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कमजोर तबकों के लिए परीक्षा की घड़ी बनेगा आगामी लोकसभा चुनाव

समाज के दलित / दमित / ओबीसी / अल्पसंख्यकों को यह समझने की जरूरत है कि कांशीराम  जी क्यों कहते थे कि भारत को मज़बूत नहीं, मजूबर सरकार चाहिए। जब-जब केंद्र में पूर्ण बहुमत की  सरकारे होती हैं, ज्यादातर फैसले पूंजीपतियों और सामंती शक्तियों के हक़ में किए जाते हैं। जैसा कि  वर्तमान में हो […]

समाज के दलित / दमित / ओबीसी / अल्पसंख्यकों को यह समझने की जरूरत है कि कांशीराम  जी क्यों कहते थे कि भारत को मज़बूत नहीं, मजूबर सरकार चाहिए। जब-जब केंद्र में पूर्ण बहुमत की  सरकारे होती हैं, ज्यादातर फैसले पूंजीपतियों और सामंती शक्तियों के हक़ में किए जाते हैं। जैसा कि  वर्तमान में हो रहा है। पूर्ण बहुमत की सरकारों के दौर  में  शासन में क्षेत्रीय आकांक्षाओं, लोक-कल्याण और  जनहित के कार्यों को नज़रंदाज़ किया जाता है। अत: 2024 के आम चुनाव में समाज के कमजोर तबकों  के लिए यह परीक्षा कि घड़ी है कि वे अपने हितों की रक्षार्थ वर्तमान जैसी बहुमत की सरकार चाहते हैं या सच्चे अर्थों में समाज के आम लोगों की हितैषी सरकार।

अरस्तू ने कहा था कि लोकतंत्र मूर्खों का शासन है।। क्योंकि अगर मूर्खों की संख्या ज्यादा होगी तो मूर्ख ही शासन करेगा, जैसा कि हम सब जानते हैं कि हमारे देश में कलक्टर, डॉक्टर, पुलिस अधीक्षक, न्यायाधीश, सेनाध्यक्ष,  वैज्ञानिक परीक्षा के बाद ही चुने जाते हैं। यानी देश का हर कर्मचारी कोई न कोई परीक्षा पास करने के बाद ही अपना पद पा सकता है। मगर देश की बागडोर अनपढ़ों के हाथ में क्यों?

गांव वार्ड सदस्य, सरपंच, प्रधान, विधायक, नगर पालिका का पार्षद, नगर पालिका का अध्यक्ष, नगर निगम का मेयर, संसद के सदस्य, लोकसभा के सदस्य, यहां तक कि मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री का भी यही हाल है। आखिर इनकी परीक्षा क्यों नहीं ली जाती? इतना तक नहीं देखा जाता कि क्या इस देश का रक्षामंत्री सेना में था? देश का स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर क्यों नहीं? देश का शिक्षा मंत्री अध्यापक क्यों नहीं?

खैर! देश की वर्तमान राजनीति को देखते हुए, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि कर्नाटक में कांग्रेस की जीत व INDIA के गठन के बाद पाँच राज्यों से विधान-सभाई चुनावों के मद्देनजर निरंतर आ रहे सर्वे ने INDIA  खेमे का जोश बढ़ा दिया है। ये राज्य हैं – छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिजोरम, राजस्थानऔर तेलंगाना इन पाँचों राज्यों में इसी साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं।

देश के मैदानी इलाकों में जब मौसम की गर्माहट कम हो रही है। सभी पांच राज्यों में चुनाव की तारीखों के एलान के साथ राजनीतिक पारा तेज़ी से चढ़ने लगा है। मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने सोमवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना और मिज़ोरम विधानसभा चुनाव की तारीखोंकी घोषणा की। पांचों राज्यों में मतगणना एक ही दिन यानी तीन दिसंबर को होगी।

पांच में से तीन राज्य (मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़) हिंदी पट्टी के हैं। यहां केंद्र की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस का सीधा मुक़ाबला बताया जा रहा है। हालांकि, चुनाव मैदान में दूसरे दल भी हैं, लेकिन मुख्य लड़ाई कांग्रेस और बीजेपी में मानी जा रही है।

बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने चुनाव की तारीखों के एलान का स्वागत किया है और पांचों राज्यों में जीत हासिल करने का दावा किया है। सोशल प्लेटफ़ॉर्म एक्स पर नड्डा ने लिखा, ‘भाजपा भारी बहुमत से सभी राज्यों में सरकार बनाएगी।’ उधर, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने दावा किया है कि चुनाव की तारीखों केएलान के साथ बीजेपी की विदाई की घोषणा हो गई है। उन्होंने लिखा, ‘पाँच राज्यों के चुनावों की घोषणा के साथ भाजपा और उसके साथियों की विदाई का भी उद्घोष हो गया है।’

कई लोग इन चुनावों को साल 2024 में होने वाले लोकसभा के आम चुनावों का सेमीफ़ाइनल बता रहे हैं। इसमें भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाले एनडीए और कांग्रेस के गठबंधन इंडिया का इम्तिहान हो सकता है। हालांकि, कांग्रेस के साथी दल चुनावों में चुनौती देने का एलान कर चुके हैं। वहां पार्टी का इंटरनल सर्वे और आंकलन है कि इंडिया गठबंधन बीजेपी से बहुत आगे है। इसलिए इन राज्यों मेंलगातार आक्रामक चुनाव प्रचार शुरू हो गया है। बकौल विनय दूबे (यूट्यूबर ) ने अपने एक वीडियो में बताया कि मैं लम्बे समय से हुए सारे चुनाव का रिकॉर्ड एनालाइज करते रहा हूँ। समय-समय पर भाजपा की रणनीति को समझने की कोशिश करता रहता हूँ।

हर चुनाव के पहले ही भारतीय जनता पार्टी का एक पैटर्न होता है जिसे हम चुनावी रणनीति कह सकते हैं। भाजपा की रणनीति को देखकर तो यही लगता है कि कर्नाटक में कांग्रेस की जीत को भारतीय जनता पार्टी ने खुद ही कांग्रेस के सामने रख दिया। भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस से हारी नहीं

है, अपितु भाजपा ने कांग्रेस को जिताया है। अब आप पूछेंगे यह कैसे हो सकता है कि कोई एक राजनीतिक दल चुनाव लड़े और वो भी हारने के लिए लड़े। ऐसा नहीं है, भारतीय जनता पार्टी बहुत अलग तरीके की राजनीति करती है। भाजपा की कूटनीति को अगर आप समझने की कोशिश करें तो आपको कुछ तथ्यों और आंकड़ों से एक मेल-मिलाप कराना होगा। तब आप समझ जाएंगे कि आखिर इन बातों का मतलब क्या है। इस सारे चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा क्या था? हिंदू, मुसलमान, बजरंगबली, हलालाऔर क्या?

यद्यपि इन मुद्दों में मुसलमान सबसे बड़ा प्रमुख मुद्दा रहा है, तथापि सबसे बड़ा मुद्दा ईवीएम मशीन का है। अब आप हसेंगे और बोलेंगे – देखो आ गए रोना-रोने। नहीं, ऐसी बात नहीं है। स्मरण रहे कि इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की नजर मध्य प्रदेश और राजस्थान में आगामी विधानसभा व लोकसभा चुनावों पर है।

याद करिए कि भारतीय जनता पार्टी लोकसभा चुनाव जीतने के बादजब नरेंद्र मोदी जी दूसरी बार प्रधानमंत्री बने थे, ठीक उससे पहले, अगर आप सारे विधानसभा चुनावों को उठा लें तो भाजपा का सारा खेल देखने को मिल जाएगा कि आखिर कर्नाटक भारतीय जनता पार्टी क्यों हारी। अगर आप देखना चाहें तो इसे आपको कुछ उदाहरण के साथ समझना होगा।

2019 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले 2018 में बहुत सारे विधान सभा चुनाव हुए। आपने देखा होगा कि छत्तीसगढ़ चुनाव में क्या हुआ? दूसरा बड़ा राज्य है राजस्थान, जहां पर बीजेपी की वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री हुआ करती थी और 7 दिसंबर 2018 को राजस्थान के चुनाव होने के बाद कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिलती है और वहां पर कांग्रेस के मुख्यमंत्री होते हैं अशोक गहलोत। तीसरा राज्य है मध्य प्रदेश, जहां पर भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव से पहले सरेंडर कर के मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कांग्रेस के कमलनाथ को बनाया गया।

यह सभी को मालूम होगा कि मोदी जी द्वारा दूसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद ठीक कुछ महीनों बाद मध्य प्रदेश में ऑपरेशन लोटस चलाया गया। और 2020 को कांग्रेस की सरकार को गिराकर शिवराज सिंह की सरकार को वापस लाय गया। और उनको मुख्यमंत्री बना दिया गया। उसके ठीक कुछ महीने बाद यानी कि एक तरह से राजनीतिक हत्या के द्वारा चुनी हुई सरकार चुनी हुई सरकार की हत्या करके उनके विधायकों को खरीद के लाना भाजपा के लिए कोई बड़ी बात नहीं।

इस तरह जब किसी लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को जाना होता है तो ईवीएम पर बिना सवाल उठाए कुछ बड़े चुनाव खुद से हार जाती है। हार इसलिए जाती है ताकि एवीएम पर सवाल उठाने वालों को करारा जवाब दिया जा सके। कल तक आपने कमेंट लिखा होगा कि फोटो दिखाओ जिसमें उन्होंने ईवीएम को लेकर पूछा कि आज उसके बारे में बात ही नहीं हो रही है।

बहुत सारे ट्विटर हैंडल है जिन पर यह चीज रखी गई। गोदी मीडिया के सारे न्यूज़ चैनलस पर भी यह सवाल उठाया। आगामी मध्यप्रदेश में भी बीजेपी सरकार हारेगी। लोकसभा चुनाव 2024 में आप देख सकते हैं कि 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव अगर आज हो जाएं तो जो इनके पास 303 का बहुमत मिला था, उसमें से अधिकतर जो सांसद हैं, वह शायद जीतकर वापस नहीं आ सकते।

यह भाजपा की एक चुनावी कूटनीति भी हो सकती है ताकि विपक्ष इस भ्रम में रहे कि सरकार की हालत खस्ता है। विपक्ष को यह भी सोचना होगा कि ईडी के निशाने पर सिर्फ विपक्षी नेता क्यों? पिछले कुछ महीनों से राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामलों में जांच एजेंसी ईडी ने लगातार सक्रियता दिखाई है। वह एक के बाद एक कई छापे मार रही है और गिरफ्तारियां भी कर रही है। हालांकि ईडी के निशाने पर लगभग सारे विपक्षी नेता और राजनीतिक दल ही रहे। इसी वजह से इस मुद्दे पर राजनीति तेज हो गई।

विपक्षी दल ईडी को सरकार और बीजेपी का टूल बताने लगे हैं। सरकार ईडी को स्वतंत्र एजेंसी बताकर उसके कदमों को डिफेंड तो कर रही है, लेकिन आंकड़े गवाह हैं कि ईडी की ओर से की गई कार्रवाई में बाढ़ सी आ गई है। किंतु यहाँ सोचना होगा कि ईडी की कार्यवाही केवल और केवल विपक्षी दलों के नेताओं पर ही क्यों होती है।

भविष्य में लोकसभा चुनाव में यदि इंडिया गठबंधन में शामिल सारे के सारे विपक्षी राजनीतिक दल एक जुट होकर चुनाव लड़ें तो भारतीय जनता पार्टी इसने सामने सीधी टक्कर नहीं ले सकती। और यदि आपस में सारी पार्टियां मिलकर भाजपा के उम्मीदवार के सामने विपक्ष केवल एक ही उम्मीदवार उतारे तो भारतीय जनता पार्टी का जीतना नितांत असंभव है। इस ओर विपक्षी दलों ने काम भी करना शुरू कर दिया है। विपक्षी दलों का हाल ही में पटना में हुई एक बैठक इस बात का प्रमाण है।

किंतु विपक्ष की अगली बैठक से पहले ही कुछ सवाल उठ खड़े हुए हैं कि भाजपा की बी पार्टीयां शायद विपक्षी दलों के संभावित गठबंधन में शामिल होने का नाटकभर करें और आखरी समय  में गठबंधन दूर होकर अप्रत्यक्ष रूप से अकेले-अकेले चुनाव लड़कर भाजपा के खेमें की मदद को चुनाव में उतर जाएं, जिनमें बसपा, आप, ओवैसी की पार्टियां शंका के घेरे में हैं।

इतना ही नहीं सभी दलों के मुखिया अपना-अपना व्यक्तिगत हित पहले देखते है, राष्ट्र या समाज हित बाद में। हाँलाकि माना ये जा रहा है कि अंत समय में बसपा भी इंडिया गठबंधन में मिल जाएगी। किंतु यह भी सच है कि यदि ईवीएम मशीनों में बिना हेराफेरी के चुनाव होते है तो विपक्ष की एक जुटता के चलते भारतीय जनता पार्टी सत्ता से बहुत दूर हो जाएगी। क्योंकि भाजपा ने जनता को जिस तरह से हलाल किया है; जनता को जिस तरह से कष्ट दिया है; बेरोजगारी की समस्याओं पर मुंह बंद कर लिया है, किसानों को इतने ही दिनों तक आंदोलन करने पर मजबूर किया है, मणीपुर की अमानुषिक घटनाओं पर मणीपुर का ‘म’ तक भी नहीं खोला। निरंतर हो रहे बलात्कार और दलितों / अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे अनाचार / अत्याचार की तो गिनती करना भी संभव नहीं है। यह सारा गुस्सा लोगों के अंदर है।

देखने की बात यह है कि BJP को इस बात की खासी चिंता है कि 2019 और 2024 के आम चुनावों में बुनियादी फर्क है। मोदी सरकार के अपने पहले टर्म में आर्थिक मसलों, खासकर महंगाई के मोर्चे पर अधिक सवालों का सामना नहीं करना पड़ा था। हालांकि नोटबंदी से इकॉनमी जरूर प्रभावित हुई, लेकिन लोगों ने तब इसे पीएम मोदी का बोल्ड प्रयोग मानकर उन्हें पूरे अंक दिए थे। फिर महंगाई पूरे पांच साल नियंत्रित भी रही थी। विपक्ष आर्थिक अजेंडे को सियासत के केंद्र में लाने में विफल रहा था।

इन सालों में कभी सर्जिकल स्ट्राइक, कभी एयर स्ट्राइक, कभी राफेल और कभी राम मंदिर जैसे मुद्दे ही सियासत के केंद्र में थे। उधर, BJP अपने लाभार्थी वर्ग को सहेज कर रखने में सफल थी। एक बार 2019 आम चुनाव से पहले आर्थिक मसले, खासकर किसानों का मुद्दा उठा तो आम चुनाव से ठीक पहले केंद्र सरकार ने किसान सम्मान निधि का एलान कर दिया। इसके तहत सभी किसानों के खाते में हर साल 6000 रुपये दिए गए। अब केंद्र सरकार 2024 से पहले इसमें भी राशि बढ़ा सकती है।

BJP का गणित है कि भले वह लाभार्थी वर्ग में नया वोट न जोड़ पाए, लेकिन पुराने वोटर को साथ रखने में सफल रहे, तो 2024 में भी पूर्ण बहुमत वाली जीत की हैट्रिक लग जाएगी। यही कारण है कि अब अगले कुछ महीने BJP इस वर्ग को मनाने और नए सिरे से लुभाने की कोशिश करती दिख सकती है।

किंतु पिछ्ले चुनावों में ईवीएम के गड़बड़ी की भी खासी चर्चा रही है। कहा जाता रहा है कि जब मतदाता मतदान करने जाते हैं तो पाया जाता है कि मतदाता जिस प्रत्याशी को वोट करते है, बाद में पता चलता है कि उनका वोट उनके मन चाहे प्रत्याशी को न जाकर किसी और को चला जाता है। दूसरे मोदी सरकार इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया और बाकी सरकारी संस्थाओं के बल पर विपक्षी दलों में डर पैदा करने से नहीं चूकती।

विपक्षी राजनीतिक दलों इंडिया गठबंधन को यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा के खिलाफ जिस प्रकार विरोध अब देखने को मिल रहा है। उसमें महिला पहवानों के आंदोलान, जलते हुए मणीपुर पर, किसानों की एमएसपी आदि अन्य घटनाओं को सुलझाने के लिए प्रधानमंत्री की चुप्पी और बात-बात पर झूठ बोलने से इस बार भी जनता सरकार से खासी नाराज है। भाजपा की सभाओं मे अपेक्षित लोगों का न आना, खाली पड़ी कुर्सियों का सोशल मीडिया पर निरंतर खुलासे को देखकर भी विपक्ष के इंडिया गठबंधन को ज्यादा जोश में रहने की जरूरत नहीं है। ऐसा ही माहौल 2019 में भी था, किंतु हुआ क्या? भाजपा लोकसभा चुनावों में विजयी हुई।

उल्लेखनीय है कि समाज के दलित/दमित/ओबीसी/अल्पसंख्यकों को यह समझने की जरूरत है कि कांशीराम जी क्यों कहते थे कि भारत को मज़बूत नहीं, मजूबर सरकार चाहिए। जब-जब केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार होती हैं, ज्यादातर फैसले पूंजीपतियों और सामंती शक्तियों के हक़ में किए जाते हैं। जैसा कि वर्तमान में हो रहा है। पूर्ण बहुमत की सरकारों के दौर मे शासन में क्षेत्रीय आकांक्षाओं, लोक-कल्याण और जनहित के कार्यों को नज़रंदाज़ किया जाता है।

1977 के बाद देश के तमाम राज्यों में क्षेत्रिय दलों का तेज़ी से उभार शुरू हो गया। इन दलों ने उन क्षेत्रिय मुद्दों और समस्याओं के आधार पर जनप्रचार कर जनाधार बनाना शुरू कर दिया। इन मुद्दों में जाति, भाषा, पिछड़ापन, क्षेत्र प्रमुख थे। कांग्रेस सिस्टम के दौरान पार्टी और कांग्रेस सरकारों में उत्तर भारतीय तथा सवर्ण जातियों का ही प्रभुत्व था। जिसके फलस्वरूप भाषा के आधार पर तेलगु देशम तथा अन्य दलों का उदय तथा विस्तार दक्षिण राज्यों के अलावा महाराष्ट्र तथा अन्य राज्यों में भी हुआ, जातियों के आधार पर उत्तर भारत में बहुजन समाज पार्टी के अलावा अन्य दलों का उदय हुआ तथ विभिन्न आदिवासी/दलित/पिछड़ी जातियों तथा क्षेत्रिय नेताओं का प्रतिनिधित्व विधायी तथा राजनीतिक संस्थाओ में तेज़ी से बढ़ा। ये क्षेत्रिय दल अपने-अपने राज्यों में एक मज़बूत जनाधार के साथ-साथ सरकारें भी बनाने मेंसक्षम रहें हैं।

क्षेत्रिय दलों की बढ़ती हुई भूमिका को कई विख्यात राजनीति शास्त्रियों ने इसको लोकतांत्रिक मज़बूती के रूप में देखा है और गठबंधन सरकारों को हमेशा मजबूर और दुर्बल सरकारों के रूप में देखा जाता है। एक पार्टी के बहुमत को मज़बूत सरकार के रूप में देखा जाता है। लेकिन भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास का विश्लेषण करने से पता चलता है कि एक तरफ जहां मज़बूत सरकारों ने लोकतांत्रिक संस्थानों को आघात पहुंचाया तथा देश की आधारभूत समस्याओं के मुद्दों पर विफल रही है, तो वहीं दूसरी तरफ दुर्बल सरकारों के चलते हुए राजनीतिक अस्थिरता भी देखने को मिली है।

लेकिन इन दुर्बल सरकारों ने कुछ ऐसे बड़े व कड़े फैसलें लिए हैं जिन्होंने देश की राजनीति व लोकतंत्र को मज़बूत किया है। वीपी सिंह की सरकार में मंडल कमीशन को लागू कर पिछड़ी जातियों का आरक्षण सुनिश्चित करना, नरसिम्हा राव सरकार के दौरान आर्थिक उदारवादी नीतियां लागू कर देश की आर्थिक काया पलट करना, यह दर्शाता है की देश में कुछ आधारभूत परिवर्तन इन्हीं कमजोर सरकारों के द्वारा लाये गए हैं।

उक्त बातों के आलोक में, 2024 के आम चुनाव में समाज के कमजोर तबकों के लिए यह परीक्षा की घड़ी है कि वे अपने हितों की रक्षार्थ वर्तमान के जैसी बहुमत की सरकार के बदले सबसे ज्यादा राजनीतिक दलों के गठबंधन की कमजोर सरकार बनाने का काम करें।

 

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