निश्चित रूप से दलित साहित्य की उपलब्धियों में जब डॉ. एन सिंह तकरीबन 40 वर्षों के इतिहास को खंगालते हुए दलित चेतना की कविता, दलित चेतना की कहानी, दलित चेतना साहित्य, दलित चेतना सोच पर विचार करते हैं तो ऐसा लगता है कि उनकी दृष्टि मुकम्मल साहित्य पर पड़ी हुई है। इसमें कई पत्रिकाओं का भी जिक्र किया है। दलित शब्द भाषावाद, अलगाववाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद का विरोध करता है। इसको नोट करते हुए उन्होंने ओमप्रकाश वाल्मीकि का जिक्र किया है। अरुण कुमार कहते हैं दलित सदियों से अपने समाज की रोटी और मुक्ति के लिए जूझ रहा है।
आज भी दलितों का सजना-संवरना, पढ़ना-लिखना सवर्ण जातियों को पसंद नहीं आता है। आज भी सवर्ण चाहता है कि दलित सदियों पुराना जीवन जिए। जब भी देखो जहां भी देखो पेरियार की मूर्ति तोड़ दी गई, आम्बेडकर की मूर्ति तोड़ दी गई और शान और शौक से चलने वाले दलितों की घेर कर पिटाई कर दी गई। दलित युवाओं के कल्पनाओं में अभी भी भाड़ झोंकना, जूता पॉलिश करना, खाल उतारना, नाली साफ करना, सूअर पालना, किसी के खेती में काम करना भर है।
यदि कहानीकार आधुनिक कहानियों को उत्तर आधुनिक मीमांसा में जाकर लिखें तो एक प्रज्ञा की जरूरत पड़ेगी और एक प्रज्ञावान व्यक्ति इस समाज को अपने कहानी के माध्यम से दिशा प्रदान कर सकेगा जो दलित की इस अवस्था और व्यवस्था को बदल सकने में सक्षम होगा। किसी मनीषी ने कहा था कि दुनिया के सारे विद्वान दुनिया के दुखों की व्याख्या कर रहे हैं जबकि जरूरत यह बताने की है दुनिया के दुखों को खत्म कर एक शोषण विहीन, वर्ग विहीन और जाति विहीन समाज की स्थापना कैसे की जाए। मैं यह नहीं कहता कि कहानियों का कथानक पूर्णता एक काल्पनिक कथानक बनकर रह जाए बल्कि हमारी काल्पनिक एक नए समाज के निर्माण में सहयोगी एवं क्रांतिकारी भूमिका अदा करने लायक कथानक बन सके। फिर भी गुड़, शिकारी, लालसा हक्वाई, इतिहास कहानियां आधुनिक बोध की कहानियां मानी जा सकती हैं।
दुनिया के सारे विद्वान दुनिया के दुखों की व्याख्या कर रहे हैं जबकि जरूरत यह बताने की है दुनिया के दुखों को खत्म कर एक शोषण विहीन, वर्ग विहीन और जाति विहीन समाज की स्थापना कैसे की जाए। मैं यह नहीं कहता कि कहानियों का कथानक पूर्णता एक काल्पनिक कथानक बनकर रह जाए बल्कि हमारी काल्पनिक एक नए समाज के निर्माण में सहयोगी एवं क्रांतिकारी भूमिका अदा करने लायक कथानक बन सके।