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sudha arora
घोर स्त्री विरोधी और रूढ़िवादी परम्पराओं का समर्थक प्रकाशन है गीता प्रेस
'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता’ से लेकर 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो....' तक भारतीय संस्कृति और साहित्य में ढोल-नगाड़ों के साथ काफी 'लाउड’...
दीवारों में चिनी हुई चीखें -3
तीसरा और अंतिम हिस्सा
उन दिनों नूं रानियां ( बहूरानियां ) सिर्फ कहने को रानियां थीं, औकात दासियों से बदतर थी। अपनी मर्जी से कोई...
एक लाइन में कई कमरों वाला वह तीसरा तल्ला -2
दूसरा हिस्सा
मौसी मां की बड़ी लाड़ली थी। मुझे अपने होश संभालने के बाद जो पहली शादी याद है, वह मौसी की शादी थी। विदाई...
मां की कविताएं उन किताबों में से गुम होती चली गईं जिन्हें छिपाकर दहेज के साथ ले आई थीं-1
पहला हिस्सा
मैं जब भी यहां, अपने मायके कलकत्ता आती हूं, इस कमरे के बिस्तर के इस किनारे पर जरूर लेटती हूं- जहां मां लेटा...
एकांत और अकेलेपन के बीच – मन्नू भंडारी – कुछ स्मृतियों के नोट्स
पहला हिस्सा
4 सितम्बर 2008 - क्षमा पर्व
मन्नू जी का फोन - सुन सुधा, एक बात तुझसे कहना चाहती हूं।
यह तो वे रोज ही कहती...
अविश्वसनीय थी मां की यातना और सहनशीलता (भाग – दो )
भाग - दो
हमें तो इस घटना के बारे में मालूम पड़ा गेंदी बाई से। छुट्टियों में हम जब कभी भानपुरा जाते तो मैं गेंदी...
सभी जाति धर्म की स्त्रियों की तकलीफें एक जैसी हैं- सुगंधि फ्रांसिस (भाग -तीन)
तीसरा और अंतिम हिस्सा
विवेक ने समाज को बदलने का जो बीड़ा उठाया था उसका एक रंग यह भी था कि स्वयं भी झोपड़पट्टी में...
गरीबों-मज़लूमों के लिए जिनका घर कभी बंद नहीं होता (भाग – एक)
हाल ही में देखी एक फिल्म का दृश्य है - एक छोटे से कमरे में दो दोस्त दाखिल होते हैं। घुसते ही एक कह...
बाल बंधुआ से सामाजिक कार्यकर्ता बनने वाली सखुबाई की कहानी
‘संघटना’ के गांव में लाए जाने के पहले औरतें अपने पतियों द्वारा प्रताड़ित की जाती थीं। वे खेतों में कड़ी मेहनत करती हैं और जब पति घर लौटती है तो पति हुकुम चलाते हैं - पानी लाओ, दारु लाओ, आदि। ऊपर से पीटते भी हैं। अब संघटना के कारण बांदघर मे हम पतियों से नहीं डरतीं और न ही पुलिस और वन अधिकारियों से। पहले पति मुझे पीटा करते थे। अब मैं उनसे सीधे कह देती हूं कि अगर मुझ पर हाथ उठाया तो मेरा भी हाथ उठ जायेगा। मुझे तुमसे डर नहीं लगता, मैं भी पलटकर जवाब दूंगी।
लेखक की निजी ज़िन्दगी और रचना संसार के बीच का ‘नो मेंस लैंड’
फिल्म में उन समस्याओं और सवालों को ज़रूर उठाया गया है जिसे आज के समय में भी जोड़कर देखा जा सकता है और जो आज भी हमारे देश की विकराल समस्याएँ हैं, निर्देशक इसके लिए बधाई की हकदार हैं कि वे आज के माहौल के कुछ सवालों से मंटो के बहाने मुठभेड़ कर पाई ! आज जब मारे जाने के लिए मुसलमान होना ही काफ़ी है, फिल्म में कुछ गहरे तंज करने वाले संवाद हैं – 'इतना मुसलमान तो हूँ ही कि मारा जा सकूँ!'
इक्कीसवीं शताब्दी के पुरुष में भी ओथेलो मौजूद है
बातचीत का चौथा हिस्सा
जब आप कहानी लिखती हैं तो मन:स्थिति कैसी होती है। थोड़ा रचनाप्रक्रिया पर भी प्रकाश डालें?
शुरू के दो तीन सालों को...
लेखक समाज के आगे मशाल लेकर चलता है यह मुहावरा अब भ्रम पैदा करता है
बातचीत का तीसरा हिस्सा
लेखक का एक्टिविज्म से जुड़ना कितना जरूरी है ?
लेखक को हर उस चीज़ से जुड़ना चाहिए जो लोगों की ज़िन्दगी में...
स्त्री सशक्तीकरण और जागरुकता के लिए स्त्री विमर्श एक कारगर औजार है
बातचीत का दूसरा हिस्सा
• अपनी कहानियों या किताबों में से आप किसे अधिक सफल मानती हैं और क्यों?
एक किताब आयी है–आम औरत: ज़िदा सवाल।...
मैं कभी किसी कहानी आंदोलन का हिस्सा नहीं रही
बातचीत का पहला हिस्सा
आप अपने बचपन के बारे में कुछ बताएं! पुराने घर की कुछ स्मृतियां?
कलकत्ता में बीते बचपन की पुरानी स्मृतियों में एक...
भागोदेवी पंडाइन की कथा अर्थात किस्सा सिर्फ तोता और तोता उर्फ मैना का घर में बनवास
सपने सिर्फ मुंगेरीलाल ही नहीं देखते, भागो लली भी देखती हैं लेकिन वे प्रायः दुःस्वप्न होते हैं काश , कि वे सपने होते। काश!
जब...
जीवन और मृत्यु के बीच अस्तित्व की तलाश
शांत, सरल, सहज और बहुत ही धीमी आवाज़ में अपनी बात कहने वालीं सुधा अरोरा जी का आज जन्मदिन है। जन्मदिन तो पूरे वर्ष...
इन्हें किसी बैसाखी की जरूरत नहीं
पिछले पचास सालों में यह बदलाव तो आया ही है कि क्षेत्र कोई भी हो, आप उसमें साधिकार, सप्रमाण, सगर्व कुछ ऐसी महिलाओं के...