मुझे याद नहीं है कि प्रेशर कुकर मैंने पहली बार कब देखा। मेरे घर में कुकर जैसा कोई बर्तन नहीं था। मेरा गांव बिहार की राजधानी पटना के एकदम नजदीक है। इतना नजदीक कि पटना का एयरपोर्ट जो कि शहर के बीचोंबीच ही है, से पैदल पौन घंटे में पहुंच जाता हूं। तो एक तरह से शहर का हिस्सा होते हुए भी मेरे घर में उस समय कुकर नहीं था जब मैं किशोर था। किशोर मतलब केवल नाम के वास्ते नहीं, सचमुच का किशोर था। उन दिनों मेरे घर में खाना पकाने के तमाम बर्तन थे। जैसे- कलछुल, छोलनी, तसला, कड़ाही, बरगुन्ना आदि। लेकिन कुकर नहीं था। मेरे परिवार में सब भात अधिक पसंद करते थे/ हैं। एक दिन में दो बार खाना बनता था। एक बार सुबह और दूसरी बार शाम में। मां हम बच्चों को ध्यान में रखकर खाना अधिक ही बनाती थी। वजह यह भी होती कि हम बच्चों को भूख बहुत लगती थी। उन दिनों बासी भात खाना भी बुरा नहीं लगता था। रोटियां भी बेकार नहीं होती थीं। सुबह-सुबह बासी रोटी के उपर मक्खन लगाकर खाने का आनंद ही कुछ और होता था। कभी-कभार मक्खन नहीं होता तो नमक-तेल लगाकर खाना भी रुचिकर होता।
तो मेरे घर में प्रेशर कुकर नहीं था। एक इसके अलावा सारे बर्तन थे और वह भी तीन तरह के। एक तो अल्युमिनियम के, दूसरे स्टील और तीसरे फुलहा यानी कांसे व पीतल के। तीनों तरह के बर्तन के उपयोग भी अलग-अलग थे। प्रेशर कुकर पहली बार मेरी वाइफ अपने साथ लेकर आयी। दरअसल, मेरी शादी पटना शहर के एक मुहल्ले में हुई जहां सभी शहरी थे। वहां गांव नहीं था। नाम भी बड़ा शानदार है मेरे ससुराल का। बुद्ध नगर। मेरे गांव जैसा ब्रह्मपुर नहीं। तो मेरी पत्नी रीतू एकदम शहरी थी। दहेज में जो बर्तन मिले, उनमें एक प्रेशर कुकर भी था। लेकिन प्रेशर कुकर का उपयोग होता नहीं था। कारण यह कि उन दिनों मेरे घर में गैस चूल्हा नहीं था। मिट्टी के दू-अछिया चूल्हा था, जिसमें गोईठा का उपयोग होता था। एक चूल्हा कोयले का भी था। रीतू को अपने मायके के बर्तनों से मोह अधिक ही था। एक तो उसने अपने सभी फुलहा बर्तनों को बड़े से संदूक में जो कि उसे मायके से ही मिला था, उसमें सुरक्षित रख दिया था। आज भी वे सुरक्षित ही हैं। बस साल में एकाध बार वह उन्हें धाेने-चमकाने के लिए निकालती है। प्रेशर कुकर के बारे में तब वह कहती कि पहले घर में गैस चूल्हे का इंतजाम हो तभी प्रेशर कुकर में खाना बनेगा।
अब प्रेशर कुकर का तो काम ही है सीटी मारना। प्रारंभ में तो यह अच्छा लगता था। लेकिन यह मुझे बाद में इरिटेट भी करने लगा। एक अतिरिक्त आवाज। कई बार रीतू को कहता कि इससे अच्छा तो तसला ही है। वह डिस्टर्ब नहीं करता। फिर वह मुस्कुराकर ताना देते हुए कहती कि अब तुम्हारे जीवन में एक मैं भी तो हूं डिस्टर्ब करने के लिए। आदत डाल लो।
यह स्थिति भी जल्द ही आ गई। शादी के तीन साल बाद ही भैया ने मुझे अलग कर दिया। वजह शायद यह रही कि मैं पढ़नेवाला आदमी था। कमाने-धमाने का शऊर नहीं था। वह मुझे जिम्मेदार बनाना चाहता था। अब जब उसने अलग कर दिया तो चूल्हा भी अलग हो गया। घर तब एक ही था। मतलब यह कि एक ही घर में अब दो चूल्हे हो गए थे। रीतू को गोइठा से खाना पकाते देख मुझे तकलीफ होती थी। इसलिए आर्थिक तकलीफ के बावजूद गैस कनेक्शन ले लिया और मेरे घर में प्रेशर कुकर में खाना बनने लगा।
अब प्रेशर कुकर का तो काम ही है सीटी मारना। प्रारंभ में तो यह अच्छा लगता था। लेकिन यह मुझे बाद में इरिटेट भी करने लगा। एक अतिरिक्त आवाज। कई बार रीतू को कहता कि इससे अच्छा तो तसला ही है। वह डिस्टर्ब नहीं करता। फिर वह मुस्कुराकर ताना देते हुए कहती कि अब तुम्हारे जीवन में एक मैं भी तो हूं डिस्टर्ब करने के लिए। आदत डाल लो।
लेकिन प्रेशर कुकर मेरे लिए समाज को समझने का उपकरण भी था। यह समझ तब विकसित हुई जब मैं पत्रकार बना। एक दिन रीतू से कहा कि राष्ट्र की अवधारणा एक प्रेशर कुकर के जैसी ही है। इसमें सभी रहते हैं। आम आदमी से लेकर सरकारी तंत्र तक। इसमें अखबार भी समाहित हैं। इसे भी एक आंच की आवश्यकता होती है। फिलहाल इस आंच का नाम डेमोक्रेसी है। तब मेरी बात पर रीतू खूब हंसती। हालांकि वह यह समझती जरूर थी कि मैं क्या कह रहा हूं। मसलन यह कि संघर्ष और आंदोलन वह गतिविधियां हैं जो इस प्रेशर कुकर में होती हैं। और प्रेशर कुकर से निकलने वाली सीटी उनकी आवाजें।
सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त तीनों न्यायमूर्ति कैसा न्याय करेंगे जो अभी से ये मान रहे हैं कि किसानों के प्रदर्शन के दौरान हिंसा भड़की? क्या वाकई हिंसा भड़की थी या हिंसा भड़काई गयी थी? पहल किसने की? इन सवालों के जवाब आज पब्लिक डोमेन में हैं। सारे प्रमाण जनता देख रही है कि कैसे केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा का बेटा जीपनुमा गाड़ी में सवार है और उस गाड़ी का चालक सड़क पर शांति से जा रहे किसानों को पीछे से रौंदता हुआ आगे बढ़ जाता है।
अभी तीन-चार साल पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने इसी तरह की व्याख्या की थी। अखबार में पढ़ने के बाद रीतू ने फोन पर मुझे बधाई देते हुए कहा कि तुम्हारी फिलॉसफी को आज सुप्रीम कोर्ट ने मान्यता दे दी।
खैर, मैं सुप्रीम कोर्ट की ही बात करना चाहता हूं। आज जनसत्ता में पहली खबर ही यही है कि सुप्रीम कोर्ट लखीमपुर खीरी में किसानों को रौंदे जाने के मामले में स्वत: संज्ञान लेने का फैसला लिया है। शीर्षक है– सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया, आज सुनवाई। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एनवी रमण के अलावा न्यायमूर्ति सूर्यकांत व न्यायमूर्ति हिमा कोहली की एक खंडपीठ का गठन किया गया है। दिलचस्प यह है कि इस पूरी खबर में कहा गया है कि किसानों के प्रदर्शन के दौरान हिंसा भड़की और आठ लोग मारे गए।
अब मैं यह सोच रहा हूं कि सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त तीनों न्यायमूर्ति कैसा न्याय करेंगे जो अभी से ये मान रहे हैं कि किसानों के प्रदर्शन के दौरान हिंसा भड़की? क्या वाकई हिंसा भड़की थी या हिंसा भड़काई गयी थी? पहल किसने की? इन सवालों के जवाब आज पब्लिक डोमेन में हैं। सारे प्रमाण जनता देख रही है कि कैसे केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा का बेटा जीपनुमा गाड़ी में सवार है और उस गाड़ी का चालक सड़क पर शांति से जा रहे किसानों को पीछे से रौंदता हुआ आगे बढ़ जाता है।
खैर, कल का दिन महत्वपूर्ण रहा। पूर्व राज्यसभा सांसद अली अनवर से करीब एक दशक बाद लंबी गुफ्तगू हुई। पहली बार तब जब वे पटना के हारूण नगर के एक किराए के मकान में वे रहते थे। अब तो उनके बेटे का अपना मकान भी है दिल्ली में। उनके द्वारा लिखी गयी मसावात की जंग किताब अब नये रूप में प्रकाशित हो चुकी है। पसमांदा समाज के सवालों को लेकर मैंने और जेएनयू के मेरे साथी व अत्यंत ही सचेत अभय कुमार ने उनसे बातचीत की। अभय इस पूरी बातचीत को अपने यूट्यूब पर सार्वजनिक करेंगे।
कल अली अनवर से मिलकर लौटने के दौरान मेट्रो में एक कविता जेहन में आयी। कविताएं मुझे प्रेशर कुकर के सीटी के जैसी लगने लगी हैं। कविता है–
मसावात की जंग के लिए जरूरी नहीं हैं
लाठी, गोलियां, तोप और मिसाइलें।
मैं तुमसे कहता हूं
इस देश के दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों,
हिंसा से मिली जीत
कभी स्थायी नहीं होती।
यह मसावात की जंग है
और जीत के लिए
सबसे पहले जीत की भूख जरूरी है।
उठो, और देखो,
अपनी झोपड़ियां
भूख से बिलबिलाते अपने बच्चे
और देखो कि
तुम्हारी जमीन पर
कौन बना रहा है अपना महल
तुम्हारे जंगल में तुम्हारे प्रवेश पर
किसने लगा दी है पाबंदी
और देखो कि
तुम्हारे श्रम से उपजा अन्न
किसका आहार बन रहा है
और जगाओ भूख कि
तुम भी खा सकते हो भरपेट रोटियां
पूरे सम्मान के साथ।
लेकिन यह मसावात की जंग
इतनी आसान नहीं कि
बस इंकलाब के नारे मात्र से
तुम्हारे शोषक हथियार डाल देंगे।
यह मसावात की जंग है
और तुम इस जंग में केवल सिपाही नहीं हो
एक सक्षम प्रतिद्वंद्वी हो
इतना याद रखना आवश्यक है
जीत के लिए।
देखो, यह मसावात की जंग है
जीत या हार का कोई एक पैमाना नहीं है
इसके लिए इतिहास पर भी फतह जरूरी है
और भविष्य के मुंह में भी डालनी होगी लगाम
लेकिन यह तो तभी मुमकिन है
जब तुम खुद लड़ना चाहोगे
और लड़ोगे अपनी लड़ाई।
देखो, इस मसावात की जंग में
तुम्हें लड़ना है इस मुल्क के हुक्मरानों से
सदियों से गेहुंअन ब्राह्मणों-अशराफों-साहूकारों से
और यह जंग
बगैर हौसले के नहीं लड़ी जा सकती।
नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं।