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ग्राउंड रिपोर्ट

सत्ताधारी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के प्रोत्साहन और आशीर्वाद के बिना किसी के लिए सीमा पार करना संभव है?

सुप्रीम कोर्ट ने नूपुर शर्मा की उस याचिका को खारिज कर दिया है, जिसमें उन्होंने देश के अलग-अलग हिस्सों में अपने  खिलाफ दर्ज सभी एफआईआर को एक साथ जोड़ने की मांग की थी। लेकिन उनकी याचिका को खारिज करने से पहले अदालत ने उनके खिलाफ कड़ी टिप्पणियां कीं। कोर्ट ने कहा कि आज देश में […]

सुप्रीम कोर्ट ने नूपुर शर्मा की उस याचिका को खारिज कर दिया है, जिसमें उन्होंने देश के अलग-अलग हिस्सों में अपने  खिलाफ दर्ज सभी एफआईआर को एक साथ जोड़ने की मांग की थी। लेकिन उनकी याचिका को खारिज करने से पहले अदालत ने उनके खिलाफ कड़ी टिप्पणियां कीं। कोर्ट ने कहा कि आज देश में जो कुछ हो रहा है, उसके लिए अकेले वे ही जिम्मेदार हैं। उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने वास्तव में उन्हें देश से माफी मांगने के लिए कहा। उन्होंने यह भी कहा कि वह एक राजनीतिक दल की प्रवक्ता थीं और उन्हें और अधिक संयमित होना चाहिए था।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद अचानक देश की  ‘संस्थाओं’ में लोगों के विश्वास की वापसी हुई है। दरअसल, हम ‘विश्वास’ रखने के अलावा और क्या कर भी सकते हैं। हम इसे पसंद करते हैं या नहीं लेकिन सुप्रीम कोर्ट का हमारे आस-पास होने वाली किसी भी चीज़ पर अंतिम अधिकार है। इसलिए हमें विश्वास है या नहीं लेकिन हमें उसका फैसला स्वीकार करना ही होगा।

हालाँकि, जैसाकि मैंने कई बार कहा, पिछले कुछ वर्षों में, कोर्ट के फैसलों में, हमारे पास व्याख्यान अधिक और निर्णय बहुत कम हैं, जो हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए आशा प्रदान करें। आज मीडिया के चौबीस घंटे आगे-पीछे रहने के कारण,  ऑफ द रिकॉर्ड  टिप्पणियां भी अखबारों और टी वी पर आ रही हैं। बहुत बार तो जज साहब खुद ही कठोर  टिप्पणियाँ कर रहे हैं और अधिकांश टिप्पणियाँ लिखित निर्णयों का हिस्सा भी नहीं होतीं लेकिन आज ये टिप्पणियाँ मुख्य निर्णय से ज्यादा ध्यान आकर्षित कर रही हैं।  शायद इसलिए कि मीडिया उन्हे सेन्सैशनल बना कर प्रस्तुत कर रहा है। इन टिप्पणियों के चलते निचली अदालतों द्वारा इन्हें अनदेखा करना मुश्किल होता है और वह किसी व्यक्ति को बहुत पहले दोषी बना सकता है।

 अलगअलग मापदंड

अभी कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में गुजरात दंगों पर ज़किया जाफरी की याचिका को खारिज कर दिया जो उनके पति एहसान जाफरी को अहमदाबाद में गुलबर्गा सोसाइटी में बेरहमी से जला देने के जिम्मेवार लोगों के खिलाफ थी। एहसान जाफरी एक स्वतंत्रता सेनानी, एक कांग्रेस नेता और कांग्रेस पार्टी के पूर्व सांसद थे। जाफरी मामले को आगे बढ़ा रही थीं। कुछ ऐसे लोग भी थे जो उनके साथ खड़े थे और उनका समर्थन करते थे। कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ लोगों के साथ खड़ी रहीं और उनमें से कई लोगों को न्याय दिलाने में अहम भूमिका निभाई। हमें नहीं पता लेकिन शायद वे भी जकिया की मदद कर रही थीं और ज़किया जाफरी को उनकी याचिका दायर करने या केस लड़ने के लिए कानूनी मार्गदर्शन प्रदान करने में मदद कर रही थीं। अदालत ने आखिरकार ज़किया जाफरी की याचिका में  कोई दम (मेरिट) नहीं पाया और उसे खारिज कर दिया। लेकिन इतना ही नहीं, कोर्ट ने तीस्ता सीतलवाड़ और दो अन्य पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कड़ी टिप्पणी भी की, जिन्होंने कई पीड़ितों की मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह याचिकाकर्ता या मानवाधिकार के पहरेदारों को दंडित करने जैसा था कि वे पीड़ितों के साथ क्यों खड़े थे। यह एक खतरनाक मिसाल है कि किसी भी याचिकाकर्ता, जो सुप्रीम कोर्ट में केस को ‘जीतने’ में असमर्थ है, को राज्य या प्रधानमंत्री या किसी नेता के खिलाफ ‘साजिश’ करने के लिए दण्डित किया जा सकता है।

ऑल्ट न्यूज़ के संस्थापक मोहम्मद जुबैर और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता तीस्ता सीतलवाड़

सुप्रीम कोर्ट के दो आदेशों पर पुलिस की प्रतिक्रिया देखिए। सुप्रीम कोर्ट द्वारा ज़किया जाफरी मामले  पर अपना अंतिम आदेश देने के तुरंत बाद  गुजरात पुलिस के एसटीएफ ने कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ को मुंबई में उनके आवास से गिरफ्तार कर लिया। मामले में अन्य उल्लेखनीय गिरफ्तारी आरबी श्रीकुमार, पूर्व पुलिस महानिदेशक, गुजरात की है। पूर्व आईपीएस अधिकारी, संजीव भट्ट पहले से ही जेल में बंद हैं। शीर्ष अदालत ने तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को बदनाम करने कीसाजिश में श्रीकुमार को नामित किया था।

नूपुर शर्मा बिना किसी कार्रवाई के बाहर रहीं क्योंकि न्यायमूर्ति सूर्यकांत पहले ही अदालत में बोल चुके थे। उन्हें वीआईपी ट्रीट्मेंट मिल रहा था, लेकिन दूसरी तरफ, दिल्ली पुलिस ने एक ट्वीट पोस्ट करने के लिए ऑल्ट न्यूज़ के संस्थापकों में से एक मोहम्मद जुबैर को उनके बेंगलुरु स्थित आवास से गिरफ्तार कर लिया। पुलिस के अनुसार 2018 में की गई जुबैर की एक ट्वीट ने हिंदुओं की भावनाओं को आहत किया था। ट्वीट कुछ और नहीं, बल्कि ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा बनाई गई एक पुरानी फिल्म की क्लिपिंग थी। यह भी बताया गया है कि जिस गुमनाम ट्विटर हैंडल के तहत ट्वीट करने पर जुबैर को गिरफ्तार किया गया था, वह वास्तव में मौजूद नहीं था और ट्विटर पर उपलब्ध भी नहीं है, लेकिन शिकायत पर कार्रवाई पहले ही की जा चुकी है। दिल्ली उच्च न्यायालय में, सॉलिसिटर जनरल शिकायतकर्ता की ओर से पेश हुए और अगली सुनवाई की तारीख चार सप्ताह बाद तय की गई। हमें नहीं पता कि जुबैर जेल में रहेंगे या कोई निचली अदालत उन्हें जमानत देगी।

[bs-quote quote=”हम पाते हैं कि अधिकांश मामलों में, न्यायालय की टिप्पणियों को वास्तविक निर्णय की तुलना में मीडिया में अधिक स्थान मिलता है और दुर्भाग्य से अधिकांश टिप्पणियों को लिखित निर्णय में शायद ही कभी जगह मिली हो। इसलिए तमाम हंगामे के बावजूद नूपुर शर्मा के वकील ने याचिका वापस ले ली, लेकिन जजों ने इतनी ‘महत्वपूर्ण’ बातें कही कि यह आदेश का हिस्सा नहीं है। हालांकि यह भी एक सच्चाई है कि अदालत ने उन्हें वह राहत नहीं दी जो वह चाहती थीं, लेकिन यही समस्या की जड़ है, क्योंकि राज्य दूसरों के खिलाफ ऐसी रणनीति का इस्तेमाल कर सकता है जिसे वे नापसंद करते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

उदयपुर में मानवता के खिलाफ अपराध

इस बीच, राजस्थान के उदयपुर में एक नृशंस आतंकी घटना घटी है, जहां दो आतंकवादियों ने, जो कि मुस्लिम थे, कन्हैया लाल नाम के एक दर्जी की नूपुर शर्मा का समर्थन करनेवाली कथित ईशनिंदा वाली फेसबुक पोस्ट के लिए बेरहमी से हत्या कर दी। इस घटना ने पूरे देश को क्रोधित कर दिया, लेकिन राजस्थान सरकार द्वारा समय पर की गई कार्रवाई ने उनके  गुस्से को शांत करने में मदद की, जो अगले साल राजस्थान में चुनाव होने के कारण बढ़ रहा था। इसलिए इसे जानबूझकर गरम रखने और इससे राजनीतिक लाभ प्राप्त करने का प्रयास किया गया। हिंदुत्ववादी संगठन राजस्थान सरकार पर निष्क्रियता के आरोप लगाते रहे हैं, लेकिन कुछ चीजें हैं जिन्हें यहां स्पष्ट करने की आवश्यकता है। आतंक के इस जघन्य कृत्य की मुस्लिम कार्यकर्ताओं, व्यक्तियों और राजनीतिक नेताओं ने घोर निंदा की। राजस्थान पुलिस ने आरोपियों को तुरंत ही गिरफ्तार कर लिया। इसके विपरीत शंभू लाल रैगर द्वारा किए गए इसी तरह के अपराध पर तत्कालीन सरकार के साथ-साथ राजनीतिक नेताओं की उदासीनता का एक उदाहरण था. ज्ञातव्य है कि रैगर ने कथित लव जेहाद के लिए एक बंगाली मजदूर का सिर काट दिया, उसके शव को जलाते हुए उसका वीडियो बनाया और ऑनलाइन पोस्ट किया। इस जघन्य कृत्य के लिए रैगर को हीरो बना दिया गया और उसके समर्थन में बहुत से लोग सामने आए। हमें नहीं पता कि मामला आज कहां है लेकिन उसको लेकर सवाल अभी भी उठता है कि वसुंधरा राजे ने इसे फास्ट ट्रैक क्यों नहीं किया? सिंधिया उस समय राज्य की मुख्यमंत्री थीं।

ऐसे कई प्रश्न हैं जिन्हें समझने की आवश्यकता है। शायद कोई सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी से असहमत हो सकता है क्योंकि वह नूपुर शर्मा से संबंधित अंतिम आदेश में प्रतिबिंबित नहीं होती है। मुद्दा यह है कि अदालत ने कहा कि उन्हें देश से माफी मांगनी चाहिए, लेकिन अदालत ने उनकी गिरफ्तारी का आदेश क्यों नहीं दिया? सभी टिप्पणियाँ मौखिक हैं और जहां तक मामले का संबंध है, इसका कोई मतलब नहीं है। नूपुर शर्मा के वकील को अपना केस वापस लेना पड़ा। मुझे नहीं लगता कि उन्होंने इसलिए अदालत से अपने खिलाफ दायर सभी याचिकाओं या प्राथमिकी को एक साथ रखने के लिए कहा क्योंकि उन्हें कट्टरपंथी समूहों द्वारा जान से मारने की ‘धमकी’ मिली है।

सुप्रीम कोर्ट की भूमिका किसी मुद्दे की संवैधानिकता को देखना है और क्या हममें से किसी ने इसका उल्लंघन किया है या इससे आगे निकल गया है? अदालतें यहां हमारे अधिकारों की रक्षा के लिए हैं, लेकिन हाल के वर्षों में, एक पैटर्न सामान्य हो गया है, कि अधिकांश निर्णयों के दो भाग होते हैं। एक सैद्धांतिक पहलू और दूसरा ऑपरेटिव हिस्सा। हम पाते हैं कि अधिकांश मामलों में, न्यायालय की टिप्पणियों को वास्तविक निर्णय की तुलना में मीडिया में अधिक स्थान मिलता है और दुर्भाग्य से अधिकांश टिप्पणियों को लिखित निर्णय में शायद ही कभी जगह मिली हो। इसलिए तमाम हंगामे के बावजूद नूपुर शर्मा के वकील ने याचिका वापस ले ली, लेकिन जजों ने इतनी ‘महत्वपूर्ण’ बातें कही कि यह आदेश का हिस्सा नहीं है। हालांकि यह भी एक सच्चाई है कि अदालत ने उन्हें वह राहत नहीं दी जो वह चाहती थीं, लेकिन यही समस्या की जड़ है, क्योंकि राज्य दूसरों के खिलाफ ऐसी रणनीति का इस्तेमाल कर सकता है जिसे वे नापसंद करते हैं।

भिन्न स्थानों पर एक ही अपराध के लिए प्राथमिकी के मुद्दे से गंभीरता से निपटने की जरूरत है

अब, एक प्रवृत्ति यह भी देखी गई है कि जब भी कोई राजनीतिक दल अपने विरोधियों के लिए परेशानी पैदा करना चाहता है, तो वह वास्तव में अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं को अलग-अलग राज्यों में व्यक्तियों के खिलाफ मामले दर्ज करने के लिए प्रोत्साहित करता है। कई कार्यकर्ता, लेखक और पत्रकार इसका सामना कर रहे हैं और उन्हें यह भी नहीं पता कि उनके खिलाफ कहां मामले दर्ज किए गए हैं। कुछ अज्ञात संस्था या व्यक्तियों की भावनाओं को ठेस पहुंची है और तुरंत स्थानीय पुलिस थाने में मामला दर्ज कर लिया जाता है। कई मामलों में ऐसा करने के लिए भाजपा और कांग्रेस दोनों ही जिम्मेदार थे। अर्नब गोस्वामी मामले में उनके खिलाफ कई राज्यों में कई प्राथमिकियां दर्ज की गईं लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा रुख अपनाया और उन सभी को एक साथ जोड़कर मुंबई या दिल्ली में स्थानांतरित करने को कहा। मुझे लगता है कि यह मुद्दा गंभीर है, क्योंकि ये प्रक्रियाएं मानवाधिकार रक्षकों के लिए सजा बन गई हैं। यह न केवल सामाजिक मानवाधिकार कार्यकर्ताओ की सक्रियता के लिए, बल्कि स्वतंत्र विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए भी सीधा खतरा है। कोई अपने विचार कैसे व्यक्त कर सकता है यदि किसी को पता ही नहीं है कि देश के किसी हिस्से में किसी की भी भावना को ठेस पहुंच सकती है और कोई दूर-दराज स्थान पर केस दर्ज करा सकता है। जो लोग संगठित क्षेत्र में हैं, उनके पास शक्तिशाली पृष्ठभूमि है और जो कुछ पार्टियों के साथ हैं या किसी बड़े संस्थान के साथ हैं वे तो जीवित रह सकते हैं क्योंकि वे कानून की अदालत में उनका बचाव करने के लिए एक वकील रख सकते हैं, लेकिन जो सिर्फ समाज के लिए लिखते हैं किसी संगठित राजनीतिक या ‘नागरिक समाज’ संरचना का हिस्सा नहीं हैं उन्हें एक बड़ी समस्या का सामना करना पड़ सकता है। यहा भी वर्ग चरित्र दिखाई देता है। संगठित क्षेत्र के बुद्धिजीवी और असंगठित क्षेत्र के बुद्धिजीवी। नि:सन्देह जिनके पास सत्ता और संगठन की शक्ति नहीं है ऐसी घटनायें उन्हें चुप रहने के लिए मजबूर करेंगी।

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मुहावरों और कहावतों में जाति

ऐसी चीजें विनाशकारी होंगी, क्योंकि उन आवाजों की अधिक आवश्यकता है जो  आज ‘असली’ भारतीय होने का दावा करने वाले प्रतिस्पर्द्धियों के संगठित समूहों से बाहर हैं। किसी व्यक्ति को ऐसी प्रक्रियाओं में शामिल करने और अपमानित करने के लिए यह जानबूझकर अपनाई जानेवाली राजनीतिक रणनीति है, जो बोझिल और महंगी भी है, ताकि वह अलग अलग स्थानों पर मुकदमेबाजी में ही अपना जीवन खत्म कर दे। नूपुर शर्मा के पीछे तो पार्टी और सवर्ण जातियों की ताकत है लेकिन अनाम असंगठित क्षेत्र के बुद्धिजीवियों के लिए यह मौत के समान है, जो किसी मामले में वकील भी नहीं रख सकते और एक बार यदि जेल गए तो बाहर निकालने तथा उनके लिए आँसू बहाने वाले दो लोग भी नहीं होंगे। ऐसे बहुत लोग हैं जो अपने समाज से बाहर जाकर संघर्ष कर रहे हैं लेकिन वे न समाज के होते हैं, न उनके, जिनके लिए लड़ते हैं। यही हमारे समाज का संकट है और यही बौद्धिकता का भी संकट है जो आज दो धाराओं मे बँटी दिखाई दे रही है और जो इससे अलग हैं उनका कोई वजूद भी नहीं है, क्योंकि वे न तो सोशल मीडिया पर ऐक्टिव हैं और न ही उनके पास जाति, धर्म और सत्ता की कोई प्रिविलिज है।

[bs-quote quote=”उसके लिए वे शालीनता की ‘सीमा’ को पार करने और स्टूडियो में शारीरिक रूप से लड़ने के लिए तैयार हैं। एंकर युद्ध को और आगे बढ़ाने के लिए तैयार हैं क्योंकि आक्रामकता और चिल्लाने से टीआरपी बढ़ती है। इसके अलावा, इस तरह की आक्रामकता जनता के वास्तविक मुद्दों को मोड़ने और अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों को, अपमानित करने में मदद करती है। इसलिए भाजपा के  सभी प्रवक्ता मुसलमानों को अपमानित करने का हर संभव प्रयास करते हैं, क्योंकि वे अच्छी तरह से जानते हैं कि अधिकांश टीवी स्टूडियो में मौजूद लोग जवाब नहीं दे पाएंगे और एंकर यह सुनिश्चित करेगा कि अपमान पूरा हो गया है।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

क्या मौजूदा संकट के लिए सिर्फ नूपुर शर्मा जिम्मेदार हैं ?

क्या वाकई मौजूदा संकट की शुरुआत नूपुर शर्मा ने की है? हां, उन्होंने हद पार कर दी, लेकिन इसके लिए हमें सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ताओं और टीवी चैनलों के झूठ और नफरत फैलाने वाले रिकॉर्ड को देखना होगा। आईटी सेल विरोधियों की विकृत और शातिराना ढंग से संपादित क्लिप बनाता है, जिन्हें न केवल सोशल मीडिया के माध्यम से प्रसारित किया जाता है, बल्कि टेलीविजन चैनलों के माध्यम से भी आगे बढ़ाया जाता है। प्राइम टाइम बहस उनके इर्द-गिर्द घूमती है। क्या सत्ताधारी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के प्रोत्साहन और आशीर्वाद के बिना इन प्रवक्ताओं के लिए सीमा पार करना संभव है? क्या सत्ताधारी दल के शीर्ष नेताओं में से किसी एक ने पिछले पांच वर्षों के दौरान देश में जो कुछ हुआ है, उस पर कभी खेद, दुःख या पछतावा व्यक्त किया है? क्या कभी भी बड़े नेताओं द्वारा सांप्रदायिक सौहार्द की अपील की गई है? शांति की अपील के विपरीत, एक पैटर्न जो विकसित हुआ वह था राजनीतिक धारणाओं के अनुसार चीजों को वैध बनाना और उन्हें सही ठहराना। एंकर अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैला रहे थे। आज की ज्यादातर बहसें सामाजिक-आर्थिक मुद्दों के बारे में नहीं हैं बल्कि हमारी जन्म-आधारित पहचान के बारे में होती हैं, जिसे हमने नहीं चुना है। कोई एक हीरो होता है तो कोई सिर्फ अपनी आस्था की वजह से विलेन। जबकि मुसलमानों ने उदयपुर में अपराध की स्पष्ट रूप से निंदा की है, हिंदुत्व समूहों ने हमेशा निर्दोष लोगों की हत्याओं को सही ठहराने की कोशिश की है जैसे कि शंभू लाल रेगर द्वारा इसी तरह की हत्या। पहलू खान या अखलाक की हत्या, जिनकी लिंचिंग हिंदुत्व समूहों द्वारा की गई थी।

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पिछले कुछ वर्षों में, विशेष रूप से हमारे प्राइम टाइम शोज़ में माहौल खराब किया गया है जो वास्तव में नफरत भरे राजनीतिक एजेंडे को बढ़ावा देते रहे हैं। प्रवक्ता एंकरों के साथ ध्यान आकर्षित करने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। ‘आउट ऑफ टर्न’ पदोन्नति और सत्तारूढ़ दल के सदस्य होने का लाभ प्राप्त करने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। उसके लिए वे शालीनता की ‘सीमा’ को पार करने और स्टूडियो में शारीरिक रूप से लड़ने के लिए तैयार हैं। एंकर युद्ध को और आगे बढ़ाने के लिए तैयार हैं क्योंकि आक्रामकता और चिल्लाने से टीआरपी बढ़ती है। इसके अलावा, इस तरह की आक्रामकता जनता के वास्तविक मुद्दों को मोड़ने और अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों को, अपमानित करने में मदद करती है। इसलिए भाजपा के  सभी प्रवक्ता मुसलमानों को अपमानित करने का हर संभव प्रयास करते हैं, क्योंकि वे अच्छी तरह से जानते हैं कि अधिकांश टीवी स्टूडियो में मौजूद लोग जवाब नहीं दे पाएंगे और एंकर यह सुनिश्चित करेगा कि अपमान पूरा हो गया है।

[bs-quote quote=”क्या वाकई मौजूदा संकट की शुरुआत नूपुर शर्मा ने की है? हां, उन्होंने हद पार कर दी, लेकिन इसके लिए हमें सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ताओं और टीवी चैनलों के झूठ और नफरत फैलाने वाले रिकॉर्ड को देखना होगा। आईटी सेल विरोधियों की विकृत और शातिराना ढंग से संपादित क्लिप बनाता है, जिन्हें न केवल सोशल मीडिया के माध्यम से प्रसारित किया जाता है, बल्कि टेलीविजन चैनलों के माध्यम से भी आगे बढ़ाया जाता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

तथ्य यह है कि ये टीवी डिबेट और कुछ नहीं बल्कि जानबूझकर पुशओवर एजेंडा है, जहां एंकर आपको अपनी राजनीति खेलने की अनुमति देता है। वास्तव में बेहतर होता कि सुप्रीम कोर्ट मीडिया के मुद्दे को उठाकर दिशानिर्देश तैयार करता। क्या हम नहीं जानते कि कैसे चैनल रोजाना जहर उगल रहे हैं और यह सब शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व के आशीर्वाद के बिना संभव नहीं है। क्या अदालतें चैनलों के खिलाफ कार्रवाई कर सकती हैं? क्या वे नफरत फैलाने वाले भाषणों के संबंध में दिशा-निर्देश तैयार कर सकती हैं और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से जवाब मांग सकती हैं? यह केवल उस देश में हो सकता है जहां स्वायत्त संस्थानों ने अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत, पूर्वाग्रह और खुली धमकी फैलाने वाले लोगों और चैनलों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करने का फैसला किया है। इसकी सुध कौन लेगा? धमकी, घृणा और  विकृति को संस्थागत रूप से चुनौती नहीं दी जाती है और यह चैनलों और उनके मालिकों के राजनीतिक दबदबे को दर्शाता है, जिन्हें ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के नाम पर अल्पसंख्यकों को धमकी देने की खुली छूट मिली है।

vidhya vhushan

विद्या भूषण रावत जाने-मने लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

 

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