साहित्य और समाज के बीच अंतर्संबंध रहा है। दोनों को हवा-पानी-मिट्टी सब प्रभावित करते हैं। वैसे भी जिस समाज और जिस साहित्य पर हवा-पानी-मिट्टी का असर न हो, वह समाज और साहित्य कैसा? दोनों के बीच एक समानता और है। दोनों के केंद्र में आक्रोश रहता ही है। ठीक वैसे ही जैसे चूल्हे की आग। कई दफा गरीब लोगों के घर चूल्हे की आग से भले जल जाते हैं लेकिन चूल्हे की आग सकारात्मक आग होती है और इसके अंगारों का उद्देश्य बेहद स्पष्ट।
[bs-quote quote=”मैं जिन तीन लोगों की बातें कर रहा हूं, उनके बीच कोई संबंध रहा है या नहीं रहा है। लेकिन उनके कार्यों को जितना समझ सका हूं, यह दावे के साथ कह सकता हूं कि तीनों में अंगार कॉमन है। चूंकि मैं भाग्य जैसी अवधारणा में यकीन नहीं रखता, इसलिए यह तो नहीं कहूंगा कि सौभाग्य के कारण मुझे इन तीनों से मिलने-सीखने-समझने का अवसर मिला। मुझे लगता है कि यह मेरा अपना संघर्ष है, जिसने मुझे यह अवसर उपलब्ध कराया। वर्ना पटना के एक गांव के रहनेवाले अति साधारण नवल के लिए यह कहां मुमकिन था। इसे मैं अपनी कामयाबी के रूप में भी महसूस करता हूं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
आज तीन शख्सियतों के बारे में कुछ बातें दर्ज कर रहा हूं। इनमें दो पत्रकार हैं और एक साहित्यकार। तीनों का व्यक्तित्व अलहदा है। तीनों समाज के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो भारतीय सामाजिक व्यवस्था में अंतिम पायदान पर हैं। साथ ही यह भी कि इन तीनों ने अपने काम से हिंदी जगत को समृद्ध किया है। मसलन, कंवल भारती, जिन्होंने पत्रकारिता, साहित्य (गद्य व पद्य दोनों)और समालोचना के क्षेत्र में दलित हस्तक्षेप को सुगठित तरीके से स्थापित किया है। वहीं बतौर पत्रकार उर्मिलेश बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और जम्मू-कश्मीर तक को अपने विषय में शामिल करते हैं। डॉ. कुमार विमल साहित्य के क्षेत्र में उन लोगों में शुमार रहे, जिन्होंने साहित्य को देखने और समझने का नया नजरिया प्रस्तुत किया। इतना सब होने के बावजूद इन तीनों की हिंदी के मठाधीशों ने उपेक्षा की है।
यह उपेक्षा अनायास उपेक्षा नहीं है। यह कहना बेहतर है कि तथाकथित प्रगतिशीलों के द्वारा इनकी उपेक्षा जान-बूझकर की गयी।
मुझे इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि मैं जिन तीन लोगों की बातें कर रहा हूं, उनके बीच कोई संबंध रहा है या नहीं रहा है। लेकिन उनके कार्यों को जितना समझ सका हूं, यह दावे के साथ कह सकता हूं कि तीनों में अंगार कॉमन है। चूंकि मैं भाग्य जैसी अवधारणा में यकीन नहीं रखता, इसलिए यह तो नहीं कहूंगा कि सौभाग्य के कारण मुझे इन तीनों से मिलने-सीखने-समझने का अवसर मिला। मुझे लगता है कि यह मेरा अपना संघर्ष है, जिसने मुझे यह अवसर उपलब्ध कराया। वर्ना पटना के एक गांव के रहनेवाले अति साधारण नवल के लिए यह कहां मुमकिन था। इसे मैं अपनी कामयाबी के रूप में भी महसूस करता हूं।
खैर, डॉ. कुमार विमल बड़े साहित्यकार समालोचक थे। उन्हें हिंदी साहित्य में सौंदर्यशास्त्र के सबसे बड़े अध्येता के रूप में याद किया जाता है। दिनांक 12 अक्टूबर, 1931 को डॉ. कुमार विमल का जन्म हुआ और उनकी पहली कृति का प्रकाशन वर्ष 1948 में हुआ। पहली कृति एक कविता संग्रह थी – अंगार।
पटना के कंकड़बाग इलाके के एमआइजी (मिडिल इनकम ग्रुप) मुहल्ले में डॉ. कुमार विमल रहते थे। पूरा पता आजतक मेरे जेहन में है- 96ए, एमआईजी, लोहियानगर, पटना। उन दिनों वे बीमार रहते थे। हालांकि उनके चेहरे पर बीमारी का असर नहीं दिखता था और ना ही उनके अध्ययन पर। उनके कमरे में किताबों के अलावा एक चौकी और चौकी के बगल में ऑक्सीजन सिलिंडर के लिए स्पेस भर होता था। जब मैं जाता तो वे अपने एक सहयोगी को निर्देश देते कि नवल के लिए जगह बनाओ। फिर वह उनकी किताबों को व्यवस्थित (उसी क्रम में जिस क्रम में वे रखी होती थीं) तरीके से रखता और मेरे लिए एक कुर्सी रख दी जाती। एक बार उनसे मिलने पहुंचा तो उन्होंने अंगार के बारे में जानकारी दी। वह भी इस कारण से कि मैंने उस दिन कविताओं के संदर्भ में कुछ बातें उनके समक्ष रखी।
[bs-quote quote=”उन्होंने दिनकर का उदाहरण देते बताया कि अपनी नयी किताब अर्द्धनारीश्वर दिनकर : दिनकर की काव्य चेतना का विवेचन में एक जगह (पृष्ठ संख्या 155) लिखा है – केवल उर्वशी में ही नहीं, अन्यत्र भी प्रेम-श्रृंगार के निरूपण में और प्रेम-प्रसंगों के चित्रण में दिनकर डी एच लॉरेंस से प्रभावित दीख पड़ते हैं। ‘सेक्स’ या ‘काम’ पर पश्चिम के चार चिंतकों- सिग्मंड फ्राॅयड (1856-1939), डी एच लॉरेंस (1885-1930), किंजी (1894-1956) और फूको (1929-1984) ने विस्तार-पूर्वक लिखा है। पश्चिम के इन चार काम-चिंतकों में दिनकर ने डी एच लाॅरेंस को सर्वाधिक मनोयोग-पूर्वक पढ़ा।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
केवल सत्रह साल की आयु में पहली कृति और वह भी “अंगार”? यह उम्र तो बेहद दूजे तरह की होती है।
डॉ. कुमार विमल लोकतांत्रिक मिजाज के अध्येता थे। सवालों को स्वीकार करते थे और मुझे तो उन्होंने साफ-साफ कह रखा था कि बिना सवालों के आने की जरूरत नहीं है। सवाल हों तो आइए, वर्ना नहीं।
आपने अपनी पहली कृति को अंगार की उपमा क्यों दी? क्या इसके पीछे कोई खास वजह रही? उन्होंने कहा कि यह किताब ले जाइए और अपने प्रश्न का उत्तर लिखकर लाइए।
दरअसल, डॉ. कुमार विमल एक आदर्श शिक्षक थे। समालोचक के रूप में भी उनकी बड़ी ख्याति रही। उनकी अनेक कविताओं का अंग्रेजी, बांग्ला, मराठी, चेक, तेलुगु, कश्मीरी, गुजराती और उर्दू भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हुआ। वे पटना विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक रहे। बाद में राष्ट्रभाषा परिषद, बिहार के निदेशक भी बनाए गए। वे नालंदा मुक्त विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति भी रहे। उन्होंने बिहार लोक सेवा आयोग में बतौर सदस्य और बाद में अध्यक्ष पद को भी सुशोभित किया।
खैर, मेरे लिए आदर्श शिक्षक रहे डॉ. कुमार विमल ने मुझे टास्क दिया था। करीब 40 पन्ने की उस किताब का आकार छोटा था। कवर पर एक खूबसूरत सी पेंटिंग और खास तरह से लिखा गया था – अंगार। कुछ-कुछ ऐसा मानों चूल्हे में आग सुलगा दी गयी हो और लपटों का निकलना शुरू हुआ हो। जब पढ़ना शुरू किया तब समझ में आया कि यह बहुत बड़ा टास्क था। पढ़ने में एक महीने का समय लगा। लिखना और भी कठिन था। फिर भी टास्क तो पूरा करना ही था। और बगैर टास्क पूरा किए उनके पास जाने का मतलब भरपेट डांट हासिल करना था।
करीब तीन हजार शब्दों में मैंने जवाब लिखा और उसका प्रिंट आउट निकालकर ले गया। उन्होंने अपनी लाल कलम उठायी और शेष सभी वाक्यों को काट दिया। केवल इतना ही रहने दिया कि वंचित समाज के लोगों की रचनाएं अंगार ही होती हैं। फिर शेष वाक्यों को काटने का कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि आपने मेरी तारीफ में इतने वाक्य क्यों जाया किया। अपने वाक्यों को बचाकर रखें। आपने जो लिखा है, वह मैं जानता हूं। आप वह लिखें जो मैंने नहीं लिखा। इसी आधार पर ही मैंने आपके शेष वाक्यों को काटा है। मैं चाहता हूं कि आप खूब पढ़ें। उन्होंने दिनकर का उदाहरण देते बताया कि अपनी नयी किताब अर्द्धनारीश्वर दिनकर : दिनकर की काव्य चेतना का विवेचन में एक जगह (पृष्ठ संख्या 155) लिखा है – केवल उर्वशी में ही नहीं, अन्यत्र भी प्रेम-श्रृंगार के निरूपण में और प्रेम-प्रसंगों के चित्रण में दिनकर डी एच लॉरेंस से प्रभावित दीख पड़ते हैं। ‘सेक्स’ या ‘काम’ पर पश्चिम के चार चिंतकों- सिग्मंड फ्राॅयड (1856-1939), डी एच लॉरेंस (1885-1930), किंजी (1894-1956) और फूको (1929-1984) ने विस्तार-पूर्वक लिखा है। पश्चिम के इन चार काम-चिंतकों में दिनकर ने डी एच लाॅरेंस को सर्वाधिक मनोयोग-पूर्वक पढ़ा।
अपनी इस टिप्पणी के पहले डॉ. कुमार विमल ने उर्वशीकार दिनकर की दो पंक्तियाें की व्याख्या भी की। पंक्तियां थीं –
देह प्रेम की जन्म-भूमि है, पर, उसके विचरण की
सारी लीला-भूमि नहीं सीमित है रुधिर त्वचा तक।
क्रमश: जारी
नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में सम्पादक हैं ।