नदी एवं पर्यावरण संचेतना के लिए छठवीं नदी यात्रा
अपनी प्रकृति और पर्यावरण की कविताओं के लिए प्रसिद्ध युवा कवि राकेश कबीर अपनी एक कविता में कहते हैं –
पहाड़ों के सीने चीरकर /नदियों ने बनाए बहते हुए रास्ते /उन्हीं रास्तों ने जोड़ा /दुनिया भर की इंसानी बस्तियों को /आज इंसान नदियों को दीवारों में कैदकर /बसाता आ रहा है बस्तियां दुनिया भर में /बता रहा है नदियों को उनकी हद और /बहने का रास्ता।
आज जब हम लगातार वरुणा नदी के किनारों पर घूम रहे हैं तो जैसे इस कविता की एक-एक बात हमारे सामने साक्षात हो रही है। नदी की प्राकृतिक संरचना और प्रवाह का मार्ग, आस-पास के गांवों के किसानों का चरित्र, अतिक्रमण, गंदे नाले और नदी को खेत में मिलाने की हवस। आज मानो इंसानी लालच और नदी के बीच कोई गोपनीय जंग छिड़ी हो। लगता है इनसान जीत रहा है लेकिन यह कैसी जीत कि वह स्वार्थ में अंधा होकर अपने आस-पास का पानी और हवा इतनी दूषित करने में लगा है कि स्वयं उसी का जीवन खतरे में पड़ गया है।
हमारी सभ्यता का विकास नदियों से हुआ है। प्राचीन समय में जनसंख्या बहुत कम थी। मनुष्यों ने अपना समाज बनाया। समाज बनने के बाद बस्तियां बनाई। बस्तियों के बाद शहर बसाया। ये सारी प्रक्रिया ज्यादातर नदियों के किनारे विकसित हुई। मानव का जीवन पूर्ण रूप से नदियों पर ही निर्भर था। नदियों का पानी नहाने, पीने और सिंचाई करने के काम आता था। आज पानी की आपूर्ति के लिए अन्य साधन विकसित हो जाने के कारण नदियों के महत्व को भले कम समझा जाने लगा है किंतु इसको नकारा नहीं जा सकता। यह ज़रूर है कि लोग नदियों पर ध्यान देना भी कम कर दिये हैं। इसका कारण यह है कि अब नदियों में पानी बहुत कम रह गया है, साथ ही ये बहुत गंदी हो चुकी हैं। विभिन्न कारखानों की गंदगी या शहरों का मल व कचरा नदियों में सीधे गिरता है। छोटी-छोटी नदियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। सबके घरों में हैंडपंप और सबमर्सीबल लग चुका है। सिंचाई के लिए ट्यूबवेल और पंपिंग सेट का साधन विकसित हो गया है। इसीलिए मनुष्यों की नदी पर निर्भरता अब बहुत कम रह गई है।
पिछले डेढ़ महीने से गांव के लोग सोशल एंड एजुकेशनल ट्रस्ट की टीम अपने साथियों के साथ वरुणा नदी किनारे से नदी एवं पर्यावरण संचेतना विषय पर लगातार पैदल यात्रा निकालते हुए ग्रामीणों से बातचीत कर रही है और नदी के किनारे के गांवों में जाकर यह समझने की कोशिश कर रही है कि आम लोगों में नदी एवं पर्यावरण को लेकर कितनी संवेदना बची हुई है। नदियों को विलुप्त होते देख लोग कितना चिंतित हैं। नदियों पर उनके क्या विचार हैं और नदियों के द्वारा उनके जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है। साथ ही हम लोग नदी एवं पर्यावरण संचेतना को लेकर गांव-गांव तक जागरुकता अभियान भी चला रहे हैं ताकि लोग नदियों के महत्व को समझें और इसके अस्तित्व को नष्ट होने से बचाने की कोशिश करें। इस अभियान के तहत हम लोग नदी के किनारे से अब तक छ: यात्रा निकाल चुके हैं। इस यात्रा में 20 से 25 गांव तक चल चुके हैं।
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17 जुलाई रविवार का दिन सुबह की ताजी हवा में नींद खुली तो अचानक याद आया कि 6:00 बजे तक नदी यात्रा में पहुंचना है। हर बार की तरह अपने ज़रूरी काम जल्दी जल्दी निपटा कर मैं स्कूटी लेकर निकल गया। रामजी सर ने मुझे हरहुआ आने के लिए कहा था किंतु जब रिंग रोड पर पहुंचा तो मुझे लगा कि यहां से भक्तुपुर घाट नजदीक है, पिछली यात्रा में एक सज्जन बता रहे थे कि रिंग रोड से पटेल ढाबा से एक रास्ता सीधे अखाड़े पर आता है। मैंने वह रास्ता न पकड़कर गलती से एक दूसरा रास्ता पकड़ लिया। कुछ दूर चलने पर वह रास्ता संकरा हो गया और एक बंसवारी के पास समाप्त हो गया, जहां पर मैं अटक गया। एक सज्जन सुबह-सुबह अपने जानवरों के नाद में चारा-पानी डाल रहे थे। मैंने उनसे पूछा- चाचा अखाड़े पर किधर से रास्ता जाएगा। उन्होंने बताया कि अखाड़ा सामने दिख रहा है, गाड़ी यहीं पर खड़ी करके पैदल चले जाइए। वास्तव में वहां से 50 मीटर भी दूरी भी न थी। मैं कुछ हिचकिचाया। वे शायद समझ गए थे इसलिए बोले –
‘किसी के पास हिम्मत नहीं है जो आपकी गाड़ी को छू दे।’
‘कोई और रास्ता नहीं है? जहां से गाड़ी अखाड़ा तक चली जाए?’
‘गांव में से घूमकर जाना होगा।’
मैंने अपनी स्कूटी को गांव की तरफ से घुमा दिया और अखाड़े तक पहुंच गया। वहां पर कुछ नौजवान कुश्ती लड़ रहे थे, कुछ कसरत कर रहे थे, कुछ रस्सियां खींच रहे थे। बड़े-बुजुर्ग लोग उन्हें दांव-पेंच सिखा रहे थे। उस अखाड़े पर मैंने देखा कि जवान, वृद्ध और बालक सभी के लोग जोर-आजमाइश कर रहे थे। मैं बहुत देर तक लोगों के क्रियाकलाप को देखता रहा। फिर अपर्णा मैम को फोन करके कहा कि ‘मैं अखाड़े पर आ गया हूँ।’
मैम बोलीं कि ‘बस-बस पाँच मिनट में हम लोग भी आ रहे हैं।’ तब मैं नदी किनारे जाकर कुछ तस्वीरें लेने लगा, साथ ही सुबह की खिलती हुई धूप का आनंद भी। तब तक नंदलाल मास्टर और संतोषजी भी आ गए हैं। मैंने नमस्कार करने के बाद पूछा कि ‘और लोग कहाँ हैं?’
‘सब आ रहे हैं पीछे।’ संतोषजी ने कहा।
फिर रामजी सर, अपर्णा मैम, अमन विश्वकर्मा, किसान नेता रामजनम, श्यामजी और संजयजी भी आ गए। सब लोग एक दूसरे से बातें करने लगे। अपर्णा मैम अखाड़े के चारों ओर के दृश्यों का फोटो शूट करने लगीं। बातचीत में ज्यादा समय लगते देख रामजी सर और श्यामजी बैनर लेकर यात्रा के लिए निकल पड़े। उनके पीछे सभी लोग बारी-बारी से नदी के किनारे उतर गए और चलने लगे। सौ मीटर दूर पहुंचने पर दिखा कि गोकुल दलित और सुरेंद्रजी दौड़ते हुए आ रहे हैं। कुछ ही मिनट में वे हमारे साथ आ गए और बैनर के पास तस्वीरें खिंचवाने लगे। साथ ही सबको नमस्कार किए जा रहे थे। इसी बीच मनोज यादव और अनूप श्रमिक भी आते हुए दिखे। वे लोग भी अपनी तेज गति में आ रहे थे तो हम लोगों ने कुछ समय तक रुक कर उनका इंतजार कर लिया। मनोज पसीने से बिल्कुल तर-बतर थे, किंतु हाव-भाव से बहुत प्रसन्न दिखाई दे रहे थे। कुछ समय बाद वे मोबाइल के द्वारा यात्रा का फेसबुक लाइव करने लगे, जिसमें नदियों की हाल और स्थिति का दृश्य दिखाते हुए बारी-बारी से सबसे साक्षात्कार करने लगे। इससे यात्रा में प्रत्यक्ष शामिल न होने वाले लोग भी अप्रत्यक्ष रूप से यात्रा का आनंद ले रहे थे।
इधर नदी काफी साफ-सुथरी थी, रास्ते में गंदगी भी कम थी। उसके किनारे के खेतों की जुताई हो चुकी थी, जिसमें बड़े-बड़े ढेले दिखायी दे रहे थे। सारा सिवान हरा-भरा था। कहीं-कहीं खेतों में फसलें लहलहा रही थी। इस तरह के दृश्य को देखकर रामजनमजी ने कहा- ‘यह नदी यात्रा नहीं बल्कि रामजी हम लोगों को तीरथ करा रहे हैं।’
‘हां-हां इससे बड़ा तीरथ और क्या हो सकता है!’ अनूपजी ने उनकी बात का समर्थन किया।
‘फिर इस यात्रा को तीर्थ कैसे कहा जा सकता हैं?’ कई लोगों ने अपना विचार प्रकट किया।
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पगडंडियों पर चलते हुए रेलगाड़ी की तरह कतार काफी अच्छी लग रहा था। खेतों में काम करने वाले लोग हम लोगों को बहुत ध्यान से देख रहे थे। कहीं-कहीं उत्सुकतावश लोग पूछ लेते थे कि आप लोग कहां जा रहे हैं? क्या कर रहे हैं? नदी के किनारे जगह-जगह कुछ पुरुष मछली मारते हुए तो कुछ औरतें घास काटती हुई दिखीं। एक बूढ़ी औरत नदी किनारे जल्दी-जल्दी खुरपी से घास छील रही थी। इसे देखकर मैंने पूछा- ‘आप घास किसलिए छील रही हैं?’
‘गोरुन के खियावे बदे। हमहन के पास खेत ना हव त यही ज से काट लेहीला।’
‘घास में मिट्टी भी लगी है’
‘एके पीट के मट्टी निकाल देवल जाई।’
यह नदी भले ही गंदी हो चुकी है, किंतु इसमें आदमी और जानवर सब नहाते हुए दिखे। भतसार के आगे जब हम लोग पहुंचे रास्ते में ढेर सारी सीपियाँ दिखायी पड़ीं। मछली मारनेवालों ने जाल फेंका था तो मछलियों के साथ यह सब भी निकल आईं और अब सूख चुकी थीं। यह एक दुर्लभ लेकिन दुखदायी दृश्य था क्योंकि इससे पहले कहीं भी सीप-घोंघों के दर्शन भी न हुए थे। इधर नदी में पत्तीवाली सेवार भी थी मतलब यहाँ नदी में जैवविविधता थी। गोकुलजी ने सीपियों को उठाते हुए कहा- ‘पहले इसे गाँवों में सुतुही कहा जाता था। इससे आम और सब्जियां छिली जाती थी। यहां तक कि मांएं बच्चे को दूध भी पिलाती थीं। अपर्णा मैम ने चार-पाँच सीपी अपने थैले में रख लिया। लंबी यात्रा होने के कारण पैदल चलते-चलते सबको थकान लगने लगी थी। प्यास भी लग चुकी थी। हम लोग कुछ देर वही ठहर गयें। अपर्णा मैम थैले से बिस्किट और पानी निकाला। गोकुलजी और नंदलाल मास्टर सरपत की एक छाया में बैठ गए। हम लोग गोसाईंपुर घाट तक पहुंच चुके थे। जहां तक यात्रा का लक्ष्य था, पूरा हो चुका था। इसी बीच श्यामजी अपने किसी मित्र मछेंद्रनाथ को फोन करके पूछ लिए- ‘आप घर पर हैं न?’
उन्होंने कहा- ‘हां, मैं घर पर ही हूँ।’
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श्यामजी के कहने पर हम लोग थोड़ी दूर और आगे बढ़े। वहां से दाहिने तरफ थोड़ी चढ़ाई के बाद उनकी पाही पर पहुंच गए। उनके घर उनकी भाभी और बहू थी। द्वार पर पेड़ों की घनी छाया थी और चारों तरफ से ठंडी हवा वह रही थी। उनके द्वार पर कोई चहारदीवारी न थी, बिल्कुल खुला वातावरण। खूँटे पर कुछ जानवर और बकरियां बँधी हुई थीं। हम लोगों के पहुंचते ही चारपाई और ढेर सारी कुर्सियां बिछा दी गईं। लंबी यात्रा करने के बाद सब लोग जहां-तहां बैठकर शीतल हवा का आनंद लेने लगे। तब तक उनके घर से गुड़ और पानी आ गया। गुड़ खाकर पानी पीने के बाद आनंद आ गया। वहां काफी देर तक आपस में बतकही होती रही। वास्तव में भारत माता गाँव में ही बसती हैं। जहां का सांस्कृतिक वातावरण बिल्कुल अलग है। जहां स्वार्थ कम प्रेम अधिक होता है। अनजान आदमी के साथ भी लोग अपनत्व जैसा व्यवहार करते हैं। मछेंद्रनाथजी के परिवार ने घर पर आगंतुक अतिथियों का भरपूर स्वागत किया। वे बहुत प्रसन्न दिखाई दे रहे थे।
वहां हम लोगों ने आधे घंटे से अधिक समय तक विश्राम किया। घड़ी की सुई में 9.30 बज चुका था। सभी को अपने घर लौटना था किंतु बिना भक्तुपुर घाट पहुंचे कोई कैसे लौट सकता था। बैनर-पोस्टर लेकर हम लोग लौटने लगे तो मछेंद्रनाथजी भी यात्रा में शामिल होकर कुछ देर तक हमारे साथ चलें। गांव के लोग भी सहभागी बने। पीछे से आते हुए एक ट्रैक्टर को उन्होंने रुकवा दिया। बोले कि ‘आप लोग कुछ दूर तक ट्राली में बैठकर जा सकते हैं।’
‘हां नदी के किनारे की यात्रा तो हो चुकी है। ट्राली में बैठकर जाने में कोई एतराज नहीं है।’ रामजी सर ने कहा।
सब लोग ट्रैक्टर की ट्राली में सवार हो गए। कुछ लोग आगे की सीट पर बैठ गए। गाँव के उबड़-खाबड़ रास्ते पर हिचकोले मारते हुए ट्रैक्टर चल रहा था। हम सबको मजा आ रहा था। ट्रैक्टर की ट्राली में बैठकर यात्रा का अनुभव सबको न था, इसलिए इस नए अनुभव को भी यात्रा का अंग मानकर आनंद के साथ गांव से होते हुए हम लोग चलने लगे। इस पर सुरेंद्रजी ने कहा है कि हम बीस साल बाद ट्रैक्टर की सवारी कर रहे हैं। पहले गांव में ट्रैक्टर ही मुख्य साधन हुआ करता था। ट्रैक्टर में बैठना अब कहाँ नसीब होता है।
इसके बाद सब लोग ट्रैक्टर में बैठने के अपने अनुभव साझा करने लगे। मनोज यादव ने मोबाइल का कैमरा ऑन करते हुए गांव की तरफ घुमा दिए। फिर लाइव के माध्यम से काशी के इस दृश्य की तुलना जापान के शहर क्योटो से करने लगे।
कुछ दूर चलने के बाद हम लोग ट्रैक्टर से उतर गये। वहां दो ईंट के भट्ठे दिखाई दिए, जिसके आसपास के खेत लगभग समाप्त हो चुकी थी। उसकी मिट्टी का उपयोग भट्टे में ईंट बनाने के लिए किया गया था। उसके आसपास के लोग छोटी-छोटी झोंपड़ियों में रह रहे थे। देखने से लग रहा था कि उनका जीवन मुख्यधारा के समाज से कटा हुआ है। भारत सरकार को इनके विकास और शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए। वास्तव में सरकारी योजनाओं की ज़रूरत इन्हीं लोगों के लिए होनी चाहिए।
इसके बाद हम लोग पुनः नदी के किनारे से चलने लगे। जहां से एक किलोमीटर चलने के बाद भक्तुपुर घाट पर वापस आ गए। वहां लालजी और पिन्नू सभी के लिए नाश्ता लेकर हाजिर थे। यात्रा की थकान के बाद सब लोगों ने नाश्ता करके पानी ग्रहण किया। वैचारिक गोष्ठी की तैयारी चल रही थी। मुझे अस्पताल जाना था, इसलिए मैं गोष्ठी में समय नहीं दे सका। रामजी सर से अनुमति लेकर चला गया।
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