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राजेंद्र यादव और मैंने 1857 की अवधारणा पर सवाल उठाया

मैंने समाजवादी पार्टी की आलोचना की तो कुछ यादवों को मेरे यादव जाति में पैदा होने पर ही शक हो गया (बातचीत का चौथा और अंतिम भाग) आपने ‘1857 का मिथक…’ लेख जब लिखा था तो कुछ लोगों ने उस समय आपके साथ-साथ राजेन्द्र यादव (क्योंकि आपकी  राय से राजेन्द्र जी इत्तेफाक रखते थे) को […]

मैंने समाजवादी पार्टी की आलोचना की तो कुछ यादवों को मेरे यादव जाति में पैदा होने पर ही शक हो गया

(बातचीत का चौथा और अंतिम भाग)

आपने ‘1857 का मिथक…लेख जब लिखा था तो कुछ लोगों ने उस समय आपके साथ-साथ राजेन्द्र यादव (क्योंकि आपकी  राय से राजेन्द्र जी इत्तेफाक रखते थे) को जातिवादी ठहराने का प्रयास किया था। इसी के साथ उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार  के  समय जब आपको उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का साहित्य भूषण सम्मानमिला तो कुछ लोगों ने आपको अखिलेश यादव की सरकार  से जोड़ते हुए इसे जाति का मुद्दा बनाया, इस पर आप क्या कहेंगे?

यह सचमुच दिलचस्प है कि ‘1857’ पर मेरे लेख को लेकर राजेन्द्र यादव और मुझे एक साथ जातिवादी कहा गया क्यों कि हम  दोनों ने 1857 को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम या जनक्रांति न कहकर इस अवधारणा को प्रश्नांकित किया था। विजयेन्द्र नारायण सिंह ने तो  अपने एक लेख में यह तक लिख दिया कि ‘राजेन्द्र यादव ने सूत्र लिखा, वीरेन्द्र यादव ने भाष्य।’ एक लेखक ने तो ‘यादव बुद्धिजीवियों’  की एक कोटि का ही ईजाद कर दिया था। मैंने  जब डॉ. रामविलास शर्मा की कथा-आलोचना पर लेख लिखा था तब रामविलासजी के  एक भक्त लेखक ने अपने एक लेख में मुझे ‘अहीर कुल भूषण’ तक कह डाला था। एक दलित लेखक मुझ पर कुपित हुए तो उन्होंने  लिखा कि मैंने ‘गोदान’ पर इसलिए लिखा कि होरी अहीर था (वैसे होरी अहीर नहीं था) और ‘गोदान’ पर लिखकर मैं साहित्य की  वैतरणी पार करना चाहता हूँ। मैंने समाजवादी पार्टी की आलोचना की तो कुछ यादवों को यादव जाति में मेरे पैदा होने पर ही शक होने  लगा और कई हमारे माक्र्सवादी मित्र मुझे अस्मितावादी इसलिए कहने लगे कि मैं वर्ग के  साथ वर्ण की भी चर्चा करता हूँ। अब ऐसे में  यदि हिन्दी संस्थान के मेरे पुरस्कार को अखिलेश यादव के  मुख्यमंत्री होने  के  चलते यादव जाति से जोड़ दिया जाय तो मैं क्या स्पष्टीकरण दूं! अब मैं किस-किस को बताऊं कि मेरे बेटे-बेटी का अंतरजातीय विवाह हुआ है और मैंने या मेरे परिवार के  किसी व्यक्ति  ने न कभी जाति प्रमाण पत्र बनवाया और  न ही आरक्षण आदि की कोई सुविधा प्राप्त की।

[bs-quote quote=”अपने शुरुआती दौर में साहित्य समाज में आत्मीयता, सहकार और समर्पण का जो भाव मैं देखता था वह छीज रहा है। बहुतों  के  लिए अब साहित्य कैरियर हो गया है। पुरस्कार, पद, प्रतिष्ठा की भूख बढ़ी है। आत्म प्रशंसा और आत्म प्रचार की निर्लज्जता भी अब  दृश्यमान है। बहुत कम लोग ऐसे हैं जिनके लिए साहित्यिक मूल्य और जीवन मूल्य के बीच कोई अंतर नहीं है। मुक्तिबोध जिसे  लोभ-लालच का समीकरण कहते थे, वह अब आम चलन के रूप में है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

तद्भवके सम्पादक और कथाकार अखिलेश आपके मित्र हैं। आप तद्भवमें पहले अंक से लिखते भी रहे हैं। इस पर कुछ लोग  कहते रहे हैं  कि तद्भवने आपको स्थापित किया है तो कुछ लोग आप पर मीडियाकर का आरोप लगाते हैं, इन आरोपों पर क्या कहना चाहेंगे?

दरअसल यह संयोग था कि उपन्यास आलोचना को लेकर मेरे गंभीर लेखन की शुरुआत और लखनऊ से ‘तद्भव’ के प्रकाशन का समय लगभग एक ही है, लेकिन उपन्यास आलोचना को लेकर ‘नवें दशक में उपन्यास’ शीर्षक मेरा पहला लम्बा विनिबंध वर्ष 1998  में ‘पहल पुस्तिका’ के रूप में प्रकाशित हुआ था। इस लेख को मुझसे लिखवाने का संपूर्ण श्रेय ज्ञानरंजन जी को है, जिन्होंने इसके लिए  मुझे बीस से अधिक पुस्तकें भेजीं और दर्जनों पत्र लिखकर मुझ पर दबाव बनाए रखा। इसके बाद ‘उत्तर प्रदेश’ पत्रिका की ‘साहित्य  वार्षिकी’ में मेरा ‘हिन्दी उपन्यास-एक सबाल्टर्न प्रस्तावना’ शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ जो अब मेरी पुस्तक में भूमिका के  रूप में प्रकाशित  है। ‘तद्भव’ के लेख इसके बाद के  हैं। एक संपादक के रूप में अखिलेश का बड़ा योगदान मुझे लिखने की खुली छूट देने और लिखने के लिए दबाव बनाए रखने का रहा है, जिसके चलते ही उपन्यासों पर लिखने का नैरन्तर्य लम्बे समय तक बना रहा। ‘तद्भव’ में  लगातार छपने का महत्व यह रहा कि लोगों ने निरन्तरता के साथ मेरे लेखन को पढ़ा और एक राय बनाई। हाँ, इसी दौर में डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव ने भी ‘आलोचना’ में मुझसे लगातार लिखवाया। मैं डॉ.परमानन्द श्रीवास्तव, ज्ञानरंजन और अखिलेश तीनों का ‟तज्ञ  हूँ कि इन्होंने उपन्यास आलोचना के  गंभीर कर्म के  प्रति मुझे केन्द्रित रखने में नियामक भूमिका निभाई। बाद में डॉ.नामवर सिंह ने भी अपने द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘आधुनिक हिन्दी उपन्यास’ खंड दो की लम्बी भूमिका मुझसे लिखवाकर मेरी औपन्यासिक आलोचना को विशेष महत्व प्रदान किया।

प्रो.रूपरेखा वर्मा,आलोचक वीरेन्द्र यादव,तद्भव के संपादक अखिलेश और कथाकार शकील सिद्दीकी

छत्तीसगढ़ में जल-जंगल-जमीन की लड़ाई लड़ रहे आदिवासियों के साथ मुख्यमंत्री रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा सरकार कैसा सुलूक कर रही है और आदिवासियों के  पक्ष में आवाज उठाने वाले पत्रकारों, लेखकों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को किस तरह  निशाना बना रही है, इससे सारा बौद्धिक जगत परिचित है। इसके  बावजूद 2014 में राज्य में भाजपा सरकार के 11 वर्ष पूरे होने पर  अपरोक्ष रूप से सरकार की उपलब्धियों का बखान करने के लिए रायपुर में एक सांस्कृतिक जलसे का आयोजन किया गया तो सरकार के  न्योते पर हिन्दी के अनेक लेखकों (विनोद कुमार शुक्ल, नरेश सक्सेना, अशोक बाजपेयी, पुरुषोत्तम अग्रवाल आदि) ने उसमें शिरकत  की। इसका विरोध करते हुए आपने ओम थानवी के सम्पादकत्व वाले जनसत्तामें पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?’ नामक लेख  लिखा। उसके जवाब में संपादक ने पांच लेख प्रकाशित किए, जिसका आपने जवाब तक नहीं दिया?

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रायपुर प्रसंग पर ‘जनसत्ता’ में ‘पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है’ शीर्षक लेख का व्यापक रूप से हिन्दी साहित्य संसार में  स्वागत और अनुकूल प्रतिक्रिया हुई थी। हाँ, यह जरूर हुआ कि ‘जनसत्ता’ ने मेरे लेख के विरोध में तो कई लेख छापे, लेकिन समय से  भेजे जाने के बावजूद मेरा प्रतिवाद नहीं छापा। फिर वही प्रतिवाद कि चिंतित परिवर्धित स्वरूप में ‘पाखी’ में प्रकाशित हुआ, जिससे कुछ लोग इतना कुपित हुए कि पत्र-पत्रिकाओं में मेरे छपने के ही विरुद्ध दुरभिसंधि करने लगे। पर, मुझे संतोष है कि लेखकीय प्रतिरोध की मुहिम को तेज करने के लिए इस दौर में मुझे जो लिखना था वह लिखा और ‘हंस’ व ‘शुक्रवार’ सरीखी पत्रिकाओं ने इसे बखूबी छापा।

क्या उन लोगों के नाम उजागर करना चाहेंगे जिन्होंने आपके पत्र-पत्रिकाओं में छपने के विरुद्ध दुरभिसंधि की?

दरअसल नाम न लेकर भी मैं इतना तो कह ही सकता हूँ कि ये वही लोग थे जो रायपुर आयोजन में शामिल हुए थे । ‘पाखी’  पत्रिका में जब मेरा ‘प्रतिरोध का प्रहसन’ शीर्षक लेख छपा तो पाखी के मालिक अपूर्व जोशी ने तो अपने स्तम्भ में ‘पाखी’ के संपादक प्रेम भारद्वाज को उस लेख को छापने का खामियाजा भुगतने का लिखित संकेत भी कर दिया था।

जिस राजनीतिक दल भाजपा की राज्य सरकार के आयोजन में लेखकों के जाने पर आपने ऐतराज जताया, मौजूदा समय में केंद्र से लेकर तकरीबन डेढ़ दर्जन राज्यों में उसकी सरकारें हैं। इन परिस्थितियों में अधिकांश मंचों से किनाराकशी करना क्या उचित है  अथवा उन्हीं मंचों पर जाकर अपने दृष्टिकोण से बात रखना उचित है। मंच साझा करने में समान विचारधारा को इतना महत्व क्यों दिया  जाता है, क्या दूसरी विचारधारा से प्रभावित होने का खतरा रहता है? इसी से जुड़ा एक दूसरा सवाल है कि एक तरफ उनके मंचों पर  जाने से वाम विचारधारा वाले लेखकों को ऐतराज रहता है वहीँ दूसरी ओर उसी राजनीतिक दल की सरकारों से पत्रिकाओं के लिए  विज्ञापन लेने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। साहित्यिक आयोजनों के लिए सहायता लेने में भी संकोच नहीं होता हैइसके पीछे कौन से तर्क  काम करते हैं?

मंचों पर जाने न जाने के किसी शुद्धतावादी आचरण का पक्षधर मैं भी नहीं हूँ, लेकिन यह विचार अवश्य करना चाहिए कि किस मंच को जनतांत्रिक विमर्श के  मंच के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और कौन से मंच राजनीतिक वैधता प्राप्त करने के लिए सजाए जा  रहे हैं । केंद्र और प्रदेशों में भाजपा सरकारें साहित्य और संस्कृति के आवरण में अपने हिन्दुत्ववादी एजेंडे और सरकारी कार्यक्रमों के  बैनर  तले लेखकों और संस्कृतिकर्मियों का राजनीतिक उपयोग और अनुकूलन करना चाहती हैं । आवश्यकता है ऐसे मंचों और आयोजनों से सुरक्षित दूरी बनाने की। ‘हंस’ या ‘कथाक्रम’ ने भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के आर्थिक सहयोग से आयोजन किए, लेकिन ये  आयोजन सरकारी एजेंडे के अंतर्गत नहीं किए गए थे। इनमें किसी मंत्री या राज्यपाल की सहभागिता भी नहीं थी। मुझे इस तरह के  मंचों पर जाने और शिरकत करने पर कोई गुरेज नहीं है। दरअसल यह अपने चुनाव व प्राथमिकता का भी मसला है। लखनऊ की  आम्बेडकर महासभा ने मुझे ‘आम्बेडकर रत्न सम्मान’ देने की घोषणा की, लेकिन जब मुझे बताया गया कि यह सम्मान मुझे उत्तर प्रदेश  के संघी राज्यपाल राम नाईक द्वारा दिया जाना है तो मैंने यह सम्मान ग्रहण करने से मना कर दिया। विगत वर्ष मुझे आगरा में गुलाब  राय सम्मान दिया जाना था। बताया गया कि सम्मान समारोह के मंच पर भाजपा के एक केन्द्रीय मंत्री हो सकते हैं। मैंने  सम्मान लेने में  अपनी अनिच्छा व्यक्त की तो आयोजकों ने यह सुनिश्चित किया कि समारोह में भाजपा मंत्री की शिरकत न हो तो यह अपनी अंतरात्मा  की गवाही का मसला अधिक है शुद्धतावादी दृष्टिकोण का नहीं। मैं ‘हंस’ और ‘तद्भव’ में लिखता हूँ उसमें सरकारी विज्ञापन छपते हैं,  लेकिन ये पत्रिकाएं  प्रसंगानुकूल  संघी विचार के प्रति पर्याप्त रूप से आलोचनात्मक नजरिया रखती हैं, इसलिए मुझे कोई असुविधा नहीं  महसूस होती।

कवि और चिन्तक कमलेश के  सीआईए समर्थक वक्तव्य पर कथादेशमें आपके  और कमलेशजी के बीच खासा तीखा विवाद हुआ  था। वह क्या प्रसंग था?

दरअसल हुआ यह था कि ‘समास’ पत्रिका में प्रकाशित अपने एक साक्षात्कार में कमलेशजी ने कहा था कि ‘शीतयुद्ध के दौरान  सीआईए ने जो साहित्य उपलब्ध कराया उसके लिए मानव जाति अमरीका औए सीआईए की ऋणी है।’ यह कहते हुए उन्होंने भारत के  वामपंथियों की घेराबंदी की थी। मैंने उसी प्रसंग पर ‘कथादेश’ पत्रिका में एक तीखा लेख लिख दिया, जिसका जवाब पहले अर्चना वर्मा  ने दिया फिर कमलेश ने अत्यंत अभद्र भाषा में मेरे ऊपर व्यक्तिगत टिप्पणियाँ करते हुए आक्रोश भरा प्रत्युत्तर लिखा था। दरअसल अपने  अंतिम दौर में कमलेश कट्टर हिदुत्ववादी संघी ब्राह्मण हो गए थे। उसीके चलते वे वामपंथियों के विरुद्ध वैचारिक रूप से हमलावर रहते  थे । अब वह नहीं हैं इसलिए मैं उस प्रकरण को एक अशोभन पोलेमिक्स मानकर भूल जाना चाहता हूँ। उसी दौर में ओम थानवी से भी  फेसबुक पर अज्ञेय को लेकर लम्बा विवाद हुआ था। उदय प्रकाश भी उन्हीं दिनों स्वयं पर लिखे गए मेरे एक लेख को लेकर फेसबुक  पर हमलावर हुए थे। कमल किशोर गोयनका से भी प्रेमचंद को लेकर ‘जनसत्ता’ में मेरा इन्हीं दिनों विवाद हुआ था। संघी शंकर शरण  को भी निराला प्रकरण पर मैंने ‘जनसत्ता’ में करारा जवाब दिया था। तात्कालिक मुद्दों पर मैं  इस सब को अपना जरूरी हस्तक्षेप मानता  हूँ, महज एक विवाद नहीं।

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अपने शुरुआती दिनों के  साहित्यिक दौर और आज के दौर में आपको क्या अन्तर नजर आता है?

अपने शुरुआती दौर में साहित्य समाज में आत्मीयता, सहकार और समर्पण का जो भाव मैं देखता था वह छीज रहा है। बहुतों  के  लिए अब साहित्य कैरियर हो गया है। पुरस्कार, पद, प्रतिष्ठा की भूख बढ़ी है। आत्म प्रशंसा और आत्म प्रचार की निर्लज्जता भी अब  दृश्यमान है। बहुत कम लोग ऐसे हैं जिनके लिए साहित्यिक मूल्य और जीवन मूल्य के बीच कोई अंतर नहीं है। मुक्तिबोध जिसे  लोभ-लालच का समीकरण कहते थे, वह अब आम चलन के रूप में है। लेकिन इस सब के बीच प्रतिरोध की मुहिम भी जिन्दा है। हाँ,  यह जरूर है कि हिन्दी साहित्य समाज में जितनी गिरावट आई है उतनी संभवतः अन्य भाषा-भाषियों में नहीं। शायद इसलिए भी कि  हिन्दी समाज में अवसर और संभावनाएं भी बढ़ी हैं। समाज के  स्तर पर यह परिवर्तन हुआ है कि जो लोग साहित्य के  नाम पर प्रिंट और  इलेक्ट्रानिक मीडिया पर दृश्यमान हैं वे ही बड़े साहित्यकार माने जाते हैं। बहुत कम लोगों को पता है कि कौन क्या लिखता-पढ़ता है!  अखबार में फोटो और बयान से अधिक पहचान बन रही है, रचनाओं से कम। लेखकों के बीच भी पढ़ने का चलन कम हो रहा है। सर्वत्र  एक तुरंता और निपटाऊ भाव मौजूद है।

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कथित विकास के दौर में क्या नया लिख-पढ़ रहे हैं?

जैसा जितना चाहता हूँ, वैसा उतना काम नहीं कर पा रहा हूँ। वर्तमान राजनीति हर रोज इतना व्यथित और क्रूद्ध करती है कि  कभी-कभी सब लिखना-पढ़ना निष्प्रयोज्य लगने लगता है। तात्कालिक जरूरत और दबाव के  तहत कुछ काम जरूर हो जाता है, लेकिन  योजना के साथ मुझे जो काम अब तक कर लेने चाहिए थे वे अभी तक अधूरे या छूटे हुए हैं। इसके लिए मेरे मन में आत्मधिक्कार का  भाव हमेशा बना रहता है।

खाली समय में क्या करते हैं ?

मुझे पढ़ने-लिखने केअलावा कोई शौक नहीं, न खेल न सिनेमा न संगीत न और  कुछ। किताबें खरीदना और उनके बीच रहना ही मेरा प्रिय शगल है। अनपढ़ी किताबों की संख्या बढ़ती जा रही है। हाँ, अनियमित दिनचर्या के  बीच दिन में खाने के बाद लम्बी नींद  का व्यसन अब जरूर पाल लिया है। इधर सोशल मीडिया पर भी कुछ ज्यादा ही सक्रिय रहा हूं। अब इससे विदड्राल के  मोड़ में आना  चाहता हूं। बाकी अखबार और पत्र-पत्रिकाओं से मेरा पुराना लगाव है, जो पहले की ही तरह आज भी बरकरार है। खाली समय को  भरने का यह मेरे लिए सबसे बड़ा व्यसन है।

 

वीरेन्द्र यादव सुप्रसिद्ध आलोचक हैं,अभी हाल ही में इन्हें शमशेर सम्मान से सम्मानित किया गया है।

अटल तिवारी पत्रकारिता के प्राध्यापक हैं और दिल्ली में रहते हैं।

 

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