Thursday, March 28, 2024
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आरक्षण ओबीसी का अधिकार है, भीख नहीं डायरी (5 अगस्त, 2021) 

ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग। इन दिनों यह वर्ग राजनीति और खबरों के केंद्र में है। नरेंद्र मोदी सरकार इन दिनों ताबड़तोड़ फैसले कर रही है। ये फैसले बहुत खास हैं। हालांकि ये फैसले बहुत पहले हो जाने चाहिए थे, लेकिन सियासत में सबकुछ इतना आसान कहां होता है। यह तो मांग आधारित सिस्टम है। […]

ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग। इन दिनों यह वर्ग राजनीति और खबरों के केंद्र में है। नरेंद्र मोदी सरकार इन दिनों ताबड़तोड़ फैसले कर रही है। ये फैसले बहुत खास हैं। हालांकि ये फैसले बहुत पहले हो जाने चाहिए थे, लेकिन सियासत में सबकुछ इतना आसान कहां होता है। यह तो मांग आधारित सिस्टम है। जो समाज मांग करेगा और संघर्ष करेगा, उसे उतना ही अधिकार मिलेगा। यही परिपाटी रही है। इसका एक उदाहरण ओबीसी है।
जब देश आजाद हुआ था तब इस देश को “ओबीसी” शब्द जवाहरलाल नेहरू ने दिया था। इस संबंध में क्रिस्टोफ जैफरलोट ने अपने एक आलेख में इसका उल्लेख किया है कि पिछड़ों को सबसे पहले मद्रास प्रेसीडेंसी में 1870 में बैकवर्ड क्लासेज में शामिल किया गया। इसमें अछूत भी शामिल थे। परंतु 1925 बैकवर्ड क्लासेज से गैर अछूतों को अलग कर एक पृथक वर्ग बना दिया गया। वहीं 13 दिसंबर, 1946 को भारतीय संविधान सभा के उद्घाटन संबोधन में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अन्य पिछड़ा वर्ग की बात कही। हालांकि उनका प्रयास जातियों को वर्ग के रूप में प्रस्तुत करना था। संविधान सभा ने अनुच्छेद 340 में एक यह प्रावधान किया कि “सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े” लोगों की पहचान के लिए राष्ट्रपति एक आयोग का गठन करने के अधिकारी होंगे ताकि उनकी स्थिति में सुधार हो। इसके आलोक में 1953 में पिछड़ा वर्ग आयोग बनाया गया, जिसके अध्यक्ष काका कालेलकर रहे। परंतु उनकी अनुशंसाएं तब ठंडे बस्ते में डाल दी गयीं। तदुपरांत 1977 में तत्कालीन मोरारजी देसाई सरकार ने दूसरी बार पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया, जिसके अध्यक्ष बी.पी. मंडल बनाए गए। वर्ष 1990 में वीपी सिंह ने इस आयोग की अनुशंसाओं में से कुछ को लागू किया, जिसके कारण पहले सरकारी सेवाओं में 27 फीसदी आरक्षण और बाद में 2006 में उच्च शिक्षण संस्थाओं में दाखिले में 27 फीसदी आरक्षण का अधिकार ओबीसी को मिला।
अब इस पूरे मामले में समझने की बात यह है कि ओबीसी को उसका अधिकार मिलने में 40 साल से अधिक समय क्यों लगा? कई बार आरएसएस की मानसिकता वाले लोग (पिछड़े वर्ग के लोग भी) इसके लिए डॉ. आंबेडकर को कसूरवार ठहराते हैं। वे डॉ. आंबेडकर के प्रति कृतज्ञ ही नहीं होते कि जब देश में ओबीसी के सबसे बड़े नेता सरदार वल्लभभाई पटेल आरक्षण के पक्ष में नहीं थे, तब उन्होंने अनुच्छेद 340 में ओबीसी को आरक्ष्ण मिले, इसके लिए संविधान में प्रावधान कर दिया था। वहीं अनुच्छेद 341 में उन्होंने अनुसूचित जाति और अनुच्छेद 342 में अनुसूचित जनजाति के लिए प्रावधान किया। चूंकि इन दोनों वर्गों के दो बड़े नेता (एक तो स्वयं आंबेडकर और दूसरे जयपाल सिंह मुंडा) संविधान सभा में पुख्ता तरीके से अपने-अपने वर्गों की बात रख रहे थे, इसलिए दोनों को क्रमश: पन्द्रह फीसदी और साढ़े सात फीसदी आरक्षण तय कर दिया गया। यहां तक कि उन्हें विधायिका में भी आरक्षण मिला।

[bs-quote quote=”1977 में तत्कालीन मोरारजी देसाई सरकार ने दूसरी बार पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया, जिसके अध्यक्ष बी.पी. मंडल बनाए गए। वर्ष 1990 में वीपी सिंह ने इस आयोग की अनुशंसाओं में से कुछ को लागू किया, जिसके कारण पहले सरकारी सेवाओं में 27 फीसदी आरक्षण और बाद में 2006 में उच्च शिक्षण संस्थाओं में दाखिले में 27 फीसदी आरक्षण का अधिकार ओबीसी को मिला।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

मूल बात यह है कि लोकतांत्रिक राजनीति में डिमांड का महत्व होता है। अब मुझे लगता है कि 1990 के बाद देश का ओबीसी डिमांड करने लगा है। वह हस्तक्षेप कर रहा है। यह इसके बावजूद कि आरएसएस ने उन्हें अपनी पालकी ढोने के लिए बाध्य कर दिया है। लेकिन यह तो होता ही है। सियासत की प्रकृति ही ऐसी रही है।
कल नरेंद्र मोदी सरकार ने एक और बड़ा फैसला किया है। सरकार एक और संविधान संशोधन विधेयक लाने जा रही है। इस फैसले के बाद ओबीसी में जातियों के निर्धारण का अधिकार राज्यों के पास होगा।
दरअसल, बीते 5 मई, 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी नौकरियों और दाखिले में मराठा समुदाय को आरक्षण देने संबंधी महाराष्ट्र के कानून को असंवैधानिक करार देते हुए खारिज कर दिया था। यह फैसला जस्टिस अशोक भूषण की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सुनाया था। पीठ में जस्टिस एल. नागेश्वर राव, जस्टिस एस. अब्दुल नजीर, जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस रविंद्र भट्ट शामिल थे।
सुप्रीम कोर्ट की पीठ के समक्ष जो सवाल थे उनमें एक यह था कि इंद्रा साहनी बनाम भारत सरकार (1992) के संदर्भ में दिए गए फैसले की पुनर्समीक्षा हेतु बड़े पीठ को भेजा जाय अथवा नहीं? इसके अलावा महराष्ट्र सरकार द्वारा मराठाओं को 50 फीसदी आरक्षण की सीमा को लांघते हुए 12 व 13 प्रतिशत आरक्षण दिया जाना वैध है अथवा नहीं? क्या महाराष्ट्र सरकार द्वारा गठित एम.सी. गायकवाड़ कमेटी की रिपोर्ट में वर्णित तथ्य सही हैं और क्या इसके आधार पर मराठाओं को आरक्षण दिया जा सकता है जैसा कि विशेष परिस्थिति होने पर करने का प्रावधान इंद्रा साहनी मामले में तय है? वहीं एक सवाल 102वें संविधान संशोधन से संबंधित था जिसका संबंध राज्यों द्वारा किसी भी जाति/समुदाय को शैक्षणिक व सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों में शामिल करने का अधिकार से है। सवाल यह था कि क्या जातियों का वर्गीकरण करने का अधिकार राज्यों से ले लिए जाएंगे और इससे संघीय व्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा?

[bs-quote quote=”ओबीसी को उसका अधिकार मिलने में 40 साल से अधिक समय क्यों लगा? कई बार आरएसएस की मानसिकता वाले लोग (पिछड़े वर्ग के लोग भी) इसके लिए डॉ. आंबेडकर को कसूरवार ठहराते हैं। वे डॉ. आंबेडकर के प्रति कृतज्ञ ही नहीं होते कि जब देश में ओबीसी के सबसे बड़े नेता सरदार वल्लभभाई पटेल आरक्षण के पक्ष में नहीं थे, तब उन्होंने अनुच्छेद 340 में ओबीसी को आरक्ष्ण मिले, इसके लिए संविधान में प्रावधान कर दिया था। वहीं अनुच्छेद 341 में उन्होंने अनुसूचित जाति और अनुच्छेद 342 में अनुसूचित जनजाति के लिए प्रावधान किया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

इस संबंध में 102वें संविधान संशोधन के संबंध में जस्टिस राव, जस्टिस गुप्ता और जस्टिस भट्ट इस बात पर सहमत थे कि इस संशोधन के बाद राज्यों से पिछड़े वर्गों की पहचान करने का अधिकार खत्म हो गया है। संसद की सहमति के बाद केवल राष्ट्रपति की अधिसूचना से ही सूचियों में बदलाव संभव है। इसमें राज्य केवल अनुशंसा कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से ओबीसी की नई सूची बनाने को भी कहा और साथ में यह भी कि जब तक नई सूची नहीं बन जाती है, तब तक पहले की सूची मान्य रहेगी। तीनों न्यायाधीशों ने कहा कि यह संशोधन संविधान के मूल स्वरूप के खिलाफ नहीं है।
निश्चित तौर पर नया संशोधन विधेयक इस धुंध को दूर करेगा। राज्यों को अधिकार दिए जाने से इस पूरी प्रक्रिया में गति आएगी। इसके लिए निस्संदेह नरेंद्र मोदी सरकार बधाई की पात्र है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इसके पीछे आरएसएस की अपनी सियासत है। चूंकि उत्तर प्रदेश में चुनाव है और भाजपा के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती ओबीसी का वोट हासिल करना है, इसलिए वह ओबीसी के उपर इतनी मेहरबान भी है। लेकिन यह मेहरबानी नहीं है। ओबीसी डिमांड कर रहा है अपने हक-हुकूक को लेकर और वह कोई भीख नहीं मांग रहा।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं
गाँव के लोग
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2 COMMENTS

  1. डॉक्टर अम्बेडकर और जयपाल सिंह मुंडा कपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करके आरक्षण ले लिए किंतु ओबीसी के सबसे बड़े नेता सरकार पटेल आरक्षण के विरोध में रहें। महत्वपूर्ण जानकारी दिए खप। शायद इसीलिए आरक्षण लागू होने में इतनी देर हुई।

    आरक्षण का अधिकार राज्यों को दे दिया जाय, महत्वपूर्ण विधेयक हो सकता है किंतु केंद्र सरकार की तरफ से दिए जा रहे नौकरियों का फैसला कौन करेगा? उसमें गड़बडिय़ों की सम्भावना हो सकती है।

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