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हरियाणा चुनाव : जमीनी तैयारी के अभाव में कांग्रेस की हार

अठारहवीं लोकसभा में कांग्रेस ने जिस तरह प्रदर्शन किया था, उसे देखकर लगा था कि हरियाणा चुनाव में भी कोई बदलाव होगा। यहाँ तक कि सारे एग्जिट पोल भी कांग्रेस को 60 सीट जीतने की बात कहते रहे, वहीँ भाजपा को 20 से 28 सीट तक ही सीमित कर दिया था। लेकिन चुनावी नतीजे आने के बाद परिदृश्य पूरी तरह बदल गया। ऐसा क्यों हुआ? इस पर पढ़िए मनीष शर्मा की विश्लेष्णात्मक रिपोर्ट

हरियाणा का जनादेश चौंकाने वाला साबित हुआ है। सारे एक्जिट पोल भी 100 फीसदी ग़लत निकले हैं,लगभग सभी चुनावी विश्लेषक भी चुनाव परिणामों को देखकर भौचक रह गए है।

सामान्य तौर पर लोकसभा चुनाव में हरियाणा में आए परिणामों को देखते हुए,यह मान लिया गया था कि विधानसभा चुनाव में भी भाजपा सरकार का बचना असंभव होगा।

सत्ता विरोधी लहर को भाजपा अंतिम समय में मैनेज करने की कोशिश कर रही थी। जैसे मनोहर लाल खट्टर को हटाकर नायब सैनी को आखिर में मुख्यमंत्री बना दिया गया और ठीक चुनाव के समय अपने ज्यादातर विधायकों का टिकट काट दिया गया।

इससे ये अनुमान लगाया गया कि भाजपा सत्ता विरोधी लहर को रोकने की नाकाम कोशिश कर रही है और इस तरह के सतही बदलावों के जरिए कांग्रेस की जीत को नही रोका जा सकता।

लगभग सारे एग्जिट पोल भी कांग्रेस के प्रचंड जीत की ओर इशारा करते रहे, 90 में से 60 सीटें कांग्रेस के खाते में जाते हुए बार-बार दिखाए जाते रहे, दूसरी ओर सभी एग्जिट पोल ने भाजपा को 20 से 28 सीट तक ही सीमित कर दिया।

फिर क्या था सभी चैनलों ने भी और यहां तक कि लगभग सभी यूट्यूबर्स भी एक स्वर में आंख मूंदकर कर कांग्रेसी जीत पर बार-बार मुहर लगाते रहे।

यहां तक कि खुद कांग्रेस नेतृत्व भी इस तरह के एकतरफा अभियान के झांसे में आ गया और चुनाव से पहले ही जीत की और सरकार बनाने की मुद्रा में चला गया। फिर कौन मुख्यमंत्री बनेगा, फ़ोकस इस पर हो गया। जमीन पर क्या कुछ बदल रहा है, इसे समय रहते ठीक किया जा सकता था लेकिन इस बिंदु को बार-बार इग्नोर किया गया।

अब जबकि चुनाव परिणाम आ चुके हैं भाजपा लगातार तीसरी सरकार बना पाने में कामयाब हो चुकी।  कांग्रेस या इंडिया गठबंधन को जोर का झटका लग।

ऐसे में सबक लेने के लिहाज़ से यह देखना और समझना ज़रूरी है कि ग़लती कहां पर हो गयी?

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सामाजिक न्याय के सवाल पर रणनीतिक चुप्पी

यह ठीक है कि हरियाणा में किसानों का मुद्दा था, पहलवानों का सवाल भी था,उसी तरह अग्निवीर वाला मसले पर भी कांग्रेस के हार जाने के बावजूद ये सारे सवाल बने हुए हैं, बल्कि कांग्रेस 37 सीटें जीत पाई इसमें इन मुद्दों का बड़ा योगदान है।

पर हरियाणा में सामाजिक न्याय का सवाल भी बहुत बड़ा है, इसे इग्नोर कतई नहीं किया जा सकता, बल्कि इन मुद्दों के साथ जब सामाजिक न्याय का मुद्दा भी जुड़ जाता, तब जाकर एक पूरी तस्वीर उभर कर सामने आती।

पर ऐसा नहीं हुआ, कांग्रेस ने सामाजिक न्याय के सवाल पर हरियाणा में रणनीतिक चुप्पी साध ली, और इन दिनों सामाजिक न्याय के सवाल पर काफ़ी मुखर रहे।  राहुल गांधी का भी हरियाणा जाना स्थगित होता रहा,तथाकथित रणनीतकारों द्वारा उनकी भागीदारी बिल्कुल ही सीमित कर दी।

ऐसा ही कई राज्यों में कांग्रेस के साथ होता रहा है।  मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ चुनाव में भी जब केंद्रीय नेतृत्व सामाजिक न्याय के सवाल पर मजबूती से बोल रहा था, ठीक उसी समय राज्य स्तर पर कमलनाथ और भूपेश बघेल, साफ्ट हिंदुत्व की लाइन लिए हुए थे और सामाजिक न्याय के सवाल पर सचेत चुप्पी साधे हुए थे, जिसके चलते बाद में कांग्रेस को बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ा था पर कांग्रेस अभी कोई सबक लेने की स्थिति में नहीं रह गई है शायद।

और एक बार फिर इसी तरह की चुप्पी साध ली गई है। इस आपराधिक चुप्पी के चलते हरियाणा में अजीब तरह का मंज़र सामने आ गया,  भाजपा जो अपने मूल में सामाजिक न्याय के खिलाफ खड़ी मिलती है, वह इस चुनाव में सामाजिक न्याय की चैंपियन के बतौर उभरी है।

ठीक इसके विपरित कांग्रेस को हरियाणा में जनता के बड़े हिस्से ने वर्चस्ववादी जातियों की पार्टी  मान लिया है और उसके खिलाफ इस आधार पर भी वोट किया है।

सामाजिक न्याय के सवाल पर चुप्पी के चलते यह संदेश पूरे राज्य में चला गया कि कांग्रेस के आने का मतलब,जाटों की सत्ता में वापसी तय है।  इसके जरिए हुड्डा की फिर वापसी होनी भी तय है,जिनका गैर जाट व दलित समाज में नकारात्मक छवि न केवल बनी हुई है, बल्कि और बढ़ गई है,

ठीक उसी समय जब दलित समाज भयभीत था, कुमारी शैलजा के साथ हो रहे व्यवहार ने उसे और बढ़ा दिया।  कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व सामाजिक न्याय के मसले पर कोई बड़ा वादा कर और कुमारी शैलजा के सवाल पर कोई सख्त और सकारात्मक निर्णय लेकर अपने खिलाफ बन रहे नैरेटिव को बदल सकता था, पर सांगठनिक संकट और विचार के मोर्चे पर समर्पण के चलते ऐसा बिल्कुल नही किया जा सका।

यह कितना आश्चर्यजनक और चिंताजनक भी है कि कुछ महीने पहले ही हुए, लोकसभा चुनाव में हरियाणा की दलित जनता ने भाजपा को संविधान और सामाजिक न्याय के लिए ख़तरा मानते हुए,जोर का झटका दिया था,उसी जनता ने विधानसभा चुनाव आते-आते विपरीत दिशा पकड़ लिया।

इस चुनाव के बाद ऐसा लगने लगा है कि कांग्रेस के लिए अभी संविधान और सामाजिक न्याय का सवाल नीतिगत कम टैक्टिकल ज्यादा है,जिसका इस्तेमाल शायद स्थान और काल के हिसाब से ही करना है।

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संयुक्त मोर्चा के प्रति कांग्रेस का रवैया

जिन राज्यों में कांग्रेस ताकतवर महसूस करती है, वहां उसका ऱवैया मोर्चे को लेकर बेहद ठंडा रहता है, टालने वाला होता है, उसकी शर्तें गठबंधन को बनाए रखने का नही बल्कि येन-केन प्रकारेण अकेले लड़ने पर केंद्रित रहता है।

आम तौर पर हर जगह हर राज्य में देखा जा रहा है, मध्यप्रदेश में सपा के साथ जो तरीका अख्तियार किया गया वह थोड़ा अपमानजनक था अन्य भी संगठनों को बिल्कुल ही इग्नोर कर दिया गया, राजस्थान में बहुत सारी छोटी-छोटी पार्टियों को इग्नोर किया गया जो कि बेहद घातक सिद्ध हुआ।

हरियाणा में भी ठीक-ठीक यही रवैया अपनाया गया अति आत्मविश्वास हरदम आत्मघाती साबित होता रहा है, यहां भी यही हुआ,चुनाव परिणामों में इसे साफ-साफ देखा जा सकता है।

यह बिल्कुल संभव था कि आम आदमी पार्टी, आजाद समाज पार्टी, बसपा व अन्य क्षेत्रीय ताकतों से गंभीर संवाद कर एक स्तर की एकता बनाई जा सकती थी, और इस तरह से वोटों में 5-6 फीसदी की वृद्धि की जा सकती थी पर ऐसा नही हुआ।

मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के पुराने अनुभवों से कोई सबक नहीं लिया गया,आश्चर्यजनक रूप से एक ग़लती को बार-बार दोहराया जाता रहा।

इसी तरह जिन राज्यों में कांग्रेस बेहद कमजोर हो चुकी है,वहां वह पुराने आधार पर अपनी ताकत-हैसियत से ज्यादा सीटें लेने की कोशिश करती है, गठबंधन को बनाए रखने की कोशिश में अन्य क्षेत्रीय दल, कांग्रेस को ज्यादा सीटें देते भी रहे हैं, पर उन राज्यों में कांग्रेस का स्ट्राइक रेट बेहद खराब होने के चलते अंततः गठबंधन को ही नुकसान झेलना पड़ता है।

उदाहरण के लिए बिहार विधानसभा चुनाव या फिर दिल्ली लोकसभा चुनाव और अब जम्मू-कश्मीर चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करके देखा जा सकता है।

यह समझना बहुत ज़रूरी है कि खास तरह की तानाशाही के दौर में विपक्ष को संयुक्त मोर्चे की तरफ बढ़ना पड़ा है, छोटी-सी गलती भी देश को संकट में डाल सकती है, इस दौर में छोटे-छोटे दलों को छोटा समझना, महत्व न देना बेहद घातक सिद्ध हो सकता है, कोई भी दल अगर पुरानी जगह पर खड़ा होकर, आज के दौर को देखने की कोशिश कर रहा है तो इसका मतलब है कि वह वर्तमान के ख़तरे को देखने से इंकार कर रहा है।

केंद्रीय नेतृत्व पर क्षेत्रीय छत्रपों का भारी पड़ना

हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा पर चरम निर्भरता, कांग्रेस के लिए बेहद नुकसानदायक साबित हुआ है, हुड्डा का नियंत्रण इतना गहरा था कि राज्य के लगभग सभी नेतृत्वकारी हिस्से अप्रासंगिक बना दिए गए,यहा तक कि केंद्रीय नेतृत्व को भी भारी अलगाव में डाल दिया गया।

चुनाव प्रबंधन, विचार व योजना के मोर्चे पर सामूहिकता को लगभग खत्म कर दिया गया, इसके चलते छोटे-छोटे तनावों,महीन किस्म के भटकावों को,जिन्हें समय रहते हल किया जा सकता था, बड़े-बड़े तनावों-भटकाओं में तब्दील होने दिया गया।

कांग्रेस के साथ ये समस्या लगभग उन सभी राज्यों में है, जहां वे थोड़े ताकतवर हैं।

मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और अब हरियाणा में आप इसे साफ-साफ देख सकते हैं।

इन राज्यों में जब भी चुनाव आता है पूरा का पूरा राज्य कुछ ख़ास क्षेत्रीय नेताओं के नियंत्रण में चला जाता है, केंद्रीय संगठन और नेतृत्व बहुत कुछ करने की स्थिति में नहीं रह जाता है, केंद्रीय राजनीतिक व विचारधारात्मक मुद्दों को लगभग-लगभग किनारे कर दिया जाता है।

अंततः इसका खामियाजा कांग्रेस को फिर गठबंधन को और कुल मिलाकर देश को भुगतना पड़ता है।

 शायद अब यह समझने का समय आ गया है कि संक्रमणकालीन दौर ज़रूर है कांग्रेस और  गठबंधन के लिए पर संकटग्रस्त मुल्क की मांग है कि इस काल को जल्दी ही पार कर लिया जाए, अन्यथा बहुत देर हो जाएगा।

मनीष शर्मा
मनीष शर्मा
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और बनारस में रहते हैं।

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