किसी भी धर्मनिरपेक्ष एवं सच्चे समाज सेवक को यह मानने में कतई संकोच नहीं होना चाहिए कि वर्तमान भाजपा सरकार दलितों और पिछड़ों पर नानाविधि से भेदभाव पूर्ण रवैया और अत्याचार करने का कोई भी मौका नहीं चूक रही। हाँ, यह जरूर है कि चुनावी प्रचार करते समय जरूर ही पिछ्ड़ों और दलितो की पैरोकार बनती हैं। उनके हिंदू होने का दावा बड़े ही जोर-शोर से करती है किंतु जब उन्हें सामाजिक समानता और मानवाधिकार देने की बात आती है तो मुंह मोड़ लेती है। और तो और दूसरे राजनीतिक दलों द्वारा पिछ्ड़ों और दलितों के हक में किए गए कामों को अपने नाम लिखने में मिथ्या प्रचार करती है कि भाजपा ने पिछ्ड़ों और दलितों के लिए हमने अमुक-अमुख काम किए। भाजपा के अंतर में छिपा मनुवाद कभी न कभी जाने-अनजाने बाहर आ ही जाता है
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने अपने एक बयान में कहा कि भाजपा पिछड़ों और दलितों को शूद्र मानती है। उन्होंने आरोप लगाया कि लखनऊ के गोमती नदी के किनारे आयोजित धार्मिक यज्ञ में शामिल होने के लिए जिन संतों और आयोजनकर्ताओं ने हमें बुलाया था। उन्हें भाजपा और आरएसएस की तरफ से धमकियां मिल रही थीं। अनुष्ठान में भाजपा के लोगों ने बाधा पैदा की। कार्यक्रम स्थल पर पहुंचने पर भाजपा के कार्यकर्ताओं ने मुझे रोकने की कोशिश की। श्रद्धालुओं और भक्तों के साथ धक्का मुक्की की। भाजपा अपने को धर्म का ठेकेदार समझती है। हम तो श्रद्धा के साथ गए थे उससे भाजपा को क्यों दिक्कत हो गई भाजपा के गुंडे पागलों की तरह घूम रहे हैं।
अखिलेश यादव ने कहा कि बीजेपी हमें शूद्र समझती है। मंदिरों में भी जाने से रोकना चाहती है। अखिलेश यादव ने कहा कि उन्हें शायद इसलिए पीताम्बरा मंदिर में जाने से रोका गया क्योंकि वे शूद्र की कैटेगरी में आते हैं। सनातन को राष्ट्रीय धर्म बताए जाने पर सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा कि अगर ऐसा है तो मुझे मंदिर जाने से क्यों रोका गया?
इसी तरह वर्ष 2017 में भाजपा की प्रदेश जीत के बाद योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने पर मुख्यमंत्री आवास खाली करने के बाद भाजपा के लोगों ने मुख्यमंत्री आवास को गंगाजल से धोया। क्या उस समय पिछड़ों का अपमान नहीं हुआ था। अखिलेश ने तंज करते हुए कहा कि क्या पिछड़ों के घर को आप गंगाजल धुलवाओगे?
अखिलेश पिछड़ों के अपमान की बात पर बरसे और कहा मैं देख रहा हूं, भारतीय जनता पार्टी के सीनियर नेता से लेकर जमीनी नेता तक पिछड़ों के अपमान की बात कर रहे हैं। कह रहे हैं कि उन्होंने (राहुल गांधी) ने पिछ्ड़ों और दलितों का अपमान कर दिया।
इसके विपरीत सपा के एक कार्यकर्ता को आगे करते हुए कहा कि इसने जब एक स्थान पर गंगाजल छिड़क दिया तो इस पर उसके खिलाफ मुकदमा कर दिया गया लेकिन मेरे खाली करने के बाद मुख्यमंत्री आवास को जिसने धोया था, उसके खिलाफ उन पर आपराधिक धाराएं नहीं लगनी चाहिए?
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इसी तरह सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और कन्नौज लोकसभा प्रत्याशी अखिलेश यादव के मंदिर दर्शन के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं ने परिसर को गंगाजल से साफ किया। साथ ही कार्यकर्ताओं ने हर-हर महादेव के जयकारे लगाए। आरोप है कि पूजा अर्चना के दौरान दूसरे समुदाय के लोग जूता-चप्पल पहनकर मंदिर के अंदर गए थे। दरअसल अखिलेश यादव ने शहर में जनसंपर्क अभियान चलाकर कार्यकर्ताओं से मुलाकात की थी। उन्होंने अभियान की शुरुआत करने से पहले शहर के सिद्धपीठ बाबा गौरीशंकर मंदिर पहुंचकर दर्शन कर पूजा अर्चना की थी।
गंगाजल प्रकरण से बाहर निकलकर देखें तो समाजिक भेदभाव के स्पष्ट उदाहरण सामने आते हैं। यहाँ केवल पिछ्ड़ों और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को नौकरियों में आरक्षण के मुद्दों को देखा जा सकता है. आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग (EWS) में क्रीमी लेयर का प्रावधान नहीं है।
EWS, समाज का वह वर्ग है जो अनारक्षित श्रेणी में आता है। EWS में वे लोग शामिल हैं जिनकी वार्षिक पारिवारिक आय 8 लाख रुपये से कम है और जो एसटी/एससी/ओबीसी की जाति श्रेणियों से संबंधित नहीं हैं। वहीं, ओबीसी वर्ग में क्रीमी लेयर का प्रावधान है। अगर किसी ओबीसी परिवार की सालाना आय 8 लाख रुपये से ज़्यादा है, तो उस परिवार के सदस्यों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलता। उन्हें नॉन रिजर्वेशन कोटे से नौकरी या दाखिला मिलता है।
ईडब्ल्यूएस प्रमाण पत्र के लिए पात्रता
पिछले वित्तीय वर्ष के अनुसार आपकी वार्षिक पारिवारिक आय 8 लाख रुपये से कम होनी चाहिए।
ग्रामीण क्षेत्रों में आपके पास पांच एकड़ से अधिक कृषि भूमि नहीं होनी चाहिए। आपके पास शहरी क्षेत्र में 200 वर्ग गज से अधिक की आवासीय संपत्ति नहीं होनी चाहिए।
4 जून 2024 के बाद EWS की आय का मानदंड किसी कैंडिडेट के आवेदन के वर्ष से पहले के वित्तीय वर्ष पर निर्भर करता है।
10 जनवरी 2022 के बाद ओबीसी श्रेणी में क्रीमी लेयर के लिए आय मानदंड लगातार तीन वर्षों के लिए औसत वार्षिक आय पर लागू होता है।
OBC क्रीमी लेयर के मामले में वेतन, कृषि और पारंपरिक कारीगर व्यवसायों से होने वाली आय को नहीं जोड़ा जाता।
जबकि EWS के लिए 8 लाख मानदंड में खेती सहित सभी स्रोतों को शामिल किया जाता है।”
OBC क्रीमी लेयर और EWS के फ़र्क़ को आसान शब्दों में यूँ भी समझा जा सकता है। सरकार द्वारा जारी एक सूचना के मुताबिक़, ऐसे व्यक्ति जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण योजना के अंतर्गत नहीं आते हैं और जिनके परिवार की कुल सालाना आय 8 लाख रुपये से कम है, उन्हें आरक्षण के लाभ के लिए EWS के रूप में पहचाना जाना चाहिए।
कैंडिडेट के आवेदन करने के लिए पिछले वित्तीय साल के सभी स्रोतों जैसे वेतन, कृषि, व्यवसाय, पेशा आदि से होने वाली सभी आय को शामिल किया जाएगा। इसके अलावा ऐसे व्यक्ति जिनके परिवार के पास-पांच एकड़ कृषि ज़मीन या 1,000 वर्ग फुट का आवासीय फ्लैट, या अधिसूचित नगर पालिकाओं में 100 वर्ग गज की आवासीय ज़मीन या गैर-अधिसूचित नगर पालिकाओं में 200 वर्ग गज की आवासीय ज़मीन है, तो ऐसे परिवारों के कैंडिडेट को EWS आरक्षण के दायरे से बाहर रखा जाएगा।
OBC क्रीमी लेयर के आरक्षण मानदंड सरकारी और ग़ैर-सरकारी कर्मचारियों और अन्य व्यवसायों के लोगों के लिए अलग हैं। 8 सितंबर, 1993 को भारत सरकार के डिपार्टमेंट ऑफ़ पर्सनल एंड ट्रेनिंग (DoPT) ने OBC कोटा के लिए निश्चित रैंक/आय के आधार पर उन लोगों की विभिन्न श्रेणियों को सूचीबद्ध किया था, जिनके बच्चे ओबीसी आरक्षण का लाभ नहीं उठा सकते। ऐसे कैंडिडेट जिनके अभिभावक किसी सरकारी नौकरी में नहीं हैं, उनके लिए मौजूदा सीमा 8 लाख रुपये प्रति साल है। साथ ही पिछले 3 सालों की औसत आय के आधार पर 8 लाख रुपये से ज़्यादा आय वाले को क्रीमी लेयर माना जाएगा। वहीं, सरकारी कर्मचारियों के बच्चों के लिए आरक्षण माता-पिता की रैंक पर आधारित होता है न कि आय पर।
ओबीसी और EWS आरक्षण के प्रावधानों के बीच सबसे बड़ी खामी जो देखने मिलती है, वह है कि अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी जो कुल आबादी का लगभग 52% है उसको सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में केवल 27% रिजर्वेशन मिलता है। इसके विपरीत EWS वर्ग जो कुल आबादी का लगभग 10% है उसे सरकारी नौकरियों में 10% यानि शतप्रतिशत आरक्षण प्राप्त है। यह अंतर नितांत ही गैर संवैधानिक और पक्षपातपूर्ण है। इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% का भी उलंघन है। EWS वर्ग को आरक्षण प्रदान करने के बाद 50% से बढ़कर 54.5% हो जाती है जिसपर सुप्रीम कोर्ट ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया
इसी तरह भाजपा के सरकार के दौर में तानाशाही जोरों से पनप है। सरकार से सवाल पूछना तो दूर की कोड़ी हो गई है। प्रिंट मीडिया ही नहीं, इलेक्ट्रानिक मीडिया भी सरकारी माफिया हो गया है। फिर भी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के खिलाफ मदुरै में आयोजित धरने से सरकार की नींद उड़ी हुई है। इसी के साथ भीमा कोरेगांव की लड़ाई के दो सौ साल पूरे होने पर आयोजित कार्यक्रम में दलितों और अन्य परिवर्तनकामी शक्तियों की एकजुटता के दौरान गैर-दलित वर्ग के असामाजिक तत्वों ने इस आयोजन को एक तांडव में तबदील कर दिया था
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भीमा कोरेगांव की लड़ाई के 100 साल से भी ज्यादा समय गुजर जाने के बाद डॉ आंबेडकर ने लंदन में आयोजित गोलमेज कॉन्फ्रेंस के मौके पर अपने एक आलेख में कहा, ‘प्लासी की लड़ाई में क्लाइव के साथ जो लोग लड़े वे दुसाध थे और दुसाध अछूतों की श्रेणी में आते हैं। कोरेगांव की लड़ाई में जो लोग लड़े वे महार थे और महार भी अछूत होते हैं। अछूतों की यह कार्रवाई बिल्कुल स्वाभाविक थी। इतिहास ऐसे तमाम उदाहरणों से भरा है कि किस तरह एक मुल्क के लोगों के एक हिस्से ने आक्रमणकारियों से सहानुभूति दिखाई, इस उम्मीद के साथ कि आगंतुक उन्हें अपने देशवासियों के उत्पीड़न से मुक्ति दिला देगा।
गौरतलब है कि जब तक दलित आंदोलन की बागडोर रामविलास पासवान या उन जैसे नेताओं के हाथ में रही, बीजेपी या कांग्रेस को कोई समस्या नहीं थी। हाँ, मायावती का राजनीतिक दांव पासवान जैसे नेताओं से बिल्कुल ही अलग रहा है। मायावती ने जनहित में जिससे भी सहयोग मिला खुले दिल से स्वीकार किया किंतु पासवान, उदित राज या फिर अठावले की तरह किसी भी राजनीतिक दल की कठपुतली बनना स्वीकार नहीं किया। लेकिन आज की तारीख में राजसत्ता इसलिए परेशान है क्योंकि अब दलित आन्दोलन ने आंबेडकर से आगे जाकर किसान-मजदूर आंदोलन के साथ जुड़ने का प्रयास शुरु कर दिया है। अब इसका नेतृत्व युवा वर्ग के हाथों में आ गया है, जो दलितों के सामाजिक-सांस्कृतिक उत्थान के साथ-साथ आजीविका, किसानी, रोजी-रोटी जैसे आर्थिक मुद्दों पर दलितों को गोलबंद कर रहा है। इस यूथ लीडरशिप को वाम आंदोलन से भी कोई परहेज नहीं है
विदित हो कि ऐसी दलित-श्रमिक एकता को पुणे के आसपास सक्रिय हिंदुत्ववादी सेनाओं ने भी अपने लिए खतरे की घंटी माना है। यहां यह याद करना प्रासंगिक होगा कि पुणे के इर्द-गिर्द ऐसी सनातन संस्थाओं ने पानसरे और दाभोलकर जैसे अंधविश्वास विरोधी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की हत्या की थी।
पिछले वर्ष इन तत्वों ने एक जनवरी को ‘जय-स्तंभ’ के इलाके में रैली का आयोजन किया और दलितों पर संगठित हमले किए, जिनमें एक व्यक्ति भी मारा गया और बहुत से घायल भी हुए। हिन्दुवादी सरकार के चलते इन हमलों के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। वे सब आज भी खुले घूम रहे हैं। अफसोस की बात तो ये है कि उल्टे दलित वर्ग के ही कई युवाओं को फर्जी मामलों में फंसा दिया गया। फासीवादी राजनीति के चलते इसके उलट सरकार ने विरोधियों को चुप कराने की खातिर एक जांच-आयोग बिठा दिया, जो जब तक अपनी रिपोर्ट देगा, मामला ठंडा पड़ जाएगा और आगामी चुनावों के धूम-धड़ाके में बात दब जाएगी। लेकिन सरकार ने इस हिंसा के बहाने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जेल में डालने में बिल्कुल देर नहीं की।
भारतीय समाज का वह पिछ्ड़ा वर्ग जो आज तक अपने को सवर्ण वर्ग का हिस्सा मानता था, अब सवर्ण होने के भ्रम से बाहर निकलकर दलितों के साथ लामबन्द हो रहा है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि पिछ्ड़ों और दलितों की यह सामाजिक एकता राजनीतिक क्षेत्र में दूर-दूर तक नहीं दिखती। इसका मुख्य कारण इस वर्ग में अनेकानेक राजनीतिक दलों का प्रादुर्भाव है।
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2024 में हुए लोकसभा चुनावों सपा को अप्रत्याशित सफलता महज एक अपवाद के रूप देखना चाहिए। समूचे राजनीतिक परिदृश्य में यह जरूर देखने में आ रहा है कि उत्तर प्रदेश ही नहीं अन्य राज्यों में भी स्थानीय/इलाकाई छोटे-छोटे राजनीतिक दल एकता के सूत्र में बन्धते नजर आ रहे हैं, जिसके चलते भाजपा अपनी जमीन को पुख्ता करने के लिए एक के बाद एक न कभी न पूरा होने वाले सपने दिखाने में लगी है।
मूर्ख से मूर्ख आदमी भी समझ सकता है कि चुनाव प्रचार में दिखाए गए सपने कभी भी पूरे नहीं होते, फिर नई-नई योजनाओं की घोषणा करने में सरकार का क्या जाता है। वैसे भी यह कोई नई बात तो है नहीं, सभी सरकारें चुनावी दौर में बेहिसाब लुभावने वादे करती हैं। किंतु भाजपा ने इस मामले में पहले की सभी सरकारों को पीछे छोड़ दिया है। राजनीति में भाषा की बढ़ती अभद्रता तो जैसे आसमान छूती जा रही है। भाषायी अभद्रता निसंदेह हिटलर को भी पीछी छोड़ रही है। भाजपा और तानाशाही सरकारों में एक बात तो एक सी है और वह है जनता को मूर्ख बनाने के लिए कभी भी पूरे न होने वाले सपने दिखाना।