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‘स्वर्णिम युग’ और ‘महानायक’ तलाशती जातियां

बचपन में कहानियों में पढ़ा था कि कबीर के मरने पर हिन्दू और मुसलमानों के बीच उनके धर्म को लेकर झगड़ा हो गया और बाद में उस स्थल पर फूल बन गए और फिर दोनों कौमों ने बांट कर एक जगह मस्जिद और एक जगह मंदिर बनाया।  हकीकत यह है कि कबीर को न हिन्दू […]

बचपन में कहानियों में पढ़ा था कि कबीर के मरने पर हिन्दू और मुसलमानों के बीच उनके धर्म को लेकर झगड़ा हो गया और बाद में उस स्थल पर फूल बन गए और फिर दोनों कौमों ने बांट कर एक जगह मस्जिद और एक जगह मंदिर बनाया।  हकीकत यह है कि कबीर को न हिन्दू और न ही मुसलमानों ने अपना माना। कबीर को भी धर्म और जाति की सीमाओं में बांट दिया गया, जिसकी वह जिंदगी भर मुखालफत करते रहे। जिस अंधविश्वास के वह धुर विरोधी थे, उसको ही इस्तेमाल कर उनके चमत्कारों की कहानियां चला दी गईं।

आज देश में एक नया ट्रेंड चला है। इतिहास के जरिए वर्तमान का एजेंडा सेट करना और इस काम में जातिगत अस्मिताओं का खूब इस्तेमाल हो रहा है। हर एक जाति को बताया जा रहा है कि उनका एक खूबसूरत और गौरवशाली अतीत है,  क्योंकि इतिहास वर्तमान और भविष्य की राजनीति तय कर रहा है। इसलिए अपनी-अपनी सुविधाओं के अनुसार उसकी व्याख्या और नैरेटिव विकसित किये जा रहे हैं। और इस कार्य में अगर जरूरत पड़ने पर नायकों की भी चोरी की जा रही है और उसके चलते बहुत तनाव भी बढ़ रहे हैं।

मैंने एक बात हमेशा कही है कि रैदास, नानक, कबीर, फूले, आंबेडकर, पेरियार, भगत सिंह, राहुल सांकृत्यायन कोई राजा- महराजा नहीं थे और उन सभी ने मानव कल्याण की बात की। किसी के पास भी कोई सरकारी पद नहीं था और फिर भी हम उन्हें किसी भी राजा-महारजा से ज्यादा याद करते हैं। क्योंकि आज जो हमहैं वह उनके संघर्षों की बदौलत हैं। बुद्ध का दर्शन तो पूरी दुनिया में चला गया और जिसने भी उसे अपनाया वह दुनिया के सबसे सभ्य और सफल समाज कहलाया। जापान, कोरिया, चीन, आदि के उदाहरण हमारे सामने हैं। हालांकि अब बुद्ध को भी जाति के आधार पर मापा जा रहा है और कई लोग ये कहते हैं कि दलितों को बौद्ध धर्म की ओर नहीं जाना चाहिए। क्योंकि वे ‘क्षत्रिय’ थे। वैसे कुशवाहा और मौर्य लोग अब बुद्ध को अपना पूर्वज मान रहे हैं। हालांकि ऐसा करने में अभी कोई झगड़े की गुंजाइश नहीं हुई है। जैसे बुद्ध की जाति को लेकर सवाल हुए वैसे ही कबीर और रैदास को लेकर भी बहस हुई।

कुछ ने कहा कि कबीर इसलिए प्रसिद्ध बना दिए गए क्योंकि वह चमार नहीं थे और रैदास को उनकी जाति के कारण कम आंका गया। हालांकि ऐसा कहने वाले यह भूल जाते हैं कि कबीर भी कोई शक्तिशाली जाति से नहीं आते थे। फिर भगत सिंह और उधम सिंह के प्रश्न पर भी विभाजन हुआ। यह बोला गया कि क्योंकि भगत सिंह ‘जाट’ थे इसलिए उन्हें अधिक स्पेस मिली और उधम सिंह ‘दलित’ थे इसलिए उन्हें उतना सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे। ये लोग भूल जाते हैं कि उधम सिंह भगत सिंह के बाद के हैं और उनसे ही प्रभावित होकर गदर आन्दोलन से जुड़े। यह बेहद चिंतनीय विषय है कि कैसे हम लोग महापुरुषों को उनकी जातियों में तब्दील कर रहे हैं। अगर जातियों से व्यक्ति को देखना है तो फिर बुद्ध को दुनिया में इतने देशों में क्यों पसंद किया जा रहा है? आखिर जापानी या चीन या तिब्बती लोग कैसे बुद्ध को स्वीकारते होंगे। यदि हमारी सोच का दायरा इतना संकुचित हो जाए कि व्यक्ति के विचार को उनकी जातिगत पहचान में बदलकर अपनी सुविधाओं के हिसाब से परोसा जाय तो वे कहीं के नहीं रहेंगे।

बहुत वर्ष पूर्व केरल के एक मित्र, जो खुद को अम्बेडकरवादी कहते हैं, ने मुझसे कहा कि वह आंबेडकर को मानते हैं और राहुल सांकृत्यायन जैसे लोगों से उन्हें कोई लेना-देना नहीं। उन्होंने राहुल जी को मात्र उनकी पैदाइश की पहचान के अनुसार ढाल दिया और कहा कि उनका कोई साहित्य हमारे काम का नहीं। जातिगत नाप-जोख के चलते ही भगवानों की भी जातियां निर्धारित की जा रही हैं। बड़े से बड़े ‘तर्कवादी’ भी दूसरों के भगवानों पर पूरा तर्कपूर्ण ‘विश्लेषण’ देते हैं। लेकिन जब बात स्वयं की आती है तो कुछ और उदाहरण मिलते हैं।

वर्षों पूर्व मेरे एक बुजुर्ग मित्र, जो दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर थे, बाबा साहेब की राम और कृष्ण की पहेलियों को लेकर मुझसे खासे नाराज रहते थे।  एक दिन वह दिल्ली आये और मुझे अपने बेटे के यहाँ बुलाया ( उनका बेटा उस समय दक्षिण दिल्ली पुलिस के उपायुक्त थे) और वह मुझे विवेकानंद और राम के विषय में ज्ञान देने लगे। उन्होंने कहा कि राम कुर्मी थे और इसलिए उनकी आलोचना करना अनुचित है। मैंने उनसे पूछा, क्या राम अच्छे और बुरे केवल इसलिए हैं कि वे कुर्मी या क्षत्रिय थे?  ऐसे ही यादवों में भी कृष्ण को लेकर होता है। क्योंकि वह भी अपने को कृष्ण के वंशज कहते हैं इसलिए यादव क्रांतिदूत राम या ब्राह्मणवाद की आलोचना में तो आगे रहते हैं लेकिन कृष्ण को लेकर या तो चुप्पी साध लेते हैं या उनके विषय में कहते है कि उन्हें ब्राह्मणों ने बदनाम किया। एक बार एक कार्यक्रम में मैंने कह दिया कि वाल्मीकि लोगों को राम से क्या लेना- देना। और फिर मैंने दया पवार की एक कविता वहां पढ़ी जी इस प्रकार से थी :

हे विश्वकवि,

तुम मेरे लिए भी विश्वकवि होते

यदि तुम्हारी कविताओं में

शम्बूक का दर्द भी लिखा होता।

इस कविता को पढ़ने से बहुत से वाल्मीकि साथी नाराज हो गए थे। मैंने उन्हें कहा कि उनके मंदिर जाने से मुझे कोई आपत्ति नहीं। यह तो आपको निर्धारित करना है कि आप कौन सा विचार चुनते हैं। मैंने तो वर्षों पूर्व बुद्ध को चुन लिया और मै खुश हूं। मैं किसी को क्यों कहूं.. मै तो केवल दया पवार को उधृत कर रहा था। इंग्लैंड में वाल्मीकि समाज के एक नेता ने भगवान दास जी के कथन से बिलकुल असहमति जताई और मुझे साफ़ तौर पर कहा कि वाल्मीकि उनकी पहचान है, अस्मिता है इसलिए उनके प्रश्न पर कोई समझौता नहीं। ऐसा ही रविदासियों ने कहा कि बाबा साहेब हमारे राजनैतिक गुरु हैं। लेकिन हमारे आध्यात्मिक गुरु रविदास जी महराज ही हैं और वे बाबा साहेब के बौद्ध धर्म की बात को बिलकुल नहीं स्वीकारते और यह कहते हैं कि उनके पास अपने धर्म पहले से मौजूद हैं तो क्यों दूसरे धर्म में जाएं।

 

बाबा साहेब आंबेडकर, पेरियार या ज्योतिबा फुले की एतिहासिक दृष्टि से तो बहुजन समाज में बदलाव आ सकता है और इनमें से किसी ने भी इतिहास के जरिये नयी कहानी बनाने का प्रयास नहीं किया। इतिहास में जैसा घटित होता है वैसे लिखा जाना चाहिए लेकिन अब के दौर में जब सरकारें और पार्टियां जनता के मूलभूत प्रश्नों पर काम नहीं कर रही हैं। उन्होंने तो इतिहास के जरिये भविष्य सुधारने का काम हाथ में ले लिया है। इतिहास अब पुराणों की तरह है जो कवि और कहानीकार लिख रहे हैं और उनका उद्देश्य है एक फर्जी स्वाभिमान जगाकर जनता को बरगलाए रखना। आखिर क्या इतिहास हमेशा स्वर्णिम होता है। चारण कवियों ने राजाओं और महाराजाओं के विषय में अतिशयोक्तिपूर्ण चित्रण किए। आज हकीकत ये है कि रानी लक्ष्मीबाई, महराणा प्रताप और अन्य राजाओं के विषय में हमारी आज की पीढ़ी सुभद्रा कुमारी चौहान और अन्य लोगों की कविताओं से समझते हैं। ऐसी कविताएं इतिहास नहीं राजाओं की बहादुरी का गुणगान है।

जब हमारे पास वर्तमान में कुछ विशेष उपलब्धियां नहीं होती तो हम भूत या भविष्य की रूख करते हैं। अभी हिंदुत्व के      व्याख्याकारों ने इतिहास को दोबारा से लिखने की कोशिश की और अब वो हर समुदाय में हीरो तलाश रहे हैं। भाजपा ने उत्तर प्रदेश में हर जाति में एक नायक बनाने और दूसरों के साथ उसके अंतर्विरोधों से अपनी राजनीति की। सुहैल देव को पासियों और राजभरों से जोड़ा गया और उसमें ‘मुग़ल’ शासन के विरुद्ध लड़ने की बात कही। ऐसे ही जहां नायक राजा या महराजा नहीं मिले वहां भगवानों की भी जातियां बनाई गयी और समुदायों में इसके जरिये स्वाभिमान जगाने के प्रयास किए गए।

यदि अतीत में सभी के नायक-नायिकाएं अच्छे थे तो फिर जातिप्रथा के विषय में हमें कोई चर्चा ही नहीं करना चाहिए। जब सबके राजा-महराजा थे तो आज वो समुदाय उन नायकों से भी सवाल करे कि आखिर जातिप्रथा को खत्म करने के लिए उन्होंने क्या किया? अभी सम्राट मिहिर भोज को लेकर राजपूत और गूजरों में ठन गयी है। गूजर कहते हैं कि सम्राट मिहिर भोज गूजर समुदाय से हैं जबकि राजपूत कह रहे हैं कि वे राजपूत हैं। और दूसरी तरफ भाजपा अपने वोटों की खातिर उनके नायकों को दूसरी जाति का बता कर राजनीति कर रही है। मुख्यमंत्री आदित्यनाथ सम्राट मिहिर भोज की एक मूर्ति का अनावरण करने नोएडा गए थे। इसके बाद नामपट्टिका पर लिखा गूजर सम्राट के आगे से गूजर शब्द हटाने के बाद विवाद हो गया। अब इस सवाल को लेकर बड़ी-बड़ी महापंचायत बैठ रहीं हैं।

दरअसल, हमारे सामाजिक इतिहास को पढ़ते समय या ऐतिहासिक बातों का विश्लेषण करते समय जिन प्रश्नों का तथ्यात्मक विश्लेषण होना चाहिए वैसे होता नहीं है। क्योंकि इतिहासकारों के भी अपने पूर्वाग्रह रहे हैं। बहुतों ने तो सेक्युलर दिखने के चक्कर में मुगलों का ऐसा विश्लेषण किया कि जैसे सभी मुगल शासक मानवाधिकार कार्यकर्ता रहे हों। इतिहास में सेक्युलर दिखने की इस कवायद में जो स्थानीय राजा थे या अपने राज्य बचा रहे थे, उन्हें आलसी, जातिवादी, सेक्स और शराब में डूबा हुआ बता कर ख़ारिज कर दिया गया। जब बहुजन साहित्यकार इतिहास लिखने लगे तो वे भी चटकारे लेकर बताने लगे कि भारत आखिर सारे युद्धों में हारा क्यों? क्योंकि लड़ने और शासन करने का अधिकार तो केवल राजपूतों या क्षत्रियों का था और बाकी किसी को कहा नहीं गया इसलिए हम सारी लड़ाई हार गए। इस नैरेटिव को बिल्ड करने में ब्राह्मण भी माहिर थे क्योंकि जहां उनको सूट करता वहां वे उसे फिक्स कर देते।

क्योंकि हम सभी प्रोपगेंडा को साहित्य और इतिहास मान लेते हैं इसलिए तर्कपूर्ण तरीके से जानने की कोशिश नहीं करते। यदि सारे राजा क्षत्रिय थे और वे ही हार जीत के लिए जिम्मेवार थे तो फिर अभी पिछड़ों और दलितों के भी राजा थे तो वे कैसे हो गए। आखिर सोहेल देव राजा कैसे बने। आखिर मिहिर भोज गूजर कैसे हुए। यदि राजा केवल राजपूत होते थे तो कई स्थानों पर लोधो के भी राजा थे। उत्तराखंड में थारू आदिवासी समुदाय में एक वर्ण राणा भी है और वे लोग अपने को महाराणा प्रताप का वंशज बताते हैं। अभी कुछ वर्ष पूर्व एक दलित लेखिका ने कहा कि महाराणा प्रताप भील थे और उसके बाद उन्हें धमकियां मिलने लगीं। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है कि लोग नायकों को अपना रहे हैं। लेकिन ये कैसे हो जाता है कि यदि नायक की जाति बदल जाती है तो हमारे सोच और विश्लेषण के तरीके भी बदल जाते हैं।

जब वर्तमान में कोई सकारात्मकता नहीं है तो हम या तो भूत के सहारे अपनी अस्मिता ढूंढते हैं या भविष्य में। क्योंकि इतिहास इस समय एक वर्ग को विलन बनाकर उसके विरुद्ध सामाजिक ध्रुवीकरण कर राजनितिक लाभ लेने की कला का नाम है। इसलिए जिसको जहां सुविधा मिले वह वहां इसका इस्तेमाल कर रहा है। जहां मुसलमानों को खलनायक बनाना हो वहां मुगलों पर सवाल खड़ा कर दो और जहां जातीय ध्रुवीकरण से लाभ हो वहां राजाओं की जातियों के हिसाब से उनका विश्लेषण करो।  हम ये भूल जाते हैं कि ये राजे-रजवाड़े आपस में दोस्त भी थे और प्रतिद्वंद्वी भी। सभी राज्य में ऐसे लोग भी थे जो राजा बनने की चाहत रखते थे। और जब मुग़ल या कोई और बहार से आए तो अपनी सुविधा अनुसार उन्होंने समझौता कर लिया। महाराणा प्रताप ने मेवाड़ की लड़ाई लड़ी और इसीलिए उनकी वीरता के किस्से आज भी प्रसिद्ध हैं। उत्तर प्रदेश या दिल्ली में बैठे लोग सेक्युलर कहकर उनका उपहास करते हैं। लेकिन राजस्थान के उस क्षेत्र में आते ही आपका सर अपने आप महाराणा प्रताप के लिए झुकता है।

 

इसलिए इतिहास लिखते समय हम स्थानीय और मौखिक परम्पराओं का भी ध्यान रखें। हम हार और जीत की बात करते हैं लेकिन कोई भी ऐतिहासिक शख्सियत इतनी आसानी से लोगों के दिलों दिमाग से नहीं हटती, यदि उसने कोई काम न किया हो। ये भी याद रखना चाहिए कि उस दौर में कोई हिन्दू मुसलमान की लड़ाई नहीं थी और न ही भारत का किसी दूसरे देश के साथ कोई मनमुटाव था। क्योंकि राष्ट्र और राज्य का तो कोई कांसेप्ट ही नहीं था। किसी को भी कहीं बसने के लिए कोई वीज़ा या किसी प्रकार की परमिशन की जरुरत नहीं थी। अक्सर लोगों को लगता है कि दूसरा उनका नायक न छीन ले। शायद इसलिए क्योंकि एक देश या राष्ट्र होने के बावजूद हम अभी भी अस्मिताओं के नाम पर बिखरे हुए हैं। अंग्रेजी में एप्रोप्रिएशन शब्द का इस्तेमाल बहुत से आंबेडकरवादियों ने उस समय किया जब उन्हें लगा कि गैर दलित बाबा साहेब के विचारों को गलत तरीके से पेश कर सकते हैं। विशेषकर जब अरुंधती रॉय ने जातियों का विध्वंश कैसे हो नामक पुस्तक की बेहद लम्बी-चौड़ी भूमिका लिखी ,जो मूल पुस्तक से भी अधिक पृष्ठों की थी।

यह देश का दुर्भाग्य ही है कि महान हस्तियां जो रोल मॉडल हो सकती हैं उन्हें उनके विचारों नहीं जातियों के आधार पर प्रस्तुत कर हम उनके विचारों की ह्त्या कर रहे हैं। मान सकते हैं, जातियों को गर्व होता है कि कोई नायक उनकी जाति का है। लेकिन उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि उस नायकों को उनकी जातिगत निष्ठा के चलते उसका दर्जा नहीं मिला। नहीं तो हर एक खाप का नायक सर्व स्वीकार्य हो जाता। जाति का कोढ़ इतना खतरनाक है कि रामस्वरूप वर्मा और ललाई सिंह यादव भी भुला दिए गए हैं और एक दो लोग जो उनको याद करते हैं वे नैचुरली उन्हीं बिरादरी से आ रहे हैं जिनसे वह मूलतः आये। शहीद जगदेव प्रसाद कुशवाहा को याद किया जाता है लेकिन जातीय अस्मिता के नाम पर न कि उनके संघर्षों के लिए। उत्तर प्रदेश और बिहार की सबसे बड़ी त्रासदी यही हुई कि ये तीनों क्रांतिकारी नेता राजनीतिज्ञ के तौर पर भुला दिए गए और उनको याद करने वाले कम ही लोग हैं। क्योंकि अब उन्हें मात्र सामाजिक कह कर हाशिये पर डाल दिया गया है। और 1990 के दशक में सरदार पटेल जैसे नायक पिछड़ी जातियों के ऊपर थोप दिए जाते हैं।

जब समाज के लोग जगदेव बाबू, रामस्वरूप वर्मा और ललई सिंह यादव को भूल जायेंगे तो कोई भी राजनीति की नींव नहीं रख सकता। मंडल के उपरांत राजनीति में भी है यही हाल हुआ। मंडल रिपोर्ट को लागू करने और उसके फलस्वरूप मनुवादियों की गाली खाने में वी पी सिंह, राम विलास पासवान और शरद यादव का नाम सबसे ऊपर था। लेकिन अभी चर्चाओं में बी पी मंडल सामाजिक न्याय के मसीहा बन गए जबकि वे एक कमीशन के अध्यक्ष थे, जिसे सरकार ने बनाया था। इस आधार पर तो जस्टिस राजेंद्र सच्चर मुसलमानों या पसमांदा मुसलमानों के नायक हो गए। क्योंकि उनकी रिपोर्ट यह कहती है कि मुसलमानों की आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब है। लेकिन सच्चर की रिपोर्ट उतनी बड़ी नहीं है जितनी कि मंडल की रिपोर्ट। क्योंकी सरकार ने उसको लागू करने का निर्णय लिया और इसलिए तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्नाथ प्रताप सिंह के साहसिक निर्णय की सराहना तो करनी पड़ेगी। लेकिन लोग उसमें भी किन्तु-परन्तु लगाते हैं और भूल जाते हैं कि यदि रिपोर्ट लागू नहीं होती तो आज भी स्थितियां पुराने हालातों जैसी होतीं। मंडल प्रक्रिया के बाद बहुत से काम उस सरकार ने किए थे जो याद किये जाने चाहिए।

लेकिन हमारी स्मरण शक्ति बहुत कमजोर है और हम उतना ही सोचते और देखते हैं जितना हमें दिखाया और सिखाया जाता है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी जनेश्वर मिश्र की जयंती को धूम-धाम से मनाती है और उनके नाम पर लखनऊ में एक बहुत बड़ा पार्क है। हालांकि जनेश्वर मिश्र को याद इसलिए नहीं किया जाता कि वे समाजवादी थे, बल्कि इसलिए कि वह ब्राह्मण थे। पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह को याद करने की फुर्सत अखिलेश यादव को कभी नहीं रही। जबकि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन और तेजस्वी यादव उन्हें कभी नहीं भूलते। समाजवादी पार्टी शायद मुलायम, वी पी के व्यक्तिगत रिश्तों के आधार पर ही ऐसा नहीं करती। अपितु उनके एजेंडे में उत्तर प्रदेश का ब्राह्मण वोट भी है जो वी पी सिंह के नाम से नफ़रत करता है। शायद यह पहचान का संकट ही है कि वी पी सिंह सवर्णों की गाली खाने के बावजूद  इस लायक नहीं बन पाए कि उत्तर प्रदेश में दलित-पिछड़ों के नाम पर राजनीति करने वाले दल उनके योगदान को याद कर सकें।

लखीमपुर खीरी में किसानों के ऊपर अत्याचार किसी से छिपा नहीं है। सरकार भी उन्हें बचाने की कोशिश कर रही है। मीडिया अब नया नैरेटिव सेट करने में लगी हुई है। उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की दयनीय स्थिति को लेकर राजनीति करने वालों के मुंह पर ताला लग गया है। राजनीति का गुणा-भाग उनकी समझ नहीं आ रहा कि इस घटना का कितना विरोध करें और कितना नहीं। कहीं ज्यादा करने से ‘प्रबुद्ध’ वर्ग नाराज तो नहीं हो जायेगा। अखिलेश यादव और मायावती को यह नहीं भूलना चाहिए कि जब वे मुख्यमंत्री थे, तब यही मीडिया और शक्तियां अफवाहें फैलाता रहा कि यादववाद और चमारवाद फैलाया जा रहा है।

यह समझने की जरूरत है कि आखिर उत्तर प्रदेश में किस जाति के कितने लोग ब्यूरोक्रेसी, न्यायपालिका और मीडिया आदि में हैं। अगर यह समझ आ गया तो आपको पता चलेगा कि मुख्यमंत्री किसी भी बिरादरी का हो, प्रदेश का प्रशासन ब्राह्मणों, कायस्थों के पास ही है। अब मोदी जी के सत्ता में आने के बाद बनियों का ग्राफ भी बहुत तेजी से ऊपर जा रहा है। फिर नौकरियों में भर्तियां कैसे हो रही हैं वह भी देख लीजिए। हकीकत यह है कि सभी दलों और जातियों के नेता अपनी सत्ता के लिए ‘ब्राह्मणों’ की सलाह पर ही चल रहे हैं और इसी कारण उत्तर प्रदेश में नैरेटिव बनाने और बढ़ाने की जिम्मेवारी उन्हीं की होती है। वे चाहे तो आपको हीरो बना दे और जब उनकी इच्छा हो तो आप सबसे बड़े खलनायक।

उत्तर प्रदेश और बिहार के लिए पेरियार का द्रविड़ मॉडल सबसे बेहतरीन हो सकता था, जिसमें पेरियार ने सभी गैर ब्राह्मण जातियों को एक कर दिया। उसमें सभी एक सामान नहीं थे और बहुत से अंतर्द्वंद्व भी रहे। लेकिन उसी मॉडल पर आधार बनाकर उत्तर प्रदेश में भी एक आन्दोलन बन सकता था। लेकिन यह मात्र 13 प्रतिशत आबादी के वोट का सवाल नहीं है। क्योंकि अगर ईमानदारी से जातीय जनगणना करवा लिया जाे तो पता चल जाएगा कि कौन सी जाति कितने प्रतिशत है। दरअसल सभी को प्रबुद्ध समाज की बुद्धि पर कुछ ज्यादा भरोसा है। इसीलिए उन्होंने अपने मुद्दों से नाता तोड़ दिया है और अन्य जातियों से बातचीत ही बंद कर दी है।

उत्तर प्रदेश में जो हो रहा है वह पेरियार के सोच का बिलकुल उलट है। यहां ब्राह्मणों के आशीर्वाद के चक्कर में पार्टियों ने पेरियार का नाम लेना तक उचित नहीं समझा। जिस बसपा के पोस्टरों में पेरियार होते थे उसने उनसे पूरी तरह से नाता तोड़ दिया और सपा को तो इनसे कोई मतलब ही नहीं। आवश्यक है कि व्यक्ति के विचारों का सम्मान करो यदि उनका काम समाज के हित में थोड़ा भी है तो याद करो। यदि कोई व्यक्ति आपकी जाति का है लेकिन वैचारिक तौर पर फासीवादी शक्तियों के साथ खड़ा है तो उससे समाज को क्या लाभ? ऐसे बहुत से नेता हैं जो दलित पिछड़े हैं लेकिन संघी दर्शन में पले-बढ़े हैं तो वे बहुजन समाज का क्या भला कर पायेंगे।

व्यक्ति का विचार बड़ा होता है और अंत में ये द्वन्द्व विचारधारा का ही है। रैदास का बेगमपुरा हो या फुले का सत्यशोधक या पेरियार का स्वाभिमान अथवा बाबा साहेब का प्रबुद्ध भारत। ये लोगों के दिल बदलकर बराबरी का समाज बनाने के उपरांत बने विकल्प हैं। इनमें से कोई भी घृणा और पूर्वाग्रहों के आधार पर नहीं है अपितु भ्रातृत्व पर आधारित है। एक बेहतर समाज के लिए अपने महापुरुषों के विचारों को जीवन में उतारकर ही बदलाव लाया जा सकता है। उन्हें उनकी जातियों और समुदायों तक सीमित कर हम अंततः उन्हें बहुत छोटा करते है जो अंत में ब्राह्मणवाद को ही मजबूत करता है।  जातिवादी व्यवस्था का विकल्प जातिवाद नहीं मानववाद है जो गैर बराबरी, वैज्ञानिक चिंतन और समतावादी सिद्धांतो से ही बन सकता है। जिसमें हम मसीहाओं का इंतज़ार नहीं करते अपितु इंसान की तार्किक वैचारिक शक्ति को मज़बूत करते हैं।

बुद्ध का तर्क, करुणा और मध्यममार्ग ही दरअसल मानववाद है और वही आज की हमारी सबसे बड़ी जरुरत है तभी एक बेहतर समाज का निर्माण हो पायेगा। याद रखें इतिहास से हम सीख लेते हैं लेकिन उसमें जीते नहीं है। इतिहास की गलतियों को सुधारने के तर्क खतरनाक हैं क्योंकि उसी के कारण आज उसे तोड़-मरोड़ कर बदला लेने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, जिसने समाज में एक भयंकर अविश्वास और विभाजन की रेखा खींच दी है। स्वर्णिम इतिहास दिखाने के पीछे एक और बड़ी चाल है कि भारत का बहुजन समाज जो जातिवाद, शोषण, छुआछूत का शिकार रहा वह अपने प्रश्न पूछना बंद कर दे और अपना स्वर्णिम अतीत ढूँढता रहे। फिर धूर्त इतिहासकार उसमें नए खलनायक बनाकर उन लोगों को ही सवालों के दायरे से बाहर कर दे जिन्होंने इस वर्णवादी व्यवस्था की ‘खोज’ की थी।

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4 COMMENTS
  1. बहुत ही सारगर्भित,समसामयिक और प्रासंगिक आर्टिकल है साथी। सामाजिक नायकों को जातियों की सीमाओं में बांध कर
    सुविधनुसा र उनके कद को बौना बनाने की राजनीति इधर काफी तेजी से चलाई जा रही है।बदलाव चाहने वालों को गंभीरता पूर्वक इस खतरे को भांपकर इसपर कार्य करने की जरूरत है।

  2. शहीद उधम सिंह कंबोज जी कंबोज जाति से थे इतिहास से छेड़छाड़ मत करो। उनकी तीसरी चौथी और पांचवी पीढी अभी भी गांव सुनाम जिला पटियाला पंजाब में रह रही है

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