आरएसएस का नया नॅरेटिव  (डायरी 27 अप्रैल, 2022)

नवल किशोर कुमार

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सियासत कोई ऐसा पेशा नहीं है, जिसे ना किया जाय। यह बात इसके बावजूद कि सियासत से सत्ता में हिस्सेदारी मिलती है और बाजदफा सत्ता हासिल करनेवाला आदमी निरंकुश हो जाता है। उसकी निरंकुशता से देश और समाज को नुकसान पहुंचता है। कई बार तो यह नुकसान इतना बड़ा होता है कि पीढ़ियों को इसकी सजा भुगतनी होती है। लेकिन यह इसका एक पक्ष है। दूसरा पक्ष वह है जिसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण डॉ. आंबेडकर हैं। उन्होंने भी सियासत की। उनकी सियासत का मकसद भी सत्ता में हिस्सेदारी हासिल करना था। लेकिन एक अंतर है यदि हम गांधी की सियासत और डॉ. आंबेडकर की सियासत पर मनन करें। दोनों के बीच एक समानता भी रही। दोनों खुद से अधिक अपने-अपने वर्गों के हितों की राजनीति कर रहे थे। गांधी जिस वर्ग के लिए सियासत कर रहे थे, वह देश के सवर्ण और बनिये थे। जबकि डॉ. आंबेडकर की राजनीति के केंद्र में भले ही केवल अछूत थे, लेकिन उसकी परिधि में तमाम वंचित समुदायों के लोग शामिल थे।

दोनों के बीच एक और समानता रही। यह समानता थी– नॅरेटिव गढ़ने की। दोनों सफल भी रहे और असफल भी। इसे मैं संयोग की संज्ञा नहीं देता। वजह यह कि सियासत एक प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया जितनी अधिक देर तक जारी रहेगी, उसका वर्चस्व बना रहेगा। एक उदाहरण यह कि गांधी के बाद भी सवर्ण और बनियों का वर्चस्व बना रहा है और दूसरी ओर डॉ. आंबेडकर के निधन के बाद वंचितों की सियासत कमजोर पड़ी। और अब तो हालत यह है कि वंचितों की राजनीति अलग-अलग खेमों में बंटी है। सब अपने-अपने खेमे के राजा हैं।

आरएसएस का एक नया नॅरेटिव 2012 के बाद से मैं देख रहा हूं। हालांकि यह नॅरेटिव अब कारगर साबित हो रहा है। आरएसएस ने इस देश के मुसलमानों काे कटघरे में खड़ा दिया है। आरएसएस उन्हें ‘दंगाई’ के रूप में स्थापित करने में जुटा है। जबकि हकीकत यह है कि आज इस देश में सबसे बड़े दंगाई वे हैं जो हाथों में तलवार और अन्य हथियार लेकर सड़कों पर ऐसे उतरते हैं जैसे कपोल कल्पित राम की सेना के सैनिक हैं।

असल में आज जिस विषय के बारे में मैं सोच रहा हूं, वह है नॅरेटिव। नॅरेटिव को हिंदी कहूं तो नजरिया। नजरिया बनाना बहुत आवश्यक है। ठीक वैसे ही जैसे डॉ. आंबेडकर ने अपने समय में एक नॅरेटिव गढ़ा था कि ब्राह्मण वर्ग कभी भी वंचितों के हितैषी नहीं हो सकते। हालांकि मुझे ‘गढ़ने’ शब्द के बदले ‘स्थापित’ शब्द का उपयोग करना चाहिए। वजह यह कि यह उस नॅरेटिव के समानांतर था जो ब्राह्मण वर्गों ने सदियों से स्थापित कर रखा था और इसके लिए गीता का सार यह बताया कि मनुष्य को कर्म करना चाहिए तथा फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। ब्राह्मण वर्गों ने यह स्थापित कर रखा था कि कोई ईश्वर है जो हर किये गए कर्म का फल देता है। इसका परिणाम यह हुआ था कि ब्राह्मणों ने अपने लिए शूद्र वर्ण बनाया और उन्हें अपनी सेवा करने के लिए बाध्य कर दिया। यह धर्म आधारित गुलामी प्रथा ही थी।

गांधी ने भी अपने लिए एक नॅरेटिव बनाया था और यह था समरसता का। मतलब यह कि बाघ और बकरी एक ही घाट पर पानी पीयें। उनकी नजर में मुट्ठी भर सवर्ण और बनिये बाघ थे तथा 85 फीसदी बकरियां। अपने नॅरेटिव को गढ़ने के लिए डॉ. आंबेडकर के समानांतर ही गांधी ने मंदिर प्रवेश आंदोलन चलाया। वे यह साबित करना चाहते थे कि सारे शूद्र हिंदू हैं और आंबेडकर शूद्रों को गैर-हिंदू साबित करना चाहते थे।

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यह तो अतीत की बात हुई। वर्तमान की बात करें तो हम पाते हैं कि गांधी की विरासत को आरएसएस ने अच्छे तरीके से आगे बढ़ाया है। मोहन भागवत अपने इस मिशन में सफल हो रहे हैं। मुझे यह बात कहनी ही चाहिए क्योंकि मैं जो देख पा रहा हूं, उसे यदि दर्ज ना करूं तो मेरी डायरी के पन्नों का कोई मोल नहीं है। तो मैं तो आज यह देख रहा हूं कि आरएसएस ने ओबीसी को हिंदू साबित कर दिया है और शायद ही कोई ओबीसी (मुस्लिम ओबीसी को छोड़कर) हो जो खुद को हिंदू नहीं मानता है। आरएसएस ने दलितों का भी हिंदूकरण कर दिया है। यह बात बेहद कड़वी है उनके लिए जो आंबेडकरवाद को केवल एक फैशनेबुल आइडियोलॉजी की तरह लेते हैं। सच यही है कि आज दलित भी खुद को ब्राह्मण बना देना चाहते हैं। उनकी नजर में ब्राह्मण अधिक महत्वपूर्ण है। यहां तक कि दलित वर्ग के एक जाति के लोगों को दलित वर्ग के दूसरी जाति के लोग ही पराये लगते हैं। उनके लिए ब्राह्मण अधिक महत्वपूर्ण होता है। आदिवासियों के हिंदूकरण के मामले में भी आरएसएस को खासी सफलता मिली है।

यदि हम गांधी की सियासत और डॉ. आंबेडकर की सियासत पर मनन करें। दोनों के बीच एक समानता भी रही। दोनों खुद से अधिक अपने-अपने वर्गों के हितों की राजनीति कर रहे थे। गांधी जिस वर्ग के लिए सियासत कर रहे थे, वह देश के सवर्ण और बनिये थे। जबकि डॉ. आंबेडकर की राजनीति के केंद्र में भले ही केवल अछूत थे, लेकिन उसकी परिधि में तमाम वंचित समुदायों के लोग शामिल थे।

तो यह सब नैरेटिव के जरिए ही हुआ है। आरएसएस का एक नया नॅरेटिव 2012 के बाद से मैं देख रहा हूं। हालांकि यह नॅरेटिव अब कारगर साबित हो रहा है। आरएसएस ने इस देश के मुसलमानों काे कटघरे में खड़ा दिया है। आरएसएस उन्हें ‘दंगाई’ के रूप में स्थापित करने में जुटा है। जबकि हकीकत यह है कि आज इस देश में सबसे बड़े दंगाई वे हैं जो हाथों में तलवार और अन्य हथियार लेकर सड़कों पर ऐसे उतरते हैं जैसे कपोल कल्पित राम की सेना के सैनिक हैं। कमाल की बात यह कि इनमें अधिकांश दलित, ओबीसी और आदिवासी हैं तथा इनका नेतृत्व सवर्णों के हाथों में है। वे उनके कहे को मानते हैं। मैं उन्हें बंदर की संज्ञा नहीं देना चाहता। वजह यह कि बंदर इस धरती के खूबसूरत प्राणियों में से एक हैं।

मैं सोच रहा हूं कि आखिर क्या वजह रही कि इक्कीसवीं सदी में आरएसएस को अपना नॅरेटिव गढ़ने में सफलता मिली? मैं यह सोच भी इसलिए रहा हूं क्योंकि ब्राह्मण वर्ग 1857 के समय से ही यह साबित करने में जुटा रहा। इसके लिए इस वर्ग ने अंग्रेजों की चरण वंदनाएं भी की। वे यह तो मान चुके थे कि इस देश में जितने मुसलमान हैं, सभी को गोलियां नहीं मारी जा सकती हैं या फिर सभी को मुल्क-बदर नहीं किया जा सकता है। लेकिन उन्हें अपना राज चाहिए था तो हिंदू और मुसलमान का नॅरेटिव बनाना शुरू किया। नतीजा हमाने सामने है। पाकिस्तान और हिंदुस्तान के रूप में देश का बंटवारा हुआ तथा हिंदुस्तान में सत्ता ब्राह्मण वर्गों को मिली।

आज ‘दंगाई’ नामक एक नया नॅरेटिव रंग दिखा रहा है। खुलेआम गुंडागर्दी करनेवाले देशभक्त है और जो पीड़ित हैं, वे दंगाई कहे जा रहे हैं।

खैर, वापस इक्कीसवीं सदी की बात करता हूं। मुझे एक घटना याद आ रही है। 11 सितंबर, 2011 को अमेरिका में आतंकियाें ने हमला किया था। हमला हवाई जहाज के जरिए किया गया था और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को इसका निशाना बनाया गया था। इस हमले के बाद अमेरिका ने मुसलमानों के खिलाफ पूरे विश्व में माहौल बनाया। भारत अमेरिका का मिट्ठू रहा है। उसने भी यही किया। इस नॅरेटिव के सफल होने में मुसलमानों की भूमिका भी कोई कम नहीं थी। वर्ष 2010 में शाहरूख खान एक फिल्म में नजर आए। फिल्म का नाम था– ‘माई नेम इज खान’। इस फिल्म में वे सफाई देते हैं कि भले ही उनका नाम खान है, लेकिन वे आतंकवादी नहीं हैं।

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तो मूल बात यही है कि आज ‘दंगाई’ नामक एक नया नॅरेटिव रंग दिखा रहा है। खुलेआम गुंडागर्दी करनेवाले देशभक्त है और जो पीड़ित हैं, वे दंगाई कहे जा रहे हैं।

बहरहाल, मैं तो इश्क का आदमी हूं। नामुमकिन जैसे शब्दों से परहेज करता हूं। आज हिंदू और मुसलमानों के बीच फासले बढ़े हैं। लेकिन मैं नाउम्मीद नहीं।

फासले का होना

गुरुत्व के नियमों का उल्लंघन नहीं 

और यदि हो भी तो

क्यों चिंतित हों पहाड़

और कल-कल बहती नदियां?

बादल भी जानते हैं

फासले के दुनियावी कायदे

और देखो तो

कहां हार मानते हैं

हमारी तरह?

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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