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ग्राउंड रिपोर्ट

कबीर से लेकर प्रेमचंद तक, सभी ने चुनौतियों का सामना किया

पथ जमशेदपुर के रंगकर्मी और निर्देशक निज़ाम का पिछले दिनों ऑल इंडिया थिएटर एसोसिएशन के वार्षिक सम्मेलन मे शामिल होने के लिए वाराणसी आना हुआ। गाँव के लोग की विशेष संवाददाता पूजा ने उनसे बातचीत की। अपनी संस्था पथ के बारे में बताएं ? हमारी संस्था यूनाईटेड संस्था है, जिसका नाम पथ (People’s association for […]

पथ जमशेदपुर के रंगकर्मी और निर्देशक निज़ाम का पिछले दिनों ऑल इंडिया थिएटर एसोसिएशन के वार्षिक सम्मेलन मे शामिल होने के लिए वाराणसी आना हुआ। गाँव के लोग की विशेष संवाददाता पूजा ने उनसे बातचीत की।

अपनी संस्था पथ के बारे में बताएं ?

हमारी संस्था यूनाईटेड संस्था है, जिसका नाम पथ (People’s association for theatre, Jamshedpur) है। पथ केवल मनोरंजन के लिए नाटक नहीं करती बल्कि  संस्था लगातार देश और राज्यों में होने वाली ऐसी गतिविधियों के जवाब में नाटक खेलती है, जिसका एकमात्र उद्देश्य नाटक करने और देखने वालों में सही नजरिया विकसित हो सके, क्योंकि  नुक्कड़ नाटक एक ऐसा माध्यम है  जो लोगों तक आसानी से पहुँच सकता है, वैसे सोशल मीडिया या इन्टरनेट की सुविधा के आ जाने से लोगों स्थितियां बदली जरूर हैं। हम लगातार समसामयिक विषयों को लेकर नाटक के अलावा डाकूमेंट्रेरी और शार्ट फ़िल्में भी बनाते हैं। जो भी युवा साथी आते हैं उनसे वैचारिक बातचीत कर उन्हें तैयार करनी जिम्मेदारी भी पथ उठती है।

आपने जब रंगमंच की शुरुआत की तो आपने सबसे पहले किस मुद्दे को रंगमंच पर उतारने की कोशिश की और उस प्रस्तुती का लोगों पर क्या प्रभाव पड़ा?

पथ संस्था के पहले से ही मैं रंगमंच का कार्य अन्य संस्थाओं के साथ मिलकर के करता आ रहा हूं। कई संस्थाओं के साथ काम करने बाद भी पथ के गठन करने के पीछे का उद्देश्य यही था कि इंसानी हक की जो चुनौतियां हैं उन विषयों को समाज के सामने लाया जाए। हम जमशेदपुर में रंगमंच करते रहें हैं। और जमशेदपुर औद्यौगिक शहर है। कॉर्पोरेट की अपनी खूबियां और खामियां दोनों रही हैं। कॉर्पोरेट में खामियों की बात करें तो वो हमेशा चाहते हैं  कि लोगों की चेतना उतनी ही जागृत हो जितना उनको जरूरत हो। हमारे सामने चुनौतियां ये हैं कि हम जिन विचारों को लेकर जन्मे हैं, उन्हीं को स्थापित करना है। बिना किसी संस्था के यह उतना आसान नहीं था। हमारे विचार, जीवंतता और दृढ़निश्चियता ही हमारी  ताकत है। रंगमंच के माध्यम से लोगों के उन रंगो को बचाए रखना जरूरी है, जिन रंगों की जरूरत मानवीय मूल्यों, मानवीय जीवन या इंसानी हक को है। शुरू में बहुत दिक्कत हुई।  खर्च चलाने के लिए छोटे- छोटे काम करने पड़े, लेकिन वे कार्य भी कभी वैचारिक अवरोध नहीं बन सके। इतनी परेशानियों के बाद भी रंगमंच को छोड़ने का विचार कभी नहीं आया। हो सकता है कि हमारा यह प्रयास कारखाने में तूती की आवाज हो लेकिन आवाज तो होगी।

मनोज मित्र के नाटक पंछी में निज़ाम और छवि दास

अभी आप ऑल इंडिया थिएटर काउंसिल के वार्षिक सम्मेलन में बनारस आये हुए हैं। इस संस्था के बारे में कुछ प्रकाश डालिए

 तीन साल पहले हमने और बहुत सारी राज्यों की संस्थाओं ने मिलकर के यह फैसला लिया था कि हम लोग राष्ट्रीय स्तर का  संगठन बनाएं जो नाट्यकर्मियों के हित की बात करें या नाट्यकर्मियों की समस्याओं  को लेकर के एकजुट होकर खड़ा हुआ जा सके। तो इसके लिए बनाया गया ऑल इंडिया थिएटर काउंसिल। जिसकी स्थापना 9 जुलाई 2018 को धनबाद में हुई। यहां बनारस के राजघाट, संत रविदास प्रेक्षागृह में जिसका दूसरा राष्ट्रीय अधिवेशन  दो दिवसीय अधिवेशन 11 और 12 सितंबर  को था। जिसमें लगभग 16 राज्यों से रंगकर्मियों ने शिरकत किया। इस दौरान जो तीन सालों की हमारी उपलब्धियां रहीं उन उपलब्धियों की चर्चा हुई साथ ही जो कुछ खामियां रहीं या जो लक्ष्य हम प्राप्त नहीं कर पाए, आने वाले सालों में उस तक कैसे पहुंचा जा सके, उस पर चर्चा की गई। साथ ही भावी योजनाओं पर विचार विमर्श  किया गया। जैसे कि हमलोग थिएटर के लिए और थिएटर करने वालों के लिए क्या-क्या कार्य अपने संगठन के बलबूते पर या सरकारी या गैरसरकारी मुद्दे के सहारे कर सकते हैं। सरकार को हमें किन-किन मुद्दों की तरफ ध्यान आकर्षित करवाना है, इन सभी मुद्दों पर विस्तृत चर्चा हुई। इस चर्चा के दौरान जो पिछली कुछ अच्छी बातें भी सामने आयीं, वो ये कि अखिल भारतीय स्तर पर संगठन बनाने के बाद बीच में कोरोना काल संकट भी था। इस कोरोना काल ने लगभग सभी कामों को प्रभावित किया। इससे थिएटर भी अछूता नहीं रहा। रंगकर्मियों की मदद के लिए ऑल इंडिया थिएटर काउंसिल ने इसे एक अभियान के तौर पर लिया। जैसे बाकि काम करने वाले लोग जो घर बैठ गए, आर्थिक अवसाद और आर्थिक गिरावट का शिकार हुए। उसी तरह रंगकर्मी भी उस स्थिति में ना पहुंच जाए क्योंकि रचनात्मक कर्म करने वाले अकेले नहीं रह सकते। तो उनको जिंदा रहने का प्रयास ऑल इंडिया थिएटर काउंसिल ने पिछले दो वर्षों में लगातारक्र रहा है। जिसमें कभी अभिनय पर तो कभी निर्देशन पर ऑनलाइन वर्कशाप कराया साथ ही ऑनलाइन बातचीत का सिलसिला जारी रखा। जो रंगकर्मी कोरोना जैसी बीमारी का शिकार थे उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं रह गयी थी वो इलाज करा सके तो ऑल इंडिया थिएटर काउसिंल के माध्यम से भारत भर के रंगकर्मी थोड़े-थोड़े रुपए इकट्ठा करके उन रंगकर्मियों तक बिना किसी सरकार  और  कॉर्पोरेट के सहयोग के सीधे आर्थिक सहायता पहुंचायी। ये रंगकर्मियों के लिए बड़ी उपलब्धि थी कि अपने तौर पर कोरोना के संक्रमण काल में भी रंगकर्म को भी जिंदा रखा, वर्कशाप किया, अवसाद ग्रस्त होने से भी बचाया और जहां लोगों को बीमारियों में इलाज की जरूरत हुई वहां मदद भी किया। जिन रंगकर्मियों को अन्न की जरूरत हुई उन रंगकर्मियों तक भी पहुंचे। संस्कृति काउंसिल के एक व्यक्ति ने अलग-अलग राज्यों में संस्थाओं का समूह बनाकर यह कार्य किया। इसलिए क्योंकि एक नाट्यकर्मी ही नाटककर्मी का दर्द जानता है और ये भी जानता है कि अगर हम किसी तरह की मदद के लिए सरकार को लिखते हैं तो लिखने और प्राप्त होने की प्रक्रिया इतनी लंबी है कि तब तक तो मरने वाला मर जाएगा। तो इसके लिए हमने ऑल इंडिया थिएटर काउंसिल की स्थापना की थी, और जिसका दूसरा राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ।

[bs-quote quote=”रेलवे में रियायत मिलती थी कलाकारों को और खिलाड़ियों को जो कि अब बंद हो चुकी है। तो कलाकारों की रियायत बहाल करना, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग सांस्कृतिक आदान-प्रदान कर सकें। चूंकि नाट्य महोत्सव में नाट्य प्रतियोगिता जो अखिल भारतीय स्तर पर होती हैं। जिसमें रेलवे में जो रियायत मिलती थी। उससे शौकिया कलाकारों को और आयोजन करने वाले संस्थाओं को भी आवागमन में बड़ी आसानी होती थी। तो ये मांग भी हमलोग प्रधानमंत्री से सीधे करने वाले हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

इस तरह कि आर्थिक सहायता केवल कोरोना काल में ही हुई या इसके पहले भी इस तरह की आर्थिक सहायता दी जाती रही है?

इससे पहले भी दी जाती रही है। लेकिन कोरोना काल में लोगों की इसकी ज्यादा जरूरत थी। क्योंकि ज्यादातर लोग रंगमंच से कट रहे थे कुछ लोग अवसादग्रस्त हो रहे थे कि नाटक बंद हो गया प्रेक्षागृह बंद हो गए हैं या जो लोग सरकारी नुक्कड़ नाटकों के सहारे जीवनयापन करते थे, ऐसे लोगों के जीवनयापन पर संकट आ गया। काम-धंधे बंद हो गए, रचनात्मक आदमी अगर घर में बैठ जाए तो दिक्कत तो होनी ही है।

ऑल इंडिया थिएटर काउंसिल में अभी तक कितने राज्य शामिल हुए हैं?

अभी तक भारत में हमलोग कुल 19 राज्यों से जुड़े हैं, लेकिन यहां जो अधिवेशन हुआ उसमें 16 राज्यों के प्रतिनिधि उपस्थित हो पाए।

क्या आपकी इतनी कमाई हो पाती है कि आप संस्था से जुड़े सभी व्यक्तियों की आर्थिक मदद कर सकें?

हमारे संस्थानों में जुड़ी बहुत सारी संस्थाएं ऐसी है जिसमें लगभग 90 फीसदी  शौकिया थिएटर करने वाले लोग हैं। ये लोग अपने धनोपार्जन के लिए बाकि दूसरे काम भी कर रहें होते हैं। लेकिन 10 फीसदी  प्रतिशत संस्थाएं ऐसी भी हैं जो पूरी तरह रंगमंच पर ही निर्भर हैं। उनके लिए हमलोगों ने ये उपाय निकाला कि, सरकारी योजनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए जो नुक्कड़ नाटक होते हैं या जो छोटी-छोटी वृत्तचित्र बनती हैं, सरकार के लिए हमलोग उन वृत्तचित्रों का निर्माण करते हैं और नुक्कड़ नाटक करते हैं। उसके एवज में जो मानदेह प्राप्त होता है, उसमें से थोड़ा संगठन को, थोड़ा नाटक संस्था से जुड़े हमारे कलाकारों को दिया जाता है। शौकिया रंगमंच से जुड़े कलाकारों की स्थिति भी यह होती है कि वो घर से लगा के आरहा है, घर वाले लोग ऐसे ही नाटक करने की इजाजत नहीं देते फिर बीच में पैसे भी लो तो उनकी जेब में इतना पैसा जरूर चला जाता है कि उनको घर से जेबखर्च, किराया मांगना नहीं पड़ता। इसी तरह करते-करते हमलोग धीरे-धीरे नाटक की प्रॉपर्टी, कुछ सामान और कुछ पुस्तकें जुटा रहें हैं। हम उम्मीद कर रहें हैं कि आने वाले भविष्य में और भी बड़ी चीजें हो जैसे कि अपनी सांस्कृतिक लाईब्रेरी। हमारी जो संस्था है पथ वो भी बड़े स्तर पर जमशेदपुर में स्थापित हो रही है और ऑल इंडिया थिएटर काउंसिल से भी जुड़ी हुई है। जिसका मुझे राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया है। अब अलग-अलग प्रदेशों में इसकी शाखाएं गठित करने की प्रक्रिया शुरू हो रही है। जिसमें पहले चरण में झारखंड राज्य की इकाई का गठन हुआ है। जिसकी सचिव छवि दास हैं। झारखंड में अन्य बाकी संस्थाओं को ऑल इंडिया थिएटर काउंसिल से जोड़के कैसे हमलोग संगठित हों, अपनी मांगों को या नाट्यकर्मियों की समस्याओं को लेकर संवैधानिक अधिकार जो प्राप्त हैं, जो संविधान में पहले से ही मौजूद हैं लेकिन कुछ लॉबी तक सीमित रह जाते हैं, जैसे थिएटर ग्रांट, किसी को प्रोडक्शन ग्रांट मिलता है। इसको इससे छुटकारा दिलाकर के सभी नाट्य संस्थाएं जो जमीनी स्तर पर कार्य कर रहीं हैं उनको योजनाओं के साथ जोड़ना, सरकार को भी यह बताना कि जो भी इस वर्ग के लिए योजना है वो उन तक पहुंच नहीं रही है। ये भी हमारी इस योजना का हिस्सा है।

[bs-quote quote=”स क्षेत्र में चुनौतियां पहले से ही रहीं हैं, इसके बावजूद हजारों सालों से इसके अस्तित्व को हमारे जैसे लोगों ने बचाए रखा है। हमलोग भविष्य में आने वाली चुनौतियों का भी आकलन करते रहते हैं। और इन चुनौतियों के लिए हमलोग मानसिक रूप से पहले से ही तैयार रहें हैं। संचार प्रणाली का कोई भी माध्यम हो, चाहे वह सोशल मीडिया हो या संचार के अन्य प्रभावी माध्यम से अपनी बात कहना और प्रस्तुति  कला के माध्यम से अपनी बात कहना दोनों में बहुत अंतर है। नाट्यप्रस्तुति में वो जो जीवतंता है कि आमने- सामने बैठकर अपने विचार आदान-प्रदान कर रहें हैं वो श्रोता या दर्शक सीधे ग्रहण करता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

रेलवे में रियायत मिलती थी कलाकारों को और खिलाड़ियों को जो कि अब बंद हो चुकी है। तो कलाकारों की रियायत बहाल करना, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग सांस्कृतिक आदान-प्रदान कर सकें। चूंकि नाट्य महोत्सव में नाट्य प्रतियोगिता जो अखिल भारतीय स्तर पर होती हैं। जिसमें रेलवे में जो रियायत मिलती थी। उससे शौकिया कलाकारों को और आयोजन करने वाले संस्थाओं को भी आवागमन में बड़ी आसानी होती थी। तो ये मांग भी हमलोग प्रधानमंत्री से सीधे करने वाले हैं। पहले पत्राचार के माध्यम से और बाद में योजना है कि ऑल इंडिया थिएटर काउंसिल के माध्यम से देश भर के रंगकर्मियों का प्रतिनिधित्व रैली के माध्यम से वहां तक पहुंचे। फिर प्रतिनिधि मंडल जाकर के सीधे बात करे।

आज के दौर में सोशल प्लेटफार्म के माध्यम के द्वारा ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच सकते हैं, आजकल रंगमंच में लोगों की रुझान बहुत कम नजर आता है, एक तरह से बहुत बड़ी चुनौती है वर्तमान में इस माध्यम से लोगों तक पहुंचना, क्या आपको ऐसा कभी महसूस हुआ?

रंगमंच की शुरुआत ही चुनौती के साथ होती है। मुझे लगता है चुनौती इसकी नियति है। इस नियति से लड़ने का साहस जो लोग रखते हैं वही रंगमच में टिकते हैं और रंगकर्म कर रहें हैं। इस क्षेत्र में चुनौतियां पहले से ही रहीं हैं, इसके बावजूद हजारों सालों से इसके अस्तित्व को हमारे जैसे लोगों ने बचाए रखा है। हमलोग भविष्य में आने वाली चुनौतियों का भी आकलन करते रहते हैं। और इन चुनौतियों के लिए हमलोग मानसिक रूप से पहले से ही तैयार रहें हैं। संचार प्रणाली का कोई भी माध्यम हो, चाहे वह सोशल मीडिया हो या संचार के अन्य प्रभावी माध्यम से अपनी बात कहना और प्रस्तुति  कला के माध्यम से अपनी बात कहना दोनों में बहुत अंतर है। नाट्यप्रस्तुति में वो जो जीवतंता है कि आमने- सामने बैठकर अपने विचार आदान-प्रदान कर रहें हैं वो श्रोता या दर्शक सीधे ग्रहण करता है। और जितना जीवंत प्रस्तुत्य या रंगमंच से श्रोता जुड़ पाता है उतना अन्य माध्यमों से नहीं जुड़ पाता है। मेरा मानना है कि इसमें जीवन है इसलिए सर्वश्रेष्ठ है। बाकि माध्यमों तकनीक है जीवन नहीं। और यह जीवन के प्रवाह को बनाए रखने वाला जीवन है। जिन लोगों ने भी समाज की गलत चीजों के विरोध में अच्छी बातों की राह प्रशस्त करने प्रयास किया है, चाहे वो महात्मा के नाम पर या पैगम्बर या समाज सुधारक के नाम पर रहें हों, तो उन लोगों के सामने भी चुनौतियां खड़ी हुई ही हुई हैं। जो लोग वैचारिक जड़ता को महत्व देते हैं, वैसे लोग रोड़ा बन जाते हैं। यदि देखें तो कबीर से लेकर प्रेमचंद तक के लोगों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा था लेकिन वो विचार ही हैं जो आज कबीर और प्रेमचंद को हमारे बीच आज भी जिंदा  रखा है  और जो रोड़ा अटकाने वाली  चुनौतियों को ललकार रही हैं।

पूर्व क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र(कोलकाता) द्वारा रांची 2017 में आयोजित रैली में पथ के कलाकार.

वर्तमान में जो किसान आन्दोलन, एनआरसी, सीएए जैसे राष्ट्रीय मुद्दे थे इन मुद्दों को लेकर आपकी संस्था ने क्या कार्य किया?

हमारी पथ संस्था ने जमशेदपुर के मुद्दों या राष्ट्रीय मुद्दों को लेकर भी काम किया है। मैं बात कर रहा हूं 1992 के अयोध्या मसला की, जब कारसेवकों ने बड़ा गौरान्वित करने वाला काला अध्याय लिखा था। ये सिर्फ उदाहरण के लिए बता रहा हूं हमारी संस्था ने ऐसे बहुत सारे कार्य किए हैं। जहां हिन्दू-मुस्लिम आबादी मिलती है, जिसको बॉर्डर एरिया कहते थे। हालांकि हर शहर में ऐसी स्थितियां बन गयी हैं कि अल्पसंख्यक लोग शहर हाशिए पर कहीं एक कोने में रहते हैं,जहां सस्ते मकान मिल रहें होते हैं, सस्ते जमीन मिल रहें होते हैं। उस दौरान हमने नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से आगाह करना शुरु किया। 6 दिसंबर की जो इनलोगों की  घोषणा थी कि बाबरी मस्जिद जो इनके हिसाब से विवादित ढ़ाचा था। उसे ध्वस्त करने के साथ उसकी अग्नि में पूरा देश जलाने की इनकी योजना थी। लगभग आधा देश जला ही था। नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से वैचारिक स्तर पर हमने जो परिश्रम किया था, तो असर यह हुआ है कि 1992 में जमशेदपुर दंगे की चपेट में आने से बच गया। और लोगों ने सौहार्द्र  की एक मिसाल पेश की।  तो हम लोग कह सकते हैं कि हमारी संस्था के कलाकारों ने बहुत गर्व से बढ़-चढ़ कर भूमिका निभायी थी। जिसके परिणाम में वो काला दिन सौहार्द्र से गुजर गया। ठीक इसी तरह से जितने भी राष्ट्रीय मुद्दे हैं जैसे किसान आंदोलन की बात हुई या राष्ट्रीय स्तर पर जो सुशांत सिंह राजपूत की मौत को लेकर जगह-जगह साम्प्रदायिक बीज का छिड़काव किया गया। वैचारिक रूप से उन बीजों के खिलाफ हमारी संस्था लगातार नाटकों के माध्यम से काम करती रही है। और ऐसे ही विचारधारा के लोगों से मिलकर बना है ऑल इंडिया थिएटर काउंसिल। जो सामाजिक एकता सौहार्द्र की बात करते हैं या मानवीय मूल्यों के स्थापना का सपना देखते हैं, वैसी संस्थाओं को लेके संगठन अखिल भारतीय स्तर हमने इसकी शुरुआत की। क्योंकि हमें पता था कि हम पथ के लोग बहुत ज्यादा होंगे तो जमशेदपुर या एकाध शहर के किसी हिस्से को  अपने विचारों से छू सकते हैं, लेकिन अखिल भारतीय स्तर पर हम अपने विचारों के बीज कहीं कहीं छींटें  इन नफरत के बीजों के विरुद्ध हरियाली और एकता प्रेम के बीज का छिड़काव करें तो उसके लिए हमें एक बड़े संगठन की जरूरत पड़ी। इसी के चलते हमने अखिल भारतीय स्तर पर हमने एक संगठन तैयार करने का प्रयास शुरू किया था, जिसमे शुरु में तीन-चार राज्य ही शामिल थे, आज 18 से 19 राज्य के लोग जुड़ चुके हैं, और हमारा मानना है कि आने वाले एक से दो साल में हम पूरे 28 राज्यों और तमाम केन्द्र शासित प्रदेशों तक जाएंगे। अपने समान विचारधारा वाले संस्थानों को जोड़ेंगे और जुड़ने के बाद एक रणनीति तय करेंगे की हम जो इंसानियत के हक की आवाज उठाने वाले लोग हैं अपने माध्यम से उन माध्यम से हम क्या क्या कार्य करें जिससे सचमुच जिस तरह के देश का सपना हम देखते हैं वैसा बन पाए।

 

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