डर की परिभाषा क्या है, यह मैं नहीं जानता। लेकिन मुझे लगता है कि यह एक अहसास है जो हम महसूस करते हैं और इसके पीछे एक बड़ी वजह असुरक्षा है। हालांकि डर के पीछे के चिकित्सकीय पहलू भी अवश्य होंगे। मैं तो इसके सामाजिक पहलू के बारे में सोच रहा हूं कि आखिर डर लगता क्यों है?
दरअसल, पूर्वी दिल्ली के जिस इलाके में मैं रहता हूं, वहां मुख्य सड़क बिल्कुल नजदीक है। हालत यह है कि सड़क से गुजरनेवाली हर गाड़ी की आवाज स्पष्ट सुनाई देती है। हालांकि पटना में भी जो मेरा घर है, वह एकदम सड़क पर है। इसलिए वहां भी मैं इसी तरह की समस्या से जूझता रहता था। वह तो थोड़े बहुत पैसे हो गए तो मैंने जब अपने घर का विस्तार किया तो अपने लिए मैंने वह कमरा चुना जो सबसे आखिर में था। इससे एक बड़ा लाभ मिलता था। गाड़ियों के गुजरने की आवाज तो आती थी, लेकिन उसकी तीव्रता कुछ कम हो गयी थी। इस कारण पढ़ने-लिखने में सुविधा होती थी।
खैर, मैं दिल्ली में अपने किराए के रहवास के बारे में बात करना चाहता हूं। पिछले तीन-चार दिनों से सड़क से एम्बुलेंसेस के गुजरते समय बजने वाले सायरन की आवाज बढ़ने लगी है। मैं यदि यह कहूं कि हर पांच मिनट पर सायरन की गूंज सुनाई दे रही है तो यह अतिश्योक्ति नहीं।
सवाल यह कि क्या वैक्सीन बेअसर है और केवल राजनीतिक लाभ पाने के लिए भारत सरकार ने यह तिकड़म किया है? मैं यह सवाल इसलिए दर्ज कर रहा हूं क्योंकि दिल्ली के हर गली-कूचे में मुझे वॉल पेंटिंग और होर्डिंग आदि के जरिए 'मुफ्त टीकाकरण के धन्यवाद मोदी जी' पढ़ने को मिलता है। जाहिर तौर पर देश भर में इस तरह के तिकड़म किए ही गए होंगे।
एंबुलेंस के सायरनों की आवाज पिछले साल भी कोरोना के दूसरे लहर के दौरान खूब गूंजती थी। एक बार फिर से वही हालात बनते जा रहे हैं। भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़े देख रहा हूं। दिल्ली में बीते 24 घंटे में 1500 से अधिक लोग कोरोना संक्रमित हुए हैं और छह लोगों की जान चली गयी है। ओमीक्रॉन का खतरा भी सबके सामने है। राष्ट्रीय स्तर पर जो आंकड़ा नजर आ रहा है, वह चिंतित करनेवाला है। बीते 24 घंटे में कोरोना संक्रमितों की संख्या 1 लाख 11 हजार 902 है और मरने वालों की संख्या में 325 की वृद्धि हुई है।
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ये आंकड़े मेरे व्यक्तिगत और सार्वजनिक डर की वजहें हैं। मैं यह सोच रहा हूं कि क्या जो वैक्सीन दिए गए हैं, वे बेकार हो चुके हैं? हालांकि यह सवाल मेरे अकेले का सवाल नहीं है। तमाम लोग जो इसके तकनीकी पहलू से अंजान हैं, उनके मन में यह सवाल जरूर होगा कि आखिर क्या वजह है कि कोरोना संक्रमितों की संख्या रोज-ब-रोज बढ़ती जा रही है? वहीं ओमीक्रॉन का खतरा भी माथे पर है। हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर ओमीक्रॉन संक्रमितों की संख्या करीब साढ़े तीन हजार ही है, लेकिन जिस दर से इसके संक्रमितों की संख्या बढ़ती जा रही है, आनेवाले समय में वह एक नया संकट होगा।
कोविशील्ड और कोवैक्सीन की गुणवत्ता अमरीकी और अन्य देशों के टीकों के मुकाबले कोरोना के खिलाफ कम प्रतिरोधक क्षमता देते हैं। यह बात सब जानते हैं। फिर लोगों को कम ताकतवर टीके क्यों लगवाए गए? क्या सरकार ने कोई घोटाला किया है और व्यापक स्तर पर सरकारी खजाने की लूट हुई है?
खैर, फिर से सवाल पर बात करते हैं। भारत सरकार लोगों को वैक्सीन दिलवा रही है और वह भी मुफ्त में। साथ ही एक प्रमाणपत्र भी उपलब्ध कराया जा रहा है, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर और उनका ‘सकारात्मक’ संदेश भी है। भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के वेबसाइट से जो जानकारी मिल रही है, उसके हिसाब से सरकार अब तक 1 अरब 48 करोड़ 67 लाख 80 हजार 227 टीके लोगों को मुफ्त लगवा चुकी है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि 18 वर्ष से अधिक आयु के करीब 32 फीसदी लोगों को दोनों डोज दिए जा चुके हैं। ऐसे में यह सवाल भी है कि जो लोग कोरोना संक्रमित हो रहे हैं, उनमें क्या वे लोग हैं, जिन्होंने वैक्सीन नहीं लगवाया है? लेकिन इसका जवाब भी नकारात्मक है। करीब 92 प्रतिशत कोरोना संक्रमित ऐसे हैं, जिन्होंने वैक्सीन ले रखा है।
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तो अब सवाल यह कि क्या वैक्सीन बेअसर है और केवल राजनीतिक लाभ पाने के लिए भारत सरकार ने यह तिकड़म किया है? मैं यह सवाल इसलिए दर्ज कर रहा हूं क्योंकि दिल्ली के हर गली-कूचे में मुझे वॉल पेंटिंग और होर्डिंग आदि के जरिए ‘मुफ्त टीकाकरण के धन्यवाद मोदी जी’ पढ़ने को मिलता है। जाहिर तौर पर देश भर में इस तरह के तिकड़म किए ही गए होंगे।
एक सवाल वैक्सीन कंपनियों के संंबंध में। कोविशील्ड और कोवैक्सीन की गुणवत्ता अमरीकी और अन्य देशों के टीकों के मुकाबले कोरोना के खिलाफ कम प्रतिरोधक क्षमता देते हैं। यह बात सब जानते हैं। फिर लोगों को कम ताकतवर टीके क्यों लगवाए गए? क्या सरकार ने कोई घोटाला किया है और व्यापक स्तर पर सरकारी खजाने की लूट हुई है?
सवाल कई हैं और हालात यह कि देश में हाल यह है कि कोई सवाल नहीं पूछ सकता। वैसे भी आदमी कोरोना के कहर से खुद को बचाए या फिर सवाल करता फिरे।
लेकिन यह तो तय है कि यदि उच्च स्तरीय जांच हो तो एक बड़ा घोटाला जरूर सामने आएगा। फिलहाल तो मैं भी यही कामना कर रहा हूं कि लोग सुरक्षित रहें और स्वस्थ रहें।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।