वर्ष 2015 के बाद से यह पहला मौका है जब वर्ष के सबसे अंतिम और नये वर्ष के पहले दिन मैं अपने परिजनों के साथ नहीं हूं। इस बार तो वजह यह कि इसी माह करीब 15 दिनों के प्रवास के बाद लौटा हूं। असल में एक जनवरी मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से बेहद खास है। इसी दिन मेरे बेटे जगलाल दुर्गापति का जन्म हुआ। तो इस मौके पर हम सभी एकजुट होते हैं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हो सकेगा। वैसे हर बार की तरह वर्ष का अंतिम दिन पीड़ादायक है। एक समस्या फिर आन पड़ी है मेरे घर पर। लेकिन इस बार मैंने इससे निबटने के लिए अपनी पत्नी को कहा है। मुझे विश्वास है कि वह समस्या से खुद निबट लेगी। मुझे उसके सामर्थ्य पर विश्वास है।
खैर, जीवन है तो परेशानियां और खुशियां दोनों का आना-जाना लगा ही रहेगा। मैं तो अफस्पा यानी आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट, 1958 के बारे में सोच रहा हूं। अभी हाल ही में नगालैंड विधानसभा ने इसे हटाए जाने के संबंध में प्रस्ताव पारित किया और केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कल एक अधिसूचना जारी कर दी है कि अफस्पा अभी छह माह और नगालैंड में प्रभावी रहेगा। दरअसल, अफस्पा के अब तक के अनुभव अच्छे नहीं रहे हैं। यदि हम पूरे पूर्वोत्तर की बात करें तो हमें यह स्वीकार करना ही चाहिए कि भारतीय हुकूमत ने जिस एक कानून के जरिए अपने ही प्रांतों को अपना उपनिवेश बना रखा है, वह अफस्पा है।
वैसे भी अफस्पा का उद्गम 1942 में अंग्रेजों द्वारा बनाया गया कानून है। इस कानून के जरिए अंग्रेजी हुक्मरान अशांत क्षेत्र घोषित कर अपना दमन बढ़ाते थे। बाद में यही कानून स्वतंत्र भारत में भी अफस्पा के नाम से लागू किया गया। जब यह लागू किया गया था तब के हालातों के बारे में मेरे पास वास्तविक जानकारी नहीं है। बीते एक सप्ताह में मैंने अफस्पा की पृष्ठभूमि पर केंद्रित अनेक आलेखों व रपटों का अध्ययन किया। लेकिन इस मामले में निराशा ही हाथ लगी कि अफस्पा लागू करते समय 1958 में देश में वास्तविक हालात क्या थे। आखिर वे कौन-से कारण थे कि फौज को खुली छूट देने का निर्णय उन प्रांतों में लिया गया जहां के लोग आदिवासी हैं? नगालैंड अफस्पा
दरअसल, मैं जिन कारणों की बात कह रहा हूं, उसके मूल में सांस्कृतिक और सामाजिक कारण हैं। मतलब यह कि आज भी अफस्पा जिन प्रांतों में प्रभावी है, वहां की संस्कृति शेष भारत की संस्कृति से अलग है। सामाजिक मसला इसलिए कि वहां एक पूरा का पूरा समाज है जिसके ऊपर एक बाहरी समाज को थोपा जा रहा है। तो मूल टकराहट यही है। जाहिर तौर पर इसके अपने नफा-नुकसान हैं। हुकूमतें प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा बनाने अथवा बनाए रखना चाहती रही हैं और लोग हैं कि अपने जल-जंगल-जमीन को लेकर प्रतिबद्ध हैं। वे अपनी संस्कृति को अहम मानते हैं।
हालांकि ऐसा नहीं है कि पूर्वोत्तर भारत ने संघीय व्यवस्था का मान-सम्मान नहीं किया है। मैं तो अरुणाचल प्रदेश को देख रहा हूं, जिसके ऊपर चीन की निगाह है। इसी तरह मेघालय और मिजोरम भी है। नगालैंड भी इन्हीं राज्यों में से एक है। तो मामला यह है कि पूर्वोत्तर के प्रांत चीन के निशाने पर हैं और भारतीय हुकूमतों को उन इलाकाें में अपनी फौज को बनाए रखने के लिए बाध्य रहना पड़ा है। परंतु, इस परिस्थिति के बीचों-बीच पूर्वोत्तर के आम अवाम हैं जो अमन चाहते हैं। ऐसे में भारतीय हुकूमत की जिम्मेदारी कई गुना बढ़ जाती है कि वह पूर्वोत्तर के लोगों को अधिक से अधिक यह विश्वास दिलाए कि यह हुकूमत उनकी है। इस हुकूमत में वे भी शामिल हैं। संसद में हालांकि पूर्वोत्तर के सांसद हैं। लेकिन मुझे लगता है कि शासन-प्रशासन में उनकी भागीदारी को और बढ़ाना चाहिए। वर्तमान में केवल एक किरेन रिजिजू हैं जो केंद्रीय कानून मंत्रालय के मंत्री हैं। इसके पहले वह गृह राज्यमंत्री भी रह चुके हैं। मुझे तो पीए संगमा की याद आ रही है। लोकसभा अध्यक्ष के रूप में उन्होंने गहरी छाप छोड़ी। वे मेघालय के थे।
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पूर्वोत्तर के प्रति भारतीय हुकूमत का नजरिया सकारात्मक हो। हालांकि यह केवल मेरी कामना मात्र है। वजह यह कि वर्तमान हुकूमत का नजरिया पूर्वोत्तर तो छोड़िए शेष भारत के लिहाज से भी सकारात्मक नहीं है। अभी कल की ही बात है। गांधी को गालियां देने वाला और खुद को धार्मिक बताने वाला कालीचरण गिरफ्तार किया जा चुका है। उसे छत्तीसगढ़ की पुलिस ने मध्य प्रदेश के खजुराहो से गिरफ्तार किया है। महाराष्ट्र पुलिस ने भी उसे अपनी हिरासत में लेने की बात कही है। जबकि मध्य प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्र ने छत्तीसगढ़ पुलिस की कार्रवाई को संघीय व्यवस्था का उल्लंघन बताया है।
असल में मौजूदा सरकार ने पूरे भारत को अस्त-व्यस्त कर रखा है। यह भारत की बदहाली है। सरकार के सभी तंत्र अपनी साख खोते जा रहे हैं। फिलहाल तो देश में कोरोना के मामले तेजी से बढ़ते जा रहे हैं। ओमिक्रॉन के मामले भी एक हजार से अधिक हो चुके हैं। पाबंदियां लागू करने का सिलसिला तेज हो चुका है। इसी साल दूसरे लहर की भयावह यादें अभी भी एकदम ताजी हैं।
इन सबके बीच उम्मीदें हैं। अलविदा 2021!
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
[…] अलविदा 2021! (डायरी 31 दिसंबर, 2021) […]