गोरखपुर से प्रेमचंद का नाता बहुत भावप्रवण और आत्मीय था। यहीं पर उन्होंने जीवन की बुनियादी नैतिकता और आदर्श का पाठ सीखा। लेकिन आज गोरखपुर में उनके स्मृतिचिन्ह लगातार धूसरित हो रहे हैं। ऐसा लगता है नयी पीढ़ी की टेक्नोसेंट्रिक प्रवृत्ति ने उन्हें इस बात से विमुख कर दिया है कि उनके शहर में एक कद्दावर लेखक की जवानी के दिन शुरू हुये थे और वह लेखक पूर्वांचल की ऊर्जस्विता और रचनाशीलता को आज भी एक ज़मीन देता है। प्रेमचंद जयंती के बहाने अंजनी कुमार ने गोरखपुर की नई मनःसंरचना की पड़ताल की है।
हर काम का प्रशिक्षण नहीं लिया जाता, कुछ काम ऐसे होते हैं जो व्यक्ति स्थितियों को देखते-सुनते सीख लेता है। जौनपुर जिले के बेलापार गाँव के निवासी भानु प्रताप यादव ऐसे ही भगत परंपरा के आदमी है। जो गाय-भैंसों के बच्चे पैदा होते समय होने वाली परेशानियों का मिनटों में निपटारा करते हैं।
किसी जमाने में लमही एक गाँव था और प्रेमचंद ने बहुत सारे चरित्रों को इसी गाँव से उठाया। मसलन! गाँव में जो पोखरा दिखाई पड़ता है और रामलीला का जो मैदान है। हम समझते हैं कि उनकी प्रसिद्ध कहानी रामलीला में उसका जिक्र है। लमही के पास ही एक ऐसी बस्ती है, जहां से निकल कर ईदगाह का हामिद और उसके साथी नदेसर स्थित ईदगाह की तरफ रुख करते हैं।
प्रेमचंद का साहित्य आज भी कम प्रासंगिक नहीं हैं क्योंकि उस समय में और आज के समय में समस्याओं का स्वरूप बेशक बदल गया हो लेकिन समस्याएँ समाप्त नहीं हुई हैं। बल्कि कुछ समस्याएँ और गहरी हो गई हैं। ग्रामीण व शहरी बेरोज़गारी, बिना लाभ की खेती, दलितों व ग़रीबों का आर्थिक शोषण व उत्पीड़न, ऊँच-नीच व छूआछूत, अकर्मण्यता, अंधविश्वास व धार्मिक पाखण्ड, रिश्वतख़ोरी व भ्रष्टाचार आज भी ज्यों के त्यों बने हुए हैं। ग़रीबी का स्वरूप बदल गया है लेकिन ग़रीबी नहीं। खेतिहर किसान मज़दूर में बदल गया है। कुछ समस्याएँ ऐसी भी हैं जिनका स्वरूप तक नहीं बदला है।