सम्पादक रामजी यादव की पत्रिका गाँव के लोग का 24 वां अंक जनवरी-फरवरी 2021 आज प्राप्त हुआ। इस पत्रिका का संपादन सुयोग्य साहित्यकार डॉ. एन सिंह और अरुण कुमार ने किया है। यह पत्रिका अपने विशालकाय आकार में 360 पृष्ठों की है। इसके संपादकीय में डॉ. एन सिंह का लेख ‘हिंदी साहित्य की उपलब्धियां’ एवं अरुण कुमार का लेख ‘कब तक हमारे हक पर डकैती करोगे’ सहित कई लेख महत्वपूर्ण से प्रकाशित किए गए हैं। वैचारिकी में अनिल चमडिया, डॉ. अजमेर सिंह काजल कँवल भारती और अनीता भारती और कर्मानंद आर्य तथा कहानियों में श्योराज सिंह बेचैन, कालीचरण स्नेही आत्मकथा में डॉ. सुमित्रा महरोल, अनुपम वर्मा और कौशल पंवार तथा लघुकथाएं, कविताएं, लोकगीत और कई महत्वपूर्ण किताबों की समीक्षाएँ शामिल की गई हैं। निश्चित रूप से दलित साहित्य की उपलब्धियों में जब डॉ. एन सिंह तकरीबन 40 वर्षों के इतिहास को खंगालते हुए दलित चेतना की कविता, दलित चेतना की कहानी, दलित चेतना साहित्य, दलित चेतना सोच पर विचार करते हैं तो ऐसा लगता है कि उनकी दृष्टि मुकम्मल साहित्य पर पड़ी हुई है। इसमें कई पत्रिकाओं का भी जिक्र किया है। दलित शब्द भाषावाद, अलगाववाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद का विरोध करता है। इसको नोट करते हुए उन्होंने ओमप्रकाश वाल्मीकि का जिक्र किया है। अरुण कुमार कहते हैं दलित सदियों से अपने समाज की रोटी और मुक्ति के लिए जूझ रहा है। आज भी उसके रोटी पर डकैती हो रही है और उसके मुक्ति पर बाकायदे रखवाली की जाती है। दलित साहित्य जहां नकार का साहित्य है वहीं पर दलित साहित्य आक्रोश और प्रतिरोध से होते हुए परिवर्तन का भी साहित्य है। पूर्व राज्यपाल एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार माता प्रसाद जी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उन्होंने अपने एक बातचीत के दौरान कहा कि जागृत के साथ दमन भी बढ़ रहा है। मूलचंद सोनकर से अपर्णा की बातचीत हुई जिसमें उन्होंने दलित वैचारिकी के अंतर्द्वंद को नोट कराया है। बी आर विप्लवी ने कहा कि गजलों में दलित प्रश्न उठाया जा सकता है। मलखान सिंह से सतीश खगनवाल से हुई बातचीत में कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी का हनन हो रहा है। प्रतिक्रियावाद मुक्ति के विचारों को छति पहुंचा रहा है, ऐसा प्रोफ़ेसर चौथीराम यादव ने कहा। जयप्रकाश कर्दम जी ने बताया कि दलित साहित्य मानवीय समाज का आकांक्षी है। मोहनदास नैमिशराय ने अरुण कुमार से हुई बातचीत के दौरान बताया कि दलितों को अपनी लड़ाई मिलकर लड़नी चाहिए।
[bs-quote quote=”निश्चित रूप से दलित साहित्य की उपलब्धियों में जब डॉ. एन सिंह तकरीबन 40 वर्षों के इतिहास को खंगालते हुए दलित चेतना की कविता, दलित चेतना की कहानी, दलित चेतना साहित्य, दलित चेतना सोच पर विचार करते हैं तो ऐसा लगता है कि उनकी दृष्टि मुकम्मल साहित्य पर पड़ी हुई है। इसमें कई पत्रिकाओं का भी जिक्र किया है। दलित शब्द भाषावाद, अलगाववाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद का विरोध करता है। इसको नोट करते हुए उन्होंने ओमप्रकाश वाल्मीकि का जिक्र किया है। अरुण कुमार कहते हैं दलित सदियों से अपने समाज की रोटी और मुक्ति के लिए जूझ रहा है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
अनीता भारती ने दलित साहित्य में भूख व भोजन का चित्रण शीर्षक से जो लेख लिखा है वह दलित जीवन के यथार्थ का चित्रण है। हरपाल सिंह अरुष ने दलित कथा में ‘उत्तर आधुनिक अर्थ मीमांसा’ नामक लेख लिखा है जो वास्तव में दलितों के आर्थिक विकास के साथ-साथ उनके मानसिक अंतर्द्वंद का लेखाजोखा है। प्रो. रमा ने दलित साहित्य के बुनियादी सरोकारों पर अपनी दृष्ट डाली हैं,वहीं डॉ. प्रवीण कुमार ने ‘दलित कविता की भाषा एक विश्लेषण’ नाम से एक नई और जरूरी विषय पर बल दिया है। कुसुम सबलानियाँ ने अनीता भारती की आत्मकथा ‘अपनी जमीन अपना आसमां’ को लेकर स्त्री मुक्ति के स्वकथन पर प्रकाश डाला है। इसी के साथ साथ वैचारिकी में प्रेमचंद की कहानियों के दलित संदर्भ को विमर्श में लिया गया है; हालांकि, यह विमर्श एक लंबे अरसे से निरंतर चला आ रहा है। इसमें पंजाबी आत्मकथा पर भी प्रकाश डाला गया है और उड़िया साहित्य पर भी एक दृष्टि है। कँवल भारती ने ‘राम की शक्ति पूजा’ जो निराला की एक सशक्त रचना मानी जाती है को मनोभाव की कविता कहां है।
[bs-quote quote=”आज भी दलितों का सजना-संवरना, पढ़ना-लिखना सवर्ण जातियों को पसंद नहीं आता है। आज भी सवर्ण चाहता है कि दलित सदियों पुराना जीवन जिए। जब भी देखो जहां भी देखो पेरियार की मूर्ति तोड़ दी गई, आम्बेडकर की मूर्ति तोड़ दी गई और शान और शौक से चलने वाले दलितों की घेर कर पिटाई कर दी गई। दलित युवाओं के कल्पनाओं में अभी भी भाड़ झोंकना, जूता पॉलिश करना, खाल उतारना, नाली साफ करना, सूअर पालना, किसी के खेती में काम करना भर है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
यदि कहानीकार आधुनिक कहानियों को उत्तर आधुनिक मीमांसा में जाकर लिखें तो एक प्रज्ञा की जरूरत पड़ेगी और एक प्रज्ञावान व्यक्ति इस समाज को अपने कहानी के माध्यम से दिशा प्रदान कर सकेगा जो दलित की इस अवस्था और व्यवस्था को बदल सकने में सक्षम होगा। किसी मनीषी ने कहा था कि दुनिया के सारे विद्वान दुनिया के दुखों की व्याख्या कर रहे हैं जबकि जरूरत यह बताने की है दुनिया के दुखों को खत्म कर एक शोषण विहीन, वर्ग विहीन और जाति विहीन समाज की स्थापना कैसे की जाए। मैं यह नहीं कहता कि कहानियों का कथानक पूर्णता एक काल्पनिक कथानक बनकर रह जाए बल्कि हमारी काल्पनिक एक नए समाज के निर्माण में सहयोगी एवं क्रांतिकारी भूमिका अदा करने लायक कथानक बन सके। फिर भी गुड़, शिकारी, लालसा हक्वाई, इतिहास कहानियां आधुनिक बोध की कहानियां मानी जा सकती हैं।
पूरन सिंह की लघुकथाएं देशद्रोही, नुक्कड़ नाटक, वह चायवाला, समरसता का पाठ, कहीं देर न हो जाए इत्यादि जाति, छुआछूत और सांप्रदायिकता के मूल बिंदुओं को उभरते हैं। डॉ. सुशील कुमार सुमन की कहानियां हिंदू, लघुकथा, आरक्षण अपने शीर्षक के अनुरूप जाति और अर्थ की कहानियां स्पष्ट हैं। यजवीर सिंह विद्रोही की लघुकथाएं – मजबूरी और देशद्रोही दोनों में सांप्रदायिकता और जातिवाद स्पष्ट दिखाई देता है। राकेश कबीर की कहानी रंगदारी, कलंक, विवाह, जुड़वा भूत कुछ आगे तक ले चल सकने में सक्षम है; हालांकि इन कहानियों में भी ब्राह्मणवाद का वर्चस्व और दलितों पर विजय की कहानी को दर्शाता है। सतीश खगनवाल आधुनिक और उत्तर आधुनिक दृष्टिओं को लेकर चलते हैं। उनकी पहली कहानी ‘प्रहार’ शब्द से ही लगता है कि वह इस व्यवस्था पर प्रहार करना चाहते हैं। जागृति, जवाब और दूरदृष्टि कहानियों के शीर्षक सही उनके उद्देश का पता चल जाता है। इसी तरह से प्रदीप कुमार गौतम और के एल सोनकर की कहानियां भी जातिवाद के असलियत पर लिखी गई कहानियां है
[bs-quote quote=”दुनिया के सारे विद्वान दुनिया के दुखों की व्याख्या कर रहे हैं जबकि जरूरत यह बताने की है दुनिया के दुखों को खत्म कर एक शोषण विहीन, वर्ग विहीन और जाति विहीन समाज की स्थापना कैसे की जाए। मैं यह नहीं कहता कि कहानियों का कथानक पूर्णता एक काल्पनिक कथानक बनकर रह जाए बल्कि हमारी काल्पनिक एक नए समाज के निर्माण में सहयोगी एवं क्रांतिकारी भूमिका अदा करने लायक कथानक बन सके।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
दलित कविताएं दलितों द्वारा लिखी दलितों के जीवन पर सवर्णों द्वारा अत्याचार की कथा है। असंगघोष की कविता आजादी के 70 साल पढ़ कर दलित जीवन के विकास का यथार्थ समझ में आता है। आज भी दलितों का सजना-संवरना, पढ़ना-लिखना सवर्ण जातियों को पसंद नहीं आता है। आज भी सवर्ण चाहता है कि दलित सदियों पुराना जीवन जिए। जब भी देखो जहां भी देखो पेरियार की मूर्ति तोड़ दी गई, आम्बेडकर की मूर्ति तोड़ दी गई और शान और शौक से चलने वाले दलितों की घेर कर पिटाई कर दी गई। दलित युवाओं के कल्पनाओं में अभी भी भाड़ झोंकना, जूता पॉलिश करना, खाल उतारना, नाली साफ करना, सूअर पालना, किसी के खेती में काम करना भर है। अरुण कुमार गौतम की एक कविता है ‘भीड़’। ‘भीड़’ कविता अपने आप में वर्तमान भौतिक परिस्थितियों को रेखांकित करती कविता है। एक वर्ग किस तरीके से गाय को सांप्रदायिक विचार बना देता है, अखलाक को सांप्रदायिकता का शिकार बना देता है, भीड़ को उग्र कर देता है और राष्ट्रवाद को कुछ खास लोगों के लिए दुश्मन बना देता है। अजय अतीस और रजनी अनुरागी की कविताएं हमें क्रांति के लिए उठ खड़े होने की हिम्मत देती हैं। रजनी ‘औरत’ और ‘फूलन’ लिखकर औरतों के वास्तविक अस्मिता को नेपथ्य से फ्रंट पर लाने की कोशिश है। आशाराम जागरथ की कविता ‘तू मैं बन जा’ मलखान सिंह की कविता के तर्ज पर लिखी गई कविता है-चलो हम दोनों मिलकर चमड़ा पकाएं। नीरा परमार की कविताएं एक परिपक्व वैचारिकी की कविताएं हैं। पूनम तुषामड की कविताओं में आपस में लड़ते झगड़ते दलितों से एक होकर लड़ने का आह्वान है। उसी तरह अरविंद भारती भी कहते हैं कि ‘अपना टाइम आयेगा’। प्रेम नंदन की कविताएं हमेशा की तरह काव्यात्मक और बिंबात्मक होती हैं। इस अंक की सभी कविताएं और सभी कवियों ने अपना संतुलित रोल को निभाया है।
इस पत्रिका के सभी सहभागियों सहित संपादक रामजी यादव एवं संपादक द्वै डॉ.एन सिंह और अरुण कुमार को धन्यवाद और विशेष बधाई।
आर डी आनंद जाने-माने कवि कथाकार हैं। फैजाबाद में रहते हैं।