भारत में सामाजिक अन्याय को ऐसे भी समझिए (डायरी 8 फरवरी, 2022)

नवल किशोर कुमार

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सामाजिक अन्याय का कोई एक रूप नहीं होता और इसे अंजाम देनेवालों का पैंतरा भी कमाल का होता है।सबसे दिलचस्प यह कि अपना वर्चस्व कायम रखनेवाले अपने हर पैंतरे को सही ठहराने के लिए तर्क भी खोज लेते हैं। एक उदाहरण प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली की नई कुलपति शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित हैं। कल शिक्षा मंत्रालय ने उनकी नियुक्ति की अधिसूचना जारी कर दी। वह जेएनयू की पहली महिला कुलपति बन चुकी हैं। इसके पहले वह महाराष्ट्र के सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र की प्रोफेसर के पद कार्यरत थीं।

अब इस पूरी खबर में सामान्य पाठकों को लगेगा कि पहली बार किसी महिला को जेएनयू का वीसी बनाया जाना एक प्रगतिशील कदम है। लेकिन यह  ऐसा बिल्कुल नहीं है। दरअसल, यह एक पैंतरा है, जिसकी चर्चा उपरर्णित है।

इसके पहले जो जेएनयू के कुलपति थे, वे हृदय से संघी थे और जेएनयू को किसी शाखा की तरह समझते थे। उनके रहते हुए जेएनयू में आरएसएस के गुंडों ने लड़कियों के हॉस्टल में घुसकर मारपीट की। यहां तक कि जेएनयू को बदनाम करने की हरसंभव कोशिशें की गयीं। यह जेएनयू के इतिहास में पहला वाकया था जक एक कुलपति अपने ही विश्वविद्यालय की साख को पूरी तरह खत्म कर देना चाहता था।

जेएनयू में उसके स्थान पर एक ऐसी महिला की नियुक्ति की गई है, जो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जिहादी और किसानों को गुंडा तक कह चुकी हैं। इसके पहले यह शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित गांधी और गोडसे पर एक टिप्पणी को लेकर विवादों में रहीं। हालांकि जैसे सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी, धूलिपुड़ी ने भी लोगों से माफी मांगी और अपने ट्वीटर एकाउंट को निष्क्रिय किया था।

वर्चस्ववादियों का एक पैंतरा यह देखिए कि उसी कुलपति को अब यूजीसी का चेयरमैन बनाकर पदोन्नति दी गई है। यानी अब उसे देश भर के विश्वविद्यालयों को संघ का शाखा बना देने की जिम्मेदारी दे दी गई है। और जेएनयू में उसके स्थान पर एक ऐसी महिला की नियुक्ति की गई है, जो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जिहादी और किसानों को गुंडा तक कह चुकी हैं। इसके पहले यह  शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित गांधी और गोडसे पर एक टिप्पणी को लेकर विवादों में रहीं। हालांकि जैसे सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी, धूलिपुड़ी ने भी लोगों से माफी मांगी और अपने ट्वीटर एकाउंट को निष्क्रिय किया था।

दरअसल, भारत में सामाजिक अन्याय का यह तरीका कोई नया तरीका नहीं है। सामान्य तौर पर वर्चस्ववदी यह तर्क देते हैं कि औरतों की कोई जाति नहीं होती। एक हद तक यह सही भी है। औरतें विवाद के बाद अपने पैतृक पहचान को समाप्त कर पति के पहचान को स्वीकार कर लेती हैं। इनमें जातिगत पहचान भी शामिल है। लेकिन इसमें भी एक महत्वपूर्ण तथ्य यह कि यदि निम्न जाति की महिला किसी उच्च जाति का पहचान स्वीकार करती है (हालांकि ऐसा बहुत कम ही होता है कि ऊंची जाति वाले निम्न जातियों की महिलाओं को अपने घर की बहू के रूप में स्वीकार करते हैं) तब वह अपने पैतृक पहचान को पूरी तरह समाप्त कर देती है और पति के पहचान काे आत्मसात कर लेती है। लेकिन यह जब रिवर्स में होता है, यानी काेई ऊंची जाति की महिला निम्न जाति के पुरष के साथ विवाह करती है तो वह अपने जातिगत दंभ का परित्याग नहीं कर पाती। एक ताजा उदाहरण है अपर्णा यादव, जो मुलायम सिंह यादव की पतोहू हैं और हाल ही में इन्होंने भाजपा की सदस्यता ग्रहण की है।

यदि महिला आरक्षण में इस तरह का परिवर्तन नहीं किया गया तो सोचिए कि क्या होगा? अभी लोकसभा में सवर्ण सदस्यों की संख्या करीब 48 फीसदी है जबकि देश में उनकी आबादी 15 फीसदी से भी कम है। यदि महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की मांग को हू-ब-हू स्वीकार कर लिया गया तब यह मुमकिन है कि संसद में सवर्ण सदस्यों की संख्या 60 फीसदी के पार हो जाए।

अब अपर्णा के मामले में यह बात सामने आ रही है कि उसकी पैतृक जाति राजपूत है और इसी जाति बोध के कारण उसने सपा को छोड़ राजपूत जाति के योगी आदित्यनाथ उर्फ अजय सिंह बिष्ट के कहने पर भाजपा की सदस्यता ग्रहण की।

ऐसे अनेकानेक उदाहरण हैं। एक उदाहरण पटना की वरिष्ठ पत्रकार हैं। एक मुस्लिम से विवाह के पहले वह हिंदू धर्म के उच्च कुल की रहीं। लेकिन आजतक उनके अंदर का ब्राह्मणगिरि नहीं गया है। आए दिन वह अपनी पैतृक पहचान का प्रदर्शन करती रहती हैं और मजे बात यह कि उन्हें बिहार के तथाकथित वामपंथी प्रगतिशील लोगों का समर्थन भी मिलता रहता है।

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अब यदि इन संदर्भों में आप इसका आकलन करें कि महिलाओं के लिए संसद में 33 फीसदी आरक्ष्ण की मांग में ‘कोटा इन कोटा’ कितना महत्वपूर्ण है। यदि महिला आरक्षण में इस तरह का परिवर्तन नहीं किया गया तो सोचिए कि क्या होगा? अभी लोकसभा में सवर्ण सदस्यों की संख्या करीब 48 फीसदी है जबकि देश में उनकी आबादी 15 फीसदी से भी कम है। यदि महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की मांग को हू-ब-हू स्वीकार कर लिया गया तब यह मुमकिन है कि संसद में सवर्ण सदस्यों की संख्या 60 फीसदी के पार हो जाए।

बहरहाल,  शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित की जेएनयू में वीसी के पद पर नियुक्ति नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा भारत के बौद्धिक जगत के गाल पर मारा गया करारा तमाचा है जो यह मानते हैं कि योग्यता का मतलब एक समझदार और संवेदनशील बुद्धिजीवी होना है। अब सरकार ने यह दिखा दिया है कि असली योग्यता केवल और केवल समाज में नफरत फैलाना है।

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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