चार सौ एकड़ ज़मीन और पांच गाँव का मालिकाना अधिकार रखने वाले गाँव के गौंटिया और किसान के पास जब केवल कुछ एकड़ ज़मीन ही रह जाये तब उनकी रोजी-रोटी के बारे में ध्यान जाना स्वाभाविक है। आज हम रायगढ़ शहर से दस किलोमीटर दूर संबलपुरी गाँव पहुंचे, जो आदिवासीबहुल गाँव है, जो एक समय अपनी प्राकृतिक सुन्दरता के साथ प्राकृतिक संपदा और वहां मिलने वाले फल और खाद्य संसाधनों से भरा-पूरा था। तेंदू, आंवला, हर्रा, बहेड़ा, चार, कुर्रू, महुआ, डोरी, खेकसा के घने जंगल थे, जहाँ से इन सबको मौसम के अनुसार इकट्ठा कर आदिवासी स्त्रियाँ शहर में बेचने आया करती थीं जिनका खेती-किसानी के अलावा यह एक अन्य आर्थिक आधार था। 18-20 वर्ष की उम्र तक आसपास के गाँवों के आदिवासी स्त्री-पुरुष पूरी तरह से जैविक आंवला, कुर्रू, चार, चिरौंजी बेचने आते थे और बहुत ही वाजिब दाम पर बेचते थे और घर पर खरीदते थे। साथ ही मामा-मौसी के निर्देश पर उनलोगों के लिए भी ख़रीदा जाता और गर्मी की छुट्टियों में मुलाकात के समय उन तक पंहुचाया जाता था। लेकिन शहर और आसपास के छोटे पूंजीपतियों और व्यापारियों ने आदिवासियों से नमक और चावल के बदले इन चीजों को बड़ी मात्रा में खरीदना शुरू किया और खरीदने के बाद ऊँचे दामों पर बाजार में बेचने लगे। धीरे धीरे तथाकथित विकास से जंगल में मिलने वाली सभी वस्तुएं लुप्त होते-होते किम्वदंती का हिस्सा बन गईं।
कल 20 जून को मेरे एक प्रबुद्ध मित्र और घूमने-घुमाने के शौक़ीन हर्ष सिंह के साथ आदिवासी बहुल गाँव संबलपुरी जाना हुआ। शहर से बाहर दस किलोमीटर दूर स्थित इस गाँव तक पहुँचने के लिए 20 फीट चौड़ी और अच्छी सड़क के दोनों और पेड़ थे जो कल आई मानसूनी बारिश के कारण उसपर जमी कोयले की कालिख से मुक्त दिखे, हरियाली देखकर मन प्रसन्नहो गया लेकिन गाँव में जब पूर्व सरपंच ओमप्रकाश गुप्ता और उनकी धर्मपत्नी सफ़ेद गुप्ता से मुलाक़ात हुई तो उन्होंने करियाली का ज़िक्र किया और बहुत ही निराशाजनक स्थिति में आसपास के जंगल और उनसे मिलने वाली चीजों के खत्म होने की कहानी सुनाई।
क्या साबित करती है विकास की कहानी
संबलपुरी गाँव से लगे हुए शाकम्भरी और शिवशक्ति स्पंज आयरन के कारखाने हैं। इन कारखानों की स्थापना रिजर्व फॉरेस्ट वाली जमीन पर लगे हुए जंगल को काटकर हुई है। ओमप्रकाश गुप्ता बताते हैं कि कारखाना आने से पहले गाँव के आदिवासी या वे खुद एक गट्ठर जलावन लकड़ी इस रिजर्व जंगल से लाते थे तब फॉरेस्टर या फॉरेस्ट गार्ड उन लोगों पर जुर्माना लगाता था। लेकिन वह नियम सिर्फ गरीब आदिवासियों के लिए और अमीरों ने तो समूचा का समूचा सुरक्षित जंगल ही निगल लिया और महकमा-ए-जंगलात उनका कुछ न बिगाड़ सका। वे कहते हैं ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि सभी की पहुँच दिल्ली तक है और सभी बड़े-बड़े उद्योगपति हैं।
सरकार की मिलीभगत के बिना कुछ संभव नहीं है। इन कारखानों में स्टील के लिए स्पंज आयरन का उत्पादन किया जाता है, भट्ठियों या क्लिन के लिए कोयले की जरूरत पड़ती है। कोयले से जलने वाली भट्ठियों से निकलने वाला धुआं आसपास के जल, जंगल, जमीन और वातावरण को इतना प्रदूषित कर रहा है कि आज हर जगह कालिख जमी हुई है। घर की दीवारें, आँगन, अलगनी पर सूखने वाले हर कपड़ा काला हो जाता है और इसके प्रभाव में आने वाली हर वस्तु अपना मौलिक रंग खोकर काले में तब्दील हो चुकी है। ओमप्रकाश गुप्ता ने बताया कि एक समय सभी लोग खेती कर अपने खाने के लिए स्वयं फसल और सब्जियां बोते थे लेकिन प्रदूषण के कारण न ज़मीन में ताकत रही न ही काम करने के लिए मजदूर उपलब्ध हो पाते हैं। विवशता है कि जो स्वयं नहीं कर पाते उनके खेत खाली पड़े रह जाते हैं।
सबकी सेहत पर पड़ा है बुरा असर
किसी भी उद्योग की स्थापना का मुख्य उद्देश्य वहाँ के स्थानीय लोगों और युवाओं को रोजगार देना माना जाता है लेकिन पूर्व सरपंच ओमप्रकाश गुप्ता कहते हैं कि उद्योग आने से पहले वहाँ के स्थानीय लोग खेती-किसानी के जरिये सब्जी उगाकर बेहतर कमा लेते थे, कोई तनाव और बीमारी नहीं थी। समाज में आपसी मेलजोल से लोग एक-दूसरे के सुख-दुख के सहभागी थे। लेकिन कारखाने ने कुछ लोगों को अकुशल श्रमिक का काम दिया, मतलब अपनी मेहनत के मालिक अब दूसरों के नौकर बन गए और उनसे बारह-बारह घंटे काम लिया जाने लगा। दौ सौ रुपये मजदूरी मिलती थी। अभी दो-ढाई माह हुआ है जब काम के घंटे आठ कर तीन सौ रुपये मजदूरी देने के शुरुआत हुई है। अस्थमा, दमा, खुजली, गेस्ट्रिक, अल्सर, बवासीर जैसी बीमारियों से ग्रस्त होने लगे और लगातार यह लोगों में बढ़ रही है। चिड़चिड़ाहट, जिसे कभी हमारे यहाँ बीमारी समझा ही नहीं गया, अब उससे लगभग हर दूसरा व्यक्ति ग्रस्त है। काम के दबाव के चलते समाजिकता कम हो गई। और लोग शराब के आदी हो गए। शराब के आदी हो जाने पर स्वास्थ्य के साथ-साथ परिवार और बच्चों के मानसिक स्तर पर प्रभाव पड़ रहा है। उन्होंने बताया कि कारखाने आने से पहले वे कभी बीमार नहीं पड़े थे लेकिन उसके बाद लगातार उन्हें गैस की तकलीफ बढ़ गई और साथ ही अपच का सामना करना पड़ रहा है। खुद के खेत की उगाई गई साग-सब्जी और अनाज पहले उपलब्ध था लेकिन अब खरीदकर खाना पड़ता है, जिसके चलते आर्थिक दबाव के साथ स्वास्थ्य पर भी बहुत असर पड़ रहा है ।
खुद का काम खतरे में
कारखाने की स्थापना में रिजर्व फॉरेस्ट के साथ लोगों की निजी ज़मीनें भी गईं। ओमप्रकाश गुप्ता ने बताया कि उनके परिवार को संबलपुरी में रहते हुए एक सौ बीस वर्ष हो चुके हैं। उनके दादा और पिताजी की चार सौ एकड़ ज़मीनें थीं, लेकिन इन कारखानों के आ जाने के बाद आज से तीस वर्ष पहले रायगढ़ के नगर सेठ के दबाव में आकर 700-750 रुपये प्रति एकड़ ज़मीनें बेचनी पड़ीं क्योंकि पिताजी पर कुछ कर्जा था और खेती-किसानी का काम करने वाले मजदूर कारखाने में कमाने-खाने चले गए। इस गाँव में जिन लोगों ने भी ज़मीनें बेची हैं उसमें जमीन मालिकों से ज्यादा दलालों पैसा कमाया।
पर्यावरण का खात्मा
आज से 25 वर्ष पहले गाँव के आसपास आरक्षित घने जंगल थे, जहाँ से यदि जलावन लाया जाता था तो फ़ॉरेस्टर और गार्ड जुर्माना लगाकर पकड़ लेते थे। जंगल की किसी भी प्रकार की कटाई और चोरी की सख्त मनाही थी। लेकिन आदिवासी जंगलों पर आश्रित थे। वे वनोपज इकठ्ठा करके अच्छा कमाते थे। स्वस्थ रहते थे और शराब नहीं पीते थे। लेकिन अब तो यहाँ कोयला, धूल, कालिख के अलावा कुछ बचा ही नहीं। जंगल कट चुके हैं, क्योंकि विकास के नाम पर एक तरफ पूरी दुनिया में उद्योगपति पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने की होड़ में शामिल है, वहीँ दूसरी तरफ उसे बचाने की कागजी मुहिम छेड़ अपनी चिंता ज़ाहिर कर रहे हैं।
एक समय था कि किसी भी गाँव का वैभव वहां के तालाबों से आंका जाता था लेकिन विकास के पैमाने पर शहर और गांवों के तालाबों पर एक बड़ा संकट पैदा हुआ, जिसके कारण बड़े-बड़े भूमाफ़ियाओं ने तालाबों को पाटकर अपने निजी लाभ के लिए उनका उपयोग किया और यह आज भी जारी है। पर्यावरण प्रदूषण के चलते दूसरी चुनौती यह खड़ी हुई कि आज उस वैभव को बचाना मुश्किल है। पास में एक बारहमासी संबलपुरी नाला है। संबलपुरी गाँव में एक समय पाँच स्वस्थ और बड़े तालाब हुआ करते थे लेकिन अब बारह सौ की आबादी वाले इस गाँव में सिर्फ दो तालाब ही अस्तित्व में है और उनका पानी भी छूने लायक नहीं रह गया है। पानी इतना गन्दा हो गया है कि उसका उपयोग खुजली और दाद सम्बंधित अनेक प्रकार कई बीमारी पैदा कर रही है। इस तालाब का पानी न इंसानों के लिए सही है न ही जानवरों के लिए ही।
दोनों कारखानों को चलाने के लिए जरूरी पानी की आपूर्ति के लिए आसपास न कोई नदी है न पानी का कोई अन्य स्रोत। पानी की आवश्यकता के लिए दोनों कारखानों में अनेक बोर करवाए गए हैं, जिससे गाँव के पानी का लेवल बहुत नीचे जा चुका है। गाँववालों ने अपनी जरूरत के लिए नल नहीं होने के कारण चार इंची और दो इंची पाइप से बोर किया है। वे हाथ से चलाते है जिसे हुक्का या ढेंची कहते हैं की व्यवस्था की है। पानी के स्तर को बनाए रखने के लिए दो बोर के बीच कम से कम तीन सौ मीटर की दूरी होना जरूरी है, लेकिन हर घर में बोर खुद जाने से गर्मियों में पानी का स्तर नीचे चला जाता है। उन्होंने बताया कि उनकी पैंसठ साल की उम्र में इस वर्ष पानी की बहुत ज्यादा परेशानी झेलनी पड़ रही है। गर्मी भी अपने चरम पर है। वैसे पूरे देश में गर्मी का प्रकोप है लेकिन संबलपुरी के आसपास बचे हुए जंगल होने से बढ़ती गर्मी का प्रकोप कम था हालाँकि इधर कुछ वर्षों में गर्मी असहनीय हो गई है।
सड़क के किनारे परमानंद भोय और दुति भोय का एक टपरानुमा होटल दिखा,जिसे देखकर यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि कारखाने से निकलने वाली कालिख ने लोगों की सेहत और जीवन पर क्या असर किया है। उनसे बातचीत करने जब अंदर गए तो दुति भोय उड़द दाल का बड़ा बना रही थी,जिसे छतीसगढ़ में देहाती बड़े के नाम से जाना जाता है। वे बातचीत से बचती रहीं लेकिन उनके पति परमानन्द ने बताया कि उनके पास दो एकड़ खेत है लेकिन खेती-किसानी में लगने वाली सुविधाएं महंगी हो जाने के चलते खेती नहीं करते और पिछले पंद्रह-सोलह वर्षों से गुमटी चलाकर अपना जीवनयापन कर रहे हैं।
खेती-किसानी का नुकसान बहुत महंगा साबित हो रहा है
बारह सौ की आबादी वाले संबलपुरी गाँव में कंवर जनजाति के आदिवासी सबसे ज्यादा हैं, इनमें से कुछ के पास अच्छी-खासी ज़मीनें हैं और कुछ के पास थोड़ी-बहुत ज़मीनें हैं, जिसे टिकरा कहते हैं। वे खेती-किसानी करते थे लेकिन अभी खेती में लागत ज्यादा आ रही है। मजदूरी बढ़ गई। है फर्टिलाइजर के दाम में भी बढ़ोत्तरी हुई है। साथ ही डीजल का दाम सौ रुपये लीटर के लगभग हो जाने से ट्रैक्टर का खर्चा उठाना भी किसानों के लिए कठिन हो गया है। ड्राइवर भी प्रतिदिन की ड्राइवरी तीन सौ से चार सौ तक वसूल रहे हैं। इधर धान और अन्य फसलों में कीड़े लगने और अन्य बीमारी का भी प्रकोप बढ़ गया है। कहने का मतलब किसान भी मजदूरी कर रहा है और कुछ आदिवासी किसान तेंदू पत्ता और महुआ बीनकर काम चला रहे हैं। जबकि मजदूरों की कमी और प्रदूषण के चलते खेती-किसानी का काम अब कठिन हो गया है। इस कारण उस गाँव के सभी किसान इस कारखाने के आ जाने के बाद कमज़ोर होते चले गए। पेट के लिए अपने खेत के मालिक मजदूर बन गए। आज के युवा थोड़ा पढ़-लिख गए हैं। वे खेती-किसानी के काम के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि उन्हें यह समझ या गया है खेती में मेहनत के बाद भी कोई खास फायदा नहीं है। भले छतीसगढ़ सरकार सभी राज्यों से ज्यादा, पचीस सौ रुपये धान का समर्थन मूल्य, दो किश्तों में दे रही है लेकिन वह धान जनवरी-फरवरी दो महीने ही खरीदती है। जबकि खेती के काम से किसान इतने कर्जे में डूबा रहता है कि धान काटने के बाद निजी मंडियों में साढ़े बारह सौ रुपये में ही वह धान बेचकर घाटा सहता है। इसीलिए वे सभी कारखाने में जाकर काम करने को तैयार हैं कि कम से कम इसमें एक निश्चित राशि तो मिलती ही है।
खेत बेचने की मजबूरी
ओमप्रकाश गुप्ता ने निराशा जताते हुए उन्होंने बताया कोई भी सरकार किसानों के पक्ष में नहीं है। उसकी लाई गई सभी नीतियाँ कागजों पर होती हैं। किसानों की भलाई की घोषणाएं तो बहुत जोर-शोर से होती हैं लेकिन नाममात्र के किसान ही उनका लाभ उठा पाते हैं और अंतिम किसान तक तो उस योजना की बात तक नहीं पहुँच पाती है। अभी की सरकार घोर किसान विरोधी है। वह चाहती है कि किसान मालिक न होकर ठेके पर खेती कर पूँजीपतियों को फायदा पहुंचाए। लेकिन हम किसान इसके सख्त विरोधी हैं। उन्होंने बताया कि आदिवासी किसान आज कर्जे में डूबे हुए हैं और अपनी जरूरत के लिए खेत बेच रहे हैं।
जैविक उत्पादन
एक समय था कि हर किसान गोबर की खाद के उपयोग से फसल उत्पादन करता है। उसकी शुद्धता और स्वाद सेहत के लिए एकदम सही था। उस अनाज की खुशबू ही लोगों को आकर्षित करती थी। ओमप्रकाश गुप्ता ने बताया कि पहले पूरे गाँव में गोबर की खाद से जैविक उत्पादन किया जाता था। भले ही उत्पादन कम होता था लेकिन वास्तविक खुशहाली थी। लोग जैविक उत्पादन शब्द से भी तभी परिचित हुए जब रासायनिक खादों जबकि आज बाजार जैविक खाद्य पदार्थों का एक अलग बाजार बनाकर उसे भुनाने में पीछे नहीं है। आज यदि कोई जैविक खेती करे तो उत्पादन कम होगा और बेचने पर फायदा भी कम होगा इसीलिए किसान अपने को बाजार की दौड़ में शामिल का रासायनिक खाद का उपयोग कर भारी उत्पादन कर रहे हैं और कैंसर जैसी बीमारी को आमंत्रित कर रहे हैं। बाज़ार ने ही मनुष्य को अपनी जरूरत के हिसाब से ढाल दिया है।
इसमें किसान तो कम लेकिन आज का बाजार और पूंजीपति अधिक जिम्मेदार हैं। पहले लोग कम में, मजे से और बेखौफ जीते थे। आज पैसे वालों के लिए जैविक खाद और अस्पतालों की सुविधा है। किसान और मजदूर कीड़े-मकोड़े की तरह जी रहे हैं क्योंकि उन्हें मनुष्य जीवन मिला है।