भी हाल ही बिहार में जीतन राम मांझी द्वारा दिया गया बयान चर्चा में है। उन्होंने अपने समाज के लोगों से ब्राह्मणवादी कर्मकांड का परित्याग करने का आह्वान किया। वे पहले ऐसे नहीं हैं, जिन्होंने ऐसा किया है। कबीर से लेकर फुले, आंबेडकर और पेरियार तक ऐसा कर चुके हैं। उनके पहले बिहार के मुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद ने भी एक खूबसूरत नारा दिया था– पढ़ना-लिखना सीखो, ओ सूअर चरानेवालों, भैंस चरानेवालों, ताड़ी उतारनेवालों। चरवाहा विद्यालय का उनका एक कांसेप्ट बहुत अच्छा था।
गांव के समाज से एक बात याद आयी। मेरे गांव में अनेक जातियों के लोग रहते हैं। मैं अपने गांव को आदर्श गांव से थोड़ा सा कमतर मानता हूं। वजह यह कि मेरे गांव के लोगों में भी जातिगत अहंकार और कुंठाएं हैं। जिस जाति की आबादी गांव में कम है, वे लोग दबकर रहते हैं। कई बार तो मैंने यह भी देखा है कि मेरी ही जाति के युवा कम आबादी वाले जाति की महिलाओं को लेकर जातिगत टिप्पणियां करते हैं। मुझे बुरा लगता है तो मैं उन्हें टोक देता हूं। कई बार वे मान जाते हैं तो कई बार मुझसे उलझ भी जाते हैं।
दरअसल, यही हाल पूरे बिहार का है। झारखंड के समाज को मैं अलग मानता हूं। लेकिन यह मेरी प्राथमिक टिप्पणी है और इसके पीछे झारखंड में मेरे कुछेक दिनों का अनुभव और वहां की खबरें व रपटें हैं। दिल्ली का समाज अलग है। यहां समाज जैसा कुछ है ही नहीं। मतलब यह कि जिस तरह की सामूहिकता का दर्शन हम गांवों में करते हैं, दिल्ली में मुझे देखने को नहीं मिलता। अभी हाल की ही घटना है। मेरे रहवास के ठीक सामने रहने वाले एक युवा व्यवसायी का निधन हो गया। हालत यह थी कि उसकी लाश उठाने को मुहल्ले का एक आदमी भी आगे नहीं आया। जबकि कोरोना का कहर नहीं था। मैं यहां किराएदार के रूप में रहता हूं और मेरी अपनी आदतें, वैसी ही हैं जैसी पटना में रहने पर होती हैं।
अब सब तरह का अंतर है। जीतनराम मांझी ने जिस दर्द की अभिव्यक्ति की है, उसे समझा जाना चाहिए। मैं तो इसी तरह की घटना उत्तराखंड के चंपावत जिले में देख रहा हूं जहां सवर्ण बच्चों ने एक दलित महिला रसाेइया के हाथों का पका खाना खाने से इंकार कर दिया और राज्य सरकार का हाल देखिए कि उसने उस महिला रसोइया को काम से हटा दिया है। काम से हटाने की वजह राज्य सरकार के अधिकारी ने उसकी नियुक्ति में गड़बड़ी बताई है।

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