बनारस में कल संयुक्त किसान मोर्चा की पूर्वांचल इकाई की बैठक थी। लखीमपुर खीरी में किसानों की हत्या के मामले में आरोपियों की गिरफ्तारी और तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन की रणनीति पर चर्चा की जानी थी लेकिन वह बैठक कम गोष्ठी ज्यादा लग रही थी। इसके पीछे की वजह बैठक में मौजूद लोगों के कार्य करने की पद्धति और जीवनशैली हो सकती है। अधिकतर वक्ता उम्रदराज़, उच्च शिक्षित, एनजीओ संचालक, सेवानिवृत्त या राजनीतिक कार्यकर्ता थे। खेती करने वाले लोगों की राजनीतिक और जागरूक जमात भी थी। हालांकि वक्ताओं में उनकी संख्या कम ही रही।
इसका नतीजा यह रहा कि अधिकतर लोग साम्राज्यवाद और बाजारवाद के साथ सत्ता के दमन पर केंद्रित होकर अपने विचार रखते रहे। पूर्वांचल की भौगोलिक स्थिति, खेती-किसानी की समस्याओं, किसानों के सांगठनिक ढांचे के स्वरूप और उनसे जुड़ाव की बुनियादी बातें अधिकतर वक्ताओं की राय में गायब रहा। इसके पीछे यह भी कारण हो सकता है कि अधिकतर वक्ता खेतिहर मजदूर और किसान नहीं थे। वे पूर्वांचल के किसानों की बुनियादी समस्याओं को जानते और समझते ही नहीं थे जिसकी वजह से उनकी बुनियादी समस्याएं उनकी चर्चा और रणनीति से बाहर रहीं। अंत में वहां मौजूद लोगों ने एक दिवसीय प्रदर्शन का निर्णय लेकर बैठक की सफलता का आगाज कर दिया।
बता दें कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब की तरह पूर्वांचल में खेती केवल दो या तीन फसलों की सीजनल खेती नहीं होती है। यहां अधिकतर किसान छोटी जोत वाले सीमांत और बंटाईदार किसान हैं जो मौसम के तापमान के आधार पर धान और गेंहू के अलावा गन्ना, सरसो, मटर, चना, जौ, मक्का, अरहर, उड़द, बाजरा आदि फसलों के अलावा बड़े पैमाने पर सब्जियों की खेती करते हैं। साथ ही वह किसी न किसी छोटे व्यवसाय में लगे हैं। जो किसान पूरी तरह से खेती पर निर्भर है, वह सब्जी की खेती करता है या पशुपालन करता है जिसकी वजह से वह और उसका परिवार अधिकतर समय अपने खेतों और पालतू जानवरों के बीच देता है।
पूर्वांचल में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के भारतीय किसान यूनियन या खाप पंचायतों जैसा किसानों या ग्रामीणों का सांगठनिक ढांचा भी नहीं है। यहां के किसानों का सांगठनिक ढांचा दो जगहों पर दिखाई पड़ता है जहां वे अक्सर मिलेंगे।
पहला, सहकारी समितियां, जहां उन्हें खाद, बीज और कुछ धनराशि सदस्य होने पर बतौर फसली कर्ज मिल जाती है और वे अपना अनाज यहां सरकारी दर पर बेच सकते हैं। हालांकि यहां पंजीकृत आधा किसान जरूरत के हिसाब से खुले बाजार में ही अपना अनाज बेचते हैं। एक और कारण है जिसकी वजह से वे अपना अनाज सहकारी समितियों में नहीं बेच पाते हैं, वह है प्रबंधन कमेटी के पदाधिकारियों और सचिवों की तानाशाही के साथ सरकार की पेचीदगियां। भाजपा की योगी सरकार ने सहकारी समितियों के नियंत्रण को किसानों से छीनकर नौकरशाहों को दे दिया है जिससे किसानों की दिक्कतें बड़े पैमाने पर बढ़ गई हैं। सहकारी समितियों के सचिव और सरकारी अधिकारी किसानों का बड़े पैमाने पर उत्पीड़न कर रहे हैं। ऑनलाइन खरीददारी की व्यवस्था का पूरा नियंत्रण नौकरशाहों के हाथ में है। सहकारी समिति का सचिव जब चाहता है, ऑनलाइन खरीद की सहकारी समितियों की सूची से गांव का नाम ही गायब कर देता है और अपनी सुविधा अनुसार रात को बारह बजे के बाद शुरू करता है और सुबह आठ बजे तक गांव का नाम गायब हो जाता है। गांव के अधिकतर किसानों के पास कंप्यूटर और लैपटॉप नहीं हैं। वे स्मार्ट फोन पर भी ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन करने में सक्षम नहीं हैं। वे अपना अधिकतर काम जन सेवा केंद्रों और निजी कंप्यूटर सेंटरों से कराते हैं जो सुबह के आठ बजे के बाद ही खुलते हैं। इसके अलावा भाजपा की योगी सरकार ने अभी बंटाईदार किसानों को सहकारी समितियों पर अनाज बेचने से प्रतिबंधित कर दिया। पहले ऐसा नहीं था। वे भी लेखपाल की रिपोर्ट पर तहसील प्रशासन की अनुमति के बाद सहकारी समितियों पर अनाज बेच सकते हैं। खाद की कालाबाजारी को लेकर भी किसानों में जबरदस्त गुस्सा है। इसके बावजूद बैठक में इन समस्याओं को लेकर किसानों को संगठित कर आंदोलन करने की रणनीति पर कोई चर्चा नहीं की गई। शायद ऐसा इसलिए हुआ होगा कि वहां मौजूद लोग पूर्वांचल के किसानों की तरह इन समस्याओं से रूबरू नहीं हुए।
दूसरा, सब्जी मंडियां और आढ़तें। किसान सुबह की पहर यहां सामुहिक रूप से मिलते हैं लेकिन वे सांगठनिक ढांचे से बाहर होते हैं। यहां सब्जी उगाने वाले किसान ही ज्यादा होते हैं। किसानों के सब्जियों की कीमत यहां आने वाले व्यापारियों पर निर्भर करती है। किसानों को यहां भी शोषण का शिकार होना पड़ता है। कभी-कभी तो उनकी लागत भी नहीं निकल पाती है। बैठक में मंडियों की चर्चा तो हुई लेकिन उन्हें संगठित करने की रणनीति पर कोई खास चर्चा नहीं हुई।
तीसरा माध्यम भी है। ग्राम पंचायत की बैठकें लेकिन वह होती बहुत कम है और गांव के अधिकतर किसान इन बैठकों में जाते ही नहीं हैं क्योंकि ग्राम पंचायतों के प्रति ग्रामीणों की समस्याओं के अनुसार नहीं अपने लाभ और चहेतों के अनुसार योजनाओं को बनाते और पास करते हैं।
पूर्वांचल में किसानों की समस्याएं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की समस्याओं से कहीं ज्यादा हैं लेकिन उनका कोई मुकम्मल संगठन नहीं होने की वजह से उनका गुस्सा और उनकी तकलीफें उनके और उनके परिवार तक सीमित हो गई हैं। पूर्वांचल में किसान संगठनों के नाम पर राजनीतिक पार्टियों के आनुषांगिक संगठन ही केवल काम कर रहे हैं, इसलिए किसानों का झुकाव भी इन संगठनों के प्रति अपनापन का नहीं है। संयुक्त किसान मोर्चा की पूर्वांचल इकाई की संरचना भी कुछ ऐसी ही दिखाई दे रही है। शायद इस वजह से पूर्वांचल में कोई बड़ा किसान आंदोलन खड़ा नहीं हो पा रहा है।
अगर संयुक्त किसान मोर्चा पूर्वांचल में बड़ा किसान आंदोलन को खड़ा करना चाहता है तो उसे किसान समर्थकों की जगह किसानों और जमीनी किसान नेताओं का प्रतिनिधित्व अपने सांगठनिक ढांचे में बढ़ाना होगा और आंदोलन की कमान उनके हाथों में देनी होगी।