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जनतंत्र में जंतर-मंतर की झांकी और सरकार की सरपरस्ती में काम कर रही पुलिस की मनमानी

वाह, क्या बात है। हम कितने परिवर्तनकामी हैं। देश और इस समाज को बदलना चाहते हैं। लोगों के लिए लड़ना चाहते हैं। आमजन का भला चाहते हैं। मगर पुलिस-प्रशासन की मनमानी पर कुछ नहीं बोलत सकते। वर्दी की उन ज्यादतियों पर चुप्पी साध लेते हैं, जो सत्ता के इशारों पर आमजन की आवाज बंद करना […]

वाह, क्या बात है। हम कितने परिवर्तनकामी हैं। देश और इस समाज को बदलना चाहते हैं। लोगों के लिए लड़ना चाहते हैं। आमजन का भला चाहते हैं। मगर पुलिस-प्रशासन की मनमानी पर कुछ नहीं बोलत सकते। वर्दी की उन ज्यादतियों पर चुप्पी साध लेते हैं, जो सत्ता के इशारों पर आमजन की आवाज बंद करना चाहती है।

क्या यह हम सबकी बुजदिली नहीं है? क्या यह सत्ता का कायरपन नहीं है, जो जंतर-मंतर पहुंचे आमजनों को अपनी व्यथा भी नहीं कहने देती। ऐन वक्त उनके कार्यक्रम रद्द कर देती है, जिसे कुछ दिन पहले उसने ही अनुमति दी थी। वह इस ज्यादती के लिए अवाम को विरोध भी नहीं जताने देती। क्या हमें ऐसे तानाशाहीपूर्ण रवैये का विरोध नहीं करना चाहिए, पर कितना कर रहे हैं?

विरोध नहीं होने के कारण ही तानाशाही को शह मिलती है। पुलिस आमजन के साथ मनमानी पर उतारू हो जाती है। वैसे भी वह जनता को डरा कर रखना चाहती है। आमजन के साथ मजदूरों और किसानों का भी मनोबल गिरा कर रखना चाहती है। छोटे व्यापारी, रेहड़ी, ठेला-पटरी वाले रात-दिन शोषण का शिकार होते हैं। दूसरी तरफ, व्यवस्था में बैठे लोगों की कोशिश होती है कि वे एकजुट न हो पाएँ। वे आपस में अपने दुखों को भी आपस में साझा न कर पाए।

ऐसा ही एक ताजा उदाहरण मानव अधिकार दिवस यानी 10 दिसंबर, 2023 को देखने को मिला। जब दिल्ली के जंतर-मंतर पर पुलिस ने एक संगठन को जन-सभा करने के लिए दी गई अपनी ही अनुमति को रद्द कर दिया। आखिर पुलिस की कौन-सी मजबूरी रही होगी यह शोचनीय है।

दिल्ली पुलिस के सामने ऐसी क्या आफत आ गई। पुलिस-प्रशासन को यकायक अपना ही आदेश क्यों रद्द करना पड़ा? जबकि इस आयोजन में छात्र, मजदूर और नौजवान अपनी व्यथा कहने के लिए  मानवाधिकार दिवस को  लोग अपनी दिहाड़ी छोड़ कर दिल्ली व उससे सटे दूर-दराज के इलाकों से जंतर-मंतर पर पहुंचने वाले थे।

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चूंकि हम जनतान्त्रिक देश में हैं। हमें अभिव्यक्ति की आजादी है। अपनी व्यथा सरकार तक पहुंचाने का देश के हर नागरिक को हक है। दिल्ली के जंतर-मंतर को तो सरकार ने धरना-प्रदर्शन,  मीटिंग के लिए निश्चित ही कर दिया है, जहाँ देश भर से आकर लोग अपनी बात कहते हैं।

इसी जंतर-मंतर पर 10 दिसंबर, 2023 को भी अन्य लोगों, संगठनों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश, ग्रेटर नोएडा के फ्लैट धारकों ने भी तख्तियों पर लिखे नारों व अपने वक्तव्यों के जरिये अपनी व्यथा व्यक्त की, जिसे अखबारों में जगह तक नहीं दी गई। फिर आमजनों को ही क्यों जन-सभा करने से रोक दिया गया? सरकार को सीएएसआर से ही क्या चिढ़ थी कि उसकी जन-सभा करने की मिली हुई अनुमति रद्द कर दी गई।

क्या इसी मुल्क में लोकतंत्र की अम्मा रहती हैं? क्या इसी देश में है मदर आफ डेमोक्रेसी? यदि हाँ, तो बेचारी लोकतंत्र की अम्मा यहाँ कैसे रहती होगी? वह अपनी संतानों पर जुल्म कैसे देखती होगी?

झूठे मुकदमों की तादाद दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। राजधानी की गरीब अल्प-संख्यक बस्तियाँ, यहाँ के गाँव-देहात और उत्तर प्रदेश के गाँव-देहातों में पुलिस अपना ‘टारगेट’ पूरा करने के लिए किसी भी बेबस को धर लेती है। आदिवासी इलाकों की तो कुछ पूछिये ही मत। अब तो शहरों में सवाल उठाने वालों को नक्सलवादी, देश-द्रोही घोषित कर दिया जाता है। उस देश-द्रोही के साथ कुछ भी किया जा सकता है। तभी तो विश्वविद्यालयों के कितने ही छात्र, प्रोफेसर आज जेलों में  बंद हैं, उन्हें जमानत तक नहीं मिल रही। उनके परिजन न्याय के लिए तरस रहे हैं। पर कोई देखने-सुनने वाला है क्या?

फिर कोई क्यों देखे? किसे जरूरत है देखने की? जबकि हम खुद ही नहीं देख रहे? क्या हमें सरकार की मनमानी नहीं कचोट रही है? हमें पुलिस-प्रशासन की तानाशाही उत्तेजित नहीं करती है? अपनी व्यथा को साझा करने हेतु एकजुट होते आमजनों पर ज्यादतियाँ होती हैं? मोदी काल का कोई ऐसा अवसर, जब भगवा संगठनों के साथ पुलिस ने ज्यादती की हो? उनके कार्यक्रमों में अड़चन डाली हो? जबकि, उन्होंने गौ-रक्षा की आड़ मजहब विशेष के लोगों पर कितनी  ज़्यादतियाँ की? कितने नौजवानों को शिकार बनाया? पूर्व अमरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प की अहमदाबाद यात्रा के समय तो दिल्ली में भाजपा विधायक कपिल मिश्रा ने समाज विशेष के धरना-प्रदर्शन को हटवाने के लिए किस तरह का वक्तव्य दिया था। पुलिस को वह सरेआम किस तरह हिदायत दे रहे थे, किसने नहीं देखा? क्या वह कानून-सम्मत था? अगर नहीं तो क्या उनके खिलाफ कोई कार्यवाही हुई?

अब आप कहेंगे कि वह तो सत्ता में हैं और सत्ताधारियों के तो सौ खून भी माफ हो सकते हैं। वर्तमान समय तो उनके लिए स्वर्ण-काल है। जेएनयू में भगवा गुण्डों ने किस तरह छात्र-छात्राओं के सिर फोड़े, विश्वविद्यालय परिसर में आतंक फैलाया। उनके खिलाफ क्या कोई कार्यवाही हुई? किसी पर यूएपीए लगा।

जब संस्कारी पार्टी का मुखिया आतंकियों की पहचान टोपी से करने की बात कहे। प्रधानमंत्री पद पर बैठ कर जब वह विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को मूर्खों का सरदार कह दे, तो उसके चेलों के हौसले बुलंद क्यों नहीं होंगे। चेतन चौहानों के दिमाग क्यों खराब ​नहीं होंगे? क्यों नहीं बढ़ेगी पुलिस की मनमानी?

ऐसे लोग वह आमजन के साथ कुछ भी कर सकते हैं। कर भी रहे हैं। न्यायालय भी उनके साथ कदम-ताल करते नजर आ रहे हैं। अपने हकों की बात करने वाले न जाने कितने मजदूर जेलों में हैं। विश्वविद्यालयों के कितने ही छात्र-प्रोफेसर जेलों में बंद हैं? वे सब विचाराधीन कैदी हैं, जिनमें एक प्रोफेसर तो 90 प्रतिशत विकलांग हैं। अकेले शौच भी नहीं जा सकते। वर्षों बीत गया पर उन्हें आज तक जमानत नहीं  मिली।

ऐसे समय में आपने 10 दिसंबर, 2023 की झांकी भी देख ली होगी। पुलिस किस कदर मानवाधिकारों की रक्षा करने पर तुली थी? सैकड़ों की संख्या में मौजूद पुलिस 50 नौजवानों को सामान की तरह बसों में  फेंका। गालियाँ दीं। लड़कियों तक को नहीं बख्शा। उन पर भद्देे-भद्दे कमेंट किए गए। उन्हें पीटा गया, जिसे वीडियो के माध्यम से समझा जा सकता है। सुरक्षा-बलों पर तो आंदोलनकारी छात्रों, मजदूरों ने गोली मारने की धमकी देने का भी आरोप लगाया है। हिन्दू राष्ट्र की ओर बढ़ रहे देश में जंतर-मंतर पर इकट्ठा होना क्या इतना बड़ा अपराध है?

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अगर नहीं तो पुलिस ने ऐसा क्यों किया? धरना-प्रदर्शन करना क्या गुनाह है? आमजन का जंतर-मंतर पर इकट्ठा होना अपराध है? यदि अवाम का जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करने आना अपराध है तो पुलिस ने पहले उन्हें जन-सभा करने की अनुमति क्यों दी? और फिर ग्रेटर नोएडा, उत्तर प्रदेश के फ्लैट धारक तो उसी दिन अपनी छातियों पर तख्तियाँ लटकाए प्रदर्शन कर रहे थे, वे भी तो नारों-वक्तव्यों के जरिए सरकार तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश कर रहे थे, क्या उन्हें रोका गया? फिर छात्रों, मजदूरों, बेरोजगारों को ही क्यों मीटिंग करने से रोका गया?

सवाल है, क्या अब जंतर-मंतर को क्या कीर्तन मंडली के लिए ही आरक्षित कर दिया गया है? क्या जंतर-मंतर पर खास विचारधारा के लोगों को ही अपनी बात कहने की आजादी होगी? क्या अब देश में अभिव्यक्ति की आजादी प्रतिबंधित है? आमजन को अपनी व्यथा जाहिर करने का भी हक नहीं हैं? यदि हाँ, तो पुलिस ने सीएएसआर के कार्यक्रम को प्रदान करने की अनुमति क्यों दी?

खैर, बहुत हो गया। आखिर हम सब कब चुप्पी तोड़ेंगे! अगर अब नहीं मुंह खोला तो फिर बहुत देर हो जायेगी।

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