आज का दिन ऐतिहासिक है। ऐतिहासिक इस मायने में कि देश में राष्ट्रपति पद के लिए मतदान होना है। सत्ता पक्ष की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू हैं और विपक्ष की ओर से पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा उम्मीदवार हैं। आंकड़े सत्ता पक्ष के पास है तो आज का मतदान औपचारिक होने के बावजूद भी ऐतिहासिक महत्व रखता है। एक महत्वपूर्ण घटना यह भी कि कल विपक्ष ने मारग्रेट अल्वा को उपराष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाया है। हालांकि विपक्ष के पास आंकड़े पर्याप्त नहीं हैं, इसलिए सत्ता पक्ष के उम्मीदवार जगदीप धनखड़ का जीतने की पूरी संभावनाएं हैं।
दरअसल, मैं यह देख रहा हूं कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ने महिलाओं को आगे किया है। यह बेहद सुकूनदायक है। मैं यह बात इसलिए भी कह रहा हूं कि भले ही आज महिलाएं प्रतीकात्मक रूप से ही सही, भारतीय पुरुषों की राजनीति में अपनी पैठ बना तो रही हैं। आज से सौ साल पहले कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि महिलाएं यहां तक पहुंच भी सकेंगी।
संयोग ही कहिए कि कल रात बद्री नारायण और सुनील सिंह द्वारा संयुक्त रूप से संपादित पुस्तक हमारी चुनौतियां पढ़ रहा था। इस पुस्तक में एक आलेख डॉ. चारु गुप्ता का भी संकलित है। आलेख का शीर्षक है– धारा के विरुद्ध : स्त्री, हिंदी, प्रिंट और अभिलेखागार। अपने इस आलेख में डॉ. चारु गुप्ता ने सौ साल पहले महिलाओं की स्थिति का बखान किया है और उन्हें अपने दक्षिणपंथी नजरिए से विश्लेषित भी किया है। वह इस बात की पक्षधर हैं कि महिला और पुरुष दोनों अलग-अलग हैं। पुरुष का काम उत्पादन और महिला का काम संरक्षण है। वह उद्धृत करती हैं–
[bs-quote quote=”कानूनदां स्त्री पति से कहने लगे–सुनिए जनाब, मेरे और आपके अधिकार बराबर हैं–मैं भी स्वाधीन, आप भी स्वाधीन। एक दिन मैं चूल्हा-चौका और झाड़-बुहार करूं, एक दिन आप। एक दिन मैं आपकी सेवा करूं, एक दिन आप मेरी सेवा करें। अथवा यदि वह यह कह बैठे कि मुझे संतान उत्पन्न करने से इंकार है, तो बताइए ऐसी स्वाधीनता का क्या नतीजा होगा? …स्त्रियां स्वभाव से ही सुकुमार होती हैं।… इस दशा में यदि धर्मशास्त्र ने उन्हें पिता, पुत्र या पति के वश में रहने का नियम कर दिया तो क्या गजब किया?” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
प्राकृतिक सृष्टि क्रिया में पुरुष की जिम्मेदारी केवल दस मिनट की है। और स्त्री की जिम्मेदारी दस महीने की है। जब प्रकृति ने ही दस मिनट और दस महीने का अंतर जिम्मेदारी में रक्खा है, तब कोई कैसे दोनों की जिम्मेदारी एक कर सकता है? (कन्नोमल, महिला सुधार, आगरा, 1923:34)
डॉ. चारु गुप्ता महावीर प्रसाद द्विवेदी को उद्धृत करते हुए लिखती हैं कि —सेक्सजनित शरीर के स्व-अनुशासन और नियमन को राष्ट्र की स्वतंत्रता से जोड़ा गया। आदर्शीकरण की अवधारणा में शोषण की जड़ें थीं। जैसे कि राज्य के आंतरिक और विदेशी दो महत्वपूर्ण विभाग होते हैं, वैसे ही आदमी की दुनिया को बाहरी और औरत की दुनिया को आंतरिक माना गया। पतिव्रता की अवधारणा को नए गुणों के साथ परिमार्जित किया गया। (डॉ. चारु गुप्ता, हमारी चुनौतियां, राजकमल प्रकशन, नई दिल्ली, 2019 : 64)
वह आगे महावीर प्रसाद द्विवेदी का उद्धरण देती हैं– यदि कोई कानूनदां स्त्री पति से कहने लगे–सुनिए जनाब, मेरे और आपके अधिकार बराबर हैं–मैं भी स्वाधीन, आप भी स्वाधीन। एक दिन मैं चूल्हा-चौका और झाड़-बुहार करूं, एक दिन आप। एक दिन मैं आपकी सेवा करूं, एक दिन आप मेरी सेवा करें। अथवा यदि वह यह कह बैठे कि मुझे संतान उत्पन्न करने से इंकार है, तो बताइए ऐसी स्वाधीनता का क्या नतीजा होगा? …स्त्रियां स्वभाव से ही सुकुमार होती हैं।… इस दशा में यदि धर्मशास्त्र ने उन्हें पिता, पुत्र या पति के वश में रहने का नियम कर दिया तो क्या गजब किया? (महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली, खंड 7, संकलन-संपादक भारत यायावर, दिल्ली, 1995 : 145)
डॉ. चारू गुप्ता अपने इसी आलेख में विवाह आदि के मौके पर गाए जानेवाले गीतों की खूब आलोचना करती हैं। हालांकि उनकी आलोचना के आधार में बीसवीं सदी के दौरान हिंदी साहित्य में किया गया वर्चस्ववादी चिंतन ही है। मैं स्वयं मगह के इलाके से आता हूं और हमारे यहां आज भी विवाह आदि के मौके पर महिलाएं गीत गाती हैं और इन गीतों में सेक्स से संबंधित शब्द भी हाेते हैं, जिनमें रिश्तों का हवाला होता है। मसलन, लड़की की शादी में उसकी सहेलियां लड़के को कहती हैं कि वह अपनी बहन के साथ हमबिस्तर हो। हमारे यहां तो शादी के मौके पर एक नेग भी है धान कूटने की। जब नेग निभाया जा रहा होता है तब महिलाएं वर को गाली भी देती हैं कि अपनी मां-बहन की ओखली में धान कूटो।
दरअसल, महिलाओं को पुरुषों ने दास बना रखा है। यह आज भी जारी है। मेरी समझ से महिलाएं शादी वगैरह के मौके पर ऐसे गीत गाती हैं तो वह एक तरह अपने अंदर का फ्रस्टेशन भी निकालती हैं। वह पुरुष प्रधान समाज को चुनौती भी देती हैं।
दरअसल, उन्नीसवीं सदी का दौर बदलावों का दौर था। एक तरफ द्विज वर्ग महिलाओं के सुधार का अभियान चला रहा था, जिसका मकसद केवल और केवल पारिवारिक सुधार था। वह महिलाओं को घर की दहलीज के अंदर कुछ अधिकार देने को तैयार था, लेकिन केवल कुछ ही अधिकार। फिर चाहे वह राममोहन राय जैसे तथाकथित समाज सुधारक ही क्यों न हों। महिलाओं को सुधारने का ठेका मैथिलीशरण गुप्त ने भी ले रखा था–
रखती यही गुण कि वे गंदे गीत गाना जानतीं,
कुल, शील, लज्जा उस समय कुछ भी नहीं वे मानतीं।
हंसते हुए हम भी अहो! वे गीत सुनते सब कहीं,
रूदन करो हे भाइयो! ये हंसने की बात नहीं।
(मैथिलीशरण गुप्त, भारत भारती, झांसी, 1937, 136)
यह वे लोग थे जिन्हें ब्राह्मण धर्मी होने का अहंकार भी रहा। ये वही लोग थे जो बेटियों के कन्यादान को सबसे बड़ा दान बताते रहे।
वरुणा की दूसरी यात्रा
कल ही ओमप्रकाश कश्यप की किताब पेरियार ई. वी. रामासामी : भारत के वॉल्टेयर को पढ़ रहा था। अपनी इस किताब में कश्यप ने पेरियार के विचारों को सविस्तार विश्लेषित किया है। इस क्रम में उन्होंने महिलाओं के संबंध में पेरियार के विचारों को उद्धृत किया है। एक जगह वह महाभारत के उद्योग पर्व की एक कहानी बताते हैं कि गालव नामक एक ऋषिकुमार ने विश्वामित्र से दीक्षा हासिल की। जब गालव अपने घर लौटने लगा तो उसने विश्वामित्र से गुरु दक्षिणा के बारे में पूछा। विश्वामित्र ने उसे 800 काले कान वाले घोड़े देने को कहा। गालव पेशोपेश में पड़ गया। उसके पास 800 ऐसे घोड़े चाहिए थे जिनके कान काले हों। वह परेशान होकर नहुष कुल में उत्पन्न राजा ययाति के पास पहुंचा और अपनी व्यथा बतायी। ययाति ने उसे घोड़े देने में असमर्थता व्यक्त की। लेकिन गालव को खाली हाथ भेजने के बजाय उसने अपनी बेटी माधवी को सौंपते हुए कहा कि उसकी बेटी दिव्य गुणों से परिपूर्ण है। उसे लेकर पृथ्वी के अन्य राजाओं के पास जाए। कोई भी राजा इसके बदले अपना राज-पाट तक उसे दे देगा फिर 800 काले कान वाले घोड़ों की बात ही क्या है।
[bs-quote quote=”दरअसल, महिलाओं को पुरुषों ने दास बना रखा है। यह आज भी जारी है। मेरी समझ से महिलाएं शादी वगैरह के मौके पर ऐसे गीत गाती हैं तो वह एक तरह अपने अंदर का फ्रस्टेशन भी निकालती हैं। वह पुरुष प्रधान समाज को चुनौती भी देती हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
गालव माधवी को लेकर अयोध्या के राजा हर्यश्व के दरबार में पहुंचा तो उसे गालव का ऑफर बुरा नहीं लगा। लेकिन उसके पास केवल 200 काले कान वाले घोड़े थे। तो गालव ने माधवी को उसके पास एक साल के लिए बंधक रख दिया और एक साल के अंदर माधवी एक पुत्र की मां बनी। एक साल के बाद गालव ने अयोध्या से माधवी को वापस लिया और काशी के राजा दिवोदास के यहां पहुंचा। उसने भी हर्यश्व की तरह ही गालव को 200 काले कान वाले घोड़े दिए और एक साल के लिए माधवी को बंधक बनाकर रखा। फिर गालव एक साल बाद माधवी को लेकर भोजराज के यहां पहुंचा तो उसने भी गालव को 200 घोड़े दिए और माधवी को एक साल तक रखा। माधवी तब तीन पुरुषों से तीन पुत्रों को जन चुकी थी।
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इसके बाद गालव निराश हो गया, क्योंकि उसके पास अभी भी विश्वामित्र को देने के लिए 800 काले कान वाले घोड़े पूरे नहीं थे। लेकिन उसके मन में आया कि जब राजाओं को माधवी पसंद आयी तो क्या विश्वामित्र 200 घोड़े के बदले माधवी को स्वीकार नहीं करेंगे। विश्वामित्र को भी गालव का ऑफर बहुत पसंद आया और उसने 600 घोड़े और माधवी को स्वीकार कर लिया।
बहरहाल, महिलाओं की दुनिया के सवाल अपने सवाल हैं। सेक्स और यौन शुचिता को लेकर बहस अब बहुत आगे बढ़ चुकी है। लेकिन अब भी कन्यादान जैसी परंपराएं कायम हैं। महिलाओं के लिए बंदिशों में कुछ कमी आयी है तो उसकी वजह केवल और केवल डॉ. आंबेडकर द्वारा रचित संविधान है। मुझे भी उम्मीद है कि जो भारतीय पुरुष द्रौपदी मुर्मू और मारग्रेट अल्वा को शीर्ष पदों पर प्रतीकात्मक रूप से ही स्वीकार कर रहे हैं, वे कहीं न कहीं उनके बराबरी के दर्जे को महत्व दे रहे हैं। और आज नहीं तो कल महिलाएं अपने लिए ऊँचा मुकाम अवश्य बनाएंगीं।
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