शुद्ध पॉलिटिक्स की बात करते हैं। लोकसभा में भाजपा व उसके समर्थक दलों के सदस्यों द्वारा ‘वंदे मातरम’ का गाना-बजाना एक पॉलिटिकल मूव है। यह अहसास कराने के लिए है कि संसद में उनके पास प्रचंड बहुमत है और वे चाहें तो शंखनाद भी कर सकते हैं। जय श्रीराम के नारे तो वे संसद में लगाते ही रहते हैं। तो यह अपने वर्चस्व को दिखाने का प्रयास ही है। दूसरी ओर संविधान की प्रस्तावना पढ़ते विपक्षी सदस्य। दोनों के स्थानों में अंतर है। वंदे मातरम का गाना-बजाना लोकसभा के अंदर होता है और संविधान की प्रस्तावना का पाठ सदन के परिसर में खुले आसमान के नीचे। मतलब यह कि लोकसभा की कार्यवाही में वंदे मातरम गाने-बजाने की कार्यवाही को दर्ज किया जाएगा। संविधान की प्रस्तावना का पाठ।
अब हमारे पास दो तस्वीरें हैं। एक तस्वीर में वंदे मातरम गाते भाजपा व उसके समर्थक दलों के सदस्य और दूसरी तस्वीर में संविधान की प्रस्तावना पढ़ते विपक्षी सदस्य। क्या आपको नहीं लगता है कि इस देश में अब सांस्कृतिक टकराहट सर्वोच्च सदन में पहुंच चुकी है और अब यह साफ-साफ दिखने लगा है? आखिर इस टकराहट की वजह क्या है और इसके परिणाम क्या होंगे?

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