मामला इतिहास का है। असल में इतिहास को लेकर हम कभी भी निरपेक्ष नहीं रह सकते। जब मैं हम शब्द का उपयोग कर रहा हूं तो इसमें मैं स्वयं भी शामिल हूं। मैं भी निरपेक्ष नहीं हूं। लेकिन एक पत्रकार के रूप में कोशिश करता हूं कि वही लिखूं जो सत्य के करीब हो। पूर्णत: सत्य का दावा तो कोई नहीं कर सकता। दरअसल, आज मेरे पास तीन खबरें हैं। तीनों ही बेहद खास और मेरे सामने है इतिहास। मतलब यह कि भूत, वर्तमान और भविष्य के बीच का अंतर्द्वंद्व।
पहली खबर यह कि बीते 9 जनवरी को गूगल ने एक नया इतिहास रचने की कोशिश की। हुआ यह कि गूगल ने फातिमा शेख को केंद्र में रखकर डूडल बनाया तथा उन्हें सावित्रीबाई फुले के समान महान समाजसेविका बताया। मैंने भी फेसबुक पर गूगल के इस पहल की प्रशंसा की और अपनी टिप्पणी में लिखा कि भारत सरकार इसका अनुसरण करे। जब मैं टिप्पणी लिख रहा था तब मेरी जेहन में यह सवाल था कि आखिर फातिमा शेख की जयंती 9 जनवरी को है, इसका संदर्भ कहां है? इतिहास के किस पन्ने में इसका जिक्र है। मैंने फुले साहित्य को पढ़ा है, कहीं भी फातिमा शेख के जन्म के बारे में जिक्र नहीं है। अलबत्ता सावित्रीबाई फुले द्वार जोतीराव फुले को लिखा गया एक पत्र जरूर है जो कि मराठी में है और इस पत्र के एक वाक्य में फातिमा शेख का उल्लेख है कि ‘मेरे वहां नहीं रहने से फातिमा पर काम का दबाव बढ़ गया होगा।’ हालांकि इस एकमात्र टिप्पणी से यह तो स्पष्ट है कि फातिमा शेख सावित्रीबाई फुले के साथ थीं।
[bs-quote quote=”खैर, दूसरी खबर है सम्राट अशोक को लेकर। अभी हाल ही में दया प्रकाश सिन्हा, जिन्हें सम्राट अशोक के ऊपर नाटक के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। उन्होंने अपने नाटक और नाटक की भूमिका में अशोक को खलनायक करार दिया है। उन्होंने उसकी तुलना औरंगजेब से की है। इस आशय से संबंधित उनका एक साक्षात्कार एक अखबार में छापा गया है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
दरअसल, केवल हिंदू धर्म ही ऐसा धर्म रहा, जिसने महिलाओं को पढ़ने के अधिकार से वंचित किया। इस्लाम में महिलाओं को पढ़ने से कभी नहीं रोका गया। खासकर अशराफ मुसलमानों के घर की महिलाएं पढ़ती थीं। उन्हें पुरुष मौलवी भी पढ़ाते थे और महिला शिक्षिकाएं भी थीं। तो इसमें कोई नई बात नहीं थी। फातिमा शेख और उस्मान शेख की भूमिका हालांकि इससे कम नहीं हो जाती। उन्होंने सावित्रीबाई फुले और जोतीराव फुले को तब आसरा दिया था जब फुले दंपत्ति को उनके अपने लोगों ने घर से बाहर कर दिया था।
खैर, दूसरी खबर है सम्राट अशोक को लेकर। अभी हाल ही में दया प्रकाश सिन्हा, जिन्हें सम्राट अशोक के ऊपर नाटक के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। उन्होंने अपने नाटक और नाटक की भूमिका में अशोक को खलनायक करार दिया है। उन्होंने उसकी तुलना औरंगजेब से की है। इस आशय से संबंधित उनका एक साक्षात्कार एक अखबार में छापा गया है। अब हो यह रहा है कि हिंदी प्रदेश के कुशवाहा/मौर्य/कोईरी समाज के लोग आगबबूला हो रहे हैं। अमर शहीद जगदेव प्रसाद के पुत्र नागमणि कुशवाहा ने दया प्रकाश सिन्हा के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने की बात भी कही है।
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मैं सोच रहा हूं कि दया प्रकाश सिन्हा ने ऐसा क्या लिख दिया है, जिसके लिए उन्हें गालियां दी जा रही हैं। मैं तो प्रेमकुमार मणि का एक आलेख देख रहा रहा हूं। पियदसि लाजा मागधे : मगध का प्रियदर्शी राजा शीर्षक यह आलेख फारवर्ड प्रेस के वेब पर देखा जा सकता है। इसमें उन्होंने भी अशोक की तुलना औरंगजेब से की है। वे केवल यही नहीं रूकते हैं। वे तो अशोक की राजनीति व कार्यशैली पर भी सवाल उठाते हैं। वे अपने निष्कर्ष में लिखते हैं– ‘तथागत बुद्ध राज-परिवार में जन्मे और घर-बार छोड़ कर बौद्ध धर्म संघ की स्थापना की। अशोक ने न राज छोड़ा और न परिवार छोड़ा। एक ने संघ की स्थापना की और परिश्रमपूर्वक पैंतालीस वर्षों तक विचरण करते हुए अपने मत का प्रचार किया। उनकी मृत्यु से कोई दो सौ साल बाद एक राजा स्वयं परिव्राजक हो, अपने को धम्म प्रचार के लिए समर्पित कर देता है। उस ज़माने में, जब राजतंत्र में राजा का मतलब युद्ध और विलासिता हुआ करती थी उसने एक नयी कार्यसूची को अपने हाथ में लिया और उसे बहुत अंशों में पूरा भी कर दिया। उस पर प्रश्न उठने चाहिए और उठेंगे भी, लेकिन वह सचमुच इन अर्थों में महान है कि कोई भी इंसान पूरी तरह बदल सकता है, जैसे कि अशोक। लेकिन मैं फिर कहना चाहूंगा कि धर्म को लेकर एक राजा की वैसी व्याकुलता ठीक नहीं है। वह इतना धर्म-केंद्रित हो चुका था कि अपने राजनैतिक कर्तव्यों की उसने उपेक्षा की। उसका समय तो शांति का था या कम से कम लोगों को उसके पिछले क्रूर आचरण की जानकारी थी, जिसके दबदबे से उसके समय में और कुछ बाद तक सब कुछ ठीक ढंग से चलता रहा, लेकिन विदेशी शक्तियों की इस राजनैतिक शैथिल्य पर नजर थी। मगध का राजनैतिक दबदबा घटता चला गया। नतीजतन आगे के समय में विदेशी आक्रमण शुरू हो गए। मौर्यों की शांति नीति की प्रतिक्रिया में पुष्यमित्र शुंग ने जो किया वह एक और अतिवाद था।’
[bs-quote quote=”इतिहास को ऐसे ही तोड़ा-मरोड़ा जाता रहा है और यह कोई आज की बात नहीं है। मैं तो सुप्रीम कोर्ट में कल हुई सुनवाई के बारे में सोच रहा हूं। कितना साहस दिखाया है मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की खंडपीठ ने। पंजाब में पीएम की सुरक्षा मामले में तथाकथित चूक के संबंध में केंद्र और राज्य सरकार द्वारा गठित जांच समितियों को खंडपीठ ने भंग कर दिया और सरकार से साहस के साथ सवाल पूछे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
दरअसल, इतिहास को इतिहास के दृष्टिकोण से ही देखा जाना चाहिए। आज भी जर्मनी में हिटलर को एक क्रूर शासक के रूप में ही याद किया जाता है। लेकिन हमारे यहां का चलन थाेड़ा अलग है। हमारे यहां तो गुजरात दंगा, जिसमें ढाई हजार से अधिक लोगों की जान गयी, उसका एक आरोपी (अदालत ने संभवत: बरी कर दिया है) देश का शासक बन गया है। वह अपने आपको सबसे लोकप्रिय शासक लिखवाता है। कल होकर जब इतिहास लिखा जाएगा तो दोनों बातें लिखी जाएंगीं। गुजरात दंगे की दास्तान भी और उसके शासक के रूप में किए गए व किए जा रहे कामों का उल्लेख भी होगा। यह भी लिखा जाएगा कि कैसे सुप्रीम कोर्ट तक को इस शासक ने प्रभावित किया।
मैं तो अपनी बात कहता हूं। मेरे गृह प्रदेश की राजधानी पटना में अगमकुआं है। वैसे मेरे शहर में दो-तीन ऐतिहसिक कुएं और हैं। एक तो कदमकुआं और एक चुनौटीकुआं। चुनौटीकुआं तो मेरे प्रखंड मुख्यालय फुलवारी में ही है। पता नहीं अब यह कुआं साबूत है या नहीं। वजह यह कि पिछले एक दशक से मैं इस कुएं के पास नहीं गया। यह कुआं भी ऐतिहासिक है। कहा जाता है कि इसका निर्माण भी अशोक ने कराया था। अगमकुआं का निर्माण अशोक से पहले संभवत: उसके पिता बिंदुसार ने कराया। कहा जाता है कि इसी अगमकुआं में अशोक ने अपने भाई सुसीम जो कि पाटलिपुत्र का शासक था, का सिर काटकर फेंक दिया था। अब एक दूसरा पक्ष भी सुनिए। इसी कुएं के निकट शीतला मंदिर भी है। मेरे हिसाब से यहां एक बौद्ध मठ रहा होगा, यह बात मैं दावे के साथ कह सकता हूं क्योंकि यहां के गर्भ गृह में जो देवी की प्रतिमा बतायी जाती है, वह ध्यानमग्न बुद्ध जैसी दिखती है। हालांकि यह सच सामने ना आए, इसलिए ब्राह्मणगण इस प्रतिमा को लाल चुनरी आदि से ढंककर रखते हैं, जिसे वे देवी का श्रृंगार भी कहते हैं।
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तो इतिहास को ऐसे ही तोड़ा-मरोड़ा जाता रहा है और यह कोई आज की बात नहीं है। मैं तो सुप्रीम कोर्ट में कल हुई सुनवाई के बारे में सोच रहा हूं। कितना साहस दिखाया है मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की खंडपीठ ने। पंजाब में पीएम की सुरक्षा मामले में तथाकथित चूक के संबंध में केंद्र और राज्य सरकार द्वारा गठित जांच समितियों को खंडपीठ ने भंग कर दिया और सरकार से साहस के साथ सवाल पूछे। अब सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि वह स्वयं एक जांच समिति का गठन करेगी और इसकी अध्यक्षता एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश करेंगे। इसके अन्य सदस्य कौन होंगे, इसका खुलासा अभी अदालत ने नहीं किया है।
अब जाहिर तौर पर यह सब इतिहास का हिस्सा ही है। कल की पीढ़ी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जुड़े इन पहलुओं के बारे में भी जानेगी। अब कोई इसे झुठलाएगा और भ्रम फैलाएगा तो उसे इतिहासकार तो नहीं ही कहा जाएगा। उसके लिए भांट शब्द ही बेहतर होगा। वैसे इस समय भांटों की कोई कमी नहीं है। शायद पहले भी नहीं थी और और भविष्य में भी नहीं होगी। इतिहास लिखने के लिए प्रेमकुमार मणि जैसा हौसला और विषय की पूरी जानकारी अवश्य होनी चाहिए।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
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