नदी एवं पर्यावरण संचेतना यात्रा अब गाँव से शहर की तरफ बढ़ने लगी है। 31 जुलाई दिन रविवार को शास्त्री घाट से निषाद राज घाट तक हम लोगों ने पदयात्रा कर वरुणा का हाल-अहवाल देखा। हमने न सिर्फ वरुणा की बदहाली देखी बल्कि किनारे के रहवासियों के हालात भी जाने। इस इलाके में निषाद और साहनी जाति के लोग ज़्यादा रहते हैं। आठ-दस सालों में अन्य जातियों की भी बढ़ोत्तरी हुई है। नदी से मछुआरों का जो रिश्ता होता है उसे हम बखूबी जानते हैं। यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि मछुआरों की उपेक्षा के कारण भी आज नदियों की दुर्दशा हो रही है।
वरुणा और असि के नाम पर बने बनारस में वरुणा नदी को सेहतमंद जीवन देने के लिए सरकार की ओर से एक के बाद एक कई प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन जैसे-जैसे वक्त गुज़रता जा रहा है, वरुणा की स्थिति वैसे-वैसे बिगड़ती ही जा रही है, आखिर क्यों? दूसरी तरफ, अधिकारी दावा करते हैं कि पहले की अपेक्षा वरुणा की दशा में सुधार आया है! गर्मी के दौरान सूखे की मार झेल रही वरुणा में जब बरसात के बाद जलस्तर बढ़ रहा है तो प्रदूषण की वजह से सफेद झाग से नदी पटती जा रही है। नक्खीघाट से लगायत सरैयां इलाके में ज़्यादातर स्थानों पर यह स्थिति देखी जा सकती है। नदी के दोनों तरफ भयावह गंदगी फैली हुई थी। बनारस में स्वच्छता अभियान के नाम पर कई अधिकारी सम्मान पाते चले जा रहे हैं लेकिन वहीं, जिलाधिकारी आवास के ठीक पीछे आज भी लोग शौच कर रहे हैं। वरुणा किनारे से सटे होटल और रस्टोरेंट, तमाम तरह की फैक्ट्रियाँ बड़े-बड़े नाले बनाकर अपनी गंदगी सीधे वरुणा नदी में गिरा रहे हैं। कोई बंदिश और सख्ती न होने के कारण नदी का दोहन हो रहा है। शास्त्री पुल के पास पचासों झोपड़ियाँ बनी हुई हैं। वे लोग अपना मल-जल नदी में गिरा रहे हैं। वरुणा कॉरिडोर की रेलिंग जगह-जगह से टूट चुकी है जो बची है उस पर किनारे के रहवासी कपड़े सुखाने का काम कर रहे हैं। वरुणा की दुर्दशा का हाल यह भी है कि नदी से जुड़े लोगों को एक पूँजीवादी व्यवस्था के तहत अलग कर दिया गया।
नदी और पर्यावरण पर जो भी सरकारी योजनाएँ अमल में लाई जाती हैं उस पर पहले आमजन का एक सर्वे रिपोर्ट तैयार कर लेना चाहिए। इससे पक्ष और विपक्ष दोनों पहलू सामने आ जाएँगे। ऐसा करने से सरकार और उनके विभाग पर कभी भी सवाल नहीं उठेंगे। उन्होंने कहा कि नदी और पर्यावरण यह धरा पर रह रहे प्रत्येक जीव का अभिन्न हिस्सा होता है।
वरुणा किनारे ही खेतों को जानवरों से बचाने के लिए बाँस की दीवाल बना रहे गोपी चंद साहनी यहाँ 50 साल से रह रहे हैं। बाप-दादाओं की ज़मीन थी जिसे पट्टीदारों ने ही कब्जा कर बेच दिया। अब जो थोड़ी ज़मीन बची है उस पर ही खेती-बारी करते हैं। बच्चे दूसरे काम करते हैं। तब जाकर गुज़ारा चलता है। वे बताते हैं कि वरुणा नदी जब साफ होती थी तो घर के सामने ही हम मछली फँसाकर उसे बेचने का काम करते थे। उस समय न कोई कानून था, न बंदिश। आज कानून तो हैं लेकिन मछलियाँ गायब हैं। इसका कारण वरुणा में दिनोंदिन बढ़ रही गंदगी है। मछलियों से जो आमदनी होती थी उससे गोपी का परिवार यानी पत्नी सहित तीन बच्चे आराम से अपना गुज़र-बसर कर रहे थे। समय के साथ नदी किनारे पूँजीपतियों का जमावड़ा होता गया। एक-दो फैक्ट्रियाँ खुलीं तो उसका पानी नदी में ही गिरने लगा। तब तक तो स्थिति ठीक थी लेकिन जैसे-जैसे पूँजीपतियों का जमावड़ा होता गया वैसे-वैसे नदी की स्थिति बदतर होती गई। गंदगी के कारण मछलियाँ कम हुईं और धीरे-धीरे गायब हो गईं। धंधा मंदा होता गया। अब खेती से साग-सब्जी की व्यवस्था होती है और बेटे दूसरा काम कर परिवार चलाते हैं।
गोपीचंद की बात से एक बात तो तय है कि नदियों पर आश्रित रहने वाले मल्लाह समुदाय के लोग आज अपने सामने नदी को तिल-तिल खत्म होते देख रहे हैं लेकिन बंदिशों के कारण कुछ नहीं कर पा रहे हैं। वरुणा नदी के किनारे रहने वाले मल्लाह समुदाय के लोग उम्मीद भी छोड़ चुके हैं और निराशा भरी ज़िंदगी को बोझ की तरह ढो रहे हैं। नदी में अब न कोई काम बचा है न कोई उम्मीद। जिस नदी के सहारे मल्लाह समाज की पीढ़ियों ने खुद को ज़िंदा किए रखा, नदी को बचाए रखा, आज उसी नदी को छोड़कर वे भी मर रहे हैं। जिस नदी को वह अपनी माँ समझते थे, आज वह नदी उनका पेट भरने में अक्षम हो गई है। नदी में मल्लाहों को अब मछलियाँ नहीं मिलतीं। परिवार का पेट भरने के लिए काम की तलाश में अब जिले से बाहर का रुख करना पड़ रहा है। परियोजनाओं के नाम पर ज़मीने छिन ली गई हैं। जो ज़मीने बची हैं उस पर दिनो-दिन बढ़ रही महंगाई के कारण खेत-बारी भी नहीं हो सकती। मल्लाहों के बच्चे बड़े हुए तो वे भी नदी की दुर्दशा देख उससे दूरी बनाते गए। एक समय गुज़र था जब नदी अपने किनारे रहने वाले लोगों का लालन-पालन करने में कोई कसर नहीं छोड़ती थी, उन्हें इतनी मछलियाँ मिल जाती थीं कि ज़िंदगी की गाड़ी चलती रहती थी। लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। वरुणा किनारे निषाद घाट पर लोग आठ-दस बरस पहले जाल लगाकर दो-चार घंटे छोड़ देते थे तो सैकड़ों मछलियाँ उसमें फँस जाती थीं लेकिन आज हालात बिलकुल इसके उलट हैं। मछुआरे बताते हैं कि अब हर दिन ‘लकी’ नहीं होता है।
निषाद घाट के पास रहने वाले गोविंद कनौजिया बताते हैं कि बहुत पहले से नदी किनारे में कपड़े धाते आ रहे हैं लेकिन सिर्फ पानी से रगड़कर ही घर ले जाते हैं। यह हमारी आदम में शुमार है। घर पर ही कपड़ों में साबुन-सर्फ का इस्तेमाल करते हैं। बाढ़ के कारण इधर-बीच वरुणा नदी थोड़ी देखने लायक हो गई है नहीं तो कुछ दिन पहले ऐसी हालत थी कि बीच में हलकर भी उस पार जा सकते थे। 35 वर्षीय गोविंद बचपन से ही नदी किनारे आवाजाही करते आ रहे हैं। नदी किनारे तब धोबियों का जमावड़ा होता था। कामधाम करते पूरा दिन गुजर जाता था। अब स्थित पहले जैसी नहीं रह गई है। नदी के सिकुड़ने और उसमें मलजल के साथ तमाम फैक्ट्रियों के हानिकारक केमिकल गिरने से पानी विषैला हो गया है। पानी में घंटों-घंटों खड़े रहकर कपड़े धोना अब मुश्किल हो गया है। शरीर में खुजली और फोड़े-फुंसी होने लगते हैं। इसलिए अब धोबी और मल्लाह समाज के काफी लोग दूसरा कारोबार पकड़ लिए हैं।
घाट की सीढियों पर बैठकर गोविंद के काम में हाथ बँटा रहीं उनकी माँ त्रिलोचन देवी करीब 75 वर्ष की हो चलीं हैं। वे अपना अनुभव साझा करते हुए बताती हैं कि एक समय था जब नदी में स्नान कर बाल्टी में पानी भरकर घर ले जाते थे। पूरा दिन उसी का पानी सेवन करने के बाद शाम को फिर आना होता था। दूसरी बाल्टी के पानी से पूरी रात और अगली सुबह तक का गुजारा हो जाता था। अपनी शादी के बाद जब वे यहाँ आई थीं तो उनके पति और वे, दोनों इसी वरुणा तट पर कपड़े धोते थे। काम पुश्तैनी है लेकिन अब धीरे-धीरे इस धंधे पर महंगाई की मार पड़ने लगी है। गाँव के लोग सोशल एंड एजुकेशनल टीम की तारीफ करते हुए वे बताती हैं मैंने नदी किनारे पक्के घाटों को बनते देखा है लेकिन पानी के स्वास्थ्य के विषय में काम करते हुए आप लोगों को पहली बार देख रही हूँ। इधर की बस्तियों में आज भी लोग चाहते हैं कि पानी साफ-सुथरी हो जाए, सरकारी आदेश के बाद उम्मीदें भी जग जाती हैं लेकिन सच्चाई तो आप लोगों के सामने है।
निषाद घाट के पास रहने वाले प्रभुनाथ साहनी वरुणा नदी के किनारे ही पले-बढ़े हैं। अधिकतर लोग उन्हें प्रभु दादा कहते हैं। जब वरुणा कॉरिडोर बना तो वे इसके पाथवे पर टहलने जाते थे। वे बताते हैं उस समय नदी थोड़ी साफ हुआ करती थी, किनारे प्रदूषण भी काफी कम था। पक्के घाट बन जाने से यहाँ आबादी बढ़ती जा रही है। आबादी के साथ प्रदूषण भी बढ़ रहा है। सीवेज लाइन बनाकर छोड़ दी गई है जो आज तक नहीं चालू हो सकी। लोगों की सारी गंदगी इसी नदी में गिरती है। सीवेज अगर चालू रहता तो काफी हद तक नदी में मलजल कम गिरता और पानी भी साफ रहती।
वरुणा की ऐसी ही दुर्दशा पर मेरी बात सबसे पहले वरिष्ठ पत्रकार विजय विनीत से हुई। उन्होंने बताया कि वरुणा नदी का एक बहुत ही पौराणिक महत्व है, ऐतिहासिक भी। नदी में जो जलकुम्भी देखी जाती है वह सबसे पहले अंग्रेज राजनीतिज्ञ वॉरेन हेस्टिंग्स (6 दिसम्बर, 1732 से 22 अगस्त, 1818) की पत्नी विदेश से लाई थी। जलकुम्भी को वे अपने मकान पर सजाती थीं। जलकुम्भी रुके हुए पानी में सबसे ज़्यादा तेजी से फैलता है। यह पानी का ऑक्सीजन भी खींचता है। यही कारण है कि इसके आसपास मछलियाँ या अन्य जलीय जीव ज़िंदा नहीं बच पाते हैं। नदी में पाए जाने वाले भटकइया का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि यह नदियों की पानी के लिए सबसे बड़ा एंटीबायटिक है। पहले नदियों के किनारे भटकइया बहुत ज़्यादा मात्रा में हुआ करता था लेकिन अब इसके खत्म हो जाने से भी पानी ज़हरीला होता जा रहा है। यह जलशोधन भी करता है। नदी किनारे गदहपुरना (पुनर्नवा) भी मिलता था जो कई बीमारियों को ठीक करता था। गदहपुरना एक सदाबहार किस्म का पौधा है। आयुर्वेद के जनक धनवंतरी के शिष्य चरक ने भी आयुर्वेद में इसका विस्तृत वर्णन किया है। नदी किनारे ग्रामीण इलाकों में पीलिया की बीमारी होने पर इसके जड़, मूल और पत्ती का प्रयोग करने से काफी लाभ होता है। मियादी बुखार, प्रसव के साथ होने वाला बुखार, खांसी में गदहपुरना को पानी में उबाल कर देने से फायदा होता है। गुड़ में मिश्रित इसके अर्क के इस्तेमाल से शरीर में खून की कमी दूर होती है। जलप्रदूषण के कारण यह सब यह औषधियाँ धीरे-धीरे खत्म होती गईं। पक्के घाट बनाने के लिए इन्हें काट दिया गया तो दोबारा इनके पौधे का रोपण भी नहीं हुआ। सबसे बड़ा और गम्भीर सवाल यह है कि नदियों का जो पानी एक समय में मेडिसिनल वॉटर हुआ करता था आज वह ज़हर कैसे हो गया? अब नदियों में सेवार नहीं होते है। सेवार के कारण काई बनती थी जिसे मछलियाँ सेवन कर ज़िंदा रहती थीं। अब सेवार ही नहीं दिख रही है तो मछलियाँ कहाँ से दिखेंगी। शहरों में दिनो-दिन गिर रहे सीवेज कारण भी मछलियाँ मर रही हैं, इनकी गंदगी से वे अंधी हो जाती हैं। वरुणा किनारे सरकार ने न कोई प्रोजेक्ट बनाया है न कोई प्लान।
वरुणा नदी की इन बदली हुई परिस्थितियों की तस्दीक साझा संस्कृति मंच के संचालक और जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता वल्लाभाचार्य पांडेय भी करते हैं। वे कहते हैं कि सरकार के आपसी मतभेद के कारण भी वरुणा का हाल गर्त में चला जा रहा है। गंगा की तरह वरुणा को भी पवित्र नदी माना जाता है। छठ जैसे विशेष तीज-त्योहारों पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहां आते हैं, लेकिन वर्तमान की हालत यह है कि सम्बंधित जिम्मेदारों की अनदेखी के चलते नदी किनारे बसे होटलों और मकानों का गंदा पानी नदी में आ रहा है। शास्त्री घाट से निषाद घाट तक नदी के किनारे करीब 50 होटल और दो हजार मकान हैं। 50 हजार से अधिक आबादी रहती है। हम शास्त्रीघाट से तकरीबन एक-डेढ़ किलोमीटर चलकर आए। इतनी दूरी में लगभग आठ नाले सीधे वरुणा नदी में गिर रहे हैं। जिलाधिकारी आवास की पिछली दीवार यहाँ से दिख रही है। बावजूद इसके नदी की यह दुर्दशा शर्मनाक है। नदी पर आश्रित मछुआरों का जीवन भी अब बोझिल हो गया है। कोरोनाकाल की प्रताड़ना के बाद मल्लाह आज तक नहीं उबर पाए हैं। गत 24 मार्च, 2020 की मध्यरात्रि से घोषित लॉकडाउन के कारण पूरे देश के लाखों मछुआरों के सामने आजीविका का संकट पैदा हो गया। मछुआरों की इस कमजोर आर्थिक स्थिति को देखते हुए केंद्रीय गृह मंत्रालय की सहमति के बाद राज्य के मछुआ कल्याण एवं मत्स्य विभाग ने लॉकडाउन होने के बावजूद 31 मार्च, 2020 को कुछ प्रदेशों में मत्स्य परिवहन और मत्स्य विक्रय केद्रों को चालू करने की अनुमति दे दी थी लेकिन मामला उससे भी कुछ आगे नहीं बढ़ा। वरुणा किनारे की अगर बाते करें तो यहाँ सैकड़ों मल्लाह परिवार अब दूसरे काम करने को मजबूर हैं। इसी कड़ी में नदी किनारे कौरव-पांडव फूल का ज़िक्र करते हुए वल्लभाचार्य ने कहा कि इसे राखी फूल के नाम से भी जाना जाता है। इस फूल में पूरा महाभारत समाहित है। रेशा जैसी निकलीं 100 शिखाओं को कौरवों कहा जाता है। उसके ऊपर जो पाँच मोटे रेशे हैं उन्हें पांडव कहा जाता है। इसके बाद जो तीन छोटे-छोटे रेशे है उन्हें धृतराष्ट्र, भीष्म और विदुर माना जाता है।
किसान नेता रामजनम ने कहते हैं कि नदियों के किनारे तो अनेक संस्कृतियाँ बसती हैं उनमें मछुआरों का सबसे अहम योगदान है। ये जाति नदियों की विशेषता और उसको स्वस्थ रखने के कई तरीकों को जानती है। सरकार को अपनी योजनाओं में मछुआरों को भी सम्मिलित करना चाहिए। नदियों की समस्याओं पर इनसे विचार-विमर्श कर निकले समाधान को अमल में लाना चाहिए। एक समय था जब मछुआरे नदियों में सिर्फ उन चीजों को ही फेंकते थे जिससे जलीय जीवों को फायदा हो, उनका पोषण हो सके लेकिन वर्तमान में कूड़ा-कचरा प्लास्टिक, रासायनिक दवाइयों के अपशिष्ट, तमाम प्रकार की गंदगी सब नदी में ही प्रवाहित कर दी जा रही है। नदियों की दुर्दशा में आमजन का भी अहम योगदान है। आलम यह हो गया है कि किनारे के लोग भी नदियों की गंदगी को और बढ़ावा दे रहे हैं। सरकार और नदियों से सम्बंधित विभागों को इस ओर गम्भीरता से विचार कर समाधान करने की ज़रूरत है।
ग्राम्या संस्थान के सुरेंद्र यादव बताते हैं कि मैंने वरुणा के पानी को साफ से गंदा होते देखा है। किनारे से थोड़ी ही दूरी पर मेरा मकान है कभी-कभार टहलने के लिए भी वरुणा नदी किनारे आ जाता हूँ। कॉरिडोर पर चहलकदमी के दौरान मैं कई नालों को सीधे नदी में गिरते देखता हूँ। उस नाले के आसपास का पूरा पानी काला हो जाता है। सफाई अभियान का जो ढिंढोरा पीटा जा रहा है वह नदियों के किनारे गायब है। गाँवों की अपेक्षा शहरी इलाकों में नदी किनारे ज़्यादा गंदगी है। सफाई के नाम पर सरकार के पास योजनाएँ तो हैं लेकिन उसे यहाँ अमल में नहीं लाया जाता। सुरेंद्र ने कहा कि अगर सप्ताह में एक दिन भी सरकारी कर्मचारी सफाई करते तो नदी का किनारा काफी हद तक साफ हो जाता। अभियान चलाकर किनारेवासियों को जागरूक करने की ज़रूरत है। इस काम के लिए सामाजिक संस्थाओं को भी उपयोग में लिया जा सकता है।
इसी तरह गोकुल दलित जो कि लगातार नदी यात्रा में शामिल हो रहे हैं, ने कहा कि गाँव के लोग सोशल एंड एजुकेशनल ट्रस्ट के तत्वावधान में निकाली जा रही नदी एवं पर्यावरण संचेतना यात्रा की तरह सरकार और सम्बंधित विभागों को जागरुकता अभियान निकालना चाहिए। वरुणा और असि नदियों के किनारे रह रहे लोगों से बातचीत कर समस्या और उसके समाधान पर चर्चा करनी चाहिए। बनारस की वरुणा नदी में अभी तक मोटर वाली नाव नहीं चल रही है अगर चलती तो पानी में गंदगी और बढ़ जाती। वर्तमान में जो पर्यावरण और नदी की दुर्दशा है उस पर हमें गम्भीरता से विचार करना होगा। हम पिछली यात्राओं में जब गाँव की तरफ थे तो वहाँ वरुणा का पानी और आसपास का पर्यावरण काफी स्वच्छ दिख रहा था। नदी यात्रा की पहली बार शहरों की तरफ आई है। इस यात्रा में हम लोगों ने नदी की काफी दुर्दशा देखी। मल्लाह समाज भी उपेक्षा का शिकार बनकर रह गया है।
योगेंद्रनाथ यादव ने नदी यात्रा में पहली बार अपनी सहभागिता दिखाई। वरुणा की दयनीय हालत पर उन्हों ने अपनी चिंता जाहिर करते हुए सुझाव दिया कि नदी और पर्यावरण पर जो भी सरकारी योजनाएँ अमल में लाई जाती हैं उस पर पहले आमजन का एक सर्वे रिपोर्ट तैयार कर लेना चाहिए। इससे पक्ष और विपक्ष दोनों पहलू सामने आ जाएँगे। ऐसा करने से सरकार और उनके विभाग पर कभी भी सवाल नहीं उठेंगे। उन्होंने कहा कि नदी और पर्यावरण यह धरा पर रह रहे प्रत्येक जीव का अभिन्न हिस्सा होता है। इसको बचाना भी हमारी ही जिम्मेदारी है। इतने वर्षों में जो दोहन हुआ है उसे अब संभालने और उसे दोबारा बनाने की ज़रुरत है। नदी एवं पर्यावरण संचेतना यात्रा जैसे जागरुकता अभियान को अमल में जाने की आवश्यकता है।
युवा कथाकार दीपक शर्मा ने कहा कि नदी एवं पर्यावरण संचेतना यात्रा अपने हर आयोजन में अलग-अलग छाप छोड़ चुकी है। यात्रा के दौरान ग्रामीणों ने जिसे तरीके से अपने अनुभव को साझा किया है उन पर काम करने की ज़रूरत है। हर चीज के दो पहलू होते हैं एक सुखद और दूसरा दुखद। यात्रा में हमने नदी के साथ किनारेवासियों के दुखद पहलुओं को ही देखा है। 20-20 बरस पहले जो नदी आमजन के उपयोग की वस्तु थी आज वह उपेक्षा के कारण ही विलुप्त होने की कगार पर पहुँच चुकी है। असि नदी को तो मैंने कभी अविरल देखा ही नहीं, लेकिन कभी-कभार ज़िक्र होने पर उसकी निर्मलता पर लोग काफी चर्चा करते हैं। वरुणा नदी का हाल भी ऐसा ही होता जा रहा है। हमारी आने वाली पीढ़िया भी कहीं इसी तरह वरुणा की अविरलता पर न चर्चा करें इस पर अभी से ही हमें जागरुक होना पड़ेगा।