कर्नाटक चुनाव परिणाम आये सप्ताह भर हो चले हैं, पर इसे लेकर चर्चा का दौर आज भी थमा नहीं है। इस चुनाव का सबसे सुखद पहलू यह है कि अप्रतिरोध्य बनी जिस देश बेचवा पार्टी की प्राणशक्ति मुसलमानों के खिलाफ नफरत है, उसके बुरी तरह हारने से लोग बहुत ही राहत की सांस ले रहे हैं। यह कैसे हुआ, इसे लेकर ही आज भी चर्चा का दौर जारी है। इन पक्तियों को लिखे जाने के दौरान मोदी सरकार ने 2000 के नोट चलन से बाहर करने का जो फरमान जारी किया है, उसे भी ढेरों लोग कर्नाटक चुनाव से जोड़ते हुए हुए कह रहे हैं कि कर्नाटक चुनाव की चर्चा पर विराम लगाने के लिए ही यह तुगलकी फरमान जारी किया गया है। जहां तक मेरा सवाल है इस परिणाम से इतना गदगद हुआ कि किसी चुनाव परिणाम पर त्वरित टिपण्णी करने वाला मेरे जैसा व्यक्ति लिखना ही छोड़ दिया। किन्तु अब जबकि वहां सिद्धारमैया के नेतृत्व में सरकार बन गयी है तथा उनकी नयी कैबिनेट ने ‘सैद्धांतिक रूप से’ कांग्रेस की 5 गारंटियों को लागू करने की मंजूरी दे दी है, मैं आलस्य त्याग कर यह लेख लिखने बैठ गया हूँ। बहरहाल इससे पहले कर्नाटक चुनाव पर मेरे दो लेख दो और तीन मई को छपे। उसके बाद 10 मई को जो एग्जिट पोल आया , उस पर तीन पोस्ट डाले. पहला था,’ एग्जिट पोल को मैं गंभरीता से लेता हूं। सामान्यतया इससे शेष परिणाम का 70 से 80% प्रतिशत संकेत मिल जाता है। इसलिए मैं कर्नाटक में कांग्रेस के वापसी की कल्पना करके रिलैक्स हूं!’ दूसरा था ,’सभी एग्जिट पोल कांग्रेस को 100 से ज्यादा सीटें, जबकि आजतक कांग्रेस को 122 से 140 और बीजेपी को 62 से 80 सीटें दे रहा है। यह एक ड्रीम सिनेरियो है। मुझे लगता है 13 को भी यही फिगर प्रतिबिंबित होगा!’और तीसरा पोस्ट था,’ महा-नफरतवादी भाजपा को सिर्फ सामाजिक न्याय के विस्तार के जरिए ही मात दिया जा सकता है। यह कर्नाटक विधानसभा चुनाव प्रमाणित करने जा रहा है। भाजपा ने वहां नफरत के राजनीति की सारी हदें तोड़ दी, पर अगर एग्जिट पोल में कांग्रेस विजेता बनकर उभरती दिख रही है तो इसलिए कि उसने वहां एससी, एसटी, ओबीसी, वोक्कलिगा और लिंगायत के लिए 50 से आगे बढ़कर 75% आरक्षण का वादा किया और…’
कर्नाटक चुनाव ने मोदी सरकार की विदाई का सन्देश दे दिया है, ऐसा अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों का ही मानना है। किन्तु इससे सहमत होने के बावजूद मेरा मानना है कि इसने दो बहुत ही खास सन्देश दे दिए हैं। पहला तो यह कि भाजपा किसी भी सूरत में नफरत की राजनीति से बाज नहीं आ सकती। उसकी प्राणशक्ति मुस्लिम विद्वेष का प्रसार है। रामजन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन के जरिये सत्ता में आई भाजपा ने केंद्र से लेकर राज्यों तक जितने भी चुनावों में उतरी हैं प्रायः सभी में मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैला कर ही सफलता अर्जित की है। भले ही वह सबका साथ-सबका विकास का नारा बीच -बीच में देती रही है, किन्तु उसका अधिकतम फोकस मुसलमानों के खिलाफ नफरत फ़ैलाने पर ही रहा है। इसके लिए वह रामजन्मभूमि आन्दोलन के समय से ही मुख्यतः गुलामी के प्रतीकों के मुक्ति के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैला कर चुनावी सफलता अर्जित करती रही है। यही कारण है जब 2022 में वह 80 बनाम 20 करके यूपी जैसे बड़े राज्य में हारते-हारते जीत गयी, उसने गुलामी के प्रतीकों की लिस्ट जारी करने में देर नहीं लगाया। और 16 मई, 2022 को ज्यों ही वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में शिवलिंग मिलने की जानकारी प्रकाश में आई संघ-भाजपा की सक्रियता से हर-हर महादेव के उद्घोष से वहां की सड़कें-गलियां गूंज उठीं, जिसकी अनुगूँज पूरे देश में सुनाई पड़ी। बहरहाल जो भाजपा गुलामी के प्रतीकों की मुक्ति के सहारे धर्मोन्माद फैलाकर चुनाव जीतने की अभ्यस्त है, उसकी लिस्ट में अयोध्या के बाद टॉप पर वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद है। ज्ञानवापी की भांति मथुरा के कृष्ण जन्मभूमि को लेकर भी मामला अदालत में है। गुलामी के प्रतीक के रूप में जौनपुर की अटाला मस्जिद, अहमदाबाद की जामा मस्जिद, बंगाल के पांडुआ की अदीना मस्जिद, खजुराहों की आलम-गिरी मस्जिद जैसी अनेक मस्जिदें संघ के लिस्ट में हैं, जिनके विषय में भाजपा का दावा है कि वे मंदिरों को ध्वस्त कर विकसित की गयी हैं। अगर मुसलमान शासकों ने असंख्य मंदिर और दरगाह खड़े किये हैं तो ईसाई शासकों के सौजन्य से दिल्ली में संसद तो प्रदेशों में विधानसभा भवनों सहित असंख्य भवनों, सड़कों, रेल लाइनों, देवालयों, शिक्षालयों, चिकित्सालयों और कल-कारखानों के रूप मे भारत के चप्पे-चप्पे पर गुलामी के असंख्य प्रतीक खड़े हुए। ऐसे में भाजपा गुलामी के एक प्रतीक को मुक्त कराएगी तो दूसरे के मुक्ति अभियान में जुट जायेगी। लेकिन भाजपा ने इस बार कर्नाटक में गुलामी के प्रतीकों की मुक्ति से अलग एक नया खेल खेला है।
अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि चूँकि भाजपा मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाये बिना कोई चुनाव जीत नहीं सकती इसलिए कर्नाटक की हार से सबक लेते हुए वह 2024 में हेट पॉलिटिक्स को और नयी ऊँचाई देगी ही देगी। लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस का घोषणापत्र और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता आश्वस्त करती है कि 2024 में विपक्ष यदि मल्लिकार्जुन जैसे गंभीर चेहरे को सामने करके कांग्रेस के घोषणापत्र में समयानुकूल कुछ फेरबदल के साथ चुनाव में उतरे तो मोदी सरकार की विदाई सुनिश्चित हो जाएगी
राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन के ज़माने से भाजपा ने मुसलमानों के खिलाफ नफरत का जो लगातार माहौल पैदा करने की कोशिश किया, उसमें उसने उनको विदेशी आक्रान्ता, हिन्दू धर्म-संस्कृति का विध्वंसक, आतंकवादी, पाकिस्तानपरस्त, अधिक बच्चे पैदा करने वाले जमात इत्यादि के रूप में चिन्हित करने की स्क्रिप्ट रचा। किन्तु कर्नाटक में उन्हें एक नए रूप आरक्षण के हकमार वर्ग के रूप में उसी तरह चिन्हित करने का प्रयास किया, जैसे वह यादव, कुर्मी, जाटव, दुसाध इत्यादि को दलित- पिछड़ों के आरक्षण के हकमार वर्ग के रूप में चिन्हित कर बहुजन समाज की अनग्रसर जातियों को आक्रोशित कर चुकी है। मोदी-शाह-योगी और राजनाथ सिंह इत्यादि कर्नाटक के लिंगायत, वोक्कालिगा, दलितों इत्यादि को लगातार सन्देश देने की कोशिश किये कि भाजपा मुसलमानों का आरक्षण छीन कर हिन्दुओं को देने जा रही है। कर्नाटक में जिस तरह मुसलमानों का 4% आरक्षण ख़त्म कर वोक्कालिगा और लिंगायतों के मध्य वितरित किया गया, वह जबरदस्त हिन्दू ध्रुवीकरण का सबब बन सकता था, पर कांग्रेस ने उसकी सही काट पैदा कर भाजपा के मंसूबों पर पानी फेर दिया। बहुजन बुद्धिजीवी वर्षों से कहते रहे हैं कि भाजपा के नफरती राजनीति की काट सिर्फ डाइवर्सिटी और सामाजिक न्याय की राजनीति के विस्तार के जरिये ही किया जा सकता है। चुनाव को सामाजिक न्याय की पिच पर केन्द्रित करने से वह कभी जीत ही नहीं सकती। 2015 में लालू प्रसाद यादव के बाद 2023 में कांग्रेस ने चुनाव को सामाजिक न्याय पर केन्द्रित करके यह सिद्ध कर दिया है।
लोग भूले नहीं होंगे कि 2015 में लालू प्रसाद यादव ने बिहार विधानसभा चुनाव को मंडल बनाम कमंडल का रूप देकर अप्रतिरोध्य से दिख रहे मोदी को गहरी शिकस्त दे दिया था । लालू प्रसाद यादव ने लोकसभा चुनाव 2014 की हार से सबक लेते हुए अपने चिर प्रतिद्वंदी नीतीश कुमार से हाथ मिलाने के बाद एलान कर दिया था, ‘मंडल ही बनेगा कमंडल की काट।’ कमंडल की काट के लिए उन्होंने मंडल का जो नारा दिया, उसके लिए आरक्षण के दायरे को बढ़ाने का प्लान किया। इसी के तहत अगस्त 2014 में 10 सीटों पर होने वाले उपचुनाव में अपने कार्यकर्ताओं को तैयार करने हेतु जुलाई 2014 में वैशाली में आयोजित राजद कार्यकर्त्ता शिविर में एक खास सन्देश दिया था। उस कार्यकर्त्ता शिविर में उन्होंने खुली घोषणा की थी कि सरकार निजी क्षेत्र और सरकारी ठेकों सहित विकास की तमाम योजनाओं में एससी, एसटी,ओबीसी और अकलियतों को 60 प्रतिशत आरक्षण दे। नौकरियों से आगे बढ़कर सरकारी ठेकों तथा आरक्षण का दायरा बढाने का सन्देश दूर तक गया और जब 25 अगस्त को उपचुनाव का परिणाम आया, देखा गया कि गठबंधन 10 में से 6 सीटें जीतने में कामयाब रहा।
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यह एक अविश्वसनीय परिणाम था, जिसकी मोदी की ताज़ी-ताजी लोकप्रियता के दौर में कल्पना करना मुश्किल था। इस परिणाम से उत्साहित होकर उन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव को मंडल बनाम कमंडल पर केन्द्रित करने का मन बना लिया और जुलाई 2015 के दूसरे सप्ताह में जाति जनगणना पर आयोजित एक विशाल धरना-प्रदर्शन के जरिये बिहारमय एक सन्देश प्रसारित कर दिया। उक्त अवसर उन्होंने भाजपा के खिलाफ जंग का एलान करते हुए कहा था।’ मंडल के लोगों उठो और अपने वोट से कमंडल फोड़ दो। इस बार का चुनाव मंडल बनाम कमंडल होगा। 90 प्रतिशत पिछड़ों पर 10 प्रतिशत अगड़ों का राज नहीं चलेगा। हम अपने पुरुखों का बदला लेके रहेंगे।’ उसके बाद जब चुनाव प्रचार धीरे-धीरे गति पकड़ने लगा, संघ प्रमुख मोहन भागवत पहले चरण का वोट पड़ने के पहले आरक्षण के समीक्षा की बात उठा दिए। उसके बाद तो लालू फुल फॉर्म में आ गए और साल भर पहले कही बात को सत्य साबित करते हुए चुनाव को मंडल बनाम कमंडल बना दिए। वह रैली दर रैली यह दोहराते गए,’ तुम आरक्षण ख़त्म करने की बात करते हो, हम सत्ता में आयेंगे इसे आबादी के अनुपात में बढ़ाएंगे।’ इससे चुनाव सामाजिक न्याय पर केन्द्रित हो गया जिस की काट मोदी नहीं कर पाए और मंडलवादी लालू-नीतीश दो तिहाई सीटें जीतने में कामयाब रहे।
लालू प्रसाद यादव ने जिस प्रकार 2015 में सामाजिक न्याय की राजनीति को विस्तार दे कर मोदी को शिकस्त दिया, वह काम अज्ञात कारणों से यूपी विधानसभा चुनाव-2017,लोकसभा चुनाव:2019; बिहार विधानसभा चुनाव- 2020 और यूपी विधानसभा चुनाव- 2022 में यूपी-बिहार का बहुजन नेतृत्व न कर सका: फलतः भाजपा अप्रतिरोध्य बन गयी! लेकिन सामाजिक न्याय के सामने नफरत की राजनीति शर्तिया तौर पर मात खा जाएगी,इस बात की उपलब्धि 2023 में कांग्रेस नेतृत्व ने किया और फ़रवरी 2023 में रायपुर के अपने 85वें अधिवेशन में सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता जाहिर करने के बाद उसने कर्णाटक विधानसभा चुनाव में एससी/एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यक/लिंगायत और वोक्कालिगा के आरक्षण को 50 से बढ़ाकर 75% करने का जो वादा किया, उससे भाजपा मुसलमानों के खिलाफ नफ़रत अभूतपूर्व माहौल पैदा करके भी बुरी तरह मात खा गयी. अवश्य ही आरक्षण की सीमा 50 से 75% करने की घोषणा के साथ उसके मैनिफेस्टो की अन्य बातें भी भाजपा की नफरती राजनीति को ध्वस्त करने में कारगर रहीं।
कांग्रेस के घोषणापत्र की खास बातें थीं, पुलिस वालों को नाइट ड्यूटी के बदले में हर महीने 5 हजार रुपये दिए जाएंगे; भारत जोड़ो के लिए बनाई जाएगी सोशल हार्मोनी कमेटी; आंगनवाड़ी वर्कर्स की सैलरी 11,500 से बढ़ाकर 15,000 करने का वादा; भ्रष्टाचार करने वालों के खिलाफ सख्त कारवाई के लिए स्पेशल कानून बनाया जाएगा; 2006 के बाद से सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए ओल्ड पेंशन स्कीम लागू की जाएगी; बीजेपी की तरफ से पास किए गए सभी जन विरोधी कानून को एक साल के अंदर वापस लिया जाएगा; किसान विरोधी कानून वापस लेने का वादा; किसानों पर दर्ज मुकदमों को भी वापस लेने का वादा; अगले 5 सालों में किसान कल्याण के लिए 1.5 लाख रुपये; किसानों के लिए दिए जाने वाले लोन को 3 फीसदी ब्याज दर पर बढ़ाकर 3 लाख से 10 लाख देने का वादा; ग्रामीण किसानों के लिए की दिन में कम से कम 8 घंटे बिजली देने का वादा; फसल नुकसान की भरपाई के लिए 5 हजार करोड़ रुपये (हर साल 1 हजार करोड़ रुपये); दूध पर सब्सिडी को 5 रुपए से बढ़कर 7 रुपए किया जाएगा; नारियल किसानों और अन्य के लिए एमएसपी सुनिश्चित किया जाएगा; बजरंग दल, पीएफआई जैसे किसी भी संगठन पर प्रतिबंध लगाने सहित कानून के अनुसार निर्णायक कार्रवाई करेंगे; शक्ति योजना के माध्यम से नियमित केएसआरटीसी/बीएमटीसी बसों में सभी महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा; गृह ज्योति योजना के माध्यम से 200 यूनिट मुफ्त बिजली देगी; अन्नभाग्य योजना में 10 किलो चावल की गारंटी; गृह लक्ष्मी योजना के माध्यम से परिवार की प्रत्येक महिला मुखिया को हर महीने 2,000 रुपये; युवानिधि योजना के माध्यम से बेरोजगार स्नातकों को दो साल के लिए 3,000 रुपये प्रति माह और बेरोजगार डिप्लोमा धारकों को 1,500 रुपये प्रति माह दिया जायेगा।’ इन घोषणाओं के अतिरिक्त राहुल गाँधी द्वारा जाति जनगणना कराये जाने तथा जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भागीदारी का सन्देश देना भी काफी कारगर साबित हुआ है।
बहरहाल 2015 में लालू प्रसाद यादव की एक कमी भाजपा के पक्ष में चली गयी कि उन्होंने सत्ता में आकर अपने वादे के मुताबिक संख्यानुपात में आरक्षण बढ़ाने की दिशा में कोई काम नहीं किया। किन्तु 2023 में कर्नाटक की सत्ता में आते ही जिस तरह कांग्रेस 5 गारंटियों को क़ानूनी रूप देने के साथ कैबिनेट में वंचित वर्गों को प्रधानता दिया है, उससे लगता है वह लालू वाली भूल नहीं करेगी। बहरहाल अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि चूँकि भाजपा मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाये बिना कोई चुनाव जीत नहीं सकती इसलिए कर्नाटक की हार से सबक लेते हुए वह 2024 में हेट पॉलिटिक्स को और नयी ऊँचाई देगी ही देगी। लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस का घोषणापत्र और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता आश्वस्त करती है कि 2024 में विपक्ष यदि मल्लिकार्जुन जैसे गंभीर चेहरे को सामने करके कांग्रेस के घोषणापत्र में समयानुकूल कुछ फेरबदल के साथ चुनाव में उतरे तो मोदी सरकार की विदाई सुनिश्चित हो जाएगी, जैसा कि तमाम राजनीतिक विश्लेषक कर्णाटक चुनाव का सन्देश देते हुए कह रहे हैं। लेकिन लोकसभा चुनाव 2024 सामाजिक न्याय पर केन्द्रित हो, इसके लिए दो काम करने होंगे। पहला, आरक्षण को 50 से 75 या 85 % बढ़ाने की घोषणा करते हुए विपक्ष उसे सरकारी नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, आउट सोर्सिंग जॉब इत्यादि अर्थोपार्जन की प्रायः समस्त गतिविधियों तक प्रसारित करे। दूसरा, जननायक के रूप में उभरते राहुल गाँधी जिस तरह नफरत को मोहब्बत से मात देने के लिए भारत जोड़ो यात्रा किये थे, कुछ वैसा ही उपक्रम वह भारतमय ‘जिसकी जितनी संख्या भारी-उसकी उतनी भागीदारी’ का सन्देश देने के लिए चलायें। ऐसा करने पर शर्तिया तौर पर चुनाव सामाजिक न्याय पर केन्द्रित हो जायेगा, जिसका मुकाबला नफरती गैंग: योगी-मोदी- शाह सहित हजारों हिंदुत्ववादी नेता धीरेन्द्र शास्त्री जैसे लाखों साधु-संत और सवर्णवादी मीडिया पूरी ताकत लगा कर भी नहीं कर पायेगी।
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।