जनसत्ता ने जीतनराम मांझी की खबर क्यों छापी? (डायरी, 20 दिसंबर 2021)

नवल किशोर कुमार

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मामला पत्रकारिता का है। पत्रकारिता का एक दूसरा पक्ष भी है। यह पक्ष भी कोई आज का नहीं है। मेरा अपना मत है कि जबसे लिखने-पढ़ने की प्रक्रिया शुरू हुई है, तभी से यह बात चल रही है। वैसे भी निरपेक्ष भाव से लेखन संभव ही नहीं है। असल बात यह है कि आप या हम जो लिख रहे हैं, वह किसके लिए लिख रहे हैं और जिनके लिए लिख रहे हैं, उनकी तादाद और हैसियत क्या है। मतलब यह कि या तो हम शासक के पक्ष में लिख सकते हैं या फिर आम आदमी के पक्ष में। आम आदमी बड़ा भ्रम फैलानेवाला शब्द है। कई बार सोचता हूं कि यह आम कहां से आ जाता है। इसकी जगह कोई और शब्द जैसे कि साधारण आदमी क्यों नहीं कहा जाता। वैसे भी साधारण आदमी एक बेहतर शब्द है। एक ऐसा आदमी जो बिल्कुल साधारण हो। शासक यदि पीठ पर लात भी जमाए तो उफ्फ तक नहीं करनेवाला आदमी आम आदमी के बजाय साधारण आदमी कहा जाना चाहिए। जो व्यक्ति शासक का विरोध करे वह साधारण आदमी नहीं हो सकता।
मैं तो पत्रकारिता की बात कर रहा था। दरअसल यह एक थैंकलेस जॉब है। थैंकलेस का मतलब यह कि जिसके लिए लिखा जाता है, वह भी इसकी कद्र नहीं करता है कि उसके लिए और उसके बारे में लिखा गया है। इस मामले में शासक सबसे अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। मतलब यह कि आप 99 खबर शासक के पक्ष में लिखें और एक उसके विपक्ष में तो शासक केवल विरोध वाली खबर को याद रखेगा। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी ऐसे ही शासक हैं। उनकी खासियत यही है कि वह अखबार में बिहार का विकास देखाते और देखते हैं। जो कुछ है वह अखबरों में ही है। इसलिए उनके यहां एक टीम है जो उन्हें इंच-टेप से खबरों का क्षेत्रफल मापती है कि किस अखबार ने उनके बयानों को कितना जगह दिया और अन्य को कितना। इसी के आधार पर नीतीश कुमार आकलन करते हैं।

मैं व्यंग्य की भाषा में कह रहा हूं कि नीतीश कुमार का कहना एकदम जायज है। आज की ही बात कर लिजीए कि दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता में यह खबर नहीं छपी है कि दरभंगा मेडिकल कॉलेज अस्पताल के परिसर में 99 कार्टन शराब की बोतलें मिली हैं। कायदे से जनसत्ता को यह खबर छापनी चाहिए थी, लेकिन उसने नहीं प्रकाशित किया। उसके लिए यह खबर ही नहीं है। वजह यह कि जनसत्ता भी नीतीश कुमार का खास ख्याल रखनेवाले अखबारों में एक है। लेकिन नीतीश कुमार हैं कि एकाध खबर छपते ही भड़ास निकालने लगते हैं।

 

अभी कुछ ही दिन हुए जब बिहार में जहरीली शराब से लोगों मौतें हो रही थीं और पटना के अखबारों में यह खबर अंदर के पृष्ठों पर थी, तब दिल्ली से प्रकाशित इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता ने एक दिन इन खबरों को प्रमुखता से छाप दिया। तो हुआ यह कि नीतीश कुमार भड़क गए। कहने लगे कि दिल्ली के लोगों को बिहार नहीं दिखता है। इसलिए ऐसी-वैसी खबरें छापते रहते हैं। अच्छी खबर दिल्ली वाले नहीं छापते।
मैं व्यंग्य की भाषा में कह रहा हूं कि नीतीश कुमार का कहना एकदम जायज है। आज की ही बात कर लिजीए कि दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता में यह खबर नहीं छपी है कि दरभंगा मेडिकल कॉलेज अस्पताल के परिसर में 99 कार्टन शराब की बोतलें मिली हैं। कायदे से जनसत्ता को यह खबर छापनी चाहिए थी, लेकिन उसने नहीं प्रकाशित किया। उसके लिए यह खबर ही नहीं है। वजह यह कि जनसत्ता भी नीतीश कुमार का खास ख्याल रखनेवाले अखबारों में एक है। लेकिन नीतीश कुमार हैं कि एकाध खबर छपते ही भड़ास निकालने लगते हैं।
मैं तो यह देख रहा हूं जनसत्ता ने जीतनराम मांझी की खबर को प्रकाशित किया है। वह भी आठवें पन्ने पर। शीर्षक कमाल का है– मांझी ने किया ‘अभद्र’ भाषा का इस्तेमाल, बाद में पलटे। खबर में पलटने जैसी कोई बात मांझी ने नहीं कही है। उन्होंने स्पष्ट जरूर किया है कि वह अपने लोगों (भूईयां-मुसहर जाति के लोगों को) के स्वाभिमान को जगाने के लिए ऐसा कह रहे थे। दरअसल कल मांझी ने भूईयां-मुसहर मिलन सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि ‘हमारे लोगों में धर्मपरायणता बढ़ी है। हमारे समय तक सत्यनारायण पूजा नहीं कराया जाता था। लेकिन अब तो हमारे यहां भी घर-घर में होने लगा है। साला हम लोग भी कितना बेशर्म हैं कि हम पूजा करवाते हैं। पंडित हरामी आता है। खाने के बदले नकदी मांगता है।’
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अब गौर से देखें तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। मांझी अपनों को संबोधित कर रहे थे। अब वे राम के नाम पाठ तो नहीं ही करते। वैसे भी राम के अस्तित्व को वह पहले ही सार्वजनिक रूप से नकार चुके हैं। तो सवाल यह है कि जनसत्ता ने जीतनराम मांझी की खबर क्यों छापी?
मुझे लगता है कि जनसत्ता ने उत्कृष्ट पत्रकारिता का उदाहरण पेश किया है। सिवाय इसके कि उसने जो शीर्षक लगाया है, वह अनुचित है। यदि जीतनराम मांझी ने माफी मांगी होती तो बेशक लिखा जाना चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे जब वे सीएम थे तो मधुबनी के अंधराठाड़ी में एक ब्राह्मण मंदिर में उनके द्वारा पूजा के बाद मंदिर को धोया गया था तब उन्होंने इसका विरोध करने के बाद पलट गए थे और ऐसे पलटे कि उस मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए बिहार सरकार के खजाने से रकम जारी कर दी।
लेकिन यह सवाल महत्वपूर्ण है कि जनसत्ता ने जीतनराम मांझी की खबर क्यों छापी? फिलहाल मेरी जेहन में एक कविता आ रही है–
धोबी, चमार, यादव, सब दलित-आदिवासी सुनो,
जाति तोड़ो, जमात जोड़ो, बनो मुल्क के अधिकारी।
करो दावेदारी कि सदियों की गुलामी हुई पुरानी,
पढ़-लिखकर जागरूक बनो, रहो न तुम अज्ञानी,
धोबी, चमार, यादव…
रहो न अज्ञानी, ब्राह्मणों का हरसंभव बहिष्कार करो,
ब्राह्मणों ने लूटा सदियों, अब तुम करारा प्रहार करो।
धोबी, चमार, यादव,…
करारा तुम प्रहार करो कि मनुवाद चूर-चूर हो जाय,
करो पालन संविधान का, समतामूलक समाज बन जाय
धोबी, चमार, यादव…
बने समतामूलक समाज कि चहुंओर खुशहाली आए,
फुले और आंबेडकर का प्यारा सपना, अब सच हो जाय।
धोबी, चमार, यादव, सब दलित-आदिवासी सुनो,,
जाति तोड़ो, जमात जोड़ो, बनो मुल्क के अधिकारी।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं। 
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