पत्रकारिता, संसद, न्यायपालिका और बेपरवाह हुक्मरान (डायरी, 16 अगस्त, 2021)  

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प्रधानमंत्री के पद पर बैठा व्यक्ति बेहद महत्वपूर्ण होता है। उसे अपना अपना महत्व बनाए रखना चाहिए। इसके लिए उसका उदार होना, सौम्य होना और मितभाषी होना बहुत आवश्यक है। यदि वह इन बातों का ध्यान नहीं रखता है तो फिर उसके पीएम रहने या नहीं रहने में कोई खास फर्क नहीं रह जाता। यह केवल एक पीएम पद पर बैठे शख्स के लिए ही जरूरी नहीं है, हर उस व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण है जिसके पास जिम्मेदारी का पद है और उसके पास शक्तियां हैं। उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि उन्हें जो शक्तियां दी गयी हैं, वह इस देश के संविधान के हिसाब से दी गयी हैं और इस विश्वास के साथ दी गयी हैं कि वे एक नजीर पेश करेंगे।

मुझे वर्ष 2010 का 15 अगस्त याद आ रहा है। इसके एक दिन पहले दैनिक आज के संपादक दीपक पांडेय सर ने एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी। उन्होंने कहा कि इस बार मुख्यमंत्री के संबोधन और स्वतंत्रता दिवस के मुख्य आयोजन की खबर मैं लिखूं। इसकी क्या वजह रही होगी, यह मैं नहीं जानता। लेकिन मुझे अच्छा लगा था। मैं उत्साहित भी था।

मेरे उत्साह के पीछे एक वजह यह भी थी कि मैंने राज्य सरकार द्वारा पटना के गांधी मैंदान में आयोजित मुख्य समारोह को देखा नहीं था। नहीं देखने की वजह यह रही कि मेरी दिलचस्पी नहीं होती थी। हालांकि उन दिनों गांधी मैदान आज की तरह कैद नहीं था। अब तो गांधी मैदान खुद कैद हो गया है। हालांकि अनेक प्रवेश द्वार हैं लेकिन पहले वाली बात नहीं रही। सरकार की जब इच्छा होती है तब वह मुक्त होता है और जब सरकार नहीं चाहती है कि वह आजाद रहे, कैद कर देती है।

कल सोशल मीडिया पर इस खबर को ऐसे प्रचारित किया गया मानो नरेंद्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर में रामराज्य स्थापित कर दिया है और अब वहां कट्टरपंथी भी तिरंगा फहराने लगे हैं। वैसे कट्टरपंथी तो मोहन भागवत भी है। कल मैंने यह जानने के लिए उनका ट्वीटर अकाउंट देखा कि वह झंडा फहराते हुए व्यवहार कैसा करते हैं। लेकिन कमाल की बात यह कि उनके द्वीटर पर 2 लाख 40 हजार फॉलोअर्स हैं लेकिन एक भी ट्वीट नहीं है।

खैर, उस दिन कार्यक्रम स्थल पर पहले ही पहुंच गया था। मेरे पास स्पेशल कार्ड था और इस कारण मैं सामान्य दर्शक दीर्घा के बजाय मीडियाकर्मियों के लिए बनाए गए दीर्घा में सबसे आगे की कुर्सियों में से एक पर कब्जा करने में कामयाब रहा। मेरे ठीक बगल में मंत्रियों और विधायकगणों के लिए कुर्सियां थीं। मैं करीब एक घंटा पहले पहुंचा था। मेरे सामने कुछ नजारे थे, जिन्हें मैं नोट कर रहा था। उस समय एक बड़ा अधिकारी मुझपर निगाह रख रहा था। उसे शायद भान हो गया था कि जब कार्यक्रम शुरू नहीं हुआ है तो यह आदमी नोट क्या कर रहा है। वह मेरे पास आया और उसने मुझसे परिचय पूछा। जवाब सुनने के बाद वह भले ही वापस लौट गया लेकिन उसकी नजर मुझ पर ही बनी रही। उन दिनों मैं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नवरत्नों से वाकिफ नहीं था।

दरअसल, नीतीश कुमार अपने मंत्रियों और विधायकों से अधिक नौकरशाहों पर विश्वास करते हैं। यह गुण है या अवगुण, इस पर अलग से विचार किया जा सकता है। लेकिन वह अधिकारी जिसने मुझसे मेरा परिचय पूछा था और मुझ पर निगाह रख रहा था, वह मुख्यमंत्री का आप्त सचिव था। इस बात की जानकारी एक दूसरे अखबार के पत्रकार ने दी।

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कार्यक्रम की खबर जब अगले दिन छपी तब मुख्यमंत्री के संबोधन को दूसरा स्थान दिया गया था। उसके पहले मेरे द्वारा नोट किए गए नजारों को जगह मिली थी और वह भी बाइलाइन। यह मेरे लिए एक तोहफा था। चूंकि 15 अगस्त को प्रेस बंद रहता है तो अखबार का प्रकाशन 16 अगस्त को हुआ और मैं 17 अगस्त को दफ्तर पहुंचा तब संपादक महोदय ने मिठाई खाने का आदेश देते हुए कहा कि यह मिठाई तुम्हारे लिए है। एक अणे मार्ग को तुम्हारी खबर चुभी है।

वह नजारा कुछ खास नहीं था। बस इतना ही कि सीएम के लिए किस तरह का प्रबंध किया गया था और जनप्रतिनिधियों के साथ नौकरशाहों ने कैसा सुलूक किया था।

भागवत को मैं कभी भारतीय नहीं मानता। वह केवल और केवल हिंदू हैं। एक उन्मादी हिंदू। उनके ही लघु संस्करण हैं नरेंद्र मोदी। उन्होंने जो कुछ कल लालकिले के प्राचीर से कहा, उसमें अनेक खामियां और झूठी बातें शामिल थीं। लेकिन कोई आदमी सच बोलेगा या झूठ, इसके लिए भारतीय संविधान में कोई अलग से कोई प्रावधान नहीं है। यदि होता तो नरेंद्र मोदी बहुत पहले ही भारत के पूर्व प्रधानमंत्री बन चुके होते।

खैर, आज मैं दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता को देख रहा हूं। संपादक महोदय को खूब सारी बधाई। अखबार में उनका साहस दिखता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन को पहले पन्ने पर जगह तो दी गयी है लेकिन वह पहली खबर नहीं है। पहली खबर अफगानिस्तान से जुड़ी है तो दूसरी खबर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमण का संबोधन है, जिसमें उन्होंने संसद में कानून बनाए जाने की प्रक्रिया पर सवाल उठाया है। पहले पन्ने पर ही मोहन भागवत के बयान को जगह दी गयी है और वह भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान से पहले। भागवत के बयान के समकक्ष ही जम्मू-कश्मीर की एक खबर है। खबर का शीर्षक है – बुरहान वानी के पिता ने पुलवामा में फहराया तिरंगा। भागवत की खबर भी इस कारण प्रकाशित की गयी है कि उन्होंने मुंबई के एक स्कूल में (नागपुर स्थित आरएसएस मुख्यालय में नहीं) झंडा फहराया है। इन दोनों खबरों के बीच एक कमाल की समानता है। हालांकि बुरहान वानी के पिता मुजफ्फर वानी ने जिस स्कूल में तिरंगा फहराया, वह वहां के सरकारी प्राचार्य हैं। इसलिए उनके द्वारा तिरंगा फहराए जाने का अलग से कोई खास महत्व नहीं है सिवाय इसके कि उनका बेटा बुरहान वानी हिजबुल मुजाहिदीन से जुड़ा आतंकवादी था। कल सोशल मीडिया पर इस खबर को ऐसे प्रचारित किया गया मानो नरेंद्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर में रामराज्य स्थापित कर दिया है और अब वहां कट्टरपंथी भी तिरंगा फहराने लगे हैं। वैसे कट्टरपंथी तो मोहन भागवत भी है। कल मैंने यह जानने के लिए उनका ट्वीटर अकाउंट देखा कि वह झंडा फहराते हुए व्यवहार कैसा करते हैं। लेकिन कमाल की बात यह कि उनके द्वीटर पर 2 लाख 40 हजार फॉलोअर्स हैं लेकिन एक भी ट्वीट नहीं है। इसकी वजह क्या रही होगी, यह तो भागवत ही जानें।

आरएसएस के प्रमुख मोहन भगवत तिरंगे को सलामी देते हुए

मुझे जब भागवत के ट्वीटर पर कुछ नहीं मिला तब मैंने आरएसएस संगठन के ट्वीटर पर जाकर देखा। वहां मुझे वह तस्वीर मिली जिसमें भागवत झंडोत्तोलन कर रहे थे। उनके बगल में एक बच्ची थी, जिसके पैरों में चप्पल या जूती नहीं थी। लेकिन भागवत के पैरों में चप्पल था और वे हिटलर की मुद्रा में तिरंगे को सलामी दे रहे थे।

मुख्य न्यायाधीश एन वी रमण का संबोधन। वे सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन को संबोधित कर रहे थे। उनका कहना था कि संसद में इन दिनों कानून बनाने के दौरान आवश्यक चर्चा नहीं की जाती है, जिससे यह समझने में परेशानी होती है कि कानून बनाने के पीछे विधायिका की सोच क्या है और वह इसे किस रूप में विश्लेषित करता है। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का काम कानून बनाना नहीं है। उसके पास तो संसद द्वारा बनाए गए कानून की व्याख्या की जिम्मेदारी है।

बहरहाल, भागवत को मैं कभी भारतीय नहीं मानता। वह केवल और केवल हिंदू हैं। एक उन्मादी हिंदू। उनके ही लघु संस्करण हैं नरेंद्र मोदी। उन्होंने जो कुछ कल लालकिले के प्राचीर से कहा, उसमें अनेक खामियां और झूठी बातें शामिल थीं। लेकिन कोई आदमी सच बोलेगा या झूठ, इसके लिए भारतीय संविधान में कोई अलग से कोई प्रावधान नहीं है। यदि होता तो नरेंद्र मोदी बहुत पहले ही भारत के पूर्व प्रधानमंत्री बन चुके होते।

खैर, सबसे खास रहा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमण का संबोधन। वे सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन को संबोधित कर रहे थे। उनका कहना था कि संसद में इन दिनों कानून बनाने के दौरान आवश्यक चर्चा नहीं की जाती है, जिससे यह समझने में परेशानी होती है कि कानून बनाने के पीछे विधायिका की सोच क्या है और वह इसे किस रूप में विश्लेषित करता है। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का काम कानून बनाना नहीं है। उसके पास तो संसद द्वारा बनाए गए कानून की व्याख्या की जिम्मेदारी है।

कल देर रात तक नींद नहीं आयी। एक खबर पटना के एक गांव से आयी है। यह गांव मेरे गांव के बगल में है। एक दलित परिवार की जमीन पर कब्जा करने के इरादे से एक दबंग (कुर्मी, ओबीसी) द्वारा जमीन पर बाउंड्री खड़ी करवा दी गयी है। पीड़ित पक्ष थाना गया था, लेकिन उसकी रिपोर्ट दर्ज नहीं की गयी। कल देर शाम पीड़ित पक्ष का फोन मेरे पास आया तो मैंने कहा कि उसे स्थानीय विधायक गोपाल रविदास को सूचना देनी चाहिए। वह निश्चित तौर पर मदद करेंगे।

नींद नहीं आने की वजह निश्चित तौर पर यही घटना रही। देर रात उत्तर प्रदेश के बिजनौर के विचारोत्तेजक दलित कवि नवेंदू महर्षि की एक कविता पढ़ने लगा –

 

अंग्रेज जिस समय तुम्हें

आजादी सौंप रहे थे

 

उस समय हम

खेतों में

हल चला रहे थे

 

खदानों में

कोयला निकाल रहे थे

 

कारखानों में

पसीना बहा रहे थे

इस विश्वास के साथ

कि तुम आजादी लेकर

एक दिन

हम तक भी आओगे

 

और हमें भी

आजादी की खुशी का

अनुभव कराओगे

 

लेकिन पचपन साल [पचहत्तर साल]

गुजर चुके हैं

हमने आजादी के

दर्शन तक नहीं किए

 

बल्कि हम आज भी

उसी तरह अपना

पसीना बहा रहे हैं

 

और आप संसद में बैठकर

सत्ता सुंदरी के साथ

रंगरेलियां मना रहे हैं

(स्रोत : दलित-निर्वाचित कविताएं, सं. कंवल भारती, साहित्य उपक्रम, दिल्ली)

 

नवल किशोर कुमार  फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।

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