याशी जैन ने पहले कभी ऐसा नहीं सोचा था कि पर्वतारोही बनना है, बस मन में कुछ अलग करने की इच्छा थी जैसा कि पढ़ाई के समय अनेक बच्चे सोचते हैं। उसने रायगढ़ छतीसगढ़ से स्कूलिंग करने के बाद इंजीनियरिंग की पढाई के लिए एग्जाम दिया और कंप्यूटर साइंस में बीटेक करने के लिए भुनेश्वर के कलिंगा यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिया। उसने बताया कि कंप्यूटर साइंस में लड़कियों के लिए नौकरी करना थोड़ा सुविधाजनक होता है मतलब सेफ ज़ोन को ध्यान में रखते हुए इस विषय का चयन किया। लेकिन एक सच्ची कहानी ने उनकी ज़िंदगी की सारी सोच और निर्णयों के रास्ते बदल दिए।
याशी जैन से मेरी मुलाकात रायगढ़ इप्टा के एक कार्यक्रम में हुई जहां उन्हें विशेष अतिथि के रूप में बुलाया गया था। कार्यक्रम खत्म होने के बाद याशी से बातचीत के लिए एक दिन तय किया और तय समय से पौन घंटे देर से उनके घर पहुंची जहां वे इंतजार कर रही थीं। बहुत ही सहज माहौल में अनौपचारिक बातचीत हुई। उसने बताया कि परसों यानि 29 जनवरी को वे दक्षिण अमेरिका के लिए निकल रही हैं । जहां वे दक्षिण अमेरिका की सबसे ऊंची चोटी माउंट अकोन्कागुआ जिसकी ऊंचाई 6000 मीटर पर है पर 2 फरवरी से चढ़ाई शुरू करेंगी।
माउंट एवरेस्ट फतह करने वाली पहली दिव्यांग महिला अरुणिमा सिन्हा याशी की प्रेरणास्रोत हैं। याशी जैन ने बताया कि उसे पर्वतारोहण जैसे एडवेंचर में आने की प्रेरणा अरुणिमा सिन्हा की कहानी पढ़ने के बाद मिली। उन्होंने बताया कि 2015 की बात है, जब वे 12वीं पास करने के बाद बिलासपुर इंजीनियरिंग के एन्ट्रन्स एक्जाम देने गईं। परीक्षा देने के बाद अपने पापा अखिलेश जैन के साथ उनके मित्र के यहाँ गई थीं। वहाँ उसने एक मैगजीन में अरुणिमा सिन्हा के साहस और संघर्ष की कहानी पढ़ी। पढ़ने के बाद अपने पिता (अखिलेश जैन, जो पंजाब नेशनल बैंक में कार्यरत हैं) से कहा कि वह भी ऐसा ही कुछ करना चाहती हैं। आपको बता दें कि ये वही अरुणिमा सिन्हा है जिनके साथ सन 2011 में एक घटना घटी। वे अंबेडकरनगर से दिल्ली अपनी नौकरी के इंटरव्यू के लिए जा रही थीं। ट्रेन में कुछ लड़के, सवारियों से सामान छीन रहे थे और अरुणिमा से उनकी सोने की चैन छिनना चाहे, जिसका उन्होंने मुकाबला किया और जिसके परिणामस्वरूप उन्हें चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया और दूसरी पटरी पर आ रही ट्रेन से उनका एक पैर कट गया। उसके बाद ज़िंदगी में संघर्ष करते हुए नकली पैर के साथ माउंट एवरेस्ट फतह किया। याशी ने अरुणिमा की कहानी पढ़ी और उनका मन बेचैन हो गया और एक रास्ता मिला कि जो एक पैर के सहारे दुनिया की सात महद्वीपों के सबसे ऊँची चोटियों (सेवन समिट) को फतह कर सकती है, तब मैं भी कुछ अलग कर सकती हूँ, बस मन में निश्चय करना जरूरी है। आपको बता दें कि अरुणिमा सिन्हा के नाम सेवन समिट फतह करने का रिकार्ड है।
“मैंने भी तय किया कि दुनिया के सात महाद्वीपों की सबसे ऊंची चोटी जिसे सेवन समिट कहते हैं को फतह करना है। इसके बाद मेरे मन में कभी किसी और काम को करने का विचार नहीं आया, हाँ बीटेक करने के बाद मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी मिली लेकिन वहाँ मेरा मन नहीं लगा क्योंकि वहाँ काम में कोई रिस्क नहीं था। यह सच है कि जोखिम वाले काम कर लेने के बाद आराम वाले काम में वह आनंद नहीं आता।”
अरुणिमा सिन्हा की कहानी को पढ़कर याशी ने कुछ अलग करने का फैसला किया और अपनी बात घर वालों के सामने रखी। 2015 में जब यह बात याशी के मन में आई तब तक उन्हें माउंटियरिंग का कखग भी नहीं मालूम था लेकिन पिता अखिलेश जैन ने अनेक माध्यमों से ट्रैकिंग का पता किया। क्योंकि आज से 6-7 वर्ष पहले आज की तरह गूगल सर्च इंजन नहीं था कि सारी जानकारी उससे हासिल हो पाती। हालांकि फोन तो था लेकिन जानकारी के अभाव में थोड़ी मशक्कत करनी पड़ी। तब जाकर एचएमआई याने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के बारे में पता लगा और 2015 में कराए रजिस्ट्रेशन के पूरे एक साल बाद ट्रैकिंग करने का नंबर मिला और इसके लिए बीस हजार रुपये फीस लगी। 2016 की अप्रैल-मई की छुट्टियों में एक माह के बेसिक माउंटियरिंग कोर्स के लिए दार्जिलिंग गई। उन्होंने बताया कि मेरे बैच में पूरे देश से 17 से 50-55 वर्ष की 50-60 लड़कियां/महिलायें थींl यह ट्रेनिंग भारत सरकार और आर्मी के जवान देते हैं। हालांकि घर वालों ने शौकिया तौर पर ट्रैकिंग के लिए भेजा था कि छुट्टियाँ हैं तो इसका सदुपयोग कर लो। एक माह की ट्रेनिंग थी। लेकिन वहाँ जाने पर मुझे जैसे उड़ने के लिए खुला आसमान मिल गया।
इसके पहले पहाड़ों पर चढ़ने का उनका कोई अनुभव नहीं था, उनसे जब मैंने पहली बार के ट्रैकिंग ट्रेनिंग के अनुभव के बारे पूछा तो उसने हँसते हुए कहा कि बेसिक ट्रेनिंग कैम्प में सुबह 4.30-5.00 बजे जागना होता था और पहले तो एक हफ्ते दार्जिलिंग में ही फिज़िकल एक्सरसाइज और बाकी ट्रेनिंग हुई। लेकिन जैसे ही ट्रैकिंग शुरू हुई उसके बाद रोज 8 से 10 घंटे 15 किलोग्राम का बैग पीठ पर ढोते हुए चलना पड़ता था। यह मैदानी इलाके में सामान्य ज़िंदगी जीने वाले के लिए मुश्किल भरा होता है। क्योंकि पहाड़ों और मैदानी भाग के मौसम और जीवनचर्या में जमीन-आसमान का अंतर होता है। याने दोहरी मेहनत। लेकिन मैं शुरू से खेलों में हिस्सा लेती रही तो मुझे इतनी दिक्कत नहीं आई। तब भी कभी-कभी थकान होने पर मन में आता कि क्यों इतना कठिन काम करना चाहती हूँ, आराम से बीटेक करते हुए किसी अच्छी कंपनी में नौकरी मिल जाएगी। लेकिन यह बात क्षणिक होती थी। अरुणिमा सिन्हा की कहानी पढ़ने पर मुझे कुछ अलग करने का एक जुनून और पागलपन सा हो गया था। लेकिन फिर भी कभी-कभी ऐसा लगता कि कर पाऊँगी तय नहीं था।
पहाड़ों में रोज 8 से 10 किलोमीटर ट्रॅकिंग कर ग्लेशियर पर पहुंचने के बाद बाद रात में बेस कैम्प में जो कभी टूटे-फूटे घर में या कभी टेंट होता में सोना होता था। 50-60 लड़कियां थीं। स्लीपिंग बैग में सभी एक करवट सोते और जब कोई एक करवट बदलता तब बाकी लोग करवट बदलते क्योंकि ठंड होने और पर्याप्त जगह न होने के कारण चिपक-चिपक कर सोना पड़ता। खाने के बाद जब ग्लेशियर के पानी से अपना-अपना टिफिन धोते तो उँगलियां नीली पड़ जाती थीं। सामान ढोते हुए बर्फ पर चलना आसान नहीं था। ट्रैकिंग करते हुए कभी आपको डर लगा या कोई दुर्घटना हुई जिससे आप डरी हों? तब उसने कहा कि मुझे तो कुछ नहीं हुआ लेकिन मेरे ग्रुप में कई लड़कियां ऐसी थीं जिन्हें चोट लग गई थी, मौसम के चलते वे थक गई थीं, हार मान ली थीं। कुछ तो आधे रास्ते ही वापस हो गईं। वहाँ बताए हुए पैटर्न पर चलना और खुद पर आत्मविश्वास बनाए रखना बहुत जरूरी है। रोज 8-10 घंटे चलते हुए 7-8 किलोमीटर की दूरी ही तय कर पाते थे क्योंकि चढ़ाई का रास्ता कैसा है इस पर निर्भर करता था।
“एडवांस कोर्स कर लेने के बाद कोई पहड़ों की ऊंची चोटी पर चढ़ाई के लिए पेरफ़क्ट है, ऐसा सोचना एकदम गलत है बल्कि इसके लिए हमें लगातार पहाड़ों के करीब रहते हुए अनुभव हासिल करते रहना होता है।”
लेकिन एक माह बाद ट्रैकिंग से वापस आने के बाद अपने घर और शहर में बहुत शोर सा लगने लगा। वहाँ प्रकृति के करीब रहते हुए, जो मैंने महसूस किया वह बहुत ही अद्भुत था। साथ ही एक महीने तक फोन पर भी किसी से बात नहीं हुई क्योंकि फोन में नेटवर्क ही नहीं रहता था। कभी किसी की याद आने पर उन्हें महसूस किया और अपनी डायरी में उन बातों को दर्ज कर लिया। लेकिन जब वापसी पर फोन उपयोग किया तो बहुत ही इरिटेशन होने लगा, तब महसूस हुआ कि फोन ने कैसे हमारे जीवन को अनुशासनहीन दिया है लेकिन आज जब सभी काम उसी से हो रहे हैं तो वह जरूरी भी हो गया है।
पहली बार आइसलैंड पीक समिट करने बाद चोटी पर याशी जैन
हम लोगों का कैम्प हर दिन बदलता था क्योंकि रोज आगे ही बढ़ना होता था। बेस कैम्प पहुंचकर रुकते और आगे ग्लेशियर तक पहुँचने के लिए चलते। दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित ग्लेशियर तक पहुँचने में चार-पाँच घंटे लग जाते। ऊबड़-खाबड़ बर्फ़ीला रास्ता, उस पर आक्सीजन की कमी। दिक्कत होती थी। बेसिक ट्रेनिंग में जब ग्लेशियर ट्रेनिंग होती है तब हमें एक पीक क्लाइंब करना होता है। असल में पीक पर चढ़ना ट्रेनिंग का अंतिम हिस्सा होता था। किसी चोटी को फतह करने का यह मेरा पहला अनुभव था। इसके लिए रात में चलना शुरू किए थे और सुबह छ: बजे वहाँ पहुंचे। जब वहाँ पहुंचे तब सूर्योदय हो रहा था, जिसे देखना एक खास अनुभव था। वहाँ पहुँचकर मैंने अनुभव किया कि पहले जब भी मैं पहाड़ की ऊंचाइयों को देखती थी तो बहुत मुश्किल लगता था लेकिन एक-एक कदम आगे बढ़ते जाने पर लगता है मुश्किलें उतनी बड़ी नहीं होती जितनी हमें दिखाई देती हैं। इसे मैं किसी भी व्यक्ति के जीवन से जोड़ती हूँ तो लगता है कि ज़िंदगी की मुश्किलें पहाड़ जैसे होती हैं लेकिन उतनी नहीं जितना हम समझते हैं। उसका हल निकालने के लिए आगे बढ़ना चाहिए न कि घबराकर हथियार डाल देना चाहिए। किसी भी समिट में पहुँच जाने के बाद एक बात तो समझ आई कि जो भी हासिल किया वह अपने मानसिक और शारीरिक क्षमता की वजह से ही किया। यदि पहाड़ की ऊंचाइयों से डर जाती तो लक्ष्य तक पहुंचना मुश्किल होता।
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एक माह बाद बेसिक ट्रैनिंग से वापस आने के बाद मैंने एडवांस कोर्स करने का मन बनाया और इसके लिए एक वर्ष बाद 2017 के अप्रैल-मई में मैंने उत्तरकाशी में नेहरू इंस्टिट्यूट ऑफ़ माउंटीयरिंग (एनआईएम) में एडमिशन लिया। एडवांस कोर्स में आने के बाद एक नया उत्साह था क्योंकि इसका एक अनुभव मुझे मिल चुका था। दोनों ट्रैकिंग में कोई ज्यादा अंतर नहीं था, बस एडवांस कोर्स में कुछ नई तकनीकें सिखाई गईं। यहाँ हम 40 से 45 लड़कियां थीं। यहाँ की चोटी 5900 मीटर की थी। इस ग्लेशियर का नाम डोकरानी बाबा ग्लेशियर था। वहाँ से नीचे आने के बाद भी मैं कन्फ्यूज़ थी आखिर मुझे करना क्या है? बहुत से लोगों से बात हुई कि सबका अपना एक लक्ष्य था, किसी का लक्ष्य सेवन समिट करना था तो कोई पूरी दुनिया के आठ हजार मीटर से ज्यादा 14 पहाड़ हैं उन पर चढ़ना हैं। तब मुझे भी अपना लक्ष्य हासिल करने में मदद मिली और मैंने भी तय किया कि दुनिया के सात महाद्वीपों की सबसे ऊंची चोटी जिसे सेवन समिट कहते हैं को फतह करना है। इसके बाद मेरे मन में कभी किसी और काम को करने का विचार नहीं आया, हाँ बीटेक करने के बाद मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी मिली लेकिन वहाँ मेरा मन नहीं लगा क्योंकि वहाँ काम में कोई रिस्क नहीं था। यह सच है कि जोखिम वाले काम कर लेने के बाद आराम वाले काम में वह आनंद नहीं आता। यही मेरे साथ भी हुआ और फिर मैंने अपने घर वालों से बात की और उन्होंने भी यही कहा कि जिस काम में रुचि है वह करो। ज़िंदगी एक बार मिली है, बाद में यह अफसोस न हो कि मनपसंद काम नहीं किया। उसके बाद मैंने नौकरी से इस्तीफा दिया और पूरी तरह इस काम में लग गई। मैंने लक्ष्य ठाना सेवन समिट पर अपने देश का तिरंगा लहराना है। एक बात यहाँ कहना चाहूँगी कि एडवांस कोर्स कर लेने के बाद कोई पहाड़ों की ऊंची चोटी पर चढ़ाई के लिए पेरफ़क्ट हो गया है, ऐसा सोचना एकदम गलत है बल्कि इसके लिए हमें लगातार पहाड़ों के करीब रहते हुए अनुभव हासिल करते रहना होता है। इसी अनुभव के लिए सबसे पहले मैंने दिसमबर 2017 में एवरेस्ट के बेस कैम्प ( बेस कैम्प एक तरह से चोटी की नींव होता है एवरेस्ट के बेस कैम्प की ऊंचाई 5500 मीटर थी) की ट्रॅकिंग की। इसे करने के बाद 2018 में भारत की सबसे ऊंची चोटी माउंट जोगिन-3 (Mount jogin-3, गंगोत्री में) जो 6116 मीटर की ऊंचाई पर है को फतह किया।
सेवन समिट में यूरोप की ऊंची चोटी एल्ब्रस पर चढ़ते हुए
8849 मीटर ऊंची इस चोटी पर हम लोगों ने 8049 मीटर की चढ़ाई सफलतापूर्वक कर ली थी। हम उत्साहित थे कि जल्द ही हम चोटी पर पहुँच तिरंगा फहराएंगे। लेकिन मौसम से साथ नहीं दिया। उस वर्ष कुछ दिनों के अंतराल से बंगाल की खाड़ी और अरब सागर की तरफ से दो साइक्लोन आए। उसका प्रभाव माउंट एवरेस्ट पर भी दिखाई दिया। मौसम अचानक इतना खराब हो गया कि हम आगे बढ़ना मुश्किल हो गया। मात्र 800 मीटर की दूरी बाकी थी। कैम्प फोर तक पहुँच चुके थे। वहाँ से चोटी दिखाई दे रही थी लेकिन मौसम की वजह से हम वापस अपने बेस कैम्प में आ गए।”
2019 में ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद सेवन समिट में पहले समिट की शुरुआत मैंने यूरोप से की। जुलाई 2019 में पहली बार सेवन समिट का पहला लक्ष्य यूरोप की सबसे ऊंची चोटी माउंट एल्ब्रस को फतह किया। इसकी ऊंचाई 5642 मीटर है। इसे पहले ही प्रयास में पाँच दिनों में चढ़कर फतह कर लिया। इसके बाद मुझे एक मजबूती और आत्मविश्वास मिला।
यूरोप की चोटी एल्ब्रस पर पहुँचने के बाद
अब मेरा लक्ष्य दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट था। अप्रैल 2021 में दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई शुरू की। इस चढ़ाई में कम से कम 45 दिन और अधिकतम 60 दिन लगते हैं। ऊंचाई तो है ही ज्यादा लेकिन रास्ता भी बहुत कठिन और दुर्गम है। एवरेस्ट पर चढ़ाई के लिए अप्रैल-मई का महीना सबसे अच्छा होता है हालांकि मौसम कभी भी बदल सकता है, यह हमारे साथ भी हुआ। हमारे ग्रुप में बारह लोग थे और अलग-अलग कंपनी में पूरी दुनिया से लगभग 200 से 250 लोग थे। 8849 मीटर ऊंची इस चोटी पर हम लोगों ने 8049 मीटर की चढ़ाई सफलतापूर्वक कर ली थी। हम उत्साहित थे कि जल्द ही हम चोटी पर पहुँच तिरंगा फहराएंगे। लेकिन मौसम ने साथ नहीं दिया। उस वर्ष कुछ दिनों के अंतराल से बंगाल की खाड़ी और अरब सागर की तरफ से दो साइक्लोन आए। उसका प्रभाव माउंट एवरेस्ट पर भी दिखाई दिया। मौसम अचानक इतना खराब हो गया कि हमारा आगे बढ़ना मुश्किल हो गया। मात्र 800 मीटर की दूरी बाकी थी। कैम्प फोर तक पहुँच चुके थे। वहाँ से चोटी दिखाई दे रही थी लेकिन मौसम की वजह से हम वापस अपने बेस कैम्प में आ गए। थोड़ा इंतजार किये उसके बाद एक हफ्ते हमने रेस्ट कर रिकवर किया, उसके बाद मौसम ठीक होने के बाद हम फिर चढ़ना शुरू किए और कैम्प थ्री तक ही पहुँच पाए थे कि दूसरा साइक्लोन आ गया और हमें चढ़ाई पूरी तरह से रोकनी पड़ी और वापस नीचे आना पड़ा।
इसके बाद हमारा शरीर इतना थक चुका था कि उसे रिकवर होने के लिए महीनों का समय चाहिए था। क्योंकि जैसे-जैसे ऊपर जाते हैं ऑक्सीजन वैसे-वैसे कम होती जाती है और 5000 मीटर से ऊपर तो बहुत दिक्कत होने लगती है। उस समय दो बार हम लोगों ने कोशिश की लेकिन तीसरी कोशिश सबके लिए घातक हो सकती थी क्योंकि ऑक्सीजन की कमी और बर्फीले मौसम की मार से हमारा शरीर इतना थक चुका था। यह 800 मीटर मात्र बारह घंटे की दूरी पर था। लेकिन संभव नहीं हो सका। आपको बताएं कि एक दिन पहले एक ग्रुप ने समिट तक पहुँचने की कोशिश की। खराब मौसम में वे लोग बाहर तो निकल गए लेकिन बर्फीली हवाओं के कारण उस टीम के एक सदस्य की बॉडी मौसम की मार सहन नहीं कर पाया और उसे हार्ट अटैक आया और वह वहीं खतम हो गया। इन सब बातों की सतर्कता रखते हुए हम लोग नीचे आ गए।
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आखिर कब तक बुनकर सामान्य नागरिक सुविधाओं से वंचित किए जाते रहेंगे?
वैसे तो सभी अनुभवी और योग्य शेरपा के दिशा निर्देशन में ही माउंट एवरेस्ट पर चढ़ते हैं। क्योंकि इन शेरपाओं को यहाँ के ट्रैक की पूरी जानकारी होती है और जिन रास्तों को वे तय करते हैं या रस्सी द्वारा चिन्हित करते हैं उन पर ही चलना होता है। ये सभी शेरपा नेपाल के ही होते हैं। यहाँ एक महत्त्वपूर्ण बात कि पूरी दुनिया से लोग एक बार या दो बार माउंट एवरेस्ट फतह करने आते हैं लेकिन ये शेरपा अनेक बार चढ़ते हैं। याशी ने बताया कि कामी रीता शेरपा ने 26 बार एवरेस्ट समिट कर अपने ही वर्ल्ड रिकार्ड को ध्वस्त किये हैं।
“बीटेक करने के बाद मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी मिली लेकिन वहाँ मेरा मन नहीं लगा क्योंकि वहाँ काम में कोई रिस्क नहीं था। यह सच है कि जोखिम वाले काम कर लेने के बाद आराम वाले काम में वह आनंद नहीं आता। यही मेरे साथ भी हुआ और फिर मैंने अपने घर वालों से बात की और उन्होंने भी यही कहा कि जिस काम में रुचि है वह करो। ज़िंदगी एक बार मिली है, बाद में यह अफसोस न हो कि मनपसंद काम नहीं किया।”
याशी ने बातचीत में अपने अनुभव शेयर करते हुए बताया कि जब वे लोग कैम्प दो में रुके हुए थे तब सामने की एक पहाड़ी में एवलांच (हिमस्खलन) आता दिखा, उस दिन तो लगा कि अब सब खत्म। वह एवलांच हमारे कैम्प की तरफ ही आ रहा था लेकिन पहुँच नहीं पाया क्योंकि हमारा कैम्प थोड़ा ऊंचाई पर था। तेज हवा के कारण उसकी बर्फ और तेज हवा की मार हम तक आई और हमारे टेंट को क्षतिग्रस्त कर दिया। लेकिन यह अच्छा रहा कि किसी को कोई चोट नहीं लगी। दूसरा भयानक अनुभव हुआ जब हम माउंट एवरेस्ट के कैम्प फोर से खराब मौसम की खराबी के कारण वापस आ रहे थे, उस समय रात भर स्नो फाल हुई थी और ताजी बर्फ पर चलने से पैर फिसल रहे थे और खड़ी चढ़ाई से नीचे उतरना था एकदम खतरनाक फिसलपट्टी जैसी। पैर तो फिसल रहे थे। रस्सी पकड़कर बहुत ही सावधानी से उतर रहे थे। मैंने यह अनुभव किया कि एक छोटी सी लापरवाही मुझे अगल-बगल दिख रहे गड्ढे में पहुँचा सकती है और वहाँ पहुँचने के बाद बॉडी मिलना भी नामुमकिन था। यह ख्याल मुझे बहुत भयभीत कर रहा था। तब मन में जरूर आया कि बस यह आखिरी, इसके बाद पर्वतारोहण नहीं करना। वहाँ कोई दुर्घटना होने पर कोई किसी के लिए नहीं होता क्योंकि स्थिति ऐसी होती है चाहकर भी कोई कुछ नहीं कर सकता, यहाँ खुद की हेल्प स्वयं करनी होती है।
लगातार कठिन चढ़ाइयों को चढ़ते हुए कभी-कभी किसी के साथ एक समय ऐसा आता है कि दिमाग काम करना बंद कर देता है और हेलूसनशन (मतिभ्रम) की स्थिति पैदा हो जाती है जो बहुत ही खतरनाक होती है। लगातार बर्फ और ठंड के कारण कभी-कभी दिमाग में पानी भर जाता है और जो नहीं होता वह उसे दिखाई देने लगता है। ऐसी ही दुर्घटना के बारे में हमें मालूम हुआ कि एक युवा ने समिट तक पहुँच फतह कर ली थी लेकिन बॉडी और दिमाग इतना अनियंत्रित हो गया था कि उसने अपनी रस्सी खोलकर नीचे छलांग लगा दी। ऑक्सीजन की कमी से भी सोचने-समझने की स्थिति जवाब दे देती है। यह सब सुनकर और सोचकर लगा कि इसके बाद और नहीं लेकिन सुरक्षित नीचे पहुँचने पर सामान्य हो जाने के बाद अगला लक्ष्य फिर तय किया। ऐसा समझ आया कि पहाड़ों पर चढ़ना तो जोखिम भरा है बस सावधानी रखना और खुद पर नियंत्रण रखना जरूरी है। हमने बेस कैम्प में एक हफ्ते रुकने के बाद दुबारा चढ़ाई शुरू किए लेकिन कैम्प तीन तक पहुँचने के बाद दूसरा साइक्लोन आया और हमें आगे चढ़ने की योजना रद्द कर वापस नीचे आ गए। यहाँ बाहरी स्थितियों के साथ अंदरूनी स्थितियों से भी लड़ना जरूरी है और खुद को मजबूत बनाए रखना।
इसके बाद मैंने सेवन समिट का दूसरी योजना साउथ अफ्रीका की सबसे ऊंची चोटी किलिमींजरों को फतह करने की बनाई। याशी ने 2 अकटूबर 2022 में किलिमींजरों पर भारत का तिरंगा लहराने के बाद उन्होंने कहा शांति और सद्भावना के लिए गांधीजी और महावीर बुद्ध के बताए हुए रास्ते पर चलना होगा।
मुझे कुछ अलग करना था, इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैंने इस माउंटियरिंग जैसे एडवेंचर की शुरुआत की थी लेकिन इसे करते हुए मुझे लगने लगा कि हमारे देश में लड़के-लड़कियों में जितना भेदभाव होता है, जिसके कारण लड़कियों को अलग करने की अनुमति नहीं मिलती या मिलती भी है तो बहुत मुश्किल से। उन्हें सरल और सहज रास्ते पर जो थोड़ा सुरक्षित हो उस पर ही चलने की सलाह दी जाती है लेकिन मेरा कहना कि आज के इस माहौल में जहां महिलायें असुरक्षित महसूस करती हैं। ऐसे समय में उन्हें आत्मरक्षा के लिए सबसे पहले तैयार करना होगा क्योंकि यदि वे शारीरिक रूप से मजबूत होंगी तब ही उनमें आत्मविश्वास आएगा और समाज में उन पर रोकटोक कम होगा। उन्हें कुछ अलग और मनचाहा करने का स्पेस मिलेगा। लड़के या पुरुषों की सोच में बदलाव लाना भी जरूरी है। जैसे अक्सर लड़कियों के लिए अभियान चलाया जाता है वैसे ही लड़कों की मानसिकता और सोच बदलने के लिए लगातार अभियान चलाया जाना जरूरी है।
माउंट एवरेस्ट पर चढ़ते हुए रुकने के बनाए गए टेंट
किलिमींजरों से वापस आने के बाद बहुत से माता-पिता और बहुत सी लड़कियों के फोन आए और बहुत से लोग मुझसे मिलने भी आए। उन सभी ने इसी तरह से कुछ अलग करने की मंशा जाहिर की। मैंने यही बात सभी से कही कि जीवन में जो कुछ भी अच्छा करना चाहते हैं उन्हें प्रोत्साहित करें विशेषकर लड़कियों को क्योंकि हमारे यहाँ उन्हें हमेशा कम स्पेस दिया जाता है। लेकिन लड़कियों से भी एक बात कहना चाहूँगी कि कुछ करना है तो खुद के लिए संघर्ष करना होगा, खुद के लिए लड़ना होगा और आत्मविश्वास पैदा करना होगा क्योंकि अधिकतर समय हमें हाथ पकड़कर कोई चलाने वाला नहीं होगा।
याशी ने बताया कि स्कूल में वे पढ़ाई में हमेशा औसत रही लेकिन बास्केटबॉल, बैडमिंटन और खो-खो की अच्छी खिलाड़ी रहीं। कुछ अलग करने और बेहतर करने के लिए उनका मन हमेशा बेचैन रहा लेकिन कभी रास्ता नहीं सूझा। अरुणिमा सिन्हा की कहानी पढ़ने के बाद कुछ अलग करने का मन हुआ लेकिन पहाड़ों की ऊंची चोटी पर पहुँच सकती हूँ, यह कभी मन में नहीं आया। हाँ कॉलेज में उन्होंने एनएनसी जॉइन की थी और उसमें वे रिपब्लिक डे (आरडीसी) की परेड में शामिल हुईं।
उन्होंने अपनी बात खत्म करते हुए यह जरूर कहा कि पर्वतारोहण एक कठिन और मुश्किल भरा काम है। इसमें पर्वतारोही को मानसिक और शारीरिक रूप से मजबूत बनना पड़ता है। जो स्वयं से किया जा सकता है लेकिन पर्वतारोहण एक महंगा शौक है। यह ऐसा शौक है जहां लाखों रुपये खर्च होते हैं। जो हम जैसे मध्यम परिवार के लिए बहुत मुश्किल होता है। जब मैंने यह तय किया तो पापा ने यह तो जरूर कहा कि तुमको यही करना है तो यही करो। लेकिन इसके लिए उन्होंने बैंक से कर्ज लिया। एक समिट के लिए 8 से 10 लाख रुपये तो चाहिए और माउंट एवरेस्ट की एक चढ़ाई पर 28-30 लाख रुपये लगते हैं। यह हर बार संभव नहीं हो सकता। छतीसगढ़ सरकार ने मुझे एक बार दस लाख रुपये दिए थे लेकिन यहाँ कोई ऐसी कम्पनी और संस्था नहीं है जो हम जैसे लोगों को स्पोन्सर करे। मध्य प्रदेश सरकार हर वर्ष दो पर्वतारोहियों को 15 लाख रुपये का सहयोग करती है। राजस्थान और हरियाणा सरकार भी अपने पर्वतारोहियों को सुविधाएं और नौकरी उपलब्ध कराती है। मेरा यही कहना है कि सरकार पर्वतारोहियों को सहयोग और गाइड करे तो हमारे छतीसगढ़ से बहुत लोग इस क्षेत्र में आगे आएंगे।
फिलहाल याशी जैन दक्षिण अमेरिका की सबसे ऊंची चोटी माउंट अकोन्कागुआ को फतह करने के अभियान की शुरुआत कर चुकी हैं। जल्द ही अपने लक्ष्य पर सफलता प्राप्त करें, गाँव के लोग की टीम की तरफ से उन्हें हार्दिक शुभकामनाएं।
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