Sunday, July 7, 2024
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मऊ के बुनकरों के लिए क्यों खोती जा रही है भविष्य की उम्मीद

साठ के दशक में अपनी बुनकरी के चलते पूर्वाञ्चल का मैनचेस्टर कहा जानेवाला मऊ शहर दिनोदिन बदहाली का शिकार होता जा रहा है। यहाँ के बुनकरों में निराशा और हताशा बढ़ती जा रही है और वे अपना पारंपरिक पेशा छोडकर पलायन करने को मजबूर हैं। यह स्थिति कोरोना काल से और भी बिगड़ती गई है। […]

साठ के दशक में अपनी बुनकरी के चलते पूर्वाञ्चल का मैनचेस्टर कहा जानेवाला मऊ शहर दिनोदिन बदहाली का शिकार होता जा रहा है। यहाँ के बुनकरों में निराशा और हताशा बढ़ती जा रही है और वे अपना पारंपरिक पेशा छोडकर पलायन करने को मजबूर हैं। यह स्थिति कोरोना काल से और भी बिगड़ती गई है।

किसी जमाने में मऊ शहर में हथकरघों और पावरलूम की खटर-पटर से गालियां और मुहल्ले गुलज़ार रहा करते थे लेकिन अब ये आवाजें खामोश हो गई हैं और चारों ओर सन्नाटा फैलता जा रहा है। लगता है जैसे बुनकर मुहल्लों के लोग भी अपने पुराने काम से पीछा छुड़ाना चाहते हैं।

मऊ शहर के बुनकर और सामाजिक कार्यकर्ता अल्तमस अंसारी का कहना है कि ‘सन् 2005 में हुये मऊ दंगे बाद बुनकरी का कारोबार और अधिक तबाह हुआ है। रही-सही कसर नोटबंदी, जीएसटी और महंगी बिजली पूरी कर दी। लगातार कम होती मजदूरी और अनिश्चितता ने इस धंधे की कमर तोड़ दी। यहां का बुनकरों ने अब अपने बच्चों को मजदूरी के लिए विदेश भेजना शुरु कर दिया है। इसी से उनकी ज़िन्दगी का गुजर बसर हो रहा है।’

डिजाइन पत्ता काटते हुए रामदरस यादव

आगे अल्तमस कहते कि ‘हाथकरघा खत्म हुआ तो पावरलूम आ गया जिसके कारण बुनकरी का कारोबार पूरी तरह से सेठ साहूकार और बाजार के हवाले हो गया। एक लाख से ज्यादा कीमत वाला पावरलूम गिरस्ता से कर्ज लेकर  ही बुनकर लगा पाता है। जब तक कर्ज चुकता न हो तब तक उसी गिरस्त का काम करना पड़ता है। गिरस्त के इस कर्ज में शोषण और बधुआंगिरी निहित है। धागे कटने पर कारीगर 100% मजदूरी कट जाती है।’

अल्तमस के पास दो लूम है जिससे पूरे परिवार की मेहनत से महीने भर में 60 साड़ियाँ बनती हैं। एक साड़ी की मजदूरी 70-80 रुपए मिलती है। ऐसे में इस बुनकर परिवार की महीने की आमदनी 5000 बनती है। वहीं मौजूद उनके पिता कहते हैं कि ‘क्या करेंगे बैठे-बैठे। इसलिए काम करते हैं। बहुत कम मजदूरी पर भी कम से कम अपने पेट का जुगाड़ तो करना ही पड़ता है।’

बुनकर शौकत अली कहते हैं कि ‘बुनकरी का नाम जिन्दगी है लेकिन जीना मुश्किल है। उन्होंने कहा कि मेरी लड़की बीमार है। इलाज चल रहा है। 1.5 लाख कर्ज हो गया है। 5 लाख तक फ्री इलाज वाली योजना से केवल 20 हजार ही मिल पाए। इस दौरान मेरा लूम बंद था लेकिन बिजली बिल चालू है, जिसके चलते 300 से 400 रुपए रोज कमाने वाले मेरे परिवार की जिन्दगी मुश्किल मे फस गई है।’

एक अन्य बुनकर अनवर अहमद का कहना कि फ्लैट रेट बिजली खत्म होने, महंगाई बढ़ने और मजदूरी घटने से जिन्दगी जीना मुश्किल हो गया है जिसके कारण बच्चें मजदूरी के लिए विदेश जा रहे हैं। योगी सरकार ने फ्लैट रेट की बिजली खत्म कर दिया है, जबकि हमारे धन्धे की आर्थिक हालात के हिसाब से फ्री बिजली की जरूरत है। इस दौर में गाहे-बगाहे मुसलमान होने के नाते बिना कसूर के हम सबको परेशान किया जाता है सीएए, एनआरसी और कोरोनाकाल में यह देखने को मिला।’

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बनारस के उजड़ते बुनकरों के सामने आजीविका का संकट गहराता जा रहा है

शाम 4 बजे का समय था जब हम मऊ शहर के अलाहदादपुर चौराहे पर पहुंचे। आकाश घने कोहरे से घिरा था और ठंड से शरीर की हड्डियां हिल रही थीं। ठंड से लोगों के होंठ काँप रहे थे। मऊ शहर के बुनकर इधर-उधर चबूतरों पर बैठकर बातचीत में मशगूल था। उन्हीं के बीच एक बुनकर ने कहा कि हमको जो मजदूरी 15 वर्ष पहले मिलती थी वही मजदूरी आज भी मिल रही है जबकि महंगाई आसमान छू रही। बताइए हम कैसे जिन्दा रह सकते हैं? बच्चे लोग विदेश में मजदूरी कर रहे है जिसके कारण हम लूम के बिल चुकता कर रहे है।

बुनकर कल्याण की योजनाओं के सवाल पर उनका कहना है कि ‘इस तरह की योजनाएँ फर्जी तरीके से चलाई जा रही हैं। कोऑपरेटिव सोसाइटीज में बुनकर जोड़ लिए जाते हैं लेकिन ज्यादातर बुनकरों को इन योजनाओं का पता भी नही है। इनका लाभ चन्द फर्जी लोग उठाते हैं।’

इन लोगों के बीच से एक नौजवान ने कहा कि यदि हमको कोई दूसरा काम मिले तो इस काम को तुरन्त छोड़ देगें लेकिन कोई दूसरा काम मिलता ही नहीं। कौन है जो अपना परिवार छोड़कर विदेश में मजदूरी के लिए जाना चाहेगा।’

इसी चौराहे के पास ही भैरो तथा  रामदरश यादव पत्ता काटते और साड़ी का डिजाइन तैयार करते मिले। इनका कहना था साड़ी के डिजाइन के काम में हिन्दू समाज के लोग बड़ी संख्या में हैं। यहाँ सभी भाई-चारे के साथ अपना काम करते हैं।

मऊ शहर के आसपास रहनेवाला बुनकर समाज लगभग चार लाख मीटर कपड़े प्रतिदिन तैयार करता है लेकिन दुर्भाग्यवश उनकी जिन्दगी गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीने वालों से भी बदतर है। इसके बावजूद सरकारें इनको गरीबी रेखा के नीचे वाली योजनाए और सुविधाएं नही देतीं।

अरशद जमाल

उ.प्र.बुनकर फोरम के अध्यक्ष और फिलहाल मऊ नगर पालिका के चेयरमैन अरशद जमाल का कहना है कि ‘मऊ में 5 लाख बुनकर और एक लाख लूम हैं। मेरी मांग है कि दम तोड़ते इस समाज को तत्काल गरीबी रेखा के नीचे माना जाए। बुनकरी के पेशे में आत्महत्याएं और दुर्घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। महिलाओं का दुपट्टा फंसने, बिजली करेंट आदि दुर्घटनाओं में मौते हो रही है। किसान आकस्मिक निधन, प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि जैसी योजनाएँ बुनकरों के लिए भी चलाई जाएँ। सन् 2006 में मुलायम सिंह सरकार द्वारा लागू फ्लैट रेट बिजली से बुनकरों को फौरी तौर पर राहत मिली थी लेकिन मौजूदा सरकार द्वारा यह योजना खत्म करने से यहाँ कारीगर समाज बरबादी के कगार पर पहुंच गया है। बिना सरकारी संरक्षण के इस पट्टी की खूबसूरत कारीगरी और मऊ शहर के कारोबार को नही बचाया जा सकता है। सरकार जाति धर्म से ऊपर उठकर काम करे।’

इस सिलसिले हम कई जनप्रतिनिधियों से मिले और बात की तो सबकी मंशा वर्तमान की हताशा को अतीत के ‘अच्छे दिनों’ से जोड़कर देखने और इस प्रकार आज की बदहाली पर दो-चार आँसू बहा लेने की ही दिखी। पूर्व सांसद सालिम अंसारी भी अतीत की उसी बात को लेकर बोलते रहे लेकिन एक जनप्रतिनिधि के रूप में उनके सामने पाँच लाख बुनकरों की तकलीफ़ों से निजात का क्या उपाय हो सकता है इस पर उन्होंने कुछ नहीं कहा। उनका कहना था कि ‘मऊ के बुनकरी कारोबार से 5 लाख बुनकरों के साथ ही आसपास के हजारों लोगों की रोजी रोटी चलती है। यहां दो कताई और धागा मिलें थीं। वे सरकारी नीतियों और नीयत के चलते बन्द हो गईं। धागा व अन्य रॉ मेटेरियल महंगा होने से बुनकरों के लिए जीविकोपार्जन मुश्किल हो गया है। सन् 1972 में आंदोलन के चलते यू पी में यूपिका हैंडलूम की स्थापना हुई। यूपिका हैंडलूम बुनकर से तैयार कपड़ा खरीदता था। बदले में  धागा और पैसा देता था। इस व्यवस्था से यह धन्धा बेहतर हुआ लेकिन सरकारी उपेक्षा के कारण यूपिका हैंडलूम धीरे-धीरे बन्द हो गया। तीन-चार बार बुनकर का सवाल मै संसद भी उठाया लेकिन कोई परिणाम नही निकला। यू पी के 17% बुनकरों की ज़िन्दगी राम भरोसे चल रही है।’

क्या यह राम भरोसे सचमुच भरोसेमंद है या इसके पीछे कोई और ताकत काम कर रही है। बनारस की तरह मऊ में भी बुनकरी का काम बड़े पूंजीवाले गद्दीदारों के हाथ में चला गया है, जो सूरत से लेकर मऊ तक फैले हुये हैं और पूंजी के दम पर बुनकरों का मनमाना शोषण कर रहे हैं। दुख सिर्फ बुनकरों का ही नहीं, गिरस्तों का भी है। गिरस्ता जफर अहमद का कहना कि सूरत के कारोबारियों के सामने मऊ कारोबारी टिक नही पा रहे हैं। अब 20% कारोबारी ही इस धन्धे में बचे हैं। वर्तमान सरकार भी सूरत के कारोबारियों को संरक्षण दे रही है जिसके चलते हमारा धन्धा पिट गया।’

मऊ जिले सामाजिक कार्यकर्ता और विभिन्न आंदोलनों के नेता अरविन्द मूर्ति का कहना है कि ‘किसान और बुनकर इस मुल्क की दो आंखें हैं। किसान तो कभी-कभार सरकार के एजेण्डे में आ भी जाता है लेकिन बुनकर सरकार के एजेण्डे में नही है। मौजूदा सरकार द्वारा फिक्स रेट बिजली खत्म करने के बाद बुनकरों की माली बेहद खराब हुई है। बड़ी पूंजी व कार्पोरेट को फायदा पहुंचाने वाली नीतियों के चलते छोटे धन्धे और पारम्परिक उद्योग दम तोड़ रहे हैं। अगर बड़ी पूंजी के साम्राज्य और आतंक तथा लाखों लोगों को भुखमरी बचाना है से तो इस कारोबार को भी बचाना होगा और बेशक बचाने के लिए सरकारी नीतिगत संरक्षण की जरूरत है।’

चलते-चलते

12 जनवरी का यह पूरा दिन कोहरे से ढँका और कांपता हुआ गुजर रहा था। मऊ शहर में वे तमाम चीजें जगमगा रही हैं जो अमूमन किसी शहर को नया दिखाती हैं। खासतौर से बाज़ारों की चमक। यह चमक मऊ में भी है। अरविंद मूर्ति सड़क पर चलते हुये पुरानी पार्टियों के दफ्तर की ओर इशारा करते हैं। वे लगभग श्रीहीन हो रहे हैं और भाजपा के झंडों से शहर पटा पड़ा है। आगामी हफ्ते रामलला विराजमान की मूर्ति में जान डाली जानेवाली है और शोर-शराबे से लगता है कि सारा शहर एक जैसा ही सांप्रदायिक हो रहा है। यह एक नई फिनोमिना है।

मशीन पर शौकत अली और उनके सहयोगी (बाएं से दाएं)

कहते हैं कि तमसा नदी के तट पर बसे मऊ शहर पर सन् 1028 के आसपास मऊ नामक नट का शासन हुआ करता था और मऊ नट के भांजे के नाम पर इस शहर को मऊनाथभंजन भी कहा जाता था। इसका मतलब है कि आज की एक बहिष्कृत और वंचित जाति के पूर्वज कभी मऊ पर राज किया करते थे। आज के मऊ जिले में बहिष्कृत और वंचित जातियों की संख्या सर्वाधिक है। इन्हीं जातियों को वोटबैंक बनाने का एक खेल लगातार चल रहा है।

साठ के दशक में इस शहर को पूर्वाञ्चल का मैनचेस्टर कहा जाता था। आजमगढ़ जिले का हिस्सा रहे मऊ को सन 1988 में  जिला बनने का दर्ज़ा प्राप्त हुआ। 20-25 वर्ष पहले तक आसपास के गाँवों, कस्बों मसलन कोपागंज, अदरी, पूराघाट, घोसी, ताल रतोय का तटीय क्षेत्र सिपाह, मधुबन और गाजीपुर जिले का बहादुरगंज, कासिमाबाद, गंगौली, जहूराबाद, मरदह, जंगीगंज आदि के लोगों को यह शहर रोजगार दिया करता था। उत्तर प्रदेश की बुनकरी का केन्द्र मऊ शहर ही था और कहा यह भी जाता है कि बनारस के जिस छित्तनपुरा मुहल्ले में छित्तन बाबा ने बुनकारी का कारोबार शुरू किया, वहाँ वे मऊ से ही साड़ी के कलाकारों को ले आए थे। मऊ ने कई मौकों पर बनारस के बुनकरों को पनाह दी लेकिन आज खुद आर्थिक बदहाली की मार खा रहा है। मऊ शहर और आसपास के बुनकरों की जिन्दगी बद से बदतर होती जा रही है। जिले के गांव-देहात और कस्बों की बुनकरी खत्म हो गई है। आज यह शहर वस्त्र बनानेवालों की उम्मीदों को बचा नहीं पा रहा है।

कभी इसी पट्टी से निकल कर मशहूर किसान नेता सहजानंद सरस्वती ने कहा था कि ‘जो अन्न वस्त्र का काज करेगा, वही देश पर राज करेगा’। लेकिन आज अन्न उपजानेवाला और वस्त्र बनानेवाला राज्य की नीतियों से त्रस्त होकर लगातार पलायन करने को मजबूर है। मऊ शहर भी इसका एक उदाहरण है।

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