने पड़ गए। जिस आदमी ने कभी पिता के दिखाए हुए रास्ते पर चलकर सामंतवाद के खिलाफ सामाजिक न्याय की लड़ाई शुरू की वही आगे चलकर आजमगढ़ का सामंती चेहरा बन गया। आज भी रमाकांत के खिलाफ बोलना गुनाह से कम नहीं है। RKY का स्टीकर होना ही किसी भी गलत पर पर्दा डालने के लिए काफी था। फिलहाल 2017 के बाद से रुतबे पर योगी के अंकुश का असर दिखने लगा है। 

आजमगढ़ जिले के सरावाँ गाँव में रहते थे श्रीपत यादव। श्रीपत यादव अपने समाज के राजनीतिक और सामाजिक क्रांतिकारी थे। वह गांधी और मार्क्स की विचारधारा के साथ शोषित, वंचित समुदाय के सम्मान और संघर्ष के लिए काम करते थे। इनके तीन बेटे थे लल्लन यादव, उमाकांत यादव और रमाकांत यादव। लल्लन व्यवसायी आदमी थे, उमाकांत पुलिस में भर्ती हो गए पर रमाकांत ने चुनी पिता की जमीन। पिता की विरासत आगे बढ़ाने के लिए लोगों की शुभकामनाएं भी मिली और समर्थन भी। इनका जन्म भले ही सरावाँ गाँव में हुआ था पर अब परिवार यादव बहुलता वाले अंबारी गाँव में रहने लगा था। यह गाँव सुरक्षा और समर्थन, दोनों के हिसाब से धीरे-धीरे रमाकांत का किला बनने लगा था। रमाकांत सिर्फ संवैधानिक रूप से समाज सुधार को आगे बढ़ाने के पैरोकार नहीं थे बल्कि कुछ गलत होता हुआ लगता तो कानून को अपने हाथ में लेकर उसे खुद से सुधार देने में विश्वास रखते थे। खुद फैसला करते खुद ही सजा भी देते।

[bs-quote quote=”इलाहाबाद कोर्ट के जज ने इस तरह के अपराधी के लोकसभा और विधानसभा पहुँचने को लेकर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘ऐसे माफियाओं का लोकसभा और विधानसभा में पहुँचना हमारे चुनावी सिस्टम की बड़ी खामी है। यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चुनावी ढांचे पर गंभीर सवालिया निशान लगाता है।'” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

1980 के दशक में उत्तर भारत के तमाम हिस्सों की तरह आजमगढ़ में भी ठाकुर सामंतवाद का व्यापक असर था और रमाकांत ने इस सामंतवाद के खिलाफ़ झण्डा उठाकर अपनी जाति के लोगों को पूरी तरह से अपने साथ कर लिया। आजमगढ़, मऊ और घोसी की जमीन वैसे भी उस समय उत्तर प्रदेश की सबसे ज्यादा क्रांतिकारी जमीन बनी हुई थी। समाजवाद और साम्यवाद दोनों ही लहरें उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा तेज यहीं उफान मार रही थी। वामपंथी अवधारणा भी यहाँ राजनीतिक रूप से भले ही ना सही पर सामाजिक रूप से मजबूत थी, जिसकी वजह से इसे उत्तर का केरल भी कहा जाता था। इसी बगावती जमीन के तेवर का फायदा मिला रमाकांत यादव को। रमाकांत के तेवर को स्वजातीय लोगों का अभूतपूर्व सहयोग और साथ मिला तो ताकत और हिम्मत दोनों बढ़ गई।

अमरेज यादव और जंगली प्रसाद यादव की हत्या में आरोपी बनाए जाने से सामान्य स्तर की गुंडई पर आपराधिक होने का ठप्पा लग गया। ठाकुर जाति से विरोध बढ़ता जा रहा था और रमाकांत किसी भी कीमत पर सामंतवाद को उखाड़ फेंकने पर आमादा थे। इस रंजिश में एक दिन बगल की रियासत के रियासतदार बाबू जगदंबा सिंह के भाई को चप्पलों की माला पहनाकर पूरे बाजार में घुमा दिए। इस मामले ने आजमगढ़ से लेकर जौनपुर तक ठाकुर रुतबे को भयानक तरीके से आहत कर दिया, जिसकी वजह से रमाकांत ठाकुर जाति के सबसे बड़े दुश्मन बन गए। चूंकि यादव समाज के लोग जातीय बाहुल्य के बावजूद राजनीतिक और सामाजिक रूप से ठाकुर सामंतों द्वारा उत्पीड़ित थे जिसकी वजह से इन्हें अब अपना रॉबिनहुड मिल गया था। अब पूरी जाति के लोगों ने तय कर लिया था कि रमाकांत को अपना प्रतिनिधि बनाकर विधानसभा में बिठाना है। इसी संकल्प के साथ लोगों ने रमाकांत को चुनावी मोर्चे पर उतार दिया। आजमगढ़ की गृह विधानसभा फूलपुर से रमाकांत ने निर्दलीय नामांकन भर दिया। यादव के साथ ठाकुर उत्पीड़न के खिलाफ अन्य पिछड़ी जाति के लोगों के साथ बड़ी संख्या में दलितों ने भी रमाकांत को वोट दिया। 1985 में रमाकांत पहली बार विधानसभा पँहुच गए। अब राजनीतिक पद मिल जाने से सामाजिक दबंगई का स्वर और मजबूत हो गया। इस ताकत को सबसे पहले बसपा ने समझा और बिना देर किये अपने पाले में कर लिया। बसपा के पास पूर्वांचल में कोई मजबूत चेहरा नहीं था ऐसे में रमाकांत के रूप में बसपा के लिए यह बड़ी उपलब्धि थी। 1989 में रमाकांत बसपा के उम्मीदवार के रूप में दुबारा चुनाव लड़े और जीत गए। किन्तु बसपा में ज्यादा दिन रह नहीं सके। वजह साफ थी यह अब किसी भी सामंती व्यक्तित्व वाले नेता को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं थे। मायावती बसपा को कहने के लिए तो अंबेडकर और कांशीराम के विचारों के साथ आगे बढ़ा रही थीं पर पार्टी के नेताओं को कोई भी लोकतान्त्रिक हक देने का इरादा नहीं रखती थीं।

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दूसरी तरफ, रमाकांत की मुलायम सिंह यादव से नज़दीकी भी बढ़ रही थी। इस वजह से रमाकांत ने समाजवादी साइकिल की सवारी करना ज्यादा बेहतर समझा। 1991 और 1993 में समाजवादी पार्टी के टिकट पर विधानसभा पहुँचने में कामयाब रहे। लगातार चार बार विधायक बनने की यात्रा में रमाकांत ने पूरे जिले की राजनीति में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था। अब जहां एक ओर हत्या, रंगबाजी, मारपीट जैसे अपराध में मुकदमें बढ़ रहे थे तो वहीं, दूसरी ओर कारोबार भी फैल रहा था। प्रदेश में सरकार किसी की भी बनती पर जिले में सरकार रमाकांत की ही चलती। इनकी लगभग 200 गाड़ियां चलती थी। गाड़ियों पर RKY का स्टीकर लगा होता था। यह स्टीकर होना काफी रहता था कि परिवहन विभाग और प्रशासन के लोग इन गाड़ियों की ओर नज़र ना डालें। मुलायम सिंह ने जब देखा कि रमाकांत अब सिर्फ फूलपुर के ही नहीं बल्कि पूरे आजमगढ़ के बाहुबली बन चुके हैं तो 1996 के चुनाव में फूलपुर सीट का टिकट रमाकांत की पत्नी रंजना यादव को पकड़ा दिया और रमाकांत को लोकसभा का टिकट दे दिया।

सपा नेता अखिलेश यादव से मुलाक़ात के दौरान रमाकांत यादव

रमाकांत के विजय अभियान पर अंकुश लगाने के लिए कांग्रेस ने रमाकांत की पत्नी रंजना यादव के खिलाफ उन्हीं के गाँव से थोड़ी दूर पर रहने वाले पूर्व मुख्यमंत्री राम नरेश यादव को चुनावी मैदान में उतार दिया। राम नरेश नेता जरूर थे पर कहा जाता था कि वह कभी भी मास-लीडर (जननेता) नहीं रहे। रमाकांत के खिलाफ मैदान में राम नरेश उतरे तब उनकी साख दांव पर लग गई थी। पहली मुश्किल तो प्रचारक ही नहीं मिल रहे थे। किसी गाँव में झण्डा लगाने जाते तो साफ-साफ यही सुनने को मिलता कि भइया वोट तो दे सकते हैं पर झण्डा नहीं उठा सकते। रमाकांत से दुश्मनी लेने की हिम्मत किसी में नहीं है। प्रचारकों को भी रमाकांत के आदमी गाड़ी से उतार कर रास्ते से भगा देते। राम नरेश बाहुबली भले नहीं थे पर दिमाग से तेज थे उन्होंने समझ लिया कि यहाँ आग नहीं फैलाई जा सकती पर राख में दबी चिंगारी को फूँक मारकर जलाया जरूर जा सकता है। उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि ‘हम जीते या हारें हमें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, हमें राजनीति से जो पाना था वह हम पा चुके हैं, हम तो बस इतना चाहते थे कि फूलपर पर लगा ग्रहण हट जाए’। फुसफुसाहट के सहारे राम नरेश ने यादवों को भी उकसाया कि क्या सब कुछ एक ही परिवार के हिस्से में जाएगा? क्या आजमगढ़ में दूसरा यादव नहीं है? ऊपरी तौर पर चुनाव एकदम एकतरफा दिख रहा था पर अंदर ही अंदर राम नरेश यादव की फुसफुसाहट शोर में तब्दील हो रही थी और परिणाम आया तो वह हो चुका था जिसे अप्रत्याशित कहा जा सकता था। रमाकांत ने संसदीय चुनाव जीत लिया था पर पत्नी रंजना चुनाव हार गईं। राम नरेश यादव फूलपुर के नए विधायक बन गए।

1996 के बाद रमाकांत ने 1999 में भी आजमगढ़ लोकसभा चुनाव में समाजवादी परचम को बुलंद रखा। आजमगढ़ के एक नेता राम बहादुर यादव की हत्या हो जाने की वजह से मुलायम सिंह ने रमाकांत से दूरी बना ली। सपा से निकाले जाने के बाद रमाकांत ने 2002 में अपनी पत्नी को जदयू के टिकट से विधानसभा का चुनाव लड़ाया, जीतने के लिए हर दबंग कोशिश की। सपा प्रत्याशी रामकृष्ण यादव को तो इनके लोगों ने खुल कर प्रचार भी नहीं करने दिया बावजूद इसके रंजना यादव चुनाव हार गईं। रसूख पर आंच आती देखकर रमाकांत ने 2004 में एक बार फिर से हाथी की सवारी कर ली और तीसरी बार आजमगढ़ से बसपा के सांसद हुए।

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2007 में रमाकांत के भाई उमाकांत पर जमीन पर अवैध रूप से कब्जा करने का आरोप लगा। मायावती मुख्यमंत्री थीं और बसपा की सरकार थी इसलिए उमाकांत पर हाथ डालने की पुलिस हिम्मत नहीं कर पा रही थी। उमाकांत खुटहन जौनपुर से बसपा के टिकट पर विधायक थे। मायावती ने उमाकांत के साथ खेल कर दिया। मुख्यमंत्री ने अपने आवास पर मिलने के लिए उमाकांत को बुलाया और गिरफ्तार करवा दिया। इस दुस्साहसिक कदम से जहां मायावती की आम आदमी ने तारीफ की वहीं बसपा के गैर दलित नेताओं की नजर में मायावती अविश्वसनीय और धोखेबाज के रूप में देखी  जाने लगीं। उमाकांत की गिरफ़्तारी से रमाकांत आहत हो गए और हाथी के साथ आगे बढ़ने से इनकार कर दिया। मायावती और रमाकांत के बीच तल्खी बढ़ गई। यहाँ तक कि अमित शाह द्वारा 2014 लोकसभा चुनाव के दौरान आजमगढ़ को आतंकिस्तान की धरती कहे जाने पर  मायावती ने रमाकांत को सबसे बड़ा आतंकी भी कहने से गुरेज नहीं किया।

दरअसल, बसपा छोड़ने के बाद रमाकांत, योगी आदित्यनाथ के साथ अपने पुराने संबंधों की वजह से भाजपा में शामिल हो गए थे। रमाकांत का साथ मिला तो आजमगढ़ में 2009 के चुनाव में कमल खिल गया और चौथी बार रमाकांत भाजपा के सांसद के रूप में लोकसभा के सदस्य बन गए। 2014 में रमाकांत के घमंड को चकनाचूर करने के इरादे से समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव आजमगढ़ से चुनाव लड़ने आ गए थे। मुलायम सिंह इस खयाल से आए थे कि आजमगढ़ न्योछावर होने के भाव से उनके सामने खड़ा मिलेगा पर रमाकांत ने यहाँ मुलायम सिंह के लिए चक्रव्यूह की रचना कर रखी थी। मुलायम सिंह अप्रत्याशित रूप से इस चक्रव्यूह में उलझ गए थे। समाजवादी पार्टी के प्रदेश भर के नेताओं को आजमगढ़ में उतरना पड़ गया था। रमाकांत इस चुनाव में हार जरूर गए थे पर मुलायम सिंह को इस चुनाव को जीतने के लिए लोहे के चने चबाने पड़ गए थे।

2014 की हार ने रमाकांत के रसूख को तोड़ने का काम किया। वह पहले भी बसपा के अकबर अहमद डम्पी से हारे जरूर थे, पर इस बार की हार ने हनक तोड़ दी थी। इस टूट के बाद रमाकांत का सियासी गढ़ धीरे-धीरे बिखरने लगा। भाजपा के साथ भी उनकी पारी दशक भर भी नहीं चल पाई। गोरखपुर और फूलपुर (प्रयागराज) के उपचुनाव में भाजपा की हार का ठीकरा रमाकांत ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सिर फोड़ दिया था। कहा था कि ‘योगी पार्टी में सबको साथ ले के चलने में असफल हुए हैं वह सिर्फ स्वजातीय लोगों को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं।’ राजनाथ सिंह और पार्टी संगठन के खिलाफ भी रमाकांत लगातार बयानबाजी करते रहे। इस तरह की बयानबाजी से रमाकांत और भाजपा के बीच दूरियाँ बढ़ गईं और पार्टी ने अपने दरवाजे रमाकांत के लिए बंद कर लिए।

यह फोटो उस समय की है जब रमाकांत यादव ने कांग्रेस की सदस्यता ली थी

2018 में रमाकांत ने आखिरी विकल्प के रूप में कांग्रेस का दामन थामा। 2019 में भदोही से विधानसभा का चुनाव लड़ा पर भदोही में न इनके बाहुबल की हनक काम आई, ना ही पार्टी के जनाधार का कोई फायदा मिल सका। परिणाम यह हुआ कि रमाकांत बुरी तरह से पराजित हुए। अन्ततः रमाकांत ने अखिलेश यादव के सपा की शरण ली और 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा के टिकट पर चुनाव जीतने में सफल हुए।

इस बीच, रमाकांत का राजनीतिक रसूख ही नहीं बढ़ा, बल्कि अपराध का ग्राफ भी बढ़ता रहा। 1977 से शुरू हुआ आपराधिक सफर 2022 तक 48 के आस-पास मुकदमों की संख्या में उनके काले इतिहास का गवाह बना हुआ है। 2022 में माहुल की जहरीली शराब कांड में नाम आने के बाद रमाकांत की गिरफ़्तारी हो गई। इस शराब कांड में जहरीली शराब पीने से दर्जन भर से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी और पचासों लोग गंभीर रूप से प्रभावित हुए थे, कुछ लोगों की तो आँख की रोशनी चली गई।

इस केस में सुनवाई करते हुए इलाहाबाद कोर्ट के जज ने इस तरह के अपराधी के लोकसभा और विधानसभा पहुँचने को लेकर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘ऐसे माफियाओं का लोकसभा और विधानसभा में पहुँचना हमारे चुनावी सिस्टम की बड़ी खामी है। यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चुनावी ढांचे पर गंभीर सवालिया निशान लगाता है।’ रमाकांत पर दर्ज 48 मुकदमों में आठ मुकदमें हत्या से जुड़े हुए हैं और अन्य अपराधों के तौर पर अपहरण, दुष्कर्म, रंगदारी, जमीन कब्जा करने और धमकाने जैसे मामले दर्ज हैं। फिलहाल, अगस्त 2022 से जेल में हैं। उनकी जमानत अर्जी कोर्ट में खारिज हो चुकी है।

कुमार विजय गाँव के लोग डॉट कॉम के मुख्य संवाददाता हैं।

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