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राजनीतिक पार्टी बनाने के लिए क्यों बाध्य हुआ बहुजन डाइवर्सिटी मिशन!

डियर मैडम/ सर, आंबेडकर जयंती पर आपको कोटि-कोटि बधाई! डियर मैडम/ सर! आज बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर की 131वीं के अवसर पर बहुजन लेखकों के संगठन ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ (बीडीएम) की ओर से मैं बहुत ही भारी मन से सूचित रहा हूँ कि हम डाइवर्सिटी केन्द्रित एक राजनीतिक पार्टी गठित करने जा रहे हैं, […]

डियर मैडम/ सर,

आंबेडकर जयंती पर आपको कोटि-कोटि बधाई!

डियर मैडम/ सर! आज बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर की 131वीं के अवसर पर बहुजन लेखकों के संगठन ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ (बीडीएम) की ओर से मैं बहुत ही भारी मन से सूचित रहा हूँ कि हम डाइवर्सिटी केन्द्रित एक राजनीतिक पार्टी गठित करने जा रहे हैं, जो आगामी ‘डाइवर्सिटी-डे’ : 27 अगस्त, 2022 को औपचारिक रूप से लॉन्च हो सकती है।

भारी मन से इसलिए कि 15 मार्च, 2007 को प्रो. डॉ संजय पासवान, प्रो. वीरभारत तलवार, प्रो.कालीचरण, मास्टर मानसिंह, आरसी भाष्कर, इंजी बृजपाल भारती, डॉ. दिनेश राम, शिवराम चौधरी इत्यादि जैसे सैकड़ों लेखक, शिक्षाविद एवं एक्टिविस्टों की उपस्थिति में उ.प्र. के आगरा में वजूद में आये ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ से जुड़े लेखकों ने कईयों के भारी आग्रह के बावजूद ‘राजनीतिक पार्टी’ फॉर्म करने से विरत रहने का संकल्प बार- बार दोहराया था। किन्तु, हाल के दिनों में कुछ ऐसे हालात पूंजीभूत हुए हैं कि राजनीतिक पार्टी फॉर्म करने का निर्णय लेना पड़ा रहा है। बहरहाल, आज जबकि हम पार्टी फॉर्म करने जैसा अनचाहा निर्णय ले चुके हैं, यह बताना जरुरी लगता है कि बीडीएम किन हालातों में वजूद में आया;  किस हद तक अपने इच्छित लक्ष्य की  दिशा में काम किया और अब क्यों राजनीतिक पार्टी खड़ा करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है!

ऐतिहासिक भोपाल सम्मलेन !

मैडम/ सर, आप भूले नहीं होंगे कि 24 जुलाई, 1991 से लागू नवउदारवादी नीतियों के चलते आरक्षण के खात्मे से त्रस्त होकर जिन दिनों बहुजन एक्टिविस्ट आरक्षण बचाने के लिए निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग बुलंद कर रहे थे, उन्हीं दिनों 2002 के 12-13 जनवरी को मध्य प्रदेश के भोपाल में दलितों का ऐतिहासिक सम्मलेन आयोजित हुआ। सम्मलेन के शुरू में भोपाल दस्तावेज और शेष में भोपाल घोषणापत्र (21वीं सदी में दलितों के लिए नयी रणनीति) जारी हुआ था। चंद्रभान प्रसाद द्वारा लिखित भोपाल दस्तावेज और भोपाल घोषणापत्र में दलितों (एससी/एसटी) के अतीत और वर्तमान की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षिक, शैक्षिक अवस्था का निर्भूल विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए इक्कीसवीं सदी में भूमंडलीकरण के सैलाब में दलितों को तिनकों की भांति बहने से बचाने के लिए 21 सूत्रीय दलित एजेंडा प्रस्तुत किया गया था, जो इतिहास में भोपाल घोषणा-पत्र के नाम से जाना जाता है। भोपाल घोषणापत्र में अमेरिका के सर्वव्यापी आरक्षण वाली डाइवर्सिटी से प्रेरित होकर एससी/ एसटी के लिए नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, फिल्म-मीडिया इत्यादि सहित धनार्जन के समस्त स्रोतों में संख्यानुपात में आरक्षण दिलाने का ही एजेंडा पेश किया गया था।

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भोपाल घोषणा का असर

बहरहाल, भोपाल घोषणा के क्रान्तिकारी एजेंडे ने तो तत्कालीन राष्ट्रपति, प्राख्यात विद्वानों सहित पूरे राष्ट्र के दलितों को स्पर्श किया, किन्तु किसी को भी यकीन नहीं था कि भारत में भी अमेरिका की भांति सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों इत्यादि में आरक्षण लागू हो सकता है। लेकिन मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने ऐसा कर दिखाया। उन्होंने 27 अगस्त, 2002 को अपने राज्य के समाज कल्याण विभाग में एससी/ एसटी के लिए कुछ वस्तुओं की सप्लाई में 30 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिखा दिया कि यदि सरकारों में इच्छा शक्ति हो तो अमेरिका की तरह भारत के वंचितों को भी उद्योग-व्यापार इत्यादि में भी आरक्षण सुनिश्चित कराया जा सकता है। दिग्विजय सिंह के उस ऐतिहासिक कदम से आरक्षण के खात्मे की आशंका से भयाक्रांत दलितों में यह विश्वास जन्मा कि एक दिन उन्हें भी अमेरिका के अश्वेतों की भांति नौकरियों से आगे बढ़कर उद्योग-व्यापार इत्यादि प्रत्येक क्षेत्र में भागीदारी मिल सकती है। फिर तो ढेरों दलित नेता और संगठन अपने-अपने तरीके से डाइवर्सिटी आन्दोलन को आगे बढाने में जुट गए। नेताओं में जहां डॉ. संजय पासवान ने इस मुद्दे पर पहली बार संसद का ध्यान आकर्षित करने के बाद कई संगोष्ठियां आयोजित की, वहीँ बीएस-4 के राष्ट्रीय अध्यक्ष आरके चौधरी ने ‘निजी क्षेत्र में आरक्षण, अमेरिका के डाइवर्सिटी पैटर्न पर’ को अपनी राजनीतिक पार्टी का एकसूत्रीय एजेंडा बनाकर डाइवर्सिटी के पक्ष में अलख जगाना शुरू किया। इस मामले में डॉ. उदित राज भी खूब पीछे नहीं रहे। भोपाल घोषणा से प्रेरित हो कर देश भर के ढेरों दलित संगठनों ने अपने-अपने राज्य सरकारों के समक्ष डाइवर्सिटी मांग-पत्र रखा।

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कम्युनिस्ट घोषणापत्र पर भारी पड़ सकता है: बीडीएम का घोषणापत्र  

लेकिन कुछ ही वर्षों में जब डाइवर्सिटी की मांग उठाने वाले संगठनों और नेताओं की गतिविधियां ठप्प पड़ने लगीं, वैसी स्थिति में डाइवर्सिटी के विचार को आगे बढ़ाने के लिए इस लेखक की अध्यक्षता में 15 मार्च, 2007 को बहुजन लेखकों के संगठन ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ (बीडीएम) की स्थापना हुई। इस अवसर पर बीडीएम के उद्देश्यों और एक्शन प्लान इत्यादि से राष्ट्र को अवगत कराने के लिए 64 पृष्ठीय ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन का घोषणापत्र’ जारी हुआ। ‘भोपाल घोषणा-पत्र’ के बाद बहुजन डाइवर्सिटी मिशन का घोषणापत्र एक बेहद महत्त्वपूर्ण दस्तावेज रहा, इसका अनुमान सुप्रसिद्ध बहुजन लेखक डॉ. विजय डॉ. विजय कुमार त्रिशरण की इस टिप्पणी से लगाया जा सकता है- ‘एचएल दुसाध द्वारा लिखा गया बीडीएम का घोषणापत्र बहुजन समाज के उत्थान और उद्धार का एक मन्त्र संहिता है। इस बहुजन मुक्ति संहिता में कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणा-पत्र से भी ज्यादा आग है। यदि गहरी निद्रा में सुषुप्त हमारे समाज के लोगों में थोड़ी भी गर्माहट पैदा हुई तो मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि बीडीएम का घोषणापत्र एक दिन कार्ल मार्क्स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो पर भारी पड़ेगा।’ (डॉ. विजय कुमार त्रिशरण, आरक्षण बनाम डाइवर्सिटी खंड-2 ,पृष्ठ-59)

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भोपाल और बीडीएम के घोषणापत्र, दोनों में ही नौकरियों से आगे बढ़कर धनार्जन के समस्त स्रोतों में हिस्सेदारी की राह सुझाई गयी थी, पर दोनों में मौलिक प्रभेद यह था कि भोपाल घोषणा में डाइवर्सिटी की मांग सिर्फ एससी/ एसटी के लिए थी, किन्तु बीडीएम से जुड़े लेखकों ने इसका विस्तार शक्ति के समस्त स्रोतोंमें सभी सामाजिक समूहों के स्त्री-पुरुषों तक कर दिया। चूंकि मिशन से जुड़े लेखकों का यह दृढ़ मत रहा है कि आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी ही मानव-जाति की सबसे बड़ी समस्या है तथा शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक-शैक्षिक) में सामाजिक (Social) और लैंगिक (Gender) विविधता (Diversity) के असमान प्रतिबिम्बन (Reflection) से ही सारी दुनिया सहित भारत में भी इसकी उत्पत्ति होती रही है, इसलिए ही बीडीएम ने शक्ति के समस्त स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतिबिम्बन कराने की कार्य योजना बनाया।

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डाइवर्सिटी से पनपने लगी है: सर्वत्र भागीदारी की चाह

भोपाल घोषणा से जुड़ी टीम और बीडीएम से जुड़े लेखकों की सक्रियता से एससी/ एसटी ही नहीं, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों में भी नौकरियों से आगे बढ़कर उद्योग-व्यापार सहित हर क्षेत्र में भागीदारी की चाह पनपने लगी। संभवतः उद्योग-व्यापार में बहुजनों की भागीदारी की चाह का अनुमान लगा कर ही उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार ने जून 2009 में एससी/ एसटी के लिए सरकारी ठेकों में 23 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर दिया। इसी तरह केंद्र सरकार ने 2011 में लघु और मध्यम इकाइयों से की जाने वाली खरीद में एससी/एसटी के लिए 4 प्रतिशत आरक्षण घोषित किया गया। बाद में 2015 में बिहार में पहले जीतनराम मांझी और उनके बाद नीतीश कुमार सिर्फ एससी/ एसटी ही नहीं, ओबीसी के लिए भी सरकारी ठेकों में आरक्षण लागू किया। यही नहीं बिहार में तो नवम्बर-2017 से आउट सोर्सिंग जॉब में भी बहुजनों के लिए आरक्षण लागू करने की बात प्रकाश में आई। किन्तु बहुजनों द्वारा सरकार पर जरुरी दबाव न बनाये जा के कारण इसका लाभ न मिल सका.हाल के वर्षों में कई राज्यों की सरकारों ने परम्परागत आरक्षण से आगे बढ़कर अपने-अपने राज्य के कुछ-कुछ विभागों के ठेकों, आउट सोर्सिंग जॉब, सप्लाई इत्यादि कई विभागों में आरक्षण देकर राष्ट्र को चौकाया है। कई राज्यों सरकारों ने आरक्षण का 50 प्रतिशत का दायरा तोड़ने के साथ निगमों, बोर्डों, सोसाइटियों में एससी/ एसटी, ओबीसी को आरक्षण दिया: धार्मिक न्यासों में वंचित जाति के पुरुषों के साथ महिलाओं को शामिल करने का निर्णय लिया तो उसके पीछे डाइवर्सिटी का वैचारिक आन्दोलन ही है।

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झारखण्ड में  हेमत सोरेन सरकार ने 25 करोड़ तक ठेकों में एसटी, एससी, ओबीसी को प्राथमिकता दिए जाने की घोषणा कर राष्ट्र को चौंका दिया था। निश्चय ही सरकार के उस फैसले के पीछे डाइवर्सिटी के वैचारिक आन्दोलन की भूमिका रही। जून 2021 के दूसरे सप्ताह में तमिलनाडु की स्टालिन सरकार ने वहां के 36,000 मंदिरों में गैर-ब्राह्मणों और महिलाओं की पुजारी के रूप में नियुक्ति का ऐतिहासिक निर्णय लेकर राष्ट्र को चौंका दिया है। स्टालिन सरकार के इस क्रान्तिकारी फैसले के पीछे अवश्य ही डाइवर्सिटी आन्दोलन की भूमिका है। बहरहाल, नौकरियों से आगे बढ़कर सीमित पैमाने पर ही सही सप्लाई, ठेकों, आउट सोर्सिंग जॉब में बिना बहुजनों के सड़कों पर उतरे ही, सिर्फ डाइवर्सिटी समर्थक लेखकों की कलम के जोर से कई जगह आरक्षण मिल गया। नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, ठेकों इत्यादि में आरक्षण के कुछ-कुछ दृष्टान्त साबित करते हैं कि डाइवर्सिटी अर्थात सर्वव्यापी आरक्षण की मांग सत्ता के बहरे कानों तक पहुंची और उसने ज्यादा तो नहीं, पर कुछ-कुछ अमल भी किया। लेकिन बीडीएम को सबसे बड़ी संतुष्टि की यह बात रही कि कई पार्टियों ने डाइवर्सिटी को अपने घोषणापत्र में जगह दिया। इस मामले में सबसे आश्चर्य घटित किया भाजपा ने।

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पार्टियों के घोषणापत्रों में डाइवर्सिटी!

सबसे पहले भाजपा ने ही 2009 में 15वीं लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र के हिंदी संस्करण के पृष्ठ 29 पर लिखा- ‘भाजपा सामाजिक न्याय तथा सामाजिक समरसता के प्रति प्रतिबद्ध है। पहचान की राजनीति, जो दलितों, अन्य पिछड़े वर्गों और समाज के अन्य वंचित वर्गों को कोई फायदा नहीं पहुंचाती, का अनुसरण करने की बजाय भाजपा ठोस विकास एवं सशक्तीकरण पर ध्यान केन्द्रित करेगी। हमारे समाज के दलित, पिछड़े एवं वंचित वर्गों के लिए उद्यमशीलता एवं व्यवसाय के अवसरों को इस तरह बढ़ावा दिया जायेगा, ताकि भारत की सामाजिक विविधता पर्याप्त रूप से आर्थिक विविधता में प्रतिबिम्बित हो। ‘भाजपा वहीँ  नहीं रुकी, उसने बिहार विधानसभा चुनाव-2010 और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव-2012  में भी अपने घोषणा-पत्रों में वही बातें उठाई। बिहार विधानसभा चुनाव-2010 में बिहार कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में लिखा- ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विश्वास है कि अनुसूचित जाति/ जनजाति के लोगों को शिक्षा के अलावा व्यवसायिक विकास के कार्यक्रमों की आवश्यकता है। इसे देखते हुए सरकारी ठेकों और अन्य कार्यों में इनके लिए प्राथमिकता वाली नीति अपनाई जाएगी।’ किन्तु 2010 के बिहार चुनाव में इस मामले में सबसे आगे निकल गयी थी लोकजनशक्ति पार्टी। उस चुनाव में अगर भाजपा और कांग्रेस ने डाइवर्सिटी के लिए संकेत किया तो लोजपा इसके समर्थन में खुलकर सामने आई। चूँकि लोजपा का घोषणा-पत्र राजद के साथ संयुक्त रूप से तैयार हुआ था, इसलिए घोषणा पत्र में तो नहीं: किन्तु 15 अक्तूबर से 6 नवम्बर, 2010  तक रेडियो-टीवी पर लोजपा को सात-आठ बार जो अपनी बात रखने का अवसर मिला, उसमें  हर बार यही दोहराया गया- ‘ठेकेदारी सप्लाई, वितरण, फिल्म, मीडिया आदि धनोपार्जन का महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इसमें दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यकों को कोई अवसर नहीं है। सदियों से व्याप्त आर्थिक और सामाजिक असमानता को ख़त्म करने के लिए राज्य सरकार नीतिगत फैसला नहीं कर सकी। धनोपार्जन के सभी संसाधनों और स्रोतों में सभी वर्गों को डाइवर्सिटी के आधार पर संख्यानुपात में समान भागीदारी और हिस्सेदारी की जरुरत है। लोजपा इसका समर्थन करती है।’

डाइवर्सिटी केन्द्रित मुद्दे से बिहार में हुआ सत्ता परिवर्तन!

डाइवर्सिटी के वैचारिक आन्दोलन के फलस्वरूप कई राज्य सरकारों ने नौकरियों से आगे बढ़कर अर्थोपार्जन की दूसरी गतिविधियों में आरक्षण तो कई राजनीतिक दलों ने इसे अपने घोषणा पत्र में जगह दिया ही, लेकिन डाइवर्सिटी का मुद्दा उठाकर मोदी की भाजपा को शिकस्त देने का भी दृष्टांत हो चुका है, इसकी उपलब्धि बहुत कम लोग कर पायें! लेकिन यह सचाई है कि 2015 में प्रधानमंत्री मोदी की भाजपा को बिहार में जो शिकस्त मिली, उसके पीछे डाइवर्सिटी के एजेंडे की ही भूमिका रही। 2014 में मोदी के केन्द्रीय सत्ता पर काबिज होने के बाद हिंदी- पट्टी के बिहार में जो पहला विधानसभा चुनाव- 2015 अनुष्ठित हुआ, उसमें लालू प्रसाद यादव ने डाइवर्सिटी प्रेरित मुद्दे उठाकर ही भाजपा को बुरी तरह शिकस्त दे दिया था। काबिलेगौर है कि बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान जब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण के समीक्षा की बात उठाया, तब लालू प्रसाद यादव ने फिजा में यह बात फैला दी थी, ‘तुम आरक्षण का खात्मा करना चाहते हो, हम सत्ता में आयेंगे तो संख्यानुपात में सबको आरक्षण देंगे।’ तब विपुल प्रचार माध्यमों और संघ के विशाल संख्यक एकनिष्ठ कार्यकर्ताओं से लैस भाजपा लाख कोशिशें करके भी लालू की उस बात की काट नहीं ढूंढ पाई और शर्मनाक हार झेलने के लिए विवश हुई। इसके पहले उन्होंने आरक्षण का दायरा बढ़ाकर भाजपा को मात देने का प्रयोग अगस्त 2014 में अनुष्ठित होने वाले बिहार विधानसभा उप-चुनाव में किया था। तब उन्होंने मांग उठाया था, ‘सरकार ठेकों  सहित विकास की तमाम योजनाओं में दलित, पिछड़े और अकलियतों को 60 प्रतिशत आरक्षण दें।’ आरक्षण का दायरा बढ़ाकर भाजपा को शिकस्त देने का उनका दांव सही पड़ा और लालू-नीतीश गठबंधन 10 में से 6 सीटें जीतने में कामयाब रहा। तब आंधी-तूफ़ान की तरह उभरे मोदी की भाजपा को शिकस्त देना किसी अजूबे से कम नहीं लगा था, लेकिन यह मुमकिन हुआ था डाइवर्सिटी की आत्मा को अपनाकर। संख्यानुपात में आरक्षण का कॉन्सेप्ट;  नौकरियों से बढ़कर ठेकों इत्यादि अर्थोपार्जन की अन्यान्य गतिविधियों में आरक्षण जैसे विचार भारत में भोपाल घोषणा-पत्र से ही पनपे, जिसे बीडीएम से जुड़े लेखकों ने ही आगे बढाया। बीडीएम ने एक और बड़ा काम लोगों की साईक में बदलाव लाकर किया है। आज दलित बहुजन समाज के हजारों बुद्धिजीवी/ एक्टिविस्ट अगर  अपने-अपने तरीके से हर क्षेत्र में सख्यानुपात में भागीदारी की बात उठा रहे हैं तो उसका श्रेय बीडीएम से जुड़े लेखकों को ही जाता है। अगर विभिन्न दलों के ढेरों नेता आज संख्यानुपात में भागीदारी और जिसकी जीतनी संख्या भारी… की बात उठा रहे हैं, जैसे अखिलेश यादव ने यूपी विधानसभा चुनाव-2022 में उठाया तो उसके पीछे डाइवर्सिटीवादी लेखकों की ही क्रियाशीलता है।

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विद्रोही रोने नहीं देते गुस्से से भर देते हैं!

बहरहाल, जिस तरह बीडीएम की गतिविधियों से वंचितों वर्गों शक्ति के स्रोतों में संख्यानुपात में हिस्सेदारी की चाह (Aspirations) पनपी; जिस तरह देश की कई राजनीतिक पार्टियों में डाइवर्सिटी के एजेंडे को अपने मैनिफेस्टो में जगह दिया एवं जिस तरह कई सरकारों ने अपने-अपने स्तर पर डाइवर्सिटी के एजेंडे को कुछ-कुछ लागू किया, उससे बीडीएम से जुड़े लोग काफी हद तक संतुष्ट रहकर लेखन के ज़रिये डाइवर्सिटी के विचार को फ़ैलाने में लगे रहे। किन्तु पिछले कुछ वर्षों से एकाधिक कारणों से हमारा उन बहुजनवादी दलों से मोहभंग होना शुरू हुआ, जिनसे हम भारत में मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या: आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे तथा वर्ग संघर्ष का इकतरफा खेल खेलते हुए बहुजनों को विशुद्ध गुलामों में तब्दील करने पर आमादा भाजपा को सत्ता से आउट करने की उम्मीद पाले हुए थे!

बहुजनवादी दलों से मोहभंग के कारण!

जिन कारणों से बहुजनवादी दलों से मोहभंग होना शुरू हुआ, वे कारण रहे: पहला, जिस आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे का बाबा साहेब ने 25 नवम्बर, 1949 को संसद के केन्द्रीय कक्ष से खात्मे का आह्वान किया, उसके खात्मे का डाइवर्सिटी साहित्य के जरिये अनवरत आह्वान किये जाने के बावजूद बहुजनवादी दलों द्वारा उसकी बुरी तरह अनदेखी। दूसरा, डाइवर्सिटी साहित्य द्वारा पिछले तीन-चार सालों से बहुजनवादी दलों को बार-बार अहसास कराया जाता रहा है कि मोदी सरकार ने अपनी सवर्णपरस्त नीतियों से बहुजनों को उस स्टेज में पहुंचा दिया है, जिस स्टेज में पहुँचने पर सारी दुनिया के वंचितों ने ही शासकों के खिलाफ मुक्ति संग्राम संगठित किया: खुद भारत के लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ यह दृष्टांत स्थापित किया। किन्तु, इसके बावजूद बहुजनवादी दलों ने दलित, आदिवासी, पिछड़ों और इनसे धर्मान्तरित अल्पसंख्यकों को लिबरेट करने में कोई रूचि नहीं लिया। तीसरा, हम कई सालों से लगातार बताते रहे हैं कि मोदी सरकार ने हिन्दू धर्म संस्कृति के जयगान और मुस्लिम विद्वेष के प्रसार के ज़रिये मिली राजसत्ता के जोर से जिस तरह शक्ति के समस्त स्रोत हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे लोगों के हाथ में देने का अन्धाधुन उपक्रम चलाया है, उससे भारत में सापेक्षिक वंचना (Relative Deprivation) के वह हालात पैदा हो चुके हैं, जो फ्रांसीसी क्रांति और रूस की वोल्सेविक क्रांति पूर्व भी नहीं रहे। किन्तु बहुजनवादी दलों ने सापेक्षिक वंचना के अनुकूल हालात का सद्व्यवहार करने में कोई रूचि नहीं ली। चौथा और शेष कारण 2022 में अनुष्ठित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में उभरे।

[bs-quote quote=”मोदी राज में जिस तरह लालू प्रसाद यादव ने 2015 में सामाजिक न्याय का मुद्दा उठाकर भाजपा को गहरी शिकस्त दिया था, उसका अनुसरण ये भी कर सकते थे। लेकिन 2015 के बाद 2017 में यूपी विधानसभा, 2019 में लोकसभा चुनाव; 2020 में बिहार विधानसभा और 2022 में यूपी विधानसभा के चुनाव हुए, लेकिन इनमे सामाजिक न्याय का मुद्दा ही नहीं उठा। इस तरह बिहार में 2015 में सामाजिक न्याय के जरिये मोदी को शिकस्त देने के बाद: 2017, 2019, 2020 और 2022 में कुल चार चुनाव हुए, पर इन चुनाव में सामाजिक न्याय का मुद्दा बिलकुल ही उठा।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

पिछले साल आई दो रिपोर्टो: ‘विश्व असमानता रिपोर्ट- 2022’  और ‘ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट- 2022’  ने साबित किया किया आर्थिक और सामाजिक विषमताजन्य समस्या भारत में जिस भयावह रूप में मौजूद हैं, वह किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का होस उड़ाने देने के लिए काफी था। दिसंबर 2021 में लुकास चांसल द्वारा लिखित और चर्चित अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटि, इमैनुअल सेज और गैब्रियल जुकमैन द्वारा समन्वित जो विश्व असमानता रिपोर्ट-2022 दिसंबर, 2021 में प्रकाशित हुई उसने साबित कर दिया कि धन-दौलत के बंटवारे पर अध्ययन करने वाली ‘क्रेडिट सुइसे’ की अक्तूबर 2015 और जनवरी 2018 में प्रकाशित ‘ऑक्सफाम इंडिया’ की रिपोर्टों में उभरी भीषण आर्थिक असमानता से वर्तमान मोदी सरकार ने कोई सबक नहीं लिया है। उन रिपोर्टों ने बता दिया था कि विश्व के किसी भी देश के सुविधाभोगी का भारत के जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग जैसा शक्ति के स्रोतों पर 80- 85 प्रतिशत कब्ज़ा नहीं है।

विश्व असमानता रिपोर्ट से भी कहीं भयावह स्थिति वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम द्वारा अप्रैल, 2021 में प्रकाशित ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट- 2022 में उभरी। ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट ने साबित कर दिया था कि भारत की आधी आबादी को पुरुषों के बराबर आर्थिक समानता पाने के लिए 300 साल भी लग सकते हैं। ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट ने साबित कर दिया कि आर्थिक और सामाजिक विषमता की जैसी  शिकार भारत की आधी आबादी, विशेषकर जन्मजात वंचित वर्गों की महिलाएं हैं, वैसा विश्व का कोई अन्य तबका नहीं। पिछले वर्ष आई उन दोनों रिपोर्टों पर सवर्णवादी दलों की चुप्पी स्वाभाविक थी, पर बहुजनवादी दल कैसे खामोश रह सकते थे! लेकिन रहे: वे अपनी जुबान पर ताला लगाये रहे। उनकी उस खामोसी ने हमें राजनीतिक दल गठित करने की मानसिक प्रस्तुति लेने के लिए विवश कर दिया: तभी हमारे मन में पार्टी फॉर्म करने का बीजारोपड़ हुआ, जो अब आकार लेने जा रहा है।

मोदीराज में नहीं उठा : सामाजिक न्याय का मुद्दा!

10 मार्च, 2022 को आये पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के दौरान हमने ‘विश्व असमानता और ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट-2022’ पर कई लेख लिखकर बहुजनवादी दलों का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया, पर वे चुप्पी साधे रहे। पांच राज्यों में खासकर यूपी चुनाव में बहुजनवादी दलों ने बीडीएम से जुड़े लोगों की हताशा को चरम पर पंहुचा दिया। इन चुनावों में सामाजिक न्याय के मुद्दे से आँखे चुराना एक बहुत बड़ी घटना रही। इस घटना ने साबित कर दिया कि यह जानते हुए भी कि वे यह मुद्दा उठाकर भाजपा को मात दे सकते हैं, कुछ अज्ञात कारणों से सामाजिक न्याय से दूरी बनाये रखे। मोदी राज में जिस तरह लालू प्रसाद यादव ने 2015 में सामाजिक न्याय का मुद्दा उठाकर भाजपा को गहरी शिकस्त दिया था, उसका अनुसरण ये भी कर सकते थे। लेकिन 2015 के बाद 2017 में यूपी विधानसभा, 2019 में लोकसभा चुनाव; 2020 में बिहार विधानसभा और 2022 में यूपी विधानसभा के चुनाव हुए, लेकिन इनमे सामाजिक न्याय का मुद्दा ही नहीं उठा। इस तरह बिहार में 2015 में सामाजिक न्याय के जरिये मोदी को शिकस्त देने के बाद: 2017, 2019, 2020 और 2022 में कुल चार चुनाव हुए, पर इन चुनाव में सामाजिक न्याय का मुद्दा बिलकुल ही उठा। जब यह परीक्षित सत्य है कि सामाजिक न्याय के समक्ष भाजपा की हार तय है, यह जानते हुए फिर क्यों नहीं सामाजिक न्याय के वर्तमान सुपर स्टार यह मुद्दा उठाये?  लगता है इसके पीछे कुछ अज्ञात कारण हैं, जिनका सिर्फ कयास ही लगाया जा सकता है : खुलकर कुछ कहा नहीं जा सकता है!

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तो इसलिए राजनीतिक पार्टी बनाने का निर्णय लेना पड़ा!

पिछले चार चुनावों में सामजिक न्याय पर चुप्पी साधने से कम विस्मयकर नहीं है ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट- 2022 पर ख़ामोशी। ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट- 2022 ने बता दिया है कि महिला के रूप में विश्व की कम से कम 60 करोड़ आबादी को आर्थिक समानता पाने में 300 साल लग सकते हैं। लेकिन इससे सवर्णवादी दलों की भांति बहुजनवादी दलों की चुप्पी ने बीडीएम से जुड़े लोगों को अपनी कार्ययोजना में बदलाव लाने के लिए मजबूर कर दिया। बीडीएम से जुड़े लोग इस नतीजे पर पर पहुंचे हैं कि आर्थिक और सामजिक गैर-बराबरी मानवजाति की सबसे बड़ी समस्या है तो दुनिया में इससे सर्वाधिक पीड़ित होने वाला तबका भारत की आधी आबादी है। ऐसे बहुजनवादी दलों की 2017, 2019, 2020 और 2022 में सामाजिक न्याय से दूरी के बाद आधी आबादी की आर्थिक असमानता के प्रति घोरतर उदासीनता ने हमें राजनीतिक दल बनाने का निर्णय लेने के लिए बाध्य कर दिया। कहा जा सकता है कि खासतौर से आधी आबादी की आर्थिक आज़ादी की लड़ाई लड़ने के लिए ही हम राजनीतिक पार्टी खड़ा करने की दिशा में अग्रसर हुए। ऐसे में अनुमान लगा सकते हैं कि  महिलाओं को पुरुषों के बराबर आर्थिक समानता दिलाना पार्टी का शीर्ष एजेंडा होगा।

आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के लिए : बीडीएम के पास है अभिनव विचार!

आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे तथा लैंगिक समानता के लिए पार्टी अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में दो उपाय करेगी। सबसे पहले अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में सवर्ण पुरुषों को उनकी संख्यानुपात में लाने की योजना पर काम करेगी ताकि उनके हिस्से का औसतन 70 प्रतिशत अतिरक्त (सरप्लस) अवसर वंचित वर्गो, विशेषकर आधी आबादी में बंटने का मार्ग प्रशस्त हो सके। दूसरा उपाय अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में आधी आबादी का पहला हक़ घोषित करते हुए पार्टी शक्ति के स्रोतों के बंटवारे में पारंपरिक तरीके परित्याग कर: रिवर्स प्रणाली लागू करेगी। पारम्परिक तरीके के अनुसार सबसे पहले अवसर अग्रसर अर्थात जेनरल को दिया जाता है। लेकिन इस पारंपरिक तरीके में बदलाव कर पार्टी सबसे पहले, असमानता का सर्वाधिक शिकार तबको की महिलाओं को, जबकि सबसे अंत में अवसर न्यूनतम असमानता का शिकार महिलाओं को देगी।

इसके लिए पार्टी भारत के विविधतामय प्रमुख सामाजिक समूहों- दलित, आदिवासी, पिछड़े, धार्मिक अल्पसंख्यकों और जनरल अर्थात सवर्ण- को दो श्रेणियों -अग्रसर अर्थात अगड़े और अनग्रसर अर्थात पिछड़ों, में विभाजित कर, सभी सामाजिक समूहों की अनग्रसर महिलाओं को निम्न क्षेत्रों में प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी देने का प्रावधान करेगी।

  • सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की, सभी प्रकार की नौकरियों व धार्मिक प्रतिष्ठानों
  • सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जानेवाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप
  • सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जानेवाली सभी वस्तुओं की खरीदारी
  • सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों, पार्किंग, परिवहन
  • सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जानेवाले छोटे-बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों, तकनीकि-व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं के संचालन, प्रवेश व अध्यापन
  • सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों, उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जानेवाली धनराशि
  • देश-विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) को दी जानेवाली धनराशि
  • प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया एवं फिल्म-टीवी के सभी प्रभागों
  • रेल-राष्ट्रीय मार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की खली पड़ी जमीन व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए अस्पृश्य-आदिवासियों में वितरित हो एवं
  • ग्राम-पंचायत, शहरी निकाय, संसद-विधासभा की सीटों; राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट; विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों; विधान परिषद-राज्यसभा; राष्ट्रपति, राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि…

[bs-quote quote=”हम आधी आबादी के समानता की लड़ाई के ज़रिये आर्थिक और सामाजिक विषमता जनित तमाम समस्यायों के खात्मे के लिए पार्टी बनाने जा रहे हैं, इसलिए यह पार्टी महिलाओं को सामने रखकर अपनी लड़ाई लड़ेगी। पार्टी के संगठन में हर हाल में महिलाओं की 50 प्रतिशत हिस्सेदारी रहेगी। पार्टी के प्रदेश व जिला अध्यक्ष में इनकी आधी हिस्सेदारी होगी। पार्टी के सत्ता में आने पर पीएम-सीएम पद भी प्राथमिकता के साथ आधी आबादी के हिस्से में जायेंगे। यह तो पार्टी की प्राम्भिक रूप-रेखा है। इसका अंतिम व व्यवस्थित रूप इसके मैनिफेस्टो में ही आएगा।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

यदि हम उपरोक्त क्षेत्रों में क्रमशः अनग्रसर दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक और सवर्ण समुदायों की महिलाओं को इन समूहों के हिस्से का 50 प्रतिशत भाग सुनिश्चित कराने में सफल हो जाते हैं तो भारत 300 वर्षों के बजाय 30- 40 वर्षों में लैंगिक समानता अर्जित कर विश्व के लिए एक मिसाल बन जायेगा, ऐसा बीडीएम से जुड़े लेखकों का मानना है। तब मुमकिन है हम लैंगिक समानता के चार आयामों में से तीन आयामों- पहला, अर्थव्यवस्था में महिलाओं की हिस्सेदारी और महिलाओं को मिलने वाले मौके; दूसरा, महिलाओं की शिक्षा और तीसरा, राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी- में आइसलैंड, फ़िनलैंड, नार्वे, न्यूलैंड, स्वीडेन इत्यादि को भी पीछे छोड़ दें। उपरोक्त तीन आयामों पर सफल होने के बाद हमारी आधी आबादी अपने स्वास्थ्य की देखभाल में स्वयं सक्षम हो जाएँगी। यही नहीं उपरोक्त क्षेत्रों के बंटवारे में सर्वाधिक अनग्रसर समुदायों के महिलाओं को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी देकर लैंगिक असमानता के साथ भारत से मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या के खात्मे में तो सफल हो ही सकते हैं, इसके साथ ही भारत में भ्रष्टाचार को न्यूनतम बिन्दू पर पहुँचाने, लोकतंत्र के सुदृढ़ीकरण, नक्सलवाद/ माओवाद के खात्मे, अस्पृश्यों को हिन्दुओं के अत्याचार से बचाने, आरक्षण से उपजते गृह-युद्ध को टालने, सच्चर रिपोर्ट में उभरी मुस्लिम समुदाय की बदहाली को खुशहाली में बदलने, ब्राह्मणशाही के खात्मे और सर्वोपरि विविधता में एकता को सार्थकता प्रदान करने जैसे कई अन्य मोर्चों पर भी फतेह्याबी हासिल कर सकते हैं।

चूँकि हम आधी आबादी के समानता की लड़ाई के ज़रिये आर्थिक और सामाजिक विषमता जनित तमाम समस्यायों के खात्मे के लिए पार्टी बनाने जा रहे हैं, इसलिए यह पार्टी महिलाओं को सामने रखकर अपनी लड़ाई लड़ेगी। पार्टी के संगठन में हर हाल में महिलाओं की 50 प्रतिशत हिस्सेदारी रहेगी। पार्टी के प्रदेश व जिला अध्यक्ष में इनकी आधी हिस्सेदारी होगी। पार्टी के सत्ता में आने पर पीएम-सीएम पद भी प्राथमिकता के साथ आधी आबादी के हिस्से में जायेंगे। यह तो पार्टी की प्राम्भिक रूप-रेखा है। इसका अंतिम व व्यवस्थित रूप इसके मैनिफेस्टो में ही आएगा। अभी तो पार्टी के रजिस्ट्रेशन इत्यादि की प्रक्रिया चल रही है। उम्मीद हा आगामी डाइवर्सिटी-डे तक यह वजूद में आ जाएगी। हाँ! हामारी भावी पार्टी से आप यह आशा पोषण कर सकते हैं, जब 2015 में लालू प्रसाद यादव डाइवर्सिटी का आशिक मुद्दा उठाकर मोदी को गहरी शिकस्त दे दिये तो हमारे पास तो हमारे पास बीडीएम के दस सूत्री एजेंडे के रूप में सामजिक न्याय का जखीरा है, जिसके जोर से हम 2050 तक हिंदुत्ववादी सत्ता का पूरी तरह खात्मा कर चिरकाल के लिए बहुजन राज कायम कर लेंगे!

डियर मैडम/ सर, फिलहाल इस सूचना के ज़रिये आपके मूल्यवान सुझाव की कामना कर रहे हैं। आप बताएं कि इसमें और क्या जोड़ा जाय जिससे हमारा प्यारा भारत मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या- आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी से पार पाने के साथ अपनी आधी आबादी को 300 वर्षों के बजाय 30-40 वर्षों में लैंगिक समानता दिलाने की स्थिति में आ जाए। आप अपना सुझाव मोबाइल नंबर बृजपाल भारती (8085474454) और एचएल दुसाध 9654816191 भेज सकते हैं।

फिलहाल एक सुझाव से तो हमें अवश्य ही उपकृत करें! भावी पार्टी का नाम अभी फाइनल नहीं हुआ है। वर्तमान में तीन निम्न नाम प्रस्तावित हैं। आप बताएं इनमे कौन-सा नाम बेहतर रहेगा!

  • डेमोक्रेटिक डाइवर्सिटी पार्टी (डीडीपी)
  • बहुजन डाइवर्सिटी पार्टी ( बीडीपी)
  • भारतीय डाइवर्सिटी पटी (बीडीपी )

आपके सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी। आंबेडकर जयंती की कोटि-कोटि बधाई के साथ

दिनांक : 14 अप्रैल, 2022 

निवेदक

एच. एल. दुसाध

संस्थापक अध्यक्ष, बहुजन डाइवर्सिटी मिशन, दिल्ली

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