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मणिपुर : लगातार उलझती जा रही समस्या का कब निकलेगा समाधान

मैतई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने के विरोध में पिछले डेढ़ वर्षों से लगातार आदिवासी समूहों में संघर्ष चल रहा है, जिसमें सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी आज तक मणिपुर नहीं गए, न ही समस्या के हल के लिए कभी कोई चर्चा ही की। इस प्रदेश में नागा एवं कुकी मैतेई द्वारा अनुसूचित जनजाति के दर्जे की मांग के खिलाफ हैं। मैतेई एवं नागा कुकी के अलग प्रशासन की मांग के खिलाफ हैं। मैतेई वृहत्तर नागालिम की मांग के खिलाफ हैं। सवाल उठता है कि कैसे और कब इस समस्या का कोई हल निकलेगा। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की नीतियों में गरीब कहाँ हैं?

भाजपा की मातृ संस्था आरएसएस देश की राजनीति की रणनीति तैयार करती है। उसकी रणनीति में पिछड़े-दलित का वोट लेना शामिल होता है लेकिन कल्याणकारी नीतियों में पूरी  तरीके से उपेक्षित कर दिए जाते हैं। कहने का मतलब है कि भाजपा के समर्थकों में सवर्णों के साथ भले ही पिछड़ी जातियों का एक बड़ा हिस्सा शामिल है लेकिन भाजपा की नीतियों में उनके लिए कोई स्थान नहीं है। जातिवाद की राजनीति करने में सबसे आगे हैं, चाहे वह नौकरी में आरक्षण का मामला हो या राजनैतिक मामला हो या शिक्षा का मामला हो, हर जगह उनके लिए आगे बढ़ने के रास्ते बंद कर दिए गए हैं।

आरजी कर मामले में सरकार की दबाव नीति जेंडर बायस का घिनौना रूप दिखाती है

अतीत में बंगाल एक मजबूत सामाजिक चेतना के लिए जाना जाता था, जहां आम लोग सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए हस्तक्षेप करते थे। हालांकि आज भी यह चेतना बनी हुई है, लेकिन लोग ऐसे गुंडों को मिलने वाले राजनीतिक संरक्षण के कारण हस्तक्षेप करने से डरने लगे हैं। आज बंगाल में ऐसे आवश्यक सामाजिक हस्तक्षेपों को समर्थन मिलने के बजाय उनके खिलाफ हिंसा होने की आशंका अधिक होती है।

भागलपुर से बहराइच तक : दंगों की राजनीति में आरएसएस पिछड़ी जाति के लोगों को कमान सौंपता है

वर्ष 1947  में भारत-पाक विभाजन के बाद से देश में मुसलमानों को लेकर हिंदूवादी संगठनों ने लगातार कट्टरता दिखाई। जब-जब मौक़ा मिला, तब-तब निशाना बनाया। इन दंगों को कराने में साम्प्रदायिक नेताओं, प्रशासन और सोशल मीडिया की अहम् भूमिका  होती है। ध्रुवीकरण की राजनीति को साधने के लिए धार्मिक दंगे कराये जाते रहे हैं और आगे कब तक जारी रहेंगे कह नहीं सकते। खैरलांजी से लेकर भागलपुर, गुजरात तक के दंगों में, प्रत्यक्ष भागीदारी ज्यादातर पिछड़ी जातियों के लोगों की रही है। जब तक जाति उन्मूलन के लिए काम करने वाले लोग इस पर संज्ञान नहीं लेंगे, दंगों की परंपरा जारी रहेगी।

जम्मू-कश्मीर के जनादेश की दिशा क्या राज्य में विकास, शान्ति और सुरक्षा की पहल करेगी

जम्मू-कश्मीर में 10 वर्ष बाद विधानसभा चुनाव हुए। वर्ष 2019 में धारा 370 और 35 a हटाने के बाद विशेष राज्य का दर्जा भी खत्म कर दिया गया था। राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह से बदल चुका है। भारतीय जनता पार्टी न केवल नई दिल्ली में सत्ताधारी पार्टी है बल्कि यह देश में सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत है। आज़ जब एक बार फिर, 5 सालों की पीड़ादायक चुप्पी के बाद, जम्मू-कश्मीर की जनता ने चुनाव के जरिए अपनी लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को व्यक्त करने का रास्ता चुना है। वे चाहते हैं कि उन्हें अधिकतम स्वायत्तता के साथ विशेष राज्य का दर्जा मिले, काले कानूनों व सैन्य निगरानी से मुक्ति मिले क्योंकि यह सारी मांगें बेहद लोकतांत्रिक व सांविधानिक हैं।

गाय के बहाने फिर से आस्था की दुकानदारी की तैयारी

गौ हत्या और बीफ खाने पर प्रतिबन्ध पर आरएसएस बरसों से राजनीति कर रही है लेकिन उस इतिहास को अनदेखा कर रही है जो लिखित में गाय मांस को सेवन को लेकर दर्ज है। वह ऐसा प्रतिबन्ध थोप रही है, जैसे गाय पर उसने बैनामा करवा लिया हो, इसके चलते अनेक मुस्लिमों के साथ मोबलिंचिंग कर उस समुदाय को भयभीत किया गया। गाय एक दुधारू पशु से ज्यादा कुछ नहीं है। महाराष्ट्र में आने वाले दिनों में यहाँ विधानसभा चुनाव के चलते धुवीकरण की राजनीति के चलते ही देशी गाय को ही राज्य माता का दर्जा दिया गया।

लव जिहाद : कट्टरपंथी राजनीति के दौर में न्याय प्रणाली पर खड़े होते सवाल

हिन्दुत्ववादी संगठन, किसी न किसी बहाने मुसलमानों को टार्गेट करता ही रहता है, चाहे वह लव जिहाद के नाम पर हो, धर्म के नाम पर हो या गौ रक्षा के नाम पर। जब ऐसी कोई घटना होती है, उसमें मुसलमानों को खोजा जाता है, जैसे देश में सबसे बड़े अपराधी मुसलमान हैं। इस तरह की घटना वर्ष 2014 के बाद बहुत ज्यादा बढ़ गईं हैं। इसमें देश की कार्यपालिका, विधायिका के साथ न्यायपालिका भी शामिल है। जब न्यायपालिका भी इस तरह के अंजाम को बढ़ावा दे रही हो, तब इसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा होना वाजिब है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सौ साल : सांप्रदायिकता के एजेंडे से भारतीय सामाजिकता को बांटने का हासिल

राष्ट्रीय सेवक संघ अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है। हिन्दू राष्ट्र के अपने झूठे संकल्प को पूरा करने के लिए संघ हिन्दू-मुस्लिम का खेल लगातार खेल रहा है। वर्ष 2002 में गुजरात में प्रायोजित गोधरा दंगों के बाद भाजपा ज्यादा मजबूती से ध्रुवीकरण करने में सफल रही है। लगातार अल्पसंख्यक समुदायों, किसानों, आदिवासियों और महिलाओं पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष हमले करवाकर उन्हें भयभीत कर रही है। बोलने वालों को जेल और अपने साथ खड़े होने वालों को ऊंचा पद दे सम्मानित कर रही है। 'सबका साथ सबका विकास' की जगह ' सबका साथ अपना विकास' का नारा मजबूत हो रहा है। संघ और भाजपा ने इन सौ वर्षों में और क्या कुछ किया, इसके आकलन के लिए पढ़िए  डॉ सुरेश खैरनार का विश्लेषणपरक लेख।

जाति जनगणना कर हाशिये का नेतृत्व तैयार करना कांग्रेस की पहली जरूरत होनी चाहिए

राहुल गांधी के सामाजिक न्याय के बड़े दावों के बावजूद, हरियाणा में दलितों तक पहुंचने के लिए कोई सामूहिक प्रयास नहीं किया गया। ऐन वक्त पर अशोक तंवर की एंट्री पार्टी में दलित वोट वापस नहीं ला सकी और वजह साफ है। कांग्रेस को समझना होगा कि राजनीतिक दल सामाजिक न्याय का आंदोलन नहीं हैं। एक आंदोलन एक विशेष एजेंडे पर एक वर्ग को लक्षित करके चल सकता है लेकिन राजनीति को समावेशी होना चाहिए और सभी समुदायों के साथ जुड़ाव सुनिश्चित करना चाहिए।

हरियाणा चुनाव : जमीनी तैयारी के अभाव में कांग्रेस की हार

अठारहवीं लोकसभा में कांग्रेस ने जिस तरह प्रदर्शन किया था, उसे देखकर लगा था कि हरियाणा चुनाव में भी कोई बदलाव होगा। यहाँ तक कि सारे एग्जिट पोल भी कांग्रेस को 60 सीट जीतने की बात कहते रहे, वहीँ भाजपा को 20 से 28 सीट तक ही सीमित कर दिया था। लेकिन चुनावी नतीजे आने के बाद परिदृश्य पूरी तरह बदल गया। ऐसा क्यों हुआ? इस पर पढ़िए मनीष शर्मा की विश्लेष्णात्मक रिपोर्ट

आखिर क्यों नहीं बन पा रही है दलित-पिछड़ों में राजनीतिक एकता

भारतीय समाज का ताना-बाना ही ऐसा बना हुआ है कि जातिवाद से मुक्ति दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। हाँ, राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में वोट की राजनीति के लिए राजनैतिक दल और नेता भले ही इसे हटाने की बात करें लेकिन जमीनी स्तर पर इसमें कोई भी बदलाव नहीं हुआ है। दो पक्षीय व्यवहार खुलकर किया जाता रहा है और यही वजह है कि ओबीसी, एससी और एसटी का  शोषित हो लगातार प्रताड़ित हो रहे हैं। 

क्या धर्मनिरपेक्षता पश्चिम का थोपा हुआ विचार है?

भारत में हिन्दू धर्म के बारे में कहा जाता है कि वह पारंपरिक अर्थ में धर्म नहीं है। यह केवल लोगों को भ्रमित करने का तरीका है। जो लोग धर्म का रक्षक होने का दावा करते हैं वे दरअसल जाति और लिंग पर आधारित प्राचीन ऊंच-नीच को बनाए रखना चाहते है। ये ताकतें प्रजातंत्र के आगाज़ से पहले की दुनिया वापस लाना चाहती हैं। वे नहीं चाहतीं कि हर व्यक्ति का एक वोट हो। वे चाहतीं हैं कि राजा को ईश्वर से जोड़ा जाए और पुरोहित वर्ग उसे सहारा दे। 

छत्तीसगढ़ में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ घृणा : खतरनाक रूप ले रहे हैं संघ-भाजपा के कारनामे

भाजपा की नीतियों को ही सरकार की नीतियों के रूप में दिमाग में बैठाने की कोशिशों का नतीजा यह है कि पुलिस और प्रशासन के विभिन्न हलकों में भाजपा की नीतियों का अंधानुकरण करने और पार्टी नेताओं तथा हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं की इच्छानुसार काम करने की प्रवृत्ति पैदा हुई है। बिलासपुर की घटना में पुलिस और सरकार का रूख यही बताता है कि संविधान के मूल्यों और उसकी भावना को खत्म करने और अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने के लिए कानून को तोड़ने-मरोड़ने का काम ऊंचे स्तर से ही जोर-शोर से जारी है।

क्या राहुल गांधी ने खुद को मजबूत कर भाजपा के सामने खड़ी की चुनौती

राहुल गांधी को राजनीति विरासत में मिली, जिसके चलते उन्हें तुरंत ही सबके प्रिय और बड़े नेता बन जाना था लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अपने को साबित करने के लिए उन्होंने खुद को पूरी तरह झोंक दिया। 2014 के बाद भाजपा ने गोदी मीडिया के माध्यम से पूरी तरह से उन्हें एक कमजोर, अपरिपक्व और नासमझ नेता बताते हुए प्रचार-प्रसार किया। राहुल ने हार नहीं मानी। जनता के बीच लोकप्रिय होने के साथ ही, सड़क से संसद तक अपने को साबित किया।

आजमगढ़ : किसान नेता वीरेंद्र यादव पर जानलेवा हमला, दोषियों के खिलाफ एफआईआर नहीं दर्ज़ की गई, तहरीर बदलने का दबाव

जिन राज्यों में भाजपा का शासन है, वहाँ भाजपा से जुड़े लोग खुले आम दबंगई करने में सबसे आगे हैं क्योंकि उन्हें अपने ऊपर किसी भी तरह की कार्रवाई का कोई भय नहीं है। विशेषकर समाज के दबे-पिछड़े, वंचित समुदाय के पक्ष में खड़े होने वाले नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर आए दिन हमले करवाए जा रहे हैं। आजमगढ़ के किसान नेता वीरेंद्र यादव पर भी हमला करवाया गया और हमले करने वालों के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं की गई। जबकि न्याय की बड़ी-बड़ी बातें करने वाली यह सरकार गैर भाजपा लोगों पर झूठी कार्रवाई कर उन्हें जेल में डालने से नहीं चुक रही है।

‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ से राजनीतिक गतिशीलता व क्षेत्रीय हित लगातार नजरअंदाज होंगे

एक राष्ट्र एक चुनाव के संभावित लाभों के बावजूद, आलोचकों ने लोकतांत्रिक भावना, स्थानीय चिंताओं पर राष्ट्रीय मुद्दों के प्रभुत्व तथा संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता के बारे में चिंता व्यक्त की है। एक राष्ट्र एक चुनाव भारत में विभिन्न राज्यों की अद्वितीय राजनीतिक गतिशीलता और क्षेत्रीय हितों को कमजोर कर सकता है, क्योंकि यह एक समान चुनाव चक्र को बढ़ावा देता है। यह अलग-अलग राज्यों के विविध मुद्दों और आकांक्षाओं को नजरअंदाज कर सकता है, जिससे उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं की उपेक्षा हो सकती है। समकालिक चुनावों के साथ, एक जोखिम है कि राष्ट्रीय मुद्दे स्थानीय चिंताओं पर हावी हो जाएँगे। स्थानीय और क्षेत्रीय मुद्दों पर पर्याप्त ध्यान और चर्चा नहीं हो सकती है, क्योंकि राजनेता राष्ट्रीय स्तर के प्रचार और एजेंडे पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं।

अपराधों का सेलेक्टिव विरोध और समर्थन भाजपा की रणनीति है                

बंगाल, बिहार, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और अब महाराष्ट्र में एक हफ्ते में हुई रेप की घटनाओं के बाद यदि विश्लेषण करें तो मालूम होगा कि त्वरित कार्रवाई वहीं हुई जहां जनता ने दबाव बनाया। बंगाल को छोड़कर सभी प्रदेश भाजपा शासित हैं या फिर वहाँ भाजपा समर्थित सरकारें हैं। जब-जब भाजपा शासित प्रदेशों में घटनाएं हुईं, वहाँ सरकार किसी तरह का कोई कार्रवाई न कर अपराधी को संरक्षित किया है। सवाल यह उठता है कि क्या भाजपा की मानसिकता अपराधी या गुनहगार को बचाकर ऐसे अपराधों को सीधे-सीधे बढ़ावा देना नहीं है?

बंगलादेश की आड़ में महाराष्ट्र चुनाव में धार्मिक ध्रुवीकरण का खेल शुरू कर चुके हैं सांप्रदायिक दल  

भाजपा का यह रिकॉर्ड रहा है कि जब-जब केंद्र या राज्यों में चुनाव होना होते हैं, वे ऐसी परिस्थिति पैदा कर देते हैं ताकि धार्मिक ध्रुविकारण का पूरा लाभ मिल सके। अभी हमारे पड़ोसी देश बांग्लादेश में तख्तापलट के बाद जिस तरह की स्थितियाँ पैदा हुई हैं, उसके लिए वे चिंतित कम नजर आ रहे हैं बल्कि महाराष्ट्र चुनाव में वहाँ के हिंदुओं को लेकर धार्मिक ध्रुवीकरण का खेल शुरू कर चुके हैं।  

सरकारी कर्मचारियों को आरएसएस से जोड़ने के परिणाम विध्वंसकारी होंगे

फासीवादी संगठन आरएसएस ने सरकारी कर्मचारियों को अपने संगठन की गतिविधियों में भाग लेने पर लगे प्रतिबंध से छूट दे दी है। जबकि कोई भी सरकारी कर्मचारी को किसी भी राजनैतिक संगठन से जुड़ने पर पूरी तरह से मनाही है ताकि वे संविधान के मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध रहें और अपने काम में राजनैतिक पक्षपात न करें। सवाल यह उठता है कि संघ का अगला एजेंडा क्या है, जिसमें वह सरकारी कर्मचारियों का उपयोग(दुरुपयोग) करेगा?

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पिछड़े, दलित, आदिवासी और दिव्यांगों के आठ पदों को NFS क्यों किया गया?

आज से 70 वर्ष पहले ऐसे वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था संविधान में लाई गई थी, जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से हाशिये पर जीवन जीने को मजबूर थे क्योंकि देश का सवर्ण तबका, खासकर ब्राह्मण, उन्हें आगे बढ़ने देना नहीं चाहते थे लेकिन संविधान के सामने विवश थे। हाशिये के इन समाजों ने शिक्षित हो आगे आना शुरू किया। यही बात भारतीय सवर्णों के लिए अपच हो गई। फिर भी भारतीय संविधान हाशिये के समाजों के अधिकारों की सुरक्षा करता रहा है। अब आरएसएस के दिमाग से संचालित भाजपानीत सरकार ने हाशिये के समाज के लोगों को फिर से हाशिये पर ढकेलने के लिए अलग षड्यंत्र कर रही है। देश का अपना संविधान होने के बावजूद आरएसएस यहाँ अपना एक अलग मनुवादी संविधान थोपने के प्रयास में है। प्रायः सभी चयन समितियों में अपने वर्चस्व का लाभ उठाकर शिक्षा और नौकरियों के मामले में उन्हें NFS कर हटाने के प्रयास में है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के ताजा मामले में जानिए कि कैसे आठ उम्मीदवारों को NFS कर दिया गया।

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