भारतीय समाज में विभेदकों यानी जिनके आधार पर समाज में विभाजन किया जाता है, की कोई कमी नहीं है। लेकिन मुख्य तौर पर धर्म और जाति ही है। मतलब यह है कि धर्म वह विभेदक है, जिसके आधार पर सबसे पहले विभाजन होता है। हालांकि यह देश जहां हम सब रहते हैं, स्वभाविक तौर पर गंगा-जमुनी तहजीब वाला देश है और यह ऐसा क्यों है, इसके पीछे पूरा इतिहास है। कोई एक दिन में यह देश ऐसा नहीं बना है। संक्षेप में कहूं तो लोग आते गए और कारवां बनता गया। आज यदि किसी ब्राह्मण का डीएनए जांचें तो उसके डीएनए में भी किसी गैर-ब्राह्मण का अंश जरूर होगा। वैसे ही किसी गैर-ब्राह्मण का डीएनए जांचें तो उसके डीएनए में भी मिलावट होगी ही।
धर्म के बाद जो सबसे प्रभावी विभेदक है, वह जाति है। यह तो ऐसा विभेदक है, जिसने रवींद्रनाथ टैगोर को गोरा लिखने को मजबूर कर दिया। अब अपने इस उपन्यास में टैगोर ने यही लिखा है कि एक ब्राह्मणी महिला किसी अंग्रेज के साथ प्रेम करती है और उसके बच्चे को जन्म देती है। वह बच्चा अन्य भारतीय बच्चों से अलग है। उसकी आंखें और उसका रंग सबकुछ। लेकिन उसकी परवरिश भारतीय बच्चों के साथ ही होती है। लेकिन जाति का प्रभाव देखिए कि उसका ब्राह्मण जाति का होने का दंभ हमेशा बना रहता है।
[bs-quote quote=”कल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भोपाल में अंतरिक्ष विज्ञानियों की एक बैठक को संबोधित किया। यह बेहद महत्वपूर्ण संबोधन था। यह इसके बावजूद कि नरेंद्र मोदी की बातों में गंभीरता नहीं होती, लेकिन कल के उनके इस संबोधन में उनकी हुकूमत की अंतरिक्ष विज्ञान के संबंध में नीति के बारे में जानकारी तो मिलती ही है। लेकिन जनसत्ता को विज्ञान से परहेज है। उसने इस खबर को ही गायब कर दिया है और पहले पन्ने पर अमित शाह के बयान को प्रमुखता दी है, जिसमें उनके द्वारा महाराणा प्रताप के उपर एक किताब के विमोचन का उल्लेख है।” style=”style-1″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
ऐसी अनेकानेक कहानियां हैं। मैंने तो गोरा को एक उदाहरण के रूप में देखा। आप चाहें तो गोरा के माफिक ही एक अन्य साहित्यिक कृति महाभारत के कर्ण को ही देखें। भले ही उसे एक शूद्र परिवार ने पाला, लेकिन उसके अंदर का राजपूतपन हमेशा बना रहता है। वह सारी उम्र इसी ताप में जलता है कि जब उसके अंदर राजपूत का खून है तो फिर उसे शूद्र का पुत्र क्यों कहा जाता है।
खैर, जाति का असर ऐसा ही होता है। अब आज दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता को ही देखें। कल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भोपाल में अंतरिक्ष विज्ञानियों की एक बैठक को संबोधित किया। यह बेहद महत्वपूर्ण संबोधन था। यह इसके बावजूद कि नरेंद्र मोदी की बातों में गंभीरता नहीं होती, लेकिन कल के उनके इस संबोधन में उनकी हुकूमत की अंतरिक्ष विज्ञान के संबंध में नीति के बारे में जानकारी तो मिलती ही है। लेकिन जनसत्ता को विज्ञान से परहेज है। उसने इस खबर को ही गायब कर दिया है और पहले पन्ने पर अमित शाह के बयान को प्रमुखता दी है, जिसमें उनके द्वारा महाराणा प्रताप के उपर एक किताब के विमोचन का उल्लेख है। शीर्षक अमित शाह और आरएसएस के चरित्र से मेल खाता है– ‘हमें अपना इतिहास लिखने से कोई नहीं रोक सकता।’
[bs-quote quote=”भारत सरकार अपने यहां भाषायिक विविधता को खत्म कर “एक देश और एक भाषा” को महत्व देना चाहती है। लेकिन यही भारत सरकार भाषायिक विविधता का सम्मान करती है जब संयुक्त राष्ट्र महासभा में यह प्रस्ताव आता है कि संघ की गतिविधियों और सूचनाओं का अनुवाद हिंदी सहित अन्य भाषाओं में किया जाएगा। वैसे यह महत्वपूर्ण है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा में फिलहाल छह भाषाओं को आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है।” style=”style-1″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
दरअसल, जनसत्ता सचमुच में वह माध्यम बन गया है, जिसके जरिए आरएसएस को समझा जा सकता है। और इसलिए मैं इसे अब ‘आरएसएस सत्ता’ कहता हूं। इसका चरित्र दोहरा चरित्र है। इसके लिए प्रधानमंत्री के महत्वपूर्ण संबोधन से भी महत्वपूर्ण ‘जाति’ है। यदि ऐसा नहीं होता तो ‘महाराणा प्रताप’ संबंधी खबर को अंदर के पन्नों में जगह दी जाती।
दोहरे चरित्र की बात करूं तो यह केवल जनसत्ता का दोष भी नहीं है। इस दोष ने तो भारत को भी कहीं का नहीं छोड़ा है। नुपूर शर्मा और जिंदल वाले मामले में भारत की भद्द पूरी दुनिया पिट चुकी है। भारत सरकार का कहना है कि दोनों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया गया है और जांच की जा रही है। मैं यह सोच रहा हूं कि जिग्नेश मेवाणी को जैसे रातों-रात असम की पुलिस ने गुजरात जाकर केवल इस कारण गिरफ्तार किया था कि जिग्नेश ने ट्वीटर पर अपनी टिप्पणी में नरेंद्र मोदी का नाम शामिल किया था। फिर नुपूर शर्मा और जिंदल को अभी तक गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया? कल इसी मांग को लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रदर्शन हुए। रांची में तो यह प्रदर्शन हिंसक हो गया। इलाहाबाद से भी कल देर रात ऐसी ही खबर आयी।
खैर, दोहरा चरित्र का एक और उदाहरण कल भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के मंच पर पेश किया। दरअसल, यह मामला भाषा का है। भारत सरकार अपने यहां भाषायी विविधता को खत्म कर ‘एक देश और एक भाषा’ को महत्व देना चाहती है। लेकिन यही भारत सरकार भाषायी विविधता का सम्मान करती है जब संयुक्त राष्ट्र महासभा में यह प्रस्ताव आता है कि संघ की गतिविधियों और सूचनाओं का अनुवाद हिंदी सहित अन्य भाषाओं में किया जाएगा। वैसे यह महत्वपूर्ण है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा में फिलहाल छह भाषाओं को आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है। ये हैं– अरबी, चीनी, अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनिश। अब महासभा ने यह तय किया है कि कुछ और भाषाओं में भी उसकी गतिविधियों और संदेशों का अनुवाद कराया जाएगा। इनमें हिंदी के अलावा पुर्तगाली, उर्दू, बांग्ला और फारसी शामिल है।
बहरहाल, भारत का दोहरा चरित्र भारत के लोगों के लिए घातक साबित हो रहा है। इस बात से सभी वाकिफ हैं। यह तो बिल्कुल नहीं माना जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इतने नासमझ हैं कि उन्हें यह बात समझ में नहीं आती।
खैर, कल मेरी प्रेमिका ने एक शब्द दिया– शहर। एक कविता सूझी।
देखें तो क्या देखें जब वह शहर में नहीं,
अब क्या खाक हम समंदर-पहाड़ देखें।
एक खलिश है कुछ कहा-अनकहा सा,
रिसता है खून तो क्या बार-बार देखें।
होता मुमकिन तो करता चांद पर दावा,
जब पर्दानशीन है तो क्या आर-पार देखें।
गर्म सांसों से पिघलते मेरे अल्फाज भी,
जो वह नहीं तो क्या अपना कारोबार देखें।
कहने को है कितना कुछ तो क्या कहें,
किस वास्ते कहो हम कोई बाजार देखें।
मौत भी आएगी ही एक दिन ‘नवल’,
अब क्या इंतजार में उसकी राह देखें।
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