Saturday, July 27, 2024
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गैर-सवर्णों के बीच एका (डायरी 28 मई, 2022)

एकता की परिभाषा क्या है और इसकी बुनियाद में कौन-कौन से तत्व शामिल होते हैं? कल यही सवाल दिनभर मेरे मन में चलता रहा। विश्वभर में हुए तमाम आंदोलनों के आलोक में हम यदि इन सवालों के उत्तर पाना चाहें तो हम निश्चित रूप से इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि एकता निरपेक्ष नहीं […]

एकता की परिभाषा क्या है और इसकी बुनियाद में कौन-कौन से तत्व शामिल होते हैं? कल यही सवाल दिनभर मेरे मन में चलता रहा। विश्वभर में हुए तमाम आंदोलनों के आलोक में हम यदि इन सवालों के उत्तर पाना चाहें तो हम निश्चित रूप से इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि एकता निरपेक्ष नहीं हो सकती। अमीरों के खिलाफ गरीबों की एकता या फिर गरीबों के खिलाफ अमीरों की एकता। नस्ल के आधार पर भी एकता का निर्माण हो सकता है। जैसे कि अमेरिका में हुआ। मार्टिन लूथर किंग के नेतृत्व में अश्वेत एकजुट हुए तो उनके सामने सवाल अपने हक-हुकूक श्वेतों से हासिल करना था। भारत के सामाजिक हालात के संदर्भ में इसका आकलन करें तो हम कह सकते हैं कि यहां इतनी विविधता है कि स्थायी एकता मुमकिन ही नहीं। जाति के आधार खास जाति समूह के लोगों की एकता संभव है। धर्म के आधार पर एकता से इन्कार नहीं किया जा सकता है। भाषा के आधार पर भी एकता की पूरी संभावना बनती है और यहां तक कि लोग लिंग के आधार पर भी एक हो सकते हैं। लेकिन ध्यान रहे कि ये सभी किसी न किसी दूसरी एकता के सापेक्ष ही मुमकिन हैं और यह भी कि ये सभी लघुजीवी होते हैं।
फिर स्थायी एकता का निर्माण कैसे हो? इस सवाल को यही छोड़ देना मुनासिब है। वजह यह कि मेरे हिसाब से जाति का विनाश और उसके पहले उत्पादन के संसाधनों पर सभी की समुचित हिस्सेदारी सुनिश्चित किए बगैर एकता के सूत्र नहीं तलाशे जा सकते हैं। ऐसा संभव ही नहीं है कि एक ही परिवार का एक सदस्य जबरन 90 फीसदी रोटियां खा जाय और शेष सदस्य उसका मुंह देखते रहें। वे विरोेध तो करेंगे ही। यही हो रहा है भारतीय सामाजिक व्यवस्था में। सदियों से इसी तरह की बेईमानी हो रही है। जमीन पर अधिकार उनका है जो खेती नहीं करते। खेती वे करते हैं जिनके पास अपने खेत नहीं हैं। बेईमानी की यह प्रक्रिया केवल खेती तक सीमित नहीं है। फैक्ट्रियां भी उनकी ही है जो स्वयं फैक्ट्रियों में मजदूर नहीं हैं। मजदूरी वे करते हैं जिनके पास फैक्ट्रियां नहीं हैं।

[bs-quote quote=”लालू प्रसाद और नीतीश कुमार दोनों ऐतिहासिक पुरुष नहीं हैं। दोनों के पास इतिहास बनाने का मौका था। लेकिन इतिहास रचने का साहस सब नहीं कर पाते। यह किसी व्यक्ति विशेष का अवगुण नहीं है। जैसे हर कोई शेर का सामना नहीं कर सकता। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि यह उसका ऐब हो। लालू प्रसाद और नीतीश दोनों पिछड़े वर्ग के हैं और दोनों को कुर्सी से प्यार रहा है। कुर्सी की लड़ाई में लालू प्रसाद को नीतीश कुमार ने पटखनी दी और आज कुर्सी पर काबिज हैं। उन्होंने भी लालू प्रसाद के बराबर यानी 15 साल राज करने का सुख उठा लिया है।  ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”App” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

जमीन को मैं सबसे महत्वपूर्ण इकाई मानता हूं। यदि किसी के पास जमीन है तभी उसका अस्तित्व है। बिहार में जब नीतीश कुमार ने डी. बंद्योपध्याय आयोग का गठन किया तो मुझे यकीन हुआ कि यह आदमी (नीतीश कुमार) इक्कीसवीं सदी का महानायक बनने जा रहा है। यदि भूमि सुधार लागू होते हैं तो निश्चित तौर पर जमीनी स्तर पर एकता बनेगी। इसका असर रोजगार पर भी पड़ेगा। जब खेतिहर मजदूरों के पास अपनी जमीन होगी तो वे अधिक लगन से मेहनत करेंगे और अपने खेतों में हीरे-मोती उपजाएंगे। बीमार प्रदेश के रूप में कुख्यात बिहार को स्वस्थ और विकसित बिहार बनने में भले ही एक दो दशक लगे, लेकिन यह एक ठोस शुरुआत होगी।
लेकिन यह मेरा भ्रम था। नीतीश कुमार ने बिहार के भूमिहीनों के साथ गद्दारी की। इनमें अधिकांश दलित और पिछड़े वर्ग के लोग थे। नीतीश कुमार ने बंद्योपध्याय कमीशन की सिफारिशों को ठंडे बस्ते में डाल दिया। यह पहला मौका नहीं था जब भूमि सुधार के लिए व्यापक पहल होने की उम्मीद बनी और फिर उसे खारिज कर दिया गया। नीतीश कुमार के पहले लालू प्रसाद ने 1993-94 में बिहार में भूमि सुधार लागू करने का जज्बा दिखाया। बिहार विधानसभा में उन्होंने बजट पर राज्यपाल के अभिभाषण पर हुए बहस का जवाब देने के दरम्यान जमकर इसकी वकालत की थी कि कैसे भूमि सुधार से बिहार की तकदीर बदली जा सकती है। उन्होंने बिहार चालीस बड़े जमीनदारों के नाम भी सार्वजनिक किए। इतना ही नहीं, लालू प्रसाद ने भूमि सुधार पर विचार के लिए राष्ट्रीय स्तरीय सम्मेलन भी कराया। लेकिन फिर बाद में ऐसे मौन हुए कि भूमि सुधार उनके एजेंडे में ही नहीं रहा।
खैर, लालू प्रसाद और नीतीश कुमार दोनों ऐतिहासिक पुरुष नहीं हैं। दोनों के पास इतिहास बनाने का मौका था। लेकिन इतिहास रचने का साहस सब नहीं कर पाते। यह किसी व्यक्ति विशेष का अवगुण नहीं है। जैसे हर कोई शेर का सामना नहीं कर सकता। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि यह उसका ऐब हो। लालू प्रसाद और नीतीश दोनों पिछड़े वर्ग के हैं और दोनों को कुर्सी से प्यार रहा है। कुर्सी की लड़ाई में लालू प्रसाद को नीतीश कुमार ने पटखनी दी और आज कुर्सी पर काबिज हैं। उन्होंने भी लालू प्रसाद के बराबर यानी 17 साल राज करने का सुख उठा लिया है।
कहां मैं बिहार की जटिल राजनीति में आ फंसा। मेरे सामने इस समय दलित और पिछड़े वर्गों में एकता से संबंधित सवाल हैं। इनमें आदिवासियों, घुमंतू व खानाबदोश जातियों को भी जोड़ लेना चाहिए। वजह यह कि दलितों और पिछड़े वर्गों की तुलना इन वर्गों की सामाजिक, सांस्कृतिक , राजनीतिक और आर्थिक हालत बहुत खराब है। फिर जैसा कि मैंने पहले कहा कि एकता किसी न किसी के सापेक्ष ही मुमकिन है और इसके लिए साझा बिंदू अवश्य होने चाहिए, इन सभी वर्गों में ये सारे तत्व विद्यमान हैं। आदिवासी अपने ही जल-जंगल-जमीन से खदेड़े जा रहे हैं। घुमंतू व खानाबदोश जातियों की हालत यह है कि वे किसी राज्य में दलित के रूप में सूचीबद्ध हैं तो कहीं पिछड़ा वर्ग में। उनके पास रहने को घर तक नहीं है। दलित आज भी अस्पृश्यता का दंश झेल रहे हैं। आलम यह है कि देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को दलित राष्ट्रपति के रूप में बेझिझक कोट कर दिया जाता है और कोई सवाल नहीं उठाता। क्या राजेंद्र प्रसाद या फिर प्रणव मुखर्जी को सवर्ण राष्ट्रपति के रूप में संबोधित करते हुए आपने किसी को सुना है?

[bs-quote quote=”पिछड़े वर्ग के नेताओं में डॉ. राममनोहर लोहिया एकमात्र रहे, जिन्होंने पिछड़ों के लिए मुहिम चलायी। उनके विचारों और राजनीतिक पहलकदमी को मैं आंबेडकरवाद के जैसे ही लोहियावाद के रूप में एक सीमा तक स्वीकार करता हूं। ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ यह पहला राजनीतिक नारा था जिसने देश भर के पिछड़ों को एकजुट करना शुरू किया। बिहार में इसका प्रभाव अधिक ही देखने को मिला। कर्पूरी ठाकुर ने मुंगरी लाल कमीशन का गठन किया और 1978-79 में जब पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की तब उन्हें बिहार के सवर्णों ने खुलेआम गालियां दी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

रही बात पिछड़े वर्ग की तो निश्चित तौर पर इस वर्ग ने राजनीति में अपनी पकड़ को मजबूत किया है। लेकिन बात जब जमीनी बदलाव की करें तो आज भी केवल मुट्ठी भर पिछड़े ही सशक्त हुए हैं। अति पिछड़ा वर्ग में शामिल जातियों की हालत दलितों से भी गयी गुजरी है। बस अंतर इतना है कि वे अछूत नहीं हैं। लेकिन भूमिहीनता का स्तर एक है। नौकरियों में भी उनकी भागीदारी न्यून है।
फिर सवाल यह कि इतना सब होने के बावजूद एकता क्यों नहीं बन पा रही है? मुझे इसका जवाब हाल ही में एक फेसबुक पोस्ट में मिला। लिखने वाले ने ‘मंडलवाद’ शब्द का उपयोग किया। यह शब्द चौंकाने वाला था। मंडल यानी बी. पी. मंडल। पिछड़े वर्गों के लोगों को आरक्षण मिले, इस संबंध में मोरारजी देसाई सरकार द्वारा गठित आयोग के अध्यक्ष।

मोरारजी देसाई

भारत में व्यक्तिवाद हमेशा से हावी रहा है। ‘वाद’ के मामले में भी। हमारे यहां मनु के नाम पर वाद है। आंबेडकर के नाम पर वाद है और अब मंडल के नाम पर वाद। लेकिन क्या वाकई यह वाद है? असल वाद तो भारत में जातिवाद और ब्राह्मणवाद है। और किसी वाद की गुंजाइश ही कहां है। आंबेडकर के विचारों और उनके द्वारा उठाए गए सवालों को एक हदतक ‘वाद’ की संज्ञा दी जा सकती है। लेकिन इसकी भी अपनी सीमायें हैं। पूर्णरूपेण ‘वाद’ तो नहीं कहा जा सकता है। यदि उनके विचारों को आंबेडकरवाद कहेंगे तो फिर जोतीराव फुले के विचारों को संबोधित करने के लिए कौन सा शब्द उपयोग में लाएंगे?

दिलचस्प तो यह है कि बिहार में कुछ लोग लालूवाद और यूपी में मुलायमवाद कहने लगे हैं। लेकिन यह सब केवल राजनीतिक छलावा है। हकीकत में कुछ नहीं।
अपना ध्यान फिलहाल मंडलवाद पर केंद्रित कर रहा हूं क्योंकि मैं यह मानता हूं कि एक इसके कारण दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों में एकता नहीं बन पा रही है। मंडल कमीशन के पहले भारत में दो और आयोग बने। आरक्षण का सिद्धांत तो आजादी के पहले ही छत्रपति शाहूजी महाराज ने प्रतिपादित और लागू भी किया। तो जो वंचित हैं, उन्हें आरक्षण मिले, यह विचार न तो आंबेडकर का है और न ही मंडल का। डॉ. आंबेडकर ने संविधान में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए क्रमश: 15 फीसदी और 7.5 फीसदी आरक्षण सुनिश्चित कराया। यह सरकारी नौकरियों, शिक्षा संस्थानों में प्रवेश और विधायिका में भी लागू हुआ। पिछड़ों की स्थिति एकदम दूसरी थी। उनदिनों सरदार पटेल पिछड़ा वर्ग से जरूर आते थे, लेकिन वे स्वयं को पिछड़ा नहीं मानते थे। यदि उन्होंने पिछड़ों के लिए आरक्षण को लेकर पहल की होती तो यह मुमकिन था कि संविधान के निर्माण के समय ही पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान सुनिश्चित हो जाता। लेकिन पटेल मौन रहे।

[bs-quote quote=”भारत में व्यक्तिवाद हमेशा से हावी रहा है। ‘वाद’ के मामले में भी। हमारे यहां मनु के नाम पर वाद है। आंबेडकर के नाम पर वाद है और अब मंडल के नाम पर वाद। लेकिन क्या वाकई यह वाद है? असल वाद तो भारत में जातिवाद और ब्राह्मणवाद है। और किसी वाद की गुंजाइश ही कहां है। आंबेडकर के विचारों और उनके द्वारा उठाए गए सवालों को एक हदतक ‘वाद’ की संज्ञा दी जा सकती है। लेकिन इसकी भी अपनी सीमायें हैं। पूर्णरूपेण ‘वाद’ तो नहीं कहा जा सकता है। यदि उनके विचारों को आंबेडकरवाद कहेंगे तो फिर जोतीराव फुले के विचारों को संबोधित करने के लिए कौन सा शब्द उपयोग में लाएंगे?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

हालांकि डॉ. आंबेडकर की अनुशंसा पर काका कालेलकर आयोग का गठन भी तत्कालीन नेहरू सरकार ने किया। इसका मकसद भी पिछड़े वर्गों का सामाजिक, शैक्षिणिक, राजनीतिक और आर्थिक मूल्यांकन कर सरकार को सलाह देना था कि इन्हें कितना और किस तरह का आरक्षण चाहिए। परंतु, कालेलकर ब्राह्मण थे। यह संभव है कि जब वे इन सवालों पर विचार कर रहे होंगे तब पिछड़ों की व्यापक हिस्सेदारी से डर गए हों कि कहीं संख्या के आधार आरक्षण लागू हुआ तो उनके अपनों यानी द्विजों का क्या होगा। फलाफल यह कि कालेलकर ने रिपोर्ट पंडित नेहरू को सौंपने के बाद एक लंबा पत्र लिखकर अपनी ही रिपोर्ट को खारिज करने का अनुरोध किया। यह एक ऐतिहासिक बेईमानी थी।
पिछड़े वर्ग के नेताओं में डॉ. राममनोहर लोहिया एकमात्र रहे, जिन्होंने पिछड़ों के लिए मुहिम चलायी। उनके विचारों और राजनीतिक पहलकदमी को मैं आंबेडकरवाद के जैसे ही लोहियावाद के रूप में एक सीमा तक स्वीकार करता हूं। ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ यह पहला राजनीतिक नारा था जिसने देश भर के पिछड़ों को एकजुट करना शुरू किया। बिहार में इसका प्रभाव अधिक ही देखने को मिला। कर्पूरी ठाकुर ने मुंगरी लाल कमीशन का गठन किया और 1978-79 में जब पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की तब उन्हें बिहार के सवर्णों ने खुलेआम गालियां दी। यह सब इतिहास में वर्णित है। कुछ भी छिपा नहीं है।

जननायक कर्पूरी ठाकुर

इसी बीच मोरारजी देसाई सरकार ने मंडल कमीशन का गठन किया और बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके बी. पी. मंडल को इसका अध्यक्ष बनाया। मंडल जी ने अपना काम किया और रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। उनकी अनुशंसाओं को लागू करने में सरकार को करीब दस साल लग गए। वी. पी. सिंह ने मंडल कमीशन की अनुशंसाओं को आंशिक रूप से लागू किया और सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की।
फिर इसका विरोध भी हुआ। आरक्षण विरोधियों ने जमकर बवाल काटा। लेकिन कई लोग यह कहते हैं कि उन दिनों कोई आंदोलन भी हुआ, तो मुझे आश्चर्य होता है। आंदोलन तो आरक्षण विरोधियों ने किया था ताकि आरक्षण लागू ही न हो। आरक्षण के पक्ष में आंदोलन कहां और कौन कर रहा था? यूपी में मुलायम सिंह आरक्षण का विरोध कर रहे थे। बिहार में लालू प्रसाद ने इसे लागू करने का प्रयास किया। हालांकि उनसे भी भारी चूक तब हुई जब वहां प्रोफेसरों की बहाली हुई। सारा खेल रंजन यादव को दे दिया और रंजन यादव ने जमकर धांधलियां की। यह वह दौर था जब बिहार में सुशील मोदी की पत्नी से लेकर अब्दुलबारी सिद्दीकी की पत्नी तक प्रोफेसर के रूप में नियुक्त हो गयीं।
बहरहाल, यह स्वीकार कर लेना ही बेहतर है कि मंडलवाद जैसा कुछ भी नहीं है। मंडल जी ने अपना काम किया। पिछड़ों को अपना आईकॉन चुनना है तो वह जोतीराव फुले को अपना आईकॉन माने या फिर शाहूजी महाराज को मान ले। लेकिन उसे आंबेडकर को भी मानना पड़ेगा। वजह यह कि बिना आंबेडकर के गैर द्विजों के बीच एकता बन ही नहीं सकती।
इफ्तिखार आरिफ के शे’र पढ़ रहा हूं। एक शे’र भारत के लिहाज से महत्वपूर्ण प्रतीत हो रहा है –
मिरे खुदा मुझे इतना मोतबर [आश्वस्त] कर दे
मैं जिस मकान में रहता हूं उस को घर कर दे।
गाँव के लोग
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