वर्ष 1947 में भारत-पाक विभाजन के बाद से देश में मुसलमानों को लेकर हिंदूवादी संगठनों ने लगातार कट्टरता दिखाई। जब-जब मौक़ा मिला, तब-तब निशाना बनाया। इन दंगों को कराने में साम्प्रदायिक नेताओं, प्रशासन और सोशल मीडिया की अहम् भूमिका होती है। ध्रुवीकरण की राजनीति को साधने के लिए धार्मिक दंगे कराये जाते रहे हैं और आगे कब तक जारी रहेंगे कह नहीं सकते। खैरलांजी से लेकर भागलपुर, गुजरात तक के दंगों में, प्रत्यक्ष भागीदारी ज्यादातर पिछड़ी जातियों के लोगों की रही है। जब तक जाति उन्मूलन के लिए काम करने वाले लोग इस पर संज्ञान नहीं लेंगे, दंगों की परंपरा जारी रहेगी।
भारतीय समाज का ताना-बाना ही ऐसा बना हुआ है कि जातिवाद से मुक्ति दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। हाँ, राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में वोट की राजनीति के लिए राजनैतिक दल और नेता भले ही इसे हटाने की बात करें लेकिन जमीनी स्तर पर इसमें कोई भी बदलाव नहीं हुआ है। दो पक्षीय व्यवहार खुलकर किया जाता रहा है और यही वजह है कि ओबीसी, एससी और एसटी का शोषित हो लगातार प्रताड़ित हो रहे हैं।
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने दलितों-पिछड़ों के क्रीमी लेयर आरक्षण पर अपना फैसला सुनाया हैं। लोग अपने-अपने तरीके से सुप्रीम कोर्ट के फैसले की व्याख्या कर रहे हैं। असल में मामला वर्गीकरण का था और फैसला वहीं तक सीमित रखा जाना चाहिए था लेकिन कोर्ट के बहुत से न्यायमूर्तियों की टिप्पणियाँ यह दिखा रही हैं कि बहुतों को तो आरक्षण नाम की व्यवस्था से ही परेशानी है। कुछ वर्षों से सुप्रीम कोर्ट और राज्यों में हाई कोर्ट के कई निर्णय ऐसे आए हैं जिनसे लगता है कि ब्राह्मणवादी शक्तियाँ इस प्रश्न को न्याय प्रक्रिया में उलझाना चाहती हैं। प्रस्तुत है सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले पर विद्या भूषण रावत का विश्लेषण।
सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था अंग्रेजी शासनकाल के अंतिम समय में लागू हो चुकी थी लेकिन इस नीति का उद्देश्य समाज में उपेक्षित सामाजिक असमानता को दूर कर समतामूलक समाज की स्थापना के लिए नहीं था बल्कि इसकी जरूरत शासकीय सेवाओं में सांप्रदायिक असमानता दूर कर प्रतिनिधित्व प्रदान किए जाने तक ही सीमित था। लेकिन आज यह व्यवस्था पिछड़े व दलितों का संवैधानिक अधिकार है।
कोर्ट राजनैतिक प्रभाव में आकर या दबाव के चलते ऐसे निर्णय ले रही है जो लगातार संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है। आरक्षण को लेकर जो निर्णय अभी लिया गया है, उसमें कोर्ट ने बिना किसी डाटा के सबसे पहले ओबीसी में क्रीमीलेयर खोजा, फिर इडब्ल्यूएस की अवधारणा को लाया और बिना किसी सर्वेक्षण के ईडब्ल्यूएस के नाम पर अपरकास्ट को 10 फीसदी आरक्षण दिया। मतलब 15 फीसदी वाले समुदाय को लगभग 70 फीसदी आरक्षण देकर संविधान की सामाजिक न्याय की अवधारणा को ध्वस्त कर दिया गया। पढ़िए, आरक्षण पर आए फैसले की पड़ताल करता मनीष शर्मा का यह लेख-
आज से 70 वर्ष पहले ऐसे वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था संविधान में लाई गई थी, जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से हाशिये पर जीवन जीने को मजबूर थे क्योंकि देश का सवर्ण तबका, खासकर ब्राह्मण, उन्हें आगे बढ़ने देना नहीं चाहते थे लेकिन संविधान के सामने विवश थे। हाशिये के इन समाजों ने शिक्षित हो आगे आना शुरू किया। यही बात भारतीय सवर्णों के लिए अपच हो गई। फिर भी भारतीय संविधान हाशिये के समाजों के अधिकारों की सुरक्षा करता रहा है। अब आरएसएस के दिमाग से संचालित भाजपानीत सरकार ने हाशिये के समाज के लोगों को फिर से हाशिये पर ढकेलने के लिए अलग षड्यंत्र कर रही है। देश का अपना संविधान होने के बावजूद आरएसएस यहाँ अपना एक अलग मनुवादी संविधान थोपने के प्रयास में है। प्रायः सभी चयन समितियों में अपने वर्चस्व का लाभ उठाकर शिक्षा और नौकरियों के मामले में उन्हें NFS कर हटाने के प्रयास में है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के ताजा मामले में जानिए कि कैसे आठ उम्मीदवारों को NFS कर दिया गया।
भारत में आरक्षण, समाज के सबसे पिछड़े और वंचित समुदाय को मुख्य धारा में शामिल करने की जाति आधारित सकारात्मक कार्रवाई है। भारतीय संविधान के अनुसार केंद्र और राज्य सरकार में सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए शिक्षा, रोजगार और राजनैतिक निकायों में सीटों का प्रतिशत निर्धारित किया गया है। लेकिन मनुवादी व्यवस्था ने वर्ष 2019 में अपने लिए 10 प्रतिशत सुदामा कोटा हासिल कर लिया, जो उनकी आबादी के हिसाब से है लेकिन पिछड़ों को उनकी आबादी के हिसाब से आधा भी नहीं मिला। इसलिए यह मांग की जाती रही है ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।'
प्राचीन समय से मनुवादियों ने समाज के दलित-वंचित समुदाय को शिक्षा लेने से वंचित रखने के लिए मनुस्मृति का सहारा ले उन्हें भरमाया। जब-जब वे पढ़ना चाहे, तब-तब पढ़ने से रोकने के लिए उन्हें अपमानित कर अपना पुश्तैनी काम करने के लिए कहा। देश में संविधान -लागू होने के बाद सभी को समान अधिकार प्राप्त हुआ, उसके बाद, जब ओबीसी,एससी और एसटी वर्ग के लोग शिक्षित हो बेहतर योग्यता से सामने आने लगे तब उनकी बेचैनी सामने आने लगी। इस वजह से उन्हें दिये गए आरक्षण को किसी भी तरह से रोकने के लिए शातिर तरीके अपना रहे हैं। अभी लगातार अनेक विश्वविद्यालयों से आरक्षित पदों के उम्मीदवारों को NFS करने की सूचना आ रही है। सवाल यह उठता है कि क्या सभी योग्यता सवर्णों में और सारी अयोग्यता ओबीसी, एससी और एसटी वर्ग में है।
4 जून से पहले, चुनाव को लेकर जहां पूरे देश में अलग-अलग पार्टियों की राजनीति चर्चा केंद्र में थी, वहीं 4 जून को नीट के नतीजे आने बाद नीट पपेरलीक होने की चर्चा हो रही है। फिर 18 जून को नेट परीक्षा का पेपरलीक हो गया। परीक्षा एजेंसी ने दुबारा परीक्षा करवाने की बात जरूर कही है लेकिन क्या आने वाले दिनों में पेपरलीक नहीं होगा, इसका भरोसा युवा कैसे करें?
देश के विश्वविद्यालयों में असिस्टेंट प्रोफेसरों के पदों पर साक्षात्कार के आधार पर चयन किया जाता है। विश्वविद्यालयों की साक्षात्कार समितियों में अधिकतम एक्सपर्ट सवर्ण प्रोफेसर होते हैं। इसलिए वे बड़ी आसानी से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के कोटे की सीट को None Found Suitable कर देते हैं। ताजा मामला उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में स्थित डॉ. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, प्रयागराज का है।
भाजपा मुसलमानों को आरक्षण का हकमार बताए जा रही है, उसके पीछे का सबसे बड़ा कारण यह है कि वह आरक्षण के असल हकमार वर्ग से राष्ट्र का ध्यान भटकाए रखना चाहती है। चूँकि वह चुनाव में मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाकर ही कामयाबी हासिल करती रही जिसे वह आगे भी जारी रखना चाहती है।
कुछ समय पहले तक आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ओबीसी आरक्षण के सख्त खिलाफ थे और आरक्षण को लेकर लगातार विरोध में बयान दिया करते थे लेकिन चुनाव आते ही उनके सुर बदल गए क्योंकि देश में ओबीसी का बड़ा वोट बैंक हैं।
मंडल बनाम कमंडल यानी ओबीसी आरक्षण बनाम राम मंदिर की लड़ाई में उन पिछड़ी जातियों के साथ आरएसएस और भाजपा ने खुलेआम धोखा किया है, जिन्होंने उसके बहकावे में आकर शैक्षिक एवं आर्थिक अधिकारों के लिए लागू किये गए ओबीसी आरक्षण के बजाय राम मंदिर आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था।
बिहार के कई ऐसे गांव हैं जहां प्रति वर्ष ग्रामीणों की एक बड़ी आबादी रोज़गार के लिए पलायन करती है। इनमें अधिकतर संख्या अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, ओबीसी और पसमांदा तबके की है। जो आर्थिक रुप से काफी कमज़ोर होते हैं।
हैदराबाद, (भाषा)। ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने बुधवार को कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जाति के आधार पर मतदान...