लड़का-लड़की के लालन-पालन से संताल समाज में होने वाले विभेद पर लड़कियों ने अपनी राय देते हुए बताया कि लड़के के पालन-पोषण में माँ को थकावट महसूस नहीं होती है। लड़की को जहां मनपसंद कपड़ा पहनने को नहीं मिलता है, वहीं लड़के को इच्छानुसार कपड़ा मिलता है। खेलने में भी भेदभाव बरता जाता है। लड़की घरेलू सामानों से ही खेलती है जबकि लड़कों को खेलने के लिए फुटबाॅल मिलता है।
उनके उस पीड़ादायी संघर्ष को मनोरंजक घटना के रूप में पेश कर उनके जीवन संघर्ष की अहमियत और व्यवस्था के अन्याय की असलियत को ढँक देती थीं। बाद में उनसे लम्बी मुलाकात के बाद उनके भोगे गए त्रासद समय और संघर्ष की कथा सामने आयी। सन् 2003 में उन्हें हावर्ड विश्वविद्यालय अमेरिका का ग्लोबल पुरस्कार मिला था। पहली मुलाकात में इसी पर चर्चा करते हुए उन्होंने बताया था कि वह अमेरिका नहीं जा पायेंगे क्योंकि उनके पास पैसा नहीं है। लेकिन उन्हें खुशी है कि उनकी लड़ाई को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान और समर्थन मिला। लालबिहारी मृतक ने एक अद्भुत तरीके की लोकतांत्रिक लड़ाई का सिलसिला शुरू किया। पहले मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक ज्ञापन और अखबारों में अपीलें देना शुरू किया। फिर कुछ अद्भुत तरीकों को भी अपनी लड़ाई में शामिल किया। अपने अस्तित्व को किसी भी तरीके से सिद्ध करने के लिए चचरे भाई का अपहरण किया लेकिन उनके खिलाफ कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं करायी गयी।
मानवाधिकार के क्षेत्र में सीमा आज़ाद एक जाना-पहचाना नाम है। वह छात्र जीवन से ही राजनीतिक-सामाजिक मोर्चे पर सक्रिय रही हैं। ऑपरेशन ग्रीन हंट और विभिन्न योजनाओं में किसानों की जमीन हड़पे जाने के खिलाफ उन्होंने आवाज उठाई जिसके कारण उनकी गिरफतारी हुई। अगोरा प्रकाशन एक किताब औरत का सफ़र : जेल से जेल तक लिखा जिसे पाठकों ने हाथो हाथ लिया। जेल जीवन पर उनकी किताब ज़िंदाँनामा भी ख़ासी चर्चित रही।विगत दिनों उनकी बनारस यात्रा के दौरान gaonkelog.com की विशेष संवाददाता पूजा ने बातचीत की।
आत्मकथा लिखने के लिए जिस साहस और ज़ज्बे की आवश्यकता होती हैं वह दोनों ही तसनीम जी के भीतर मौजूद हैं I आत्मकथा का कोई भी ऐसा अंश पकड़ में नहीं आता जहाँ सच्चाई महसूस न होती हो I ईमानदारी से जुटाएं गए तजुर्बों और हौसलों की सच्ची दास्तान पाठक के मन को गहरे तक द्रवित करने का पूरा दमख़म रखती है I पितृसत्तात्मक मानसिकता स्त्री की आजादी को बहुत कम महत्त्व देती है या यूँ कहिए की स्त्रियों की ‘आज़ादी’ जैसा कोई टर्म उनके शब्दकोश में है ही नहीं I
ये विडंबना है कि हर स्त्री को जीवन में दो बार घर के खान-पान और कानूनों को सीखना और समझना पड़ता है क्योंकि उसे इस कर्तव्यबोध से परिचित कराया जाता है कि हर किसी को खुश रखना उसकी जिम्मेदारी है। आप और हम ये समझ सकते हैं कि मायके में किसी सब्जी में लहसुन और हींग जरूरी है तो ससुराल में उस उसी सब्जी में हींग और लहसुन नहीं, बल्कि अजवाइन और जीरा डाला जाएगा। स्त्री का अपना कुछ है ही नहीं, घर के पुरुषों को जो पसंद है उसके हिसाब से खाना-नाश्ता बनेगा, कभी स्त्री की पसंद का खाना-नाश्ता घर के पुरुष नहीं करेंगे। यही है मलयालम में आई फिल्म द ग्रेट इंडियन किचन की कहानी।
पहली किस्त ..
विश्व के सभी धर्मों की उत्पत्ति, तत्कालीन समाज के अनसुलझे, अतार्किक, पाखंडी और दुरूह क्रियाकलापों के समाधान की सरलीकृत, अंगीकृत, रहस्यवादी प्रक्रिया...
ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘शवयात्रा’ कहानी की आलोचना
‘शवयात्रा’ ओमप्रकाश वाल्मीकि की विवादास्पद कहानी है। अधिकांश दलित आलोचक इस कहानी को प्रेमचन्द की ‘कफन’ कहानी की...