Thursday, March 28, 2024
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सुप्रीम कोर्ट की संवेदनशीलता का पैमाना (डायरी 8 जनवरी, 2022) 

हिंदी भाषा की खासियत यही है कि इसमें अन्य भाषाओं व बोलियों के शब्दों को आसानी से शामिल किया जा सकता है। इस लचीलेपन की वजह से यह भारत में आज सबसे अधिक बोली जानेवाली भाषा है। संभवत: इसकी इसी खूबी के कारण हमारे नेताओं ने इसे राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थाापित किया। कई […]

हिंदी भाषा की खासियत यही है कि इसमें अन्य भाषाओं व बोलियों के शब्दों को आसानी से शामिल किया जा सकता है। इस लचीलेपन की वजह से यह भारत में आज सबसे अधिक बोली जानेवाली भाषा है। संभवत: इसकी इसी खूबी के कारण हमारे नेताओं ने इसे राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थाापित किया। कई बार मैं सोचता हूं कि यदि हिंदी के बदले कोई और भाषा होती तो क्या होता? शायद वही स्थिति होती जो दक्षिण भारत के लोगों को होती है। मतलब यह कि यदि तमिल को हिंदी के बदले प्राथमिकता दी जाती तो हम जो हिंदी प्रदेश के लोग हैं, वैसे ही तमिल बोलते जैसे कि तमिल या अन्य दूसरे भाषा-भाषी हिंदी बोलते हैं। लेकिन एक तरह से देखें तो यह एक तरह का भेदभाव ही है। गांधी ने कहा था कि हिंदी ही वह भाषा है जो पूरे मुल्क को एक सूत्र में जोड़ सकती है। लेकिन मुझे लगता है कि यह हिंदी के वश की बात नहीं है। हो तो यह रहा है कि अंग्रेजी पूरे देश को ही नहीं, लगभग पूरे विश्व को जोड़ रही है।

आज भाषा की बात इसलिए कि मैं भेदभाव पर बात करना चाहता हूं। वैसे तो हमारे देश में भेदभाव के अनेक पारामीटर हैं। मसलन, धर्म, जाति, लिंग, नस्ल, भाषा, वर्ग आदि। लेकिन एक भेदभाव एकदम अलग किस्म का है। यह भेदभाव संवैधानिक संस्थाएं करती हैं और बेरोकटोक करती हैं। यह इस तरह का भेदभाव है कि लोग इसपर कभी विचार ही नहीं करते हैं।

दरअसल, मैं कल सुप्रीम कोर्ट में एक मामले की हुई सुनवाई को उद्धृत करना चाहता हूं। कल सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण की अध्यक्षता में एक सुनवाई हुई। मामला था पंजाब में हुई तथाकथित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुरक्षा पर हुई चूक का। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कल तो कुछ खास नहीं कहा, लेकिन उसने पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को सारे दस्तावेज संग्रहित करने का निर्देश अवश्य दिया। साथ ही उसने केंद्र व राज्य सरकार द्वारा गठित जांच समितियों को काम करने से रोक दिया। अब इस मामले की सुनवाई आगामी 10 जनवरी को होगी।

[bs-quote quote=”मुझे सुप्रीम कोर्ट को दिल्ली के एम्स की संज्ञा देने की इच्छा होती है। मतलब यह कि यदि किसी आम आदमी को कोई बीमारी हो जाय और वह दिल्ली के एम्स में अपना इलाज करवाना चाहे तो उसे लंबा इंतजार करना पड़ सकता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

यह मामला वाकई दिलचस्प है। याचिकाकर्ता के रूप में एक संगठन का नाम है। नाम भी बेहद दिलचसप है– लायर्स वॉयस। इस संगठन ने यह मामला 6 जनवरी को दर्ज कराया और सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई अगले ही दिन शुरू कर दी गयी। मजा तो यह कि इस मामले की सुनवाई के लिए स्वयं मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण भी खंडपीठ में शामिल हो गए। तीन सदस्यीय इस खंडपीठ के अन्य दो सदस्य न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति हिमा कोहली हैं।

कभी-कभी मुझे सुप्रीम कोर्ट को दिल्ली के एम्स की संज्ञा देने की इच्छा होती है। मतलब यह कि यदि किसी आम आदमी को कोई बीमारी हो जाय और वह दिल्ली के एम्स में अपना इलाज करवाना चाहे तो उसे लंबा इंतजार करना पड़ सकता है। अभी दो साल पहले की बात है। रिश्ते में मेरी एक भतीजी के मस्तिष्क में कुछ समस्याएं थीं तो बिहार के डाक्टरों ने उसकी सर्जरी कराने के लिए एम्स, दिल्ली रेफर कर दिया। अब हुआ यह कि मेरी भतीजी को एम्स परिसर के बाहर एक किराए के कमरे में करीब तीन महीने तक रहना पड़ा और तब जाकर उसकी सर्जरी हुई। तब यह बात मेरी जेहन में आयी कि यदि मेरी भतीजी की जगह कोई वीआईपी होता तो क्या होता?

इसका जवाब भी तुरंत मिल गया। बिहार के एक बड़े नेता को कुछ तकलीफ हुई। वे बिहार सरकार में मंत्री भी रहे थे। उन्हें बिहार की चिकित्सकीय व्यवस्था पर यकीन नहीं था। सो वह भागे-भागे दिल्ली पहुंचे और दिलचस्प यह कि उनका इलाज उसी दिन बिना किसी दिक्कत के शुरू हो गई। चूंकि वह मेरे परिचित थे, तो मानवतावश उन्हें देखने चला गया। वहां का प्रबंध देखकर मुझे यह बात समझ में आयी कि एम्स, दिल्ली के लिए एक वीआईपी और एक आम आदमी में बहुत अंतर है।

[bs-quote quote=”हमारे देश में भेदभाव के अनेक पारामीटर हैं। मसलन, धर्म, जाति, लिंग, नस्ल, भाषा, वर्ग आदि। लेकिन एक भेदभाव एकदम अलग किस्म का है। यह भेदभाव संवैधानिक संस्थाएं करती हैं और बेरोकटोक करती हैं। यह इस तरह का भेदभाव है कि लोग इसपर कभी विचार ही नहीं करते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

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ठीक यही अंतर सुप्रीम कोर्ट के मामले में भी है। मैं तो अगस्त, 2012 को याद कर रहा हूं जब बिहार में हुए प्रमुख नरसंहारों यथा बथानीटोला, बाथे, नगरी आदि मामले की सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई। इन मामलों में राज्य सरकार भी याचिकाकर्ताओं में शामिल थी। इन नरसंहारों में जिनके लोग मारे गए थे, वे भी याचिकाकर्ताओं में रहे। जहां तक मुझे स्मरण है इन मामलों में अंतिम सुनवाई फरवरी, 2013 में हुई और इस सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह एक बड़ा मामला है तो इसकी सुनवाई पांच सदस्यीय खंडपीठ करेगी। और तबसे ये मामले लंबित हैं। समय के हिसाब से लगभग नौ साल। यह कम तो नहीं होता।

सुप्रीम कोर्ट की संवेदनशीलता का पैमाना दूसरा है। यह तर्क दिया जा सकता है कि प्रधानमंत्री खास हैं तो उनसे जुड़े मामले को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। लेकिन तीन सौ लोगों के हत्यारों को सजा मिले, यह भी तो कम महत्वपूर्ण नहीं।

मैं ठीक कह रहा हूं न सुप्रीम कोर्ट के आदरणीय न्यायाधीशों?

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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