कहानियाें का लेखन सुंदर काम है। यह कहानियां लिखनेवाला ही समझ सकता है। परकाया प्रवेश के जैसा होता है बाजदफा यह। मतलब यह कि जो आप नहीं हैं, आप वह लिखते हैं। या फिर कई बार कोई घटना घटती है और आप चाहते हैं कि उसे अपने हिसाब से सहेज लें। कितना कुछ होता है कहानियों के लिखने के पीछे। कहानी का हर पात्र लिखे जाने से पहले संवाद करता है। लेकिन कहानियां लिखना और कहानियां गढ़ना दोनों दो बातें हैं। कहानियां गढ़ने वाला कहानीकार नहीं हो सकता है। वह साजिशकर्ता हो सकता है, और पक्षपाती इतिहासकार या फिर कुछ और लेकिन कहानीकार नहीं।
अभी हाल ही में एक कहानी पढ़ी। लेखिका हैं रजनी मोरवाल। कहानी का शीर्षक है– ‘कोका किंग’। कहानी में दो जिस्म हैं, दो मन हैं, दो वर्ग और निस्संदेह दो जातियां भी। लेकिन कहानीकार ने जातियों को बताने से परहेज किया है। मुमकिन है कि उन्हें इसकी आवश्यकता महसूस न हुई हो। वैसे भी जब मन और जिस्म केंद्र में हो तो जाति का ध्यान किसे रहता है। रजनी मोरवाल इस मामले में अजय नावरिया के जैसी नहीं हैं। अजय नवारिया ने अपनी गढ़ी हुई कहानी ‘संक्रमण’ में मन, जिस्म, वर्ग और जाति सभी को स्थान दिया था। हालांकि यौन सुख के चरम पर पहुंचकर कोई जाति के बारे में सोचे, और ठंडा हो जाय तो इसे कहानी लिखना तो खैर नहीं ही कहेंगे, गढ़ना अवश्य कहा जा सकता है।
खैर, अजय नावरिया भी अच्छे लेखक हैं। रजनी मोरवाल उनसे जरा आगे सोचती हैं। उनकी नायिका घर से निकलकर होटल के कमरे में पहुंचती है और एक पुरुष को किराये पर लेती है। दिलचस्प यह कि शारीरिक आनंद और मानसिक संवेदनाओं के बीच नायिका संतुलन बनाती है। यह इसलिए कि वस्तु चाहे किराये पर ही क्यों न ली गयी हो, जबतक उसकी मियाद रहती है, वह उसे प्यार करता ही है। ठीक वैसे ही जैसे मेरे लिए मेरा यह कमरा है, जिसे चार साल पहले मैंने किराये पर लिया था। इस कमरे में कितनी यादें और कितने अहसास हैं। इस कमरे पर मेरा अधिकार नहीं, लेकिन लगाव गहरा है।
रजनी मोरवाल की कहानी ‘कोका किंग’ भी प्यार, अधिकार, लगाव और यथार्थ का समुच्चय है। मैं सोच रहा हूं कहानियां गढ़नेवालों के बारे में। मैं बिहार का रहनेवाला हूं। वहां एक कहावत टाइप का है कि सबसे अधिक कहानियां भूमिहार जाति के लोग गढ़ते हैं। हालांकि यह सच नहीं है। सबसे अधिक कहानियां तो ब्राह्मण गढ़ते हैं। उनकी कहानियां तो ऐसी हैं कि आदमी चकरा ही जाय। पूरा पुराण इसी तरह की कहानियों से भरा पड़ा है। अब कोई यह कैसे विश्वास कर सकता है कि हाथी के बच्चे का सिर एक आदमी के बच्चे के सिर पर लगा दिया जाय। यह छोड़िए यह कैसे विश्वास किया जा सकता है कि कोई खीर खाए और गर्भवती हो जाय। हालांकि यह मुमकिन है कि कोई पुरुष किसी महिला को खीर तोहफे में दे और वह उसके प्रति आसक्त हो जाय तथा उसके साथ संभाेग करे तब वह गर्भवती हो सकती है। यदि कोई ऐसा कहे तो यकीन किया भी जा सकता है।
लेकिन यह बातें तो बहुत पुरानी हैं। पेरियार ने तो बाकायदा एक किताब ही लिख दी। नाम रखा– दी रामायण : ट्रू रीडिंग। बाद में इसका हिंदी अनुवाद सच्ची रामायण ललई सिंह यादव ने प्रकाशित कराया तब तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया। मामला हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट तक गया। जीत ललई सिंह यादव को मिली। दोनों अदालतों ने उत्तर प्रदेश सरकार की आपत्तियों को खारिज कर दिया था।
मैं सोच रहा हूं कि आज यदि यही मामला होता तो क्या अदालतों का फैसला वही होता जो 1970 के दशक में था। अदालतों की बात इसलिए कर रहा हूं क्योंकि इन दिनों एक कहानी गढ़ी जा रही है और वह भी भरी अदालत में। बनारस के ज्ञानवापी मस्जिद परिसर मामले में बीते 17 मई को सीनियर डिवीजन जज रवि कुमार दिवाकर ने एक आयुक्त अधिवक्ता अजय कुमार मिश्र को बर्खास्त कर दिया था और सर्वे की रपट दाखिल करने का निर्देश शेष दो आयुक्त अधिवक्ताओं को दिया था। लेकिन कल अजय कुमार मिश्र ने अपनी रपट पेश कर दी। मजे की बात यह कि अजय कुमार मिश्र ने अपनी रपट मीडिया को भी उपलब्ध करा दी, जिसमें कहा गया है कि ज्ञानवापी मस्जिद में सर्वे के दौरान हिंदू धर्म से जुड़ी कई चीजें मिली हैं। बाकायदा अजय कुमार मिश्र ने सूची दी है।
मैं नहीं जानता कि अजय कुमार मिश्र ने किसके आदेश पर अपनी रपट अदालत को समर्पित किया यदि उसे 17 मई को बर्खास्त कर दिया गया था? क्या न्यायाधीश रवि कुमार दिवाकर ने उन्हें ऐसा करने की अनुमति दी थी और इस बात की भी कि वह अपनी रपट अदालत के अलावा मीडिया के साथ साझा करें?
मजे की बात यह भी है कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट में भी चल रहा है। कल इस मामले में सुनवाई होनी थी। लेकिन ब्राह्मण पक्ष के वकील का स्वास्थ्य खराब होने की बात कही गयी। शायद उन्हें दिल का दौरा पड़ा है। लेकिन यकीन करने का मन नहीं करता है क्योंकि ब्राह्मण वर्ग के पक्षकारों ने तमाम तरह की कहानियां पहले ही गढ़ लिया है। हो सकता है कि यह पक्ष चाहता हो कि सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई लंबित हो और इस बीच निचली अदालत अपना फैसला सुना दे। अब एक बार फैसला सुनाने के बाद उसे खारिज करने में सुप्रीम कोर्ट को भी पसीने बहाने होंगे।
Amazon Link –
वह तो भला हो सुप्रीम कोर्ट के विद्वान जजद्वय जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की खंडपीठ ने ब्राह्मण वर्ग की इस साजिश को पहले ही भांप लिया और निचली अदालत को कल फैसला सुनाने से रोक दिया। नहीं तो कल एक नयी कहानी गढ़ी जाती और उसके नीचे अदालत की मुहर भी होती।
गजब है न कहानियां लिखने और कहानियां गढ़ने के बीच का यह अंतर भी !
नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।