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अभी बहुत दूर है साहित्य पर शानदार फिल्में बनाने का बालीवुडीय सपना

जब तक बॉलीवुड भारतीय समाज की सही समझ नहीं विकसित करता और जातीय और साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं होता तब तक वह साहित्यिक कृतियों का सही चयन और ट्रीटमेंट नहीं कर सकता  बॉलीवुड ही नहीं पूरी दुनिया में साहित्यिक कृतियों जैसे कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, संस्मरण एवं साहित्यिक व्यक्तियों पर फिल्मे बनती रही हैं। विश्व […]

जब तक बॉलीवुड भारतीय समाज की सही समझ नहीं विकसित करता और जातीय और साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं होता तब तक वह साहित्यिक कृतियों का सही चयन और ट्रीटमेंट नहीं कर सकता 

बॉलीवुड ही नहीं पूरी दुनिया में साहित्यिक कृतियों जैसे कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, संस्मरण एवं साहित्यिक व्यक्तियों पर फिल्मे बनती रही हैं। विश्व सिनेमा के अध्येता कुंवर नारायण लिखते हैं कि “अपने शुरुआती दिनों में सिनेमा साहित्य के अधिक निकट रहा है।  अकेले मूक फिल्मों के ज़माने में ही शेक्सपियर के नाटको पर 400 से भी अधिक छोटी-बड़ी फ़िल्में बन चुकी थी”। भारत देश की विशाल भाषायी और साहित्यिक विविधता के हवाले से देखें तो साहित्य आधारित सिनेमा बनाने के प्रयास नगण्य हैं।  साल भर में बनने वाली हजारों फिल्मों में जाने क्या कूड़ा-कचरा परोसा जाता है लेकिन साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनाने का साहस या समझ कुछ गिनती के फिल्मकार ही कर पाते हैं। बॉलीवुड में तो कहानी, पटकथा, गाने सब कुछ प्रकाश मेहरा, सावन कुमार और डेविड धवन ही कर डालते हैं। तमाम नए लेखकों से कहानी लेकर उनका नाम तक न लेने वाले फ़िल्मकार हर तरह से उनका भरपूर शोषण करते हैं। फ़िल्मी दुनिया की अपनी इस समस्या के साथ यह भी एक कड़वा सच है कि फिल्मकारों ने कुछ साहित्यिक कृतियों को आधार बनाकर फिल्में बनाई हैं लेकिन एकेडेमिक दुनिया फिल्मों को अध्ययन के एक विषय-वस्तु के रूप में लेने से प्रायः दूरी बनाती है। फिल्मों को एक टैबू की तरह देखने का दृष्टिकोण रहा है। अब जे.एन.यू. और जाधवपुर जैसे विश्वविद्यालयों में फिल्म अध्ययन केंद्र स्थापित हो चुके हैं। दुनिया भर के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में फिल्म अध्ययन केंद्र हैं और बॉलीवुड के फिल्मों  पर भी वे शोध करते रहते हैं लेकिन हिंदी साहित्य और अन्य विषयों में इसे एक अछूत विषय के रूप में अभी भी देखा जाता है।

बॉलीवुड के शुरुआती दिनों में धार्मिक और मिथकीय कहानियों को चित्रित करती मूक फिल्में बनीं। धार्मिक और मिथकीय कहानियों के पात्रों से परिचित भारतीय जनमानस मूक फिल्मों में डोलती छबियों और उनकी भावभंगिमाओं से खुद को आसानी से जोड़ सका। आदमी के रोजमर्रा के जीवन को दुबारा परदे पर देखने का अनुभव अनूठा था। सिनेमा के इस जादुई लालटेन ने केवल भारत ही नहीं दुनिया भर के दर्शको में मनोरंजन के एक माध्यम के रूप में कौतुहल और जिज्ञासा पैदा की।

आज के बॉलीवुडिया हीरो-हीरोइन और फ़िल्मकार हिंदी-उर्दू और अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य से अपरिचित-सा जान पड़ता है। उन्हें अंग्रेजी भाषा और साहित्य के बारे में तो थोड़ी बहुत जानकारी है। बॉलीवुड के खानदानी लड़के लड़कियां जिनको हिंदी पढने या बोलने भी नहीं आता वे रोमन लिपि में हिंदी सिनेमा के डायलॉग पढ़ते रटते हैं। जाहिर है ऐसे लोगों से न साहित्य का भला होने वाला है न ही सिनेमा का। बचपन से ही हीरो, हिरोइन बनने का ख्वाब लिए पैदा हुए ये इलीट लोग हाथों में गिटार लिए किसी कालेज कैंपस में रोमांटिक अवतार में लांच किये जाते हैं। हिंदी लिखना पढ़ना नहीं जानते लेकिन हिंदी भाषी विशाल जनसमूह पर जबरदस्ती थोपे जाते हैं।”

साहित्य, साहित्यकार और सिनेमा : संख्या तो बहुत है मगर ….

साहित्यकार, साहित्य और सिनेमा के बीच प्रारंभिक दिनों से ही करीबी सम्बन्ध रहा है। 1912-13 में दादा साहब फाल्के ने सत्य हरिश्चंद्र के जीवन पर मूक फिल्म बनाकर भारतीय सिनेमा की नींव रखी। देवी-देवताओं और मिथकीय कहानियों और चरित्रों से होते हुए सिनेमा यथार्थ जीवन से भी जुड़ा। तत्कालीन कहानीकार और उपन्यासकार प्रेमचंद खुद 1934 में मुंबई पहुंचे। उन्होंने मजदूरों के जीवन की समस्याओं पर केन्द्रित मजदूर फिल्म की कहानी लिखी और एक मजदूर नेता का अभिनय भी किया। इस फिल्म के प्रभाव से मजदूर आन्दोलन उभरने के डर से रोक लगा दी गयी। एक स्वतंत्र लेखक को फ़िल्मी दुनिया के तौर-तरीके पसंद नहीं आये और प्रेमचंद वापस लौट आये। प्रेमचन्द के उपन्यासों और कहानियों पर कई फिल्मकारों ने फिल्में बनाई जिनमें  गबन, गोदान, सद्गति, शतरंज के खिलाडी का नाम उल्लेखनीय है। अमृतलाल नागर भी लखनऊ से मुंबई पहुंचे और कई फिल्मों की कहानियां लिखी लेकिन बाद में वापस लौट आये। गोपालदास नीरज भी देवानंद के लिए कुछ फिल्मों के गीत लिखने के बाद वापस लौट आये थे। कुछ साहित्यकार निश्चित रूप से लगातार बॉलीवुड में काम करते रहे और मुख्यधारा का विपुल साहित्य भी रचा। डॉ राही मासूम रजा, कमलेश्वर, गुलजार, गिरीश कर्नाड और कैफ़ी आज़मी उनमे प्रमुख हैं।

प्रेमचंद की कहानी मिल मजदूर पर बनी फिल्म

समानांतर सिनेमा या कला फिल्मों के उभार के साथ साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनाने का नया दौर शुरू हुआ। मणि कौल जैसे फिल्मकार ने साहित्यिक कृतियों पर मूल शीर्षक से फिल्में बनाकर साहित्य और साहित्यकार दोनों को विशिष्ट गरिमा प्रदान की। साहित्यिक रचनाओं पर उनकी फ़िल्में घासीराम कोतवाल (विजय तेंदुलकर), सतह से उठता हुआ आदमी (मुक्तिबोध), आषाढ़ का एक दिन, उसकी रोटी (मोहन राकेश), दुविधा (विजयदान देथा), सूरज का सातवाँ घोडा (धर्मवीर भारती) और नौकर की कमीज (विनोद कुमार शुक्ल) हैं। इसी तरह अन्य निदेशकों जैसे कुमार साहनी ने मायादर्पण (निर्मल वर्मा), गोविन्द निहलानी ने हजार चौरासी की माँ (महाश्वेता देवी), बासु चटर्जी ने सारा आकाश (राजेन्द्र यादव), और मन्नू भंडारी की कहानी यही सच है पर रजनीगंधा फिल्म बनाई। शिवमूर्ति की कहानी तिरिया चरित्तर पर इसी नाम से बासु चटर्जी ने फिल्म बनाई। नयी कहानी आन्दोलन के साथ फ़िल्मी दुनिया का विशेष लगाव रहा जिसके कारण तत्कालीन साहित्यकारों की कृतियों पर ज्यादा फ़िल्में बनी। नयी कहानी एक सशक्त कहानीकार कमलेश्वर ने तो व्यावसायिक और कला दोनों तरह की फिल्मों के लिए सफल पटकथाएं लिखी। फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास मैला आँचल पर इसी नाम से फिल और सीरियल का निर्माण हुआ। प्रख्यात साहित्यकार मनोहर श्याम जोशी ने पापा कहते हैं, अपु राजा, भ्रष्टाचार फिल्मों की पटकथाएं लिखी। राजस्थानी भाषा के कहानीकार विजयदान देथा की किस्सागोई भी फिल्मकारों को बहुत पसंद रही है।  प्रकाश झा ने सन १९८६ में उनकी कहानी  परिणति पर तथा शाहरुख खान ने उनकी कहानी दुविधा पर पहेली शीर्षक से फिल्म बनाया।प्रकाश झा ने शैवाल की कहानी दामुल पर इसी नाम से फिल्म बनाई जो काफी सराही गयी। संजय सहाय की कहानी शेषांत पर इसी शीर्षक से फिल्म बनी। डॉ प्रकाश चन्द्र द्विवेदी ने अमृता प्रीतम के उपन्यास पिंजर तथा कहानीकार काशीनाथ सिंह के उपन्यास काशी का अस्सी (मोहल्ला अस्सी) पर फिल्मों का निर्माण कर साहित्य और सिनेमा के बीच सार्थक़ संवाद स्थापित किया। रमेश बक्षी के उपन्यास 27 डाउन’ अवतार कौल साहब ने इसी नाम से फिल्म बनाई।  उदय प्रकाश के उपन्यास मोहनदास पर फिल्म बनी। राम जनम पाठक की कहानी औरत ही दांव पर लगती है जैसी कहानी पर चौसर नाम की फिल्म बाजार फिल्म बनाने वाले निर्देशक सागर सरहदी ने बनाई। अन्य प्रमुख फिल्में जो साहित्य को आधार बनाकर बनीं वे निम्न प्रकार है-

अमृता प्रीतम के उपन्यास पर आधारित फिल्म पिंजर

उसने कहा था–चंद्रधर शर्मा गुलेरी 1912-2012 , तीसरी कसम-फणीश्वरनाथ रेणु-शैलेन्द्र–बासु भट्टाचार्य, देवदास-शरतचंद्र चटर्जी, जूनून(ए लाइट ऑफ़ पिजन्स-रस्किन बांड), काबुलीवाला-रबीन्द्रनाथ टैगोर, चित्रलेखा-भगवतीचरण वर्मा-1941 और 1964 में दो बार फिल्म बनी – दोनों बार केदार शर्मा ने फिल्म बनाई। कैथरीन मेयो की किताब मदर इंडिया जिसमें भारतीय संस्कृति की नकारात्मक छवि प्रस्तुत की गयी थी, का जवाब देने के लिए नैतिक मूल्यों को प्रधान मानने वाली फिल्म मदर इंडिया महबूब खान ने बनाई जो उनकी अपनी ही फिल्म औरत की रिमेक थी।  गबन-1966 , गोदान-1963, शतरंज के खिलाडी, सद्गतिसत्यजित रे-प्रेमचंद, छोटी बहुबिन्दुर छेले बंगाली उपन्यास, आनंदमठ-बंकिमचंद्र चटर्जी, चोखेर बाली-रबीन्द्रनाथ टैगोर, अपने पराये–निष्कृति, देवदास-शरतचंद्र चटर्जी, दो बीघा जमीन-फ़क़ीर मोहन सेनापति, तेरे मेरे सपने-द सिटाडेल-ए.जे. क्रोनिन, गाइड – आर.के. नारायण, सूरज का सातवाँ घोड़ा – धर्मवीर भारती, साहब बीवी और गुलाम-बिमल मित्र, परिणीता-शरत चन्द्र चटर्जी, नदिया के पारकोहबर की शर्त-केशव प्रसाद मिश्र, उत्सव-मृच्छकटिकम-शूद्रक, समय की धारा-आपका बंटी-मन्नू भंडारी, बाजीराव मस्तानी-राव, 1947 अर्थक्रेकिंग इंडिया-बाप्सी सिधवा, हजार चौरासी की माँ-महाश्वेता देवी, तमस-भीष्म साहनी, पति पत्नी और वो–कमलेश्वर, रुदाली-महाश्वेता देवी, पद्मावत-मालिक मुहम्मद जायसी, ब्लैक फ़्राईडे-एस. हुसेन जैदी-द ट्रू हिस्ट्री ऑफ़ बॉम्बे ब्लास्ट्स, उमराव जान-मुजफ्फर अली-हादी जान रुसवा, मकबूल, ओमकारा, हैदर-विशाल भारद्वाज, लूटेरा-द लास्ट लीफ –ओ हेनरी नावेल, ब्लू अम्ब्रेला, सात खून माफ़-रस्किन बांड, मौसम-द जुडास ट्री, मासूम-मैन वीमेन एंड चाइल्ड-एरिच वुल्फ सेगल, आयशा-जेन अस्टिन-एम्मा, ट्रेन टू पाकिस्तान-खुशवंत सिंह, स्लमडॉग मिलिनायर-क्यू एंड ए-विकास स्वरूप, ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान-कॉन्फेशन ऑफ़ अ ठग-फिलिप मीडो टायलर, हेलो-वन नाईट @ द काल सेण्टर, थ्री इडियट्सफाइव पॉइंट समवन, टू स्टेट्स, काई पो चे थ्री मिस्टेक्स ऑफ़ माय लाइफ (चेतन भगत)

मिर्ज़ा हादी रुसवा के उपन्यास पर बनी फिल्म उमराव जान

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विदेशी भाषाओं के साहित्य पर दुनिया भर में बनी फिल्में

अकिरा कुरोसोवा-थ्रोन ऑफ़ ब्लड-मैकबेथ, नेमसेक–झुम्पा लाहिरी, हैरी पॉटर-जे.के.रोलिंग, जुरासिक पार्क–माइकेल क्रिचटन, द लार्ड ऑफ़ द रिंग्स–जे.आर.आर.टोल्किन, द गाडफादर-मारिओ पूजो, एना कारेनिना, गोन गर्ल, प्राइड एंड प्रेज्यूडिस, वार एंड पीस, गुलिवर ट्रेवल्स, लाइफ ऑफ़ पाई, डॉक्टर जीवागो, 1984 , जेम्स बांड सीरिज–इआन फ्लेमिंग, पाइरेट्स ऑफ़ द करिबीअन-तारिक अली, रॉब किड, दाग-द मेयर ऑफ़ कास्टरब्रिज-थॉमस हार्डी, द जंगल बुक–रुडयार्ड किपलिंग।

मारिओ पूजो के उपन्यास पर बनी फिल्म द गॉडफादर

तीसरी कसम, पंचलैट, तर्पण और तिरियाचारित्तर अर्थात चूँ-चूँ का मुरब्बा

तीसरी कसम उर्फ़ मारे गये गुलफाम फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी पर मशहूर गीतकार शैलेन्द्र द्वारा निर्मित फिल्म है। यह महाकाव्यात्मक फिल्म शैलेन्द्र की तरफ से अपने पसंदीदा साहित्यकार को श्रद्धांजलि है।  एक साहित्यकार की कहानी पर इतने समर्पण से फिल्म निर्माण की अनोखी कहानी है तीसरी कसम का बनना। सजनवा बैरी हो गए हमार, सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है जैसे गीत गाते हुए बैलों को हांकने वाला गाड़ीवान हीरामन एक मिथक बन चुका है जो एक नाचनेवाली बाई से एकतरफा मुहब्बत कर बैठता है।

“जय प्रकाश कर्दम ने अपने लेख सिनेमा के सौ बरस में हिंदी सिनेमा के बारे में कहा है कि “वह ‘सवर्ण हिंदूवादी मानसिकता’ से ग्रस्त रहा है। जिसके कारण हिंदी सिनेमा राष्ट्रीय नवजागरण और स्वाधीनता आन्दोलन में दलितों के योगदान को दिखाने से कतराता है”।बिलकुल इसी तरह जेंडर डिस्क्रिमिनेशन भी महत्वपूर्ण मुद्दा है। नायिकाओं को नायकों की तुलना में कम पारिश्रमिक दिया जाता है तथा नायिका की भूमिका नायक और दर्शकों का दिल बहलाने के लिए ज्यादा होती है। पिछले एक दशक में कुछ महिला प्रधान फिल्मे जरुर बनी हैं और उन्हें नायको के बराबर भुगतान भी किया जाने लगा है।” 

पंचलैट सन 2018 में रेणु की इसी कहानी पर बनी फिल्म है जिसमे जातीय व्यवस्था पर आधारित गाँव में गोधन और मुनरी के मुहब्बत से नाराज होकर गोधन को कुजात निकाला गया है जिसे ‘हुक्का पानी बंद’ करना भी कहते हैं।  गाँव में जब पञ्च लोग सार्वजनिक उपयोग के लिए पेट्रोमैक्स खरीद कर लाते हैं तो पता चलता है कि कोई उसे जलाना नहीं जानता। पड़ोस के गाँव वाले मजाक उड़ाने लगते हैं। ऐसी परिस्तिथि में मुनरी अपनी सहेलियों के माध्यम से खबर कराती है कि गोधन को पंचलैट जलने आता है।  गाँव की बात गाँव में रहे, बेइज्जती न हो इसके डर से गाँव के पञ्च गोधन को माफ़ कर देते हैं और वह पंचलैट जला देता है। बदले में गोधन को छूट मिल जाती है कि वह खूब फिलिम का गाने गाये ‘हम तुमसे मुहब्बत करके सलम…’। पेट्रोमैक्स किसी ज़माने में शादी-बारात, नाच-गाना नौटंकी की रातों में प्रकाश के लिए एकमात्र स्रोत हुआ करता था।  आज बिजली और जरनेटर के ज़माने में पेट्रोमैक्स अप्रासंगिक हो चुका है। गाँव के पञ्च और कुजात घोषित कर हुक्का पानी बंद करना भी गुजरे ज़माने की बात हो गयी है। हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खाप पंचायतों से कभी-कभार जरूर फतवे जारी हुआ करते हैं। एक बात जरुर अभी भी कायम है ‘विलेज एक्सोगामी’ अर्थात अपने ही गाँव की लड़की से मुहब्बत और शादी को आज भी टैबू माना जाता है। मामला अंतर-जातीय हो तो हिंसक भी हो जाता है। प्यार पर जमाने का डर और खतरा तो हमेशा रहेगा क्योंकि यह यूनिवर्सल मामला है।  पंचलैट कहानी पर आज के दौर में फिल्म बनाना रेणु जैसे उच्च कोटि के साहित्यकार के प्रति सम्मान भाव का द्योतक तो है लेकिन व्यवसायिक रूप से लाभ का सौदा नही है।

महिलाओं के बारे में भारतीय समाज में एक लोकोक्ति बहुत प्रचलित है त्रियाचरित्रम दैव न जानस्य अर्थात महिलाओं के रहस्मयी चरित्र को देवता भी नहीं जान सकते। मतलब महिलाएँ भरोसे के काबिल नहीं होती, कमजोर मन की होती हैं। कहानीकार शिवमूर्ति ने अपनी कहानी तिरियाचरित्तर में इसी जमी-जमाई धारणा को पलटने का काम कुछ उसी तरह किया था जैसे हेगेल के सिद्धांत को मार्क्स ने सिर से पलटकर पैरों पर खड़ा करने का दावा किया था। शिवमूर्ति ने अपनी कहानी में बड़े प्रभावी ढंग से स्थापित किया था कि अपनी सगी पुत्रवधू का शारीरिक शोषण करने के लिए एक ससुर किस तरह के हथकंडे अपनाता और असफल रहने पर बहू को कैसे सरेआम बदनाम करता है। इस फिल्म में ससुर का रोल नसीरुद्दीन शाह ने किया था। इसी साल सन  2019 में शिवमूर्ति के उपन्यास तर्पण पर बनी फिल्म रिलीज हुई जिसमें दलितों के अंतहीन शोषण की गाथा है।  फिल्म बताती है किस तरह संविधान और कानूनी संरक्षण के बाद भी समाज का प्रभुत्वशाली वर्ग पुलिस, प्रशासन और न्यायिक व्यवस्था की पेंचीदगियों का फायदा उठाकर दलित और कमजोर वर्गों का शोषण करता रहता है। लेकिन अंकुर फिल्म में जमींदार के घर पर पत्थर फेंकने का जो इशारा श्याम बेनेगल कर चुके थे, बात उससे काफी आगे बढ़ चुकी है और शोषित वर्ग अब अपने खिलाफ हो रहे जुर्म का प्रतिरोध करता है। थाना, कचहरी भी जाकर धैर्य से न्याय पाने तक लड़ने की जहमत उठाने लगा है। साहित्य अपने नये यथार्थ रचता है और हमारे सोचने के तरीके और दायरे को विस्तार देता है। समर्थ फ़िल्मकार भी दर्शकों की समझ को समृद्ध करने का काम करता है। साहित्य पर सिनेमा बनाकर समाज के एक बड़े हिस्से को जगाने-समझाने का कार्य बखूबी किया जा सकता है।

“एक उम्दा साहित्यिक कृति का सफल फ़िल्मी रुपंतरण आसान नहीं होता। लेकिन गोविन्द निहलानी, श्याम बेनेगल, गुलजार, प्रकाश चन्द्र द्विवेदी और विजय आनन्द जैसे निर्देशक भी होते हैं जो एक महान साहित्यिक रचना को अपनी सर्जनात्मक संवेदना से पूरी मौलिकता के साथ पुनर्सृजित कर देते हैं। लेकिन पिछले दो दशकों से हिंदी, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं में लिखे जाने वाले स्तरीय साहित्य का फ़िल्मी रूपांतरण कर सिनेमा बनाये जाने की परम्परा भारतीय सिनेमा में बहुत कमजोर सी पड गयी है। प्रसिद्ध पत्रकार प्रियदर्शन लिखते हैं “हिंदी सिनेमा और हिंदी साहित्य में बन रहा आपसी रिश्ता अब लगभग टूटा हुआ दिखता है। फिल्मों में आई नयी पीढ़ी हिंदी साहित्य से कोसों दूर है और उसकी प्रेरणाएँ या तो पश्चिम के सिनेमा से आती है या फिर अंग्रेजी साहित्य से।” 

ऊपर की चारों फिल्में रेणु और शिवमूर्ति की कहानियो पर बनी हैं लेकिन व्यावसायिक तौर पर सफल नहीं हुई। चेतन भगत के सेमी-पोर्न टाइप उपान्यासों पर बनी फिल्मों को खूब दर्शक मिलते हैं और बड़े फ़िल्मी घराने फिल्में बनाते हैं लेकिन स्तरीय हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य पर ये लोग अच्छी फिल्में नहीं बनाना चाहते जिससे सिनेमा, साहित्य और दर्शक सभी का नुकसान ही है।

रोमन लिपि वाले हिंदी नायक-नायिकाएँ और साहित्य की दुर्गति

आज के बॉलीवुडिया हीरो-हीरोइन और फ़िल्मकार हिंदी-उर्दू और अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य से अपरिचित-सा जान पड़ता है। उन्हें अंग्रेजी भाषा और साहित्य के बारे में तो थोड़ी बहुत जानकारी है। बॉलीवुड के खानदानी लड़के लड़कियां जिनको हिंदी पढने या बोलने भी नहीं आता वे रोमन लिपि में हिंदी सिनेमा के डायलॉग पढ़ते रटते हैं। जाहिर है ऐसे लोगों से न साहित्य का भला होने वाला है न ही सिनेमा का। बचपन से ही हीरो, हिरोइन बनने का ख्वाब लिए पैदा हुए ये इलीट लोग हाथों में गिटार लिए किसी कालेज कैंपस में रोमांटिक अवतार में लांच किये जाते हैं। हिंदी लिखना पढ़ना नहीं जानते लेकिन हिंदी भाषी विशाल जनसमूह पर जबरदस्ती थोपे जाते हैं। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ के साहित्य पर फिल्मे बनाने की उम्मीद इनसे नहीं की जा सकती और यही कारण है कि साहित्य और सिनेमा के बीच एक गैप सा क्रियेट हो गया है।

साहित्य और सीरियल में जुगलबंदी

फिल्मो के अलावा साहित्यिक कृतियों पर धारावाहिक (सोप ओपेरा) भी बने और दूरदर्शन पर लोकप्रिय भी हुए. मनोहर श्याम जोशी द्वारा लिखित सोप ओपेरा ‘हम लोग’ भारत का पहला धारावाहिक था जो सन 1984 में दूरदर्शन पर चला। रामायण (रामानंद सागर) महाभारत (बी. आर. चोपड़ा) जैसे महाकाव्यों पर सफल सीरियल बने। चाणक्य (डॉ चन्द्रप्रकाश द्विवेदी), चंद्रकांता (देवकी नंदन खत्री), तमस (भीष्म साहनी), नीम का पेड़ (राही मासूम रजा), तहरीर प्रेमचन्द की (गुलजार) जैसे धारावाहिक बड़े साहित्यकारों की कृतियों पर बने और दर्शको के बीच बेहद लोकप्रिय हुए। शरद जोशी की हास्य-व्यंग्य वाली रचनाओं पर भी कई धारावाहिकों का निर्माण हुआ जिन्हें खूब पसंद किया गया। ये जो है जिंदगी, विक्रम और बैताल, वाह जनाब, श्रीमती जी, गुलदस्ता, लापतागंज शरद जोशी के लिखे नामचीन सीरियल हैं।

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धार्मिक-पौराणिक आख्यानो से चलकर नई कहानी के दौर की कहानियों और उपन्यासों से होते हुए आज चेतन भगत के अंग्रेजी उपन्यासों पर फिल्में बनाने वाला बॉलीवुड साहित्य में उभरे दलित-बहुजन और नारी विमर्शों से पर्याप्त दूरी बनाये रखते हुए शेक्सपियर, रस्किन बांड और चेतन भगत से ज्यादा साहित्य नहीं जानना चाहता। इसी कारण जय प्रकाश कर्दम ने अपने लेख सिनेमा के सौ बरस में हिंदी सिनेमा के बारे में कहा है कि “वह ‘सवर्ण हिंदूवादी मानसिकता’ से ग्रस्त रहा है। जिसके कारण हिंदी सिनेमा राष्ट्रीय नवजागरण और स्वाधीनता आन्दोलन में दलितों के योगदान को दिखाने से कतराता है”।बिलकुल इसी तरह जेंडर डिस्क्रिमिनेशन भी महत्वपूर्ण मुद्दा है। नायिकाओं को नायकों की तुलना में कम पारिश्रमिक दिया जाता है तथा नायिका की भूमिका नायक और दर्शकों का दिल बहलाने के लिए ज्यादा होती है। पिछले एक दशक में कुछ महिला प्रधान फिल्मे जरुर बनी हैं और उन्हें नायको के बराबर भुगतान भी किया जाने लगा है।

संभावनाओं का विशाल दरवाजा कभी बंद नहीं होगा लेकिन हिम्मत जरूरी है

भारत ही नहीं पूरी दुनिया में साहित्य को आधार बनाकर फिल्में बनती रही हैं आज भी बन रही हैं. हिंदी की पहली कहानी उसने कहा था और पहली भारतीय फिल्म सत्य हरिश्चंद्र सन 1912 में लिखी व बनायीं गयी।  मोनी भट्टाचार्य ने सन 1960 में सुनील दत्त और नंदा को लेकर इसी नाम से फिल्म बनाई। कहने का तात्पर्य यह है कि साहित्य और सिनेमा का आरम्भ से ही बड़ा करीबी रिश्ता रहा है। केवल मुख्यधारा और अत्यधिक प्रसार वाली भाषाई साहित्य पर ही नहीं क्षेत्रीय भाषा में रचे गए साहित्य पर भी बेहतरीन फ़िल्में बनी है।  शेक्सपियर के नाटकों पर जापानी फ़िल्मकार अकिरा कुरोसोवा से लेकर बॉलीवुड के विशाल भारद्वाज तक ने फिल्मे बनाई हैं। शरतचंद्र चटर्जी के देवदास पर अब तक चार हिंदी फिल्में बनाई जा चुकी हैं। प्रेमचंद्र की कहानियों और उपन्यासों पर अनेकों फिल्में बनी हैं। विजयदान देथा की कहानियों पर भी अच्छी फिल्में बनाई गयी हैं। इक्कीसवीं सदी में चेतन भगत की फिल्मों पर सबसे ज्यादा फिल्में बनी हैं। साहित्य को आधार बनाकर फिल्मकारों ने ही नहीं स्वयं लेखकों ने भी फ़िल्में बनाई हैं। लेखकों द्वारा फ़िल्में बनाने का कार्य सर्वप्रथम फ़्रांस में हुआ जब फ्रेंच आलोचक अलेक्जेंडर आस्त्रुक ने ‘कैमरा-स्टाइलो’ की अवधारणा दी और यह घोषणा की कि “फिल्मकार को अपने कैमरे का प्रयोग उसी तरह करना चाहिए, जैसे कोई लेखक अपनी कलम का करता है”।  बॉलीवुड में इस परम्परा में गुलजार, गिरीश कर्नाड और खालिद मोहम्मद जैसे लेखक-निर्देशक प्रमुख हैं। कुछ फिल्में इस तरह से बनाई गयी हैं जिनको देखकर लगता है कि किसी महाकाव्य की रचना परदे पर की गयी हो।  गुरुदत्त की प्यासा, के.आसिफ की मुग़लआजम, और भी ऐसी ही तमाम फिल्में ।

एक उम्दा साहित्यिक कृति का सफल फ़िल्मी रुपंतरण आसान नहीं होता। लेकिन गोविन्द निहलानी, श्याम बेनेगल, गुलजार, प्रकाश चन्द्र द्विवेदी और विजय आनन्द जैसे निर्देशक भी होते हैं जो एक महान साहित्यिक रचना को अपनी सर्जनात्मक संवेदना से पूरी मौलिकता के साथ पुनर्सृजित कर देते हैं। लेकिन पिछले दो दशकों से हिंदी, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं में लिखे जाने वाले स्तरीय साहित्य का फ़िल्मी रूपांतरण कर सिनेमा बनाये जाने की परम्परा भारतीय सिनेमा में बहुत कमजोर सी पड गयी है। प्रसिद्ध पत्रकार प्रियदर्शन लिखते हैं “हिंदी सिनेमा और हिंदी साहित्य में बन रहा आपसी रिश्ता अब लगभग टूटा हुआ दिखता है। फिल्मों में आई नयी पीढ़ी हिंदी साहित्य से कोसों दूर है और उसकी प्रेरणाएँ या तो पश्चिम के सिनेमा से आती है या फिर अंग्रेजी साहित्य से। विशाल भारद्वाज और राजकुमार हीरानी की कई फिल्मे इसका उदाहरण हैं”। अविनाश दास, डॉ सागर और कमल नारायण पटेल जैसे युवा लेखकों और गीतकारों को, जो कि समसामयिक विमर्शों के जानकार हैं दलित, शोषित जनता, महिलाओं के जीवन से जुड़े मुद्दों पर फ़िल्में लिखने बनाने का काम करना होगा। संजीव, शिवमूर्ति, ओमप्रकाश बाल्मीकि, डॉ तुलसीराम, मोहनदास नैमिशराय, मैत्रेयी पुष्पा और ढेर सारे साहित्यकारों की कृतियों पर बेहद उम्दा फिल्मे बनना बाकी है। उम्मीद है कि नेटफ्लिक्स, अमेजन विडियो और शोर्ट फिल्मों के दौर में विविधतापूर्ण बोलियों और भाषाओं के साहित्य पर फिल्में बनाई जाएँगी और हम दर्शकों को अच्छी फ़िल्में देखने को मिलेंगी।

राकेश कबीर जाने-माने कवि-कथाकार और सिनेमा के गंभीर अध्येता हैं।

 

 

 

 

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2 COMMENTS
  1. बिल्कुल सही लिखा आदरणीय आपने साहित्य और फिल्म के बीच एक एक गहरी खाई हैं भाषाई समझ की ।

  2. बहुत ही सराहनीय लेख है फिल्मकारों द्वारा वही परोसा जाता है जो दर्शकों को पसंद होता है लेकिन जो आधार (साहित्य)है उनको भूलना नहीं चाहिए।

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