तीसरा और आखिरी भाग
क्या ग़रीबी और जाति-भेद व्यक्ति को समान रूप से रोकते हैं या कोई अधिक घातक है?
ग़रीबी और जाति-भेद व्यक्ति के जीवन में अवसरों की उपलब्धता पर रोक लगाते हैं किंतु दोनों के रोकने के तरीक़े और शर्तें समान नहीं होती हैं। इसलिए इसके परिचालन एवं प्रभाव की तीक्ष्णता तथा मारकता में ज़मीन-आसमान का अंतर होता है- इसके दुष्परिणाम की प्रकृति, परिमाण एवं तीव्रता में भी अंतर होता है। ग़रीबी व्यक्ति को आर्थिक रूप से कमज़ोर तथा सुविधाओं तक पहुंचने में अक्षम बनाती है जो अनिवार्यत: निरंतर एवं स्थाई प्रकृति का नहीं होता। यथा ग़रीबी को समाप्त कर एक सामान्य वर्ग का व्यक्ति उच्च आय-वर्ग की सुविधा/अर्हता भी प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार एक उच्च आय-वर्ग का व्यक्ति भी किन्हीं या कई कारणों से ग़रीबी की स्थति को प्राप्त हो सकता है। इसके विपरीत जाति-व्यवस्था में स्थायित्व बना रहता है तथा चाहकर भी इसे बदला नहीं जा सकता। मसलन तथा कथित निम्न वर्ण और निम्न जाति का व्यक्ति कभी भी उच्च वर्ण या उच्च जाति को प्राप्त नहीं कर सकता चाहे वह कितनी भी आर्थिक संपन्नता क्यों न हासिल कर लिया हो। इस प्रकार जाति के कारण जो निषेधाज्ञाएं लागू हैं वे अमीर-ग़रीब सब पर लागू रहती हैं तथा उसके अवसरों की समानता एवं व्यक्ति के सम्मान का क्षरण करती हैं। यही नहीं, जातिगत निषेधाज्ञाओं में निम्न वर्ण-जाति के व्यक्ति को धन एकत्रित करने तथा शस्त्र रखने की मनाही है। फलत: वह स्वाभाविक रूप से ग़रीब तथा शक्तिहीन ही बना रहेगा जबकि वर्ण-जाति में उच्च व्यक्ति यदि ग़रीब होगा तो भी उसका मान सम्मान, सामाजिक प्रतिष्ठा, एवं शक्ति (कम से कम नैतिक शक्ति) तो बराक़रार रहेगी। यही नहीं, हिंदु स्मृतियों-शास्त्रों के अनुसार निम्न वर्ण-जाति के व्यक्ति को; यदि वह संपन्न है तो, राजा को चाहिए कि उसकी संपत्ति छीन कर उसे देश से निकाल दे। जबकि वही शास्त्र ग़रीब ब्राह्मण को दान में संपत्ति देना पुण्य का कार्य बताकर उसकी आर्थिक सम्पन्नता सुनिश्चित करते हैं। इस प्रकार एक ग़रीब सवर्ण को आर्थिक संपन्नता प्रदान करना तथा अवर्ण या निम्न वर्ण को आर्थिक विपन्नता देना हिंदू धर्म का मनुवादी क़ानून है। भारतीय परिवेश में जाति-भेद द्वारा अमानवीय व्यवहार का कोई दूसरा सानी नहीं है। इसलिए यह दोहरा अभिशाप है- एक तो जाति के कारण भेदभाव तथा दूसरा जाति के कारण ही ग़रीबी के स्थायीकरण से उपजी अवसरों की स्थाई अनुपलब्धता।
[bs-quote quote=”वास्तव में धर्म, सामाजिक स्थिति और संपत्ति यह तीनों शक्ति या सत्ता का स्रोत होते हैं जो दूसरे की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने में किसी व्यक्ति को सक्षम बनाते हैं। फ़र्क सिर्फ इतना ही है कि इतिहास के किसी चरण में एक प्रमुख हो उठता है, तो किसी चरण में दूसरा। यदि स्वतंत्रता ही आदर्श है, यदि स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि एक आदमी का दूसरे आदमी पर नियंत्रण खत्म हो जाए, तब स्पष्टत: इस पर ज़ोर नहीं किया जा सकता कि आर्थिक सुधार ही एक ऐसा सुधार है जिसके लिए प्रयास किया जाना चाहिए। किसी ख़ास समय में या किसी ख़ास समाज में शक्ति का स्रोत जब सामाजिक और धार्मिक दोनों है तब सामाजिक सुधार और धार्मिक सुधार दोनों को ही सुधार की आवश्यक स्वरूप के रूप में स्वीकार करना होगा।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
ऐसी भारतीय सामाजिक व्यवस्था के रहते यहां पर मार्क्स और एंगेल्स की वर्गीय विभाजन वाली थिअरी विफल है। यहां वर्ग के भीतर भी जातीय ऊंच-नीच के कारण विभाजन है अतः यहां वर्ग-संघर्ष द्वारा आर्थिक संसाधनों को प्राप्त करने का सपना यूटोपिया ही है। जब तक लोग यह आश्वस्त नहीं होंगे कि तथाकथित क्रांति के बाद उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होगा तथा जातीय और धार्मिक आधार पर कोई पक्षपात नहीं होगा, तब तक वह संपत्ति की समानता लाने वाली किसी भी क्रांति में शामिल नहीं होंगे। भारतीय समाज- व्यवस्था के महान अध्येता, समाज वैज्ञानिक एवं अर्थ शास्त्री डॉ आंबेडकर यूरोप के समाजवादी लोगों के अंधानुकरण पर सवाल उठाते हैं। वे कहते हैं कि समाजवादियों की यह सोच कि 1. मनुष्य एक आर्थिक प्राणी है 2. मनुष्य की गतिविधियां और आकांक्षाएं आर्थिक तथ्यों से बंधी हैं एवं 3. संपत्ति ही शक्ति का एकमात्र स्रोत है- इस धारणा पर टिकी हुई है कि आर्थिक सुधार को दूसरे सभी सुधारों की तुलना में प्राथमिकता देनी चाहिए। किंतु यह तर्क बहस-तलब है क्योंकि भारतीय समाज में सामाजिक सुधार के बिना आर्थिक सुधार एक दूर की कौड़ी है।
‘वास्तव में धर्म, सामाजिक स्थिति और संपत्ति यह तीनों शक्ति या सत्ता का स्रोत होते हैं जो दूसरे की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने में किसी व्यक्ति को सक्षम बनाते हैं। फ़र्क सिर्फ इतना ही है कि इतिहास के किसी चरण में एक प्रमुख हो उठता है, तो किसी चरण में दूसरा। यदि स्वतंत्रता ही आदर्श है, यदि स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि एक आदमी का दूसरे आदमी पर नियंत्रण खत्म हो जाए, तब स्पष्टत: इस पर ज़ोर नहीं किया जा सकता कि आर्थिक सुधार ही एक ऐसा सुधार है जिसके लिए प्रयास किया जाना चाहिए। किसी ख़ास समय में या किसी ख़ास समाज में शक्ति का स्रोत जब सामाजिक और धार्मिक दोनों है तब सामाजिक सुधार और धार्मिक सुधार दोनों को ही सुधार की आवश्यक स्वरूप के रूप में स्वीकार करना होगा। (डॉ. अंबेडकर/जाति का विनाश/ पृष्ठ 54/ 55 -अनुवाद राजकिशोर प्रकाशक ‘द मार्जिनलाइज्ड’ नई दिल्ली 110068) निष्कर्षत: जातीय भेदभाव के कारण व्यक्ति की निम्न सामाजिक स्थिति ग़रीबी की तुलना में अधिक घातक है ।
अन्य पात्र के माध्यम से घटनाओं को व्यक्त करना हमेशा ही दोयम दर्जे का होगा
मैं सोचती हूं कि सामाजिक भेदभाव की पीड़ा आदमी को सबसे ज़्यादा बेधती है। वह कहीं भी हो किसी जगह भी हो लेकिन सामान्य ढंग से वह मुख्यधारा का हिस्सा नहीं बन पाता- एक कटाव और दूरी का एहसास स्वाभाविक है। क्या आपको ऐसा लगता है? आपके जीवन की वह कौन सी अनुभव हैं जो बहुत तल्ख़ हैं और जिनसे आप कभी मुक्त नहीं हो पाए ?
सामाजिक बहिष्कार तो जीते जी आदमी को तिल-तिल कर मारने की सज़ा है। वर्ण- व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर शूद्र हैं जिनमें से बहुलांश सछूत हैं तथा उनके ऊपर भी मनुवादी व्यवस्था के ढेरों निषेधक प्रतिबंध क़ानूनी रूप में लागू हैं। किंतु वे; क्योंकि उच्च वर्ण के सेवक हैं तथा सीधे संपर्क में है, उन्हें छूत-अछूत के भेद-भाव के चलते गांव-बाहर नहीं किया गया। इसका परिणाम यह है कि वे भी इस मामले में अंत्यज वर्ग की अपेक्षा सम्मानजनक प्रतीत होते हैं। वर्ण व्यवस्था अलग-अलग ख़ानों में क़ैद, एक के ऊपर एक पैर टिकाए हुए, सीढ़ीदार व्यवस्था है। अतः सछूत शूद्र के दिमाग़ में यह अच्छी तरह से घुसा दिया जाता है कि वह अछूत-अवर्ण -अन्त्यज से बड़ा तथा श्रेष्ठ है।
[bs-quote quote=”मसलन तथा कथित निम्न वर्ण और निम्न जाति का व्यक्ति कभी भी उच्च वर्ण या उच्च जाति को प्राप्त नहीं कर सकता चाहे वह कितनी भी आर्थिक संपन्नता क्यों न हासिल कर लिया हो। इस प्रकार जाति के कारण जो निषेधाज्ञाएं लागू हैं वे अमीर-ग़रीब सब पर लागू रहती हैं तथा उसके अवसरों की समानता एवं व्यक्ति के सम्मान का क्षरण करती हैं। यही नहीं, जातिगत निषेधाज्ञाओं में निम्न वर्ण-जाति के व्यक्ति को धन एकत्रित करने तथा शस्त्र रखने की मनाही है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा जो उच्च वर्ण की ताबेदारी करने से विद्रोह कर बैठा उसे गांव से बहिष्कृत किया गया तथा आचार- व्यवहार में अछूत करार किया गया। यह अन्त्यज वर्ग हिंदू के चारों वर्णों से अलग-थलग पड़ा रह गया। यह परिघटना हिंदू धर्म-संस्कृति से विद्रोह की निशानदेही करती है। फलत: उसे हिंदू व्यवस्था का शूद्र वर्ण भी ब्राह्मणवादी चश्मे से देखने लगा। क्योंकि शूद्र और अंत्यज एक ही सामाजिक-सांस्कृतिक समूह से अलगाए हुए हिस्से हैं, अतः सदियों से उनके बीच बंधुत्व का अंतर्भाव कहीं न कहीं जिंदा रहा है। यह अकारण नहीं है कि गांवों में शूद्र वर्ण तथा अन्त्यज वर्ग के बीच आपसी घरेलू पारिवारिक रिश्तों का संबोधन यथा चाचा, चाची, भौजी, भैया, बाबा, आजी, बहिन, बुआ आदि चलता चला आ रहा है जबकि ऐसा उच्च वर्ण और अन्त्यजों के बीच प्राय:कभी भी नहीं रहा है। इस प्रकार निचले समाज (चौथा वर्ण एवं अवर्ण) का आंतरिक प्रेम-बंधन मज़बूत रहा हैं किंतु ब्राह्मणवादी-मनुवादी व्यवस्था के तहत शुद्र वर्ण भी कई बार उच्च वर्गीय षड्यंत्र का वाहक बनकर अपने ही भाइयों पर ज़ुल्म ढाता रहा है। इस प्रकार सवर्ण वादी सोच ने कांटा से कांटा निकालने की बात चरितार्थ की है। कहने का अर्थ यह है कि गांव से बाहर की अलग बस्ती में बसने तथा छुआछूत जैसे बर्ताव एवं जातीय भेदभाव के कारण दलित वर्ग हमेशा अलग अस्मिता के रूप में चिन्हित हुआ। फलत: सार्वजनिक जगहों पर उसे दुत्कार भरे अपमान का ही सामना करना पड़ा जिससे उसके भीतर का आत्मसम्मान भी छीज-छीज कर मरता रहा। यह स्थिति पीड़ा दाई होती है जब व्यक्ति को मनुष्य के दर्जे में ही नहीं रखा जाता। सार्वजनिक स्थानों में अस्वीकार्यता से तथाकथित मुख्यधारा से कटाव का गहरा अहसास और अधिक हीन-भावना भरकर हतोत्साहित करता है।
मुझे शुरू-शुरू में ऐसा लगता था कि इस प्रकार का भेदभाव मेरे एवं मेरे बिरादरान के साथ क्यों होता है? भेद-भाव की इस खाई को कैसे पाटा जा सकता है? किंतु घर-बाहर हर तरफ़ से सरसरी तौर पर यही संदेश और नतीजा सामने आया कि यही हमारी नियति है । इसलिए मैंने सुधारवादी समझौते करने में अपनी अस्मिता का सौदा करने के बजाय आत्मसम्मान के साथ उन से दूरी बनाकर( कटकर?) रहना ही उचित समझा। जहां तक संभव हुआ मैंने उन लोगों से संवाद करने तथा उनसे मिलने से बचता था। दुकान पर गया तो सौदा लेकर सीधे घर आ गया। न किसी की तरफ़ देखा न किसी से दुआ सलाम किया। कई सवर्ण मेरे बाबा से उलाहना भी देते थे। बहरहाल मेरे गांव में तीन घर ठाकुरों के और दो घर वाभनों के थे । बाकी आबादी पिछड़ा वर्ग(अहीर, गड़रिया, तेली, तम्बोली, कुम्भकार, बढ़ई, लोहार, गोसाईं, कोइरी, भड़भूजा, कहार या कमहाय एवं मुसलमान (दर्जी, धुनिया, साईं, फ़कीर, नाई, पठान) तथा शेष दलित (चमार) थी। इसलिए भी मुझे बहुत मुश्किल नहीं थी सवर्णों से ख़ुद को आइसोलेट करने में।
एक बार हज्जाम (मुसलमान) अल्गू के घर पर बाल कटाने के लिए इंतज़ार में बैठा था। मैं उसकी चारपाई पर बैठा ही था कि अलगू चाचा ने मुझे हक़ारत भरी नज़रों से देखते हुए बोले ‘अरे भैया अपने घर तो बड़े-छोटे का लेहाज़ किए बगैर चारपाई पर बैठे ही रहते हो। यहां तो चारपाई से उठ जाओ। देखो बाबू साहब (ठाकुर साहब) आ रहे हैं।’इतना ही नहीं उन्होंने समझाते हुए यह भी कहा कि यहां बाबू साहब लोगों का आना जाना रहता है इसलिए एक दलित होने के नाते मुझे वहां चारपाई पर नहीं बैठना चाहिए। उस समय मैं आठवीं का विद्यार्थी (लगभग 13 साल उम्र का) था किंतु मन में जाति-भेद के विरुद्ध विद्रोह की चिंगारी पैदा हुई थी। मैंने उस दिन से वहां बाल कटवाना बंद कर दिया तथा बाबा से आकर गांव के ही दूसरे हज्जाम के यहां बाल कटवाने का बंदोबस्त करवा लिया । स्कूल में भी अपने काम से काम रखता। पढ़ाई में अव्वल होने के नाते स्कूल के सभी अध्यापक, प्रधानाचार्य मुझे बहुत प्यार और सम्मान देते थे इसलिए भी मेरे भीतर आत्मविश्वास भरा था। इस आत्मविश्वास की बदौलत मैंने जातीय दुराग्रह को लगातार पटकनी दी। चूंकि हम दोनों भाई ही पढ़ाई में सबसे आगे रहते थे तथा पूरे ज़िले में नाम था – एकीकृत छात्रवृत्ति तथा नेशनल स्कॉलरशिप प्राप्त करने वाले हम दोनों भाई अपनी पढ़ाई के प्रभाव से अवर्ण-सवर्ण सबके दिल पर राज कर रहे थे। शायद इसलिए भी लोग हमसे प्रायः अच्छा व्यवहार करते थे। ज्यों- ज्यों हम आगे बढ़ते गए वह जातीय भेदभाव का आक्रामक चेहरा अधिक भयावह रंग में सामने आने लगा। मैंने लगातार कोशिश की अपने काम से मैं सबसे आगे रहूं किंतु ऐसा हमेशा नहीं हुआ। नौकरी में भी इसका ख़मियाजा भुगतना पड़ा। मेरी वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में प्रतिकूल प्रविष्टि देकर प्रोन्नति में लगातार अड़चनें पैदा की गयीं। यही नहीं उच्च पद पर रहते हुए जब कभी मैंने मातहत कर्मचारियों को सामाजिक न्याय दिलाने वाले निर्णय लिये तो वर्णवादी मानसिकता से ग्रस्त लोगों ने नाक-भौं फुलाई और उल्टे मुझ पर जातिवादी होने की तोहमत मढ़ी जिसकी मैंने क़तई परवाह नहीं की।
आपके जीवन के ख़ज़ाने में क़िस्सों और व्यक्तियों का कितना संग्रह है?
मेरे पास अपने जीवन अनुभव में मेरे घर परिवार, मित्र, गांव के लोग, मज़दूर -कामगार, साधु-भिक्खु, पढ़ाने वाले गुरुजन, नौकरी के दौरान मिलने वाले अफ़सर-मातहत, सहकर्मी, जन-आंदोलनों से जुड़े लोग, कवि, लेखक, कलाकार, राजनीतिज्ञ आदि तरह-तरह के लोगों की लंबी फेहरिस्त है। बचपन में मां द्वारा सुनाएं क़िस्से कहानियों की पूरी पोटली है जो मां से मुझे विरासत में मिली है। गांव की छोटी-छोटी घटनाएं जहां दलित बस्ती में अशिक्षा, अंधविश्वास एवं आडम्बर के जाल में फंसे लोग हैं ,जो त्रासदी झेल रहे हैं। भूख, अकाल, बाढ़ और महामारी आदि के जीवंत चित्र आज भी आंखों में बसे हुए हैं।
क्या आप उनको पूरी तरह व्यक्त कर पाएंगे ?
मैं इसका दावा नहीं कर सकता तथा इसकी गारंटी भी नहीं दे सकता कि मैं अपने अनुभव और यादाश्त की सारी घटनाओं को साहित्य में ले आ सकूंगा। किंतु मेरे मानस पटल पर वे यादें, घटनाएं ,कथाएं तथा पात्र हमेशा ज़िन्दा और चलायमान रहते हैं तथा मुझे बार-बार लिखने के लिए उकसाते हैं तथा कई बार भारी दबाव बनाते हैं। मेरी कोशिश होगी कि उन पात्रों एवं उन घटनाओं के ज़रिए समाज का सही रूप सामने रखा जाए ताकि आने वाले समय को मनुष्यता के लिए और बेहतर बनाया जा सके जहां मनुष्य-मनुष्य के बीच जाति- धर्म की खाई को समाप्त कर एक दूसरे के दु:ख-सुख में भागीदारी का काम आसान हो सके।
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