मेरा गांव
सोन नद की बांहों में
विचारों में उलझी
मेरी महबूबा सा..…
कभी गांव को लेकर मैंने एक लंबी कविता लिखी थी। यह कविता मेरे आलोचकीय विवेक पर खरी नहीं उतरने के चलते काफी दिन रखी रहने के बाद नष्ट कर दी गयी। अतिरिक्त रोमान को दर्शाती ये पंक्तियां चाहे कविता के नाम पर बकवास हों पर गांव के प्रति मेरे रवैये को स्पष्ट करती हैं। मेरा गांव हमेशा से मुझे प्रिय रहा है। गांव की याद आते ही जो पहला दृश्य है वह उस ढलान का है जो सोन नद पर बने बांध के बीच से मेरे गांव की ओर उतरती है। कुल्हड़िया, चांदी, अखगांव होते बस जब रेपुरा-चिल्होस के खेतों को पार करती तो निगाहें जिस पहले प्रतीक से गांव के नजदिकाने की खबर पातीं वह अंसारी की कब्र है। बांध की ओर चढ़ती सड़क पर नीले रंग की यह कब्र डॉ.अंसारी की है, जो बचपन में संदेश थाने के अपने क्लिनिक से बुखार आदि में कभी-कभार घर आकर भी देख जाते थे। इसी के पास एक गड्ढा है जिसे गांव में बड़का गड़हा पुकारा जाता है। इसे चर्चा में बुरी जगह के रूप में याद किया जाता है। उस समय मैं छोटा था तब याद है कि शाम के छह बजे के आस-पास डाकू-डाकू का शोर सुनकर जब मैदान की ओर भागा तो, पहुंचते-पहुंचते आस-पास के गांवों से शोर गुल पर जुटे लाठी बल्लम धारी लोगों ने दो अलग-अलग जगहों पर दो लोगों को घोड़ों से खींच कर पीट-पीट कर मार डाला था। बाद में पुलिस आयी थी और मृतक को लाठियों पर रस्सी के सहारे बांध- बूंध कर ले गयी थी।
ऐसी ही घटनाओं के चलते यह जगह खतरनाक मानी जाती है। आस-पास ताड़ के पेड़ हैं जिससे उतारी गयी ताड़ी पीने के लिए लोग यहां शाम को जुट जाते हैं। अब विकास के साथ चीजें बहुत बदली हैं, अब पाउच वाली दारू गांवों में भी उपलब्ध होने के कारण ताड़ी का जोर घटा है। इस गड़हा के बाद आगे बड़के पेड़ के आगे बसें रूकती हैं, आरा पटना से आयी सवारियों को उतारने के लिए। यहां एकाध साइकल में हवा भरने की दुकान हुआ करती है जो जैसे-तैसे चलती है। इस दुकान के आगे गांव की ओर ढलान जहां से गिरती है वहां, अब झंडा फहराने के लिए, जैसा स्कूल आदि में गोलाकार चबूतरा होता था वैसा ही एक दस-बारह सीढियों वाला चबूतरा बना है जिस पर राधा-कृष्ण की गाय पर सवार मूर्ति गांव के अहीर जाति के लोगों ने लगा दी है। धीरे-धीरे यह एक बैठका में बदल गया है। पास ही लोगों के सुस्ताने के लिए चार खंभों पर टिका एक खुला ओसारा बना दिया है जिस पर गांव से नदी की ओर आते जाते लोग कुछ देर टिक कर बतियाते हैं और शाम में कुछ लोगों का यहां बैठका लगता है। इस साल देखा कि वहीं पास ही सड़क के पार एक छोटी सी गुम्ती नुमा दुकान में समोसा और चाय मिलने लग हैं।
गाँव लगातार बदल रहे हैं
यह सारा विकास पिछले दस पंद्रह सालों का है। पहले लंबे समय से मुखिया उंची जाति के होते थे तब तक यहां कुछ नहीं था। सत्ता का केंद्र तब मठिया था। फिर नक्सल आंदोलन और अन्य चेतन प्रक्रियाओं ने लोगों को अन्य सत्ता केंद्रों को खड़ा करने को प्रेरित किया। बचपन में जब मैं गावं आता था तो याद है मुड़िकटवा का जोर था। हमें समझ नहीं आता था पर नक्सली लोगों को ही उस समय इस संबोधन से पुकारा जाता था। फिर एक मिलिट्री ऑपरेशन के बाद नक्सल जोर घटा था ओर वे लोग सोन पर पटना के इलाकों में फैल गए थे। उसी समय सहरसा सेंट्रल लाइब्रेरी से लेकर मैंने एक किताब पढ़ी थी ‘नक्सलिज्म इन द प्लेन्स आफ बिहार’। इस किताब में अपने थाने संदेश का नाम देखकर मैं इसे घर ले आया था। फिर पढ़के मैंने जाना कि कैसे इलाके के दबे लेागों ने सामंती जमातों से मुकाबला किया। अब देखा जाए तो मान-सम्मान के मामले में गांव वही नहीं रहा। दलित व पिछड़ी जातियों के प्रति लोगों का रवैया बदला। हालांकि उनकी आर्थिक हालत में तो कोई फर्क नहीं आया पर दबंगइ तो गयी।
[bs-quote quote=”दरअसल मुझे खबर नहीं थी कि अरसा पहले ही सवर्ण की जगह पिछड़ी जाति का मुखिया बन गया है, मेरे कहने का मतलब पिछले सवर्ण मुखिया से था। गांव गया तो पता चला कि यहां तो अरसा से मुखिया अति पिछड़ी जाति का है। और उसके बेटे ने दूसरी पिछड़ी जाति की लड़की को काट दिया क्योंकि लडकी उससे शादी को तैयार नहीं थी। तो पिछड़ी जाति का सत्ताधारी परिवार तो अत्याचार में सवर्ण से दो कदम आगे निकल गया। बाद में बेटे की करतूत के चलते बाप की मुखियागिरी गयी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
पिछले और निचले वर्ग के लोगों ने ढलान के पास वाली उंची जगह पर अपने देवता कृष्ण-राधा को स्थापित किया। फिर उस देवता का पराक्रम जब बढ़ा तो उंची जाति के मुखिया की जगह अति पिछड़ा वर्ग के मुखिया ने ली। बैल की जगह ट्रैक्टरों ने ले ली, ये ट्रैक्टर ज्यादातर सवर्ण लोगों के हाथ में ही हैं। आर्थिक समानता के बिना केवल वोट की राजनीति से यही होता है कि दलित भी सवर्ण होने या दिखने को अपना आदर्श बनाते हैं और बस उनका रूपांतरण हो जाता है जो पहले भी इसी तरह होता रहा है। इतिहास की बहुत सी सवर्ण जातियां आर्थिक हीनता के कारण दलित हो गयीं। श्रीकांत की किताब में इसके बारे में जानकारी है। अंबेडकर ने भी लिखा है कि दलित पहले क्षत्रिय थे। अत्याचारी होने के चलते ब्राह्मणों ने उन्हें जाति विरादरी से बाहर कर दिया और कालक्रम में वे दलित होते गये।
इस लिये मुखिया के दलित पिछड़ा होने से सत्ता के चरित्र में कोई अंतर नहीं आया। इस एक घटना से बखूबी समझा जा सकता है। हुआ यह कि एक दिन अखबार में खबर आयी कि मुखिया के लड़के ने एक लड़की को गड़ासे से काट दिया। सुधीर सुमन ने टोका तो मैंने कहा कि बेटा तो बाप से भी दो कदम आगे निकल रहा है। दरअसल मुझे खबर नहीं थी कि अरसा पहले ही सवर्ण की जगह पिछड़ी जाति का मुखिया बन गया है, मेरे कहने का मतलब पिछले सवर्ण मुखिया से था। गांव गया तो पता चला कि यहां तो अरसा से मुखिया अति पिछड़ी जाति का है। और उसके बेटे ने दूसरी पिछड़ी जाति की लड़की को काट दिया क्योंकि लड़की उससे शादी को तैयार नहीं थी। तो पिछड़ी जाति का सत्ताधारी परिवार तो अत्याचार में सवर्ण से दो कदम आगे निकल गया। बाद में बेटे की करतूत के चलते बाप की मुखियागिरी गयी।
करीब चालीस सालों से तो गांव मेरी याददाश्त में है ही। बांध की ढलान से देखने पर गांव में कुछ बदला है ऐसा तो नहीं लगता पर बदला तो है। अब बीस किलोमीटर दूर आरा से प्राइवेट स्कूलों की बसें कुछ धनी लोगों के बच्चों को ले जाने आती हैं। बचपन में मैं जब गांव आता तो वहां शिक्षा को केन्द्र एक मदरसा मात्र था, बाद में मेरे घर के पिछवाड़े के एक सवर्ण पढ़े -लिखे परिवार के दलान पर एक पंडी जी पढ़ाने आते थे जो शनिवार को चावल गुड़ की परसादी बांटते थे।
सड़क आज भी एक सपना है
गांव की सड़क को अगर विकास के नजरिये से देखा जाए तो हालत खराब ही हुयी है। हुआ यह कि किसी मुखिया ने सड़क को विकसित करने के फेर में सड़क पर पत्थर बिछवा दिया पर उससे आगे कुछ नहीं हुआ पिछले दस बारह सालों में। धीरे -धीरे पत्थर जमीन में धंसते चला गया पर इसने गांव के पालतू जानवरों की खुर खराब कर दिया, खैर पशुओं ने तो दौड़- दौड़ कर किनारे के पत्थर हटा दिए हैं और सडक मुलायम हो गयी है पर बीच में हालत है कि आप दौड़ नहीं सकते, पैर टूट जाएगा। पहले गांव में पश्चिमी हिस्से में नहर के पहले एक बड़ा सा मैदान होता था जिसमें हम लोग फुटबाल खेलते थे। आज वह खेल का मैदान खेत में बदल गया है, इस विकास को किस तरह समझा जाए।
हां एक बात को विकास के रूप में देखा जा सकता हैं कि अब हर घर में नये जमाने वाला पाखाना बैठा दिया है सरकार ने। अपने चाचा लोगों के यहां मैंने देखा कि अब दो-दो पाखाना घर है। एक जो उन्होंने बनवाया एक जो सरकार ने बनवाया। सरकारी पाखाने के लिए बस जगह बतानी होती थी और बन जाने पर उसके सामने खड़े होकर फोटो खिंचानी होती थी, कई लोगों ने फोटो खिचाने के लोभ में पाखाने बनवा लिए। अब गैस का प्रयोग भी कई घरों में होने लगा है और बिजली के खंभे गड़ गये हैं। सो लोगों ने पंखे आदि एकाध लगवा लिए हैं कुछ के यहां सोलर लाइट भी लगी है सरकारी। या बैटरी से चलने वाले पंखे। जिन्हें प्रदर्शन के तौर पर एकाध घंटे लोग चलाते हैं अतिथियों के आने पर। इसी तरह पड़ोस में एक आदमी अपनी बैटरी से गांव के लोगों की मोबाइल की बैटरी चार्ज कर देता है दो चार रूपये लेकर। मोबाइल तो अब वहां भी हो गयी है हर घर में। नहीं तो पहले पीछे वाले सज्जन के यहां लैंडलाइन फोन पर बुलवाना पडता था चाचा आदि को। बैटरी चार्ज कराकर लोग कभी कभार ससुराल आदि से मिली टीवी भी देख लेते हैं। एक बार गांव से फोन आया कि भइआ आपको साक्षात देखा टीवी पर कविता पढ़ते तो पूरा गोतियारी जुटा लिया। गांव के नये लड़कों के लिए मेरा अखबार आदि में लिखना एक बड़ी बात है क्योंकि जब तब उन्हें संदेश थाने में मिली एकाध पत्रिका में मेरा नाम दिख जाता है तो वे उसे याद रखते हैं, या इंडिया टूडे का वैसा अंक जोगा कर रखते हैं।
विकास तो कुल जमा यही है, पढने लिखने के मामले में कुछ नया नहीं हुआ है। पहले एक कॉलेज खोलने की प्रक्रिया शुरू हुयी थी गांव में। मठिया के पास जमीन आदि भी उपलब्ध हो गयी थी, एकाध बेरोजगार एमए कर चुके लोगों को उसमें रखा भी गया था पर कॉलेज के नाम पर जमीन ही रह गयी, उसमें जिन्हें पढाना था, पता चला उनकी रूचि इलाके में बन रही भूमिपतियों की सेनाओं की कमान संभालने में अधिक थी। विकास के नाम पर गांव के बाहर की जमीन में ईंट के भट्ठे खुल गये हैं और गांव में पक्के मकान बढ़ गए हैं। मुखियागिरी, प्रधानगिरी गयी सवर्ण जमात के हाथ से तो यह भट्ठों का रोजगार हाथ लगा।
सेना तो आयी और गयी पर कॉलेज का सत्यानाश हो गया। गांव के नाम में भी बदलाव हुआ इन वर्षों में। पहले गांव का नाम तिरकौल था। मेरी व्याख्या के अनुसार सोन नद के तीर पर होने से यह नाम पड़ा। पर जमीन के कागजात आदि में गांव का नाम तुरकौल है मतलब कभी गांव में तुरूकों का बोलबाला रहा होगा। मस्जिद भी गांव में पुरानी पक्की इमारतों में है। जिसमें जब तब पुलिस चौकी बन जाती है गांव की सुरक्षा के लिए। मठिया चुंकि गांव के भीतर बंसवाडी में पड़ता है इसलिए उसका ऐसा केाई उपयोग नहीं हो पाता। मठिया हमेशा से मेरे लिए आकर्षण का केन्द्र रहा है। वहां जाने पर मिलने वाले बताशे और लचिदाने का स्वाद कहां जाने को है…। मठिया की जमीन पर तो पंडी जी और अन्य सवर्णों का कब्जा रहा, पर वहां के पुजारी पिछड़ी जाति आदि के कहीं से आकर बस गए महंत आदि ही रहे हैं। उनमें नाम में दास आदि लगा मिला हमेशा जैसे रामदास बबा। साधुओं की जब तब आने वाली टोली में ही कोई टिक जाता था मठिया में। पहले होली में मठिया में खूब फाग गवाता था पर अब वह सब धूमिल हो गया है लोगों की अब इसमें रूचि नहीं रही।
[bs-quote quote=”इसी तरह पहले दलित इलाकों के लोग रैदास जयंती मनाते थे तो भसान के समय रैदास की मूर्ति लेकर घर-घर घूमते थे और कुछ चंदा-अन्न आदि इकटठा करते थे। पहले मुस्लिम त्योहारों में हिन्दू भी ज्यादा हिस्सा लेते थे। भीम चाचा ताजिए आदि के समय उनलोगों के साथ लाठी-गदा आदि भांजते थे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
अब लोग पुराने राग से चिढ़ने लगे हैं
छह महीना पहले गांव गया था अरसा बाद, विनोद चाचा की छत पर रात ग्यारह के बाद बैठा था तो चांदनी में तो दूर किसी ने बिरहा, चैता जैसा कुछ अलापना शुरू किया तो चाचा ने कहा ल इ … पगलाइल, अब रात भर टेरत रही इ अइसहीं। इसी तरह अपने समय से मस्जिद से माइक पर अजान भी गूंजने लगती थी, माइक होने से पड़ोस के गांव की अजान टकराती थी इस गांव की अजान से। पहले यह शारा शोरगुल नहीं था माइक ना होने से।
गांव में घुसते ही दायीं ओर पहले मुस्लिम टोला पड़ता है। अब इस टोले में पक्के मकान काफी बढ़ गये थे। बचपन में गर्मी की छुटटी में गांव जाता तो बाकी छोटे भाइयों की संगत में मैं भी बखार से अनाज चुराकर इस टोले की दुकानों पर देकर गुड़ लेकर खाता था तब ये सब झोंपडे ही थे अधिकतर। अब मलिकानों की तुलना में इनका विकास ज्यादा साफ दिखता है। मलिकानों के बच्चों की रूचि अब दिल्ली पटना में ज्यादा है। गांव में मकान बना कौन पैसे फंसाए। गांव में मुस्लिम-हिन्दू में संबंध सामान्य हैं, वहां कभी तनाव नहीं दिखा। पिछले दशक में जब सेनाओं की आमदरफ्त बढ़ी तो भीतर उनके प्रति भी वमनस्य बढ़ा था पर वह चला नहीं, उनके रोजगार भी अलग हैं जमीन के झगडे वहां कम हैं।
कभी भीम चाचा ताजिये में लाठी भाँजते थे
एक शाम जब मैं अपने चचेरे भाई के साथ सोन नहाने जा रहा था तो मुस्लिम टोले के मर्द-औरत बच्चे भी नदी की ओर जा रहे थे। बच्चों के हाथों में कुछ कागज के बने सजावटी सामान थे, जैसा हम दीपावली में बनाते हैं जिसे गांव में आकाशदीप कहते हैं। हमने उनसे जानने की कोशिश की कि यह कौन सा त्योहार है पर साफ जान नहीं सके। पर यह त्योहार सोन नद से जुड़ा था। वहीं जाकर सबने अपने हाथ की सामग्री सोन में बहानी थी कुछ उपक्रम करने के बाद जैसा कि मालूम हुआ साथ के एक मुस्लिम युवा से।
इसी तरह पहले दलित इलाकों के लोग रैदास जयंती मनाते थे तो भसान के समय रैदास की मूर्ति लेकर घर-घर घूमते थे और कुछ चंदा-अन्न आदि इकट्ठा करते थे। पहले मुस्लिम त्योहारों में हिन्दू भी ज्यादा हिस्सा लेते थे। भीम चाचा ताजिए आदि के समय उनलोगों के साथ लाठी-गदा आदि भांजते थे।
देखा जाए तो विकास यही हुआ कि शहर गांव तक पहुंचा है पर गांव कहीं नहीं पहुंचा है। अब खाली पांव लोग सड़कों पर नहीं निकलते, पहले हम लोग लुंगी और गंजी में संदेश थाने हो आते थे। अब सड़क इस लायक नहीं कि आप खाली पावं जा सकें और फिर लोग आपको घूरेंगे कि क्या इसके पास चप्पल नहीं है। धोती की जगह फुलपैंट धारी बढ़ गए और ताड़ी की जगह पाउच दारू आ गया। पर किताब की कोई दुकान नहीं खुली। पहले पास के गांव अहपुरा की लाइब्रेरी की चर्चा होती थी कि वहां किताबें हैं पढने को। अब सरकार के पैसे से ढांचे तो कई बन गए हैं पर वहां पाउचधारी ही काबिज हैं।
पिछली बार जब गांव गया तो कैमरा ले गया था तो चचेरे भाइयों के साथ निकल जाता था खेत घूमने। घूमते हुये पता चला कि अरे यहां तो हिरन कई तरह के होते हैं। तीन चार कोस चल-भागकर देखा तो चीतल और हिरण आदि दिखे जिनकी तस्वीरें लीं। जब पटना में श्रीकांत जी को बताया तो उन्होंने कहा कि यह तो खबर है। ऐसे हिरण भोजपुर के गांवों में हैं।