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एक नयी और दिलचस्प टकराहट (डायरी, 23 दिसंबर 2021) 

मैं एक बात सोच रहा हूं देश के संसद के बारे में। मेरी जेहन में राष्ट्रीय गीत की बातें हैं। दरअसल कल संसद का शीतकालीन सत्र पूर्व से तय अवधि से एक दिन पहले ही समाप्त कर दिया गया। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने कल इसकी घोषणा की। करीब 18 दिनों तक चले इस सत्र […]

मैं एक बात सोच रहा हूं देश के संसद के बारे में। मेरी जेहन में राष्ट्रीय गीत की बातें हैं। दरअसल कल संसद का शीतकालीन सत्र पूर्व से तय अवधि से एक दिन पहले ही समाप्त कर दिया गया। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने कल इसकी घोषणा की। करीब 18 दिनों तक चले इस सत्र के दौरान केंद्र सरकार की ओर से रखे गए 13 विधेयकों को पारित किया गया और करीब 19 घंटे हंगामे की वजह से बर्बाद हुए। लेकिन मैं राष्ट्रीय गीत के बारे में सोच रहा हूं जो कल सत्र के समापन की घोषणा के उपरांत बजाया गया। शायद सदस्यों ने गाया भी हो। मैं शायद शब्द का उपयोग इसलिए कर रहा हूं क्योंकि वंदे मातरम विशुद्ध रूप से संस्कृत में लिखा गया काव्य है और चूंकि भारत में अनेक प्रकार के भाषा-भाषी हैं तो संसद के सदस्य भी ऐसे ही हैं। कइयों को तो यह पता भी नहीं होगा कि वे क्या गा रहे हैं या फिर उन्हें क्या सुनाया जा रहा है। यही हाल राष्ट्रीय गान ‘जन गण मन’ का भी है। लेकिन चूंकि सबने इसे माना है तो सब गाते-बजाते हैं।
खैर, मैं नहीं जानता कि कितने सांसदों को राष्ट्रीय गीत और राष्ट्रीय गान याद होगा। यह कोई सवाल भी नहीं है। लेकिन मैं यह सोच रहा हूं कि संभवत: ऐसा पहली बार हुआ है कि लोकसभा की कार्यवाही के अंत में ‘वंदे मातरम’ गाया बजाया गया। कल ही एक दूसरी घटना भी घटित हुई। विपक्ष के सदस्यों ने कल संसद परिसर में गांधी की प्रतिमा के सामने खड़े होकर संविधान की प्रस्तावना का पाठ किया।

[bs-quote quote=”शुद्ध पॉलिटिक्स की बात करते हैं। लोकसभा में भाजपा व उसके समर्थक दलों के सदस्यों द्वारा ‘वंदे मातरम’ का गाना-बजाना एक पॉलिटिकल मूव है। यह अहसास कराने के लिए है कि संसद में उनके पास प्रचंड बहुमत है और वे चाहें तो शंखनाद भी कर सकते हैं। जय श्रीराम के नारे तो वे संसद में लगाते ही रहते हैं। तो यह अपने वर्चस्व को दिखाने का प्रयास ही है। दूसरी ओर संविधान की प्रस्तावना पढ़ते विपक्षी सदस्य। दोनों के स्थानों में अंतर है। वंदे मातरम का गाना-बजाना लोकसभा के अंदर होता है और संविधान की प्रस्तावना का पाठ सदन के परिसर में खुले आसमान के नीचे। मतलब यह कि लोकसभा की कार्यवाही में वंदे मातरम गाने-बजाने की कार्यवाही को दर्ज किया जाएगा। संविधान की प्रस्तावना का पाठ।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

अब हमारे पास दो तस्वीरें हैं। एक तस्वीर में वंदे मातरम गाते भाजपा व उसके समर्थक दलों के सदस्य और दूसरी तस्वीर में संविधान की प्रस्तावना पढ़ते विपक्षी सदस्य। क्या आपको नहीं लगता है कि इस देश में अब सांस्कृतिक टकराहट सर्वोच्च सदन में पहुंच चुकी है और अब यह साफ-साफ दिखने लगा है? आखिर इस टकराहट की वजह क्या है और इसके परिणाम क्या होंगे?

आइए, शुद्ध पॉलिटिक्स की बात करते हैं। लोकसभा में भाजपा व उसके समर्थक दलों के सदस्यों द्वारा ‘वंदे मातरम’ का गाना-बजाना एक पॉलिटिकल मूव है। यह अहसास कराने के लिए है कि संसद में उनके पास प्रचंड बहुमत है और वे चाहें तो शंखनाद भी कर सकते हैं। जय श्रीराम के नारे तो वे संसद में लगाते ही रहते हैं। तो यह अपने वर्चस्व को दिखाने का प्रयास ही है। दूसरी ओर संविधान की प्रस्तावना पढ़ते विपक्षी सदस्य। दोनों के स्थानों में अंतर है। वंदे मातरम का गाना-बजाना लोकसभा के अंदर होता है और संविधान की प्रस्तावना का पाठ सदन के परिसर में खुले आसमान के नीचे। मतलब यह कि लोकसभा की कार्यवाही में वंदे मातरम गाने-बजाने की कार्यवाही को दर्ज किया जाएगा। संविधान की प्रस्तावना का पाठ।

वैसे विपक्षी सदस्यों का यह आइडिया बड़ा कमाल का है। विपक्ष ने संविधान की प्रस्तावना का पाठ कर सत्ता पक्ष को बेनकाब कर दिया है कि वह कैसे संविधान की धज्जियां उड़ा रहा है।
अब थोड़ा सांस्कृतिक सवाल पर बात करते हैं। दरअसल, आरएसएस के लोग यह मानते हैं कि यह देश जिसका नाम भारत है, वह एक स्त्री है और इस कारण वह इसे भारत माता कहते हैं। ‘आनंद मठ’ के रचयिता का कमाल भी देखिए कि अपनी कविता में वह प्रकृति का वर्णन करते हैं। उसमें देश का जिक्र तो है ही नहीं। अब धरती चाहे इस देश की हो या पाकिस्तान या फिर अमेरिका की, सुजलां, सुफलां, मलयजशीतलाम होगी ही। मुझे तो ‘आनंद मठ’ के रचनाकार और उनकी रचना में कोई दोष नजर नहीं आता। यह दोष तो हमारे नेताओं का है जिन्होंने वंदे मातरम जैसी रचना को राष्ट्रीय गीत बना दिया।
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खैर, यह बेहद दिलचस्प है कि संविधान जनपक्षीय राजनीति का केंद्र बनता जा रहा है। और यह समय भी है जब हम संविधान को याद करें। इससे हम अपने देश के बारे में अधिक ईमानदारी से सोच-समझ सकेंगे। सचमुच में यह कितना खूबसूरत है, फिर भले ही यह वंदे मातरम जैसा पद्य न होकर गद्य है। आप भी पढ़कर देखिए–
‘हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को:
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की
एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता
बढ़ाने के लिए
दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26-11-1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
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