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यह ‘विद्रोही’ भी क्या तगड़ा कवि था

नयी खेती शीर्षक कविता संग्रह के प्रकाशित होने के पहले रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ प्राय: एक गुमनाम कवि की जिंदगी जी रहे थे। ‘विद्रोही’ के आलोचक प्रणय कृष्ण को, उनकी कविताओं को खोज निकालने और प्रकाशित करने तक कितने पापड़ बेलने पड़े थे, इसका उल्लेख उन्होंने भूमिका में किया है। कारण यह कि विद्रोही कविता करते […]

नयी खेती शीर्षक कविता संग्रह के प्रकाशित होने के पहले रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ प्राय: एक गुमनाम कवि की जिंदगी जी रहे थे। ‘विद्रोही’ के आलोचक प्रणय कृष्ण को, उनकी कविताओं को खोज निकालने और प्रकाशित करने तक कितने पापड़ बेलने पड़े थे, इसका उल्लेख उन्होंने भूमिका में किया है। कारण यह कि विद्रोही कविता करते रहे, न कहीं छपे और न इसकी उन्होंने कभी कोई फिक्र की। यह कविता कहते थे, चाहे कितनी भी लंबी क्यों न हो। प्रणय कृष्ण ने लिखा है कि मेरे बहुत कहने पर कई दिनों की मेहनत के बाद वे ढेर सारी कविताएं लिखकर मुझे दे गए, पर किन्हीं कारणों से मैं उन्हें प्रकाशित नहीं कर सका, जिसका मुझे दुख है। बाद में जेएनयू के छात्रों द्वारा विद्रोही की कविताएं या तो रेकार्ड की गईं या हस्तलिपि में उतारी गईं। विद्रोही के कुछ प्रशंसकों ने कुछ कविताएं यू-ट्यूब और बीबीसी की बेवसाइट पर डाल रखी थी। इस तरह कविताओं को इकट्ठा कर संपादित करने से यह संग्रह संभव हो सका।

अभी-अभी 2018 में बृजेश यादव द्वारा संपादित नई खेती का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ, जिसमें लगभग आठ नई कविताएं जोड़ी गई हैं। इनमें दो लंबी कविताएं- इंकलाब चाहिए और मारि के मुआय देब, जरि से मिटाय देब भी शामिल हैं। आग के फूल की तरह खिलने को बेताब विद्रोही शीर्षक लंबी भूमिका वस्तुत: कवि विद्रोही और उनके कवि-कर्म की गंभीर व विचारोत्तेजक समीक्षा है। दोनों ही संपादक-आलोचकों ने विद्रोही के जेएनयू प्रयास की कठिनाइयों से लेकर उनकी जमीनी कविता की जमीन को रेखांकित करते हुए, प्रतिरोध-प्रतिकार की संस्कृति को समृद्ध करने वाले जनवादी कवियों की परंपरा में विद्रोही का स्थान निर्धारित करने की कोशिश की है। भूमिका के आरंभ में ही बृजेश ने लिखा है कि ‘‘विद्रोही ने हमारे युग की वह तस्वीर देख ली जहां चौतरफा आग लगी है, सब कुछ जला-बरा भस्म हुआ जा रहा है। वीरेन डंगवाल के यहां जो ‘कालापन’ पैदा होता है (हमारा समाज), गोरख पांडेय के यहां जो ‘बौनापन’ पैदा हो रहा है (उठो मेरे देश) ठीक वही मानिए कि विद्रोही के यहां आग लग हुई है। यह हमारे युग की यथार्थ छवि है। जहां सिर से पांव तक हर गतिविधि में भेद की निर्मिति हो रही है।’’1 और रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ इसी भेद की निर्मित्ति का सबसे बड़ा शिकार हुआ है। लेकिन यह भी सच है कि इसी निर्मिति की विषम परिस्थितियों ने विद्रोही के दृढ़ निश्चयी एवं मुक्तिकामी-आस्थावान व्यक्तित्व को गढ़ा भी है।

[bs-quote quote=”बहुत ही खतरनाक ढंग से कविता के भीतर प्रवेश करने का अदम्य साहस रखने वाले, प्रतिरोध के प्रखर कवि कबीर के सच्चे वारिस का नाम है- रमाशंकर विद्रोही। जो मुख्यधारा के हिन्दी साहित्य में गुमनामी का जीवन जीने को अभिशप्त रहा है। कबीर के वारिसों की लंबी सूची है जिनमें प्रतिरोध की परंपरा को विकसित करने वाले जनवादी कवि भी आते हैं और अंबेडकरवादी कवि भी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

विद्रोही के प्रोफेसरों ने कदम-कदम पर उन्हें अपमानित किया है। जान-बूझकर उनका करियर खराब करने की नीयत से एमए प्रथम वर्ष के सभी आठ पेपरों में ‘बी ओनली’ दिया गया। स्वयं विद्रोही के अनुसार करियर खराब करने के मकसद से ऐसा किया गया। कहा जा सकता है कि विद्रोही को वंचित समाज का तेज विद्यार्थी होने की सजा मिली जो आज के समय जेएनयू सहित तमाम विश्वविद्यालयों में बहुजन छात्रों के उत्पीड़न में आम बात हो गई है। एक प्रसंग तो जेएनयू के छात्रों के बीच किंवदंती बन गया है कि विद्रोही ने टर्म और सेमिनार पेपर लिखने की जगह बोलने की जिद ठान ली और प्रोफेसरों से कहा कि उनके बोलने पर ही मूल्यांकन किया जाए। प्रणय कृष्ण ने लिखा है कि ‘‘ऐसे में विद्रोही ‘अमूल्यांकित’ ही रहे लेकिन जेएनयू छोड़ कहीं गए भी नहीं, वहीं के नागरिक बन गए। जेएनयू की वाम राजनीति और संस्कृति प्रेमी छात्रों की कई पीढ़ियों ने विद्रोही को उनकी ही शर्तों पर स्वीकार और प्यार किया है और विद्रोही हैं कि छात्रों के हर न्यायपूर्ण आंदोलन में उनके साथ तख्ती उठाए, नारे लगाते, कविताएं सुनाते, सड़क पर मार्च करते आज भी दिख जाते हैं। बेटा एक बार इनको पकड़कर गांव ले गया, कुछेक महीने रहे, खेती-बारी की लेकिन जल्दी ही वापस अपने ठीहे पर लौट आए। जेएनयू में रहने के चलते विद्रोही की आवाज दिल्ली की सड़कों पर, बैरिकेडों और पुलिस पिकेटों के सामने, तमाम तरह के लोकतांत्रिक जुलूसों, प्रदर्शनों के समय दो दशक से भी ज्यादा समय से सुनी जाती रही हैं। पिछले दिनों 27 दिसंबर, 2010 के दिन साथी विनायक सेन को उम्र कैद सुनाए जाने के खिलाफ संसद मार्ग पर विशाल प्रतिवाद सभा का समापन विद्रोही के काव्यपाठ से हुआ। आंदोलन और विरोध सभाओं के दौरान कविता सुनाकर विद्रोही बच्चों की तरह खुश होते हैं, अपनी उपलब्धि बताते हैं। यही उनका तमगा है, यही पुरस्कार।’’2 ध्यान देने की बीत है कि रमाशंकर विद्रोही कविता कहते थे, लिखने और छपने-छपवाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। इसी तरह मान-सम्मान और पद-प्रतिष्ठा-पुस्कार क्या होता है, इसे जानने की जरूरत ही नहीं समझी। इसलिए जेएनयू के प्रोफेसरों से वह भले ‘अमूल्यांकित’ रह गए लेकिन छात्र-छात्राओं की कई पीढ़ियों ने उन्हें सर-आंखों पर बिठाया, यही उनका मान-सम्मान और पुरस्कार है। विद्रोही पैसे के पीछे कभी नहीं भागे, इसकी आवश्यकता भी महसूस नहीं हुई। जेएनयू के छात्रों ने रुपये की खनक से उनकी जिंदगी की खनक को कभी फींका नहीं पड़ने दिया। विद्रोही ने छात्रों के उतारे हुए बेसाइज के ढीले-ढाले कपड़े पहनकर, किसी भी छात्रावास में किसी छात्र के कमरे में रहकर या फिर गंगा ढाबा में पत्थर की पटिया पर न जाने कितनी रातें बिता दीं, कभी भूखे पेट भी रहना पड़ जाता होगा। मेरा विश्वास है कि ऐसे में प्रकृति भी उनकी मददगार साबित होती होगी। आखिर जेएनयू के जामुन किस दिन काम आते जिन्हें विद्रोही ने बड़ी शिद्दत से याद किया है-

जेएनयू में जामुन बहुत होते हैं/ हम लोग तो बिना जामुन के

न जेएनयू में रह सकते हैं/ न दुनिया में ही रहना पसंद करेंगे

कुछ अपने घर जाएंगे/ कुछ लोग मर जाएंगे

लेकिन हम कहां जाएंगे/ हम जो न मर रहे हैं न जी रहे हैं

सिर्फ कविता कर रहे हैं।3

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इस तरह जीते-मरते फटेहाल जिंदगी 33 साल तक खींच ले जाना, बिना किसी आत्म विगलन के, यह कोई मामूली बात नहीं है। विद्रोही अपने लिए कहां जीते थे, दूसरों के लिए जीते थे, दूसरों के लिए सोचते थे और दूसरों के लिए कहते व करते थे। इसलिए प्रणय कृष्ण ने भूमिका में लिखा है- ‘‘विद्रोही की कविता में उनके व्यक्तिगत दुख कहीं नहीं हैं, हर कहीं समूह के ही दुख, तकलीफ, आस्था और मुक्ति के नगमें हैं। विद्रोही खुद को लोगों में घुलाकर ही कवि बने हैं। विद्रोही की कविता बोलचाल से निकली गंभीर अर्थों, मुक्ति के भव्य आशयों, महान सपनों वाली कविता है, उसे अनपढ़ भी समझ सकता है।’’4 इसमें दो राय नहीं कि विद्रोही मध्यकालीन संतों की तरह मलंगई का सरल जीवन जीते थे लेकिन उनके विचार तार्किक और वैचारिक थे। सचमुच विद्रोही बड़े सपनों वाले कवि थे और उनकी कविता में एक व्यापक विश्व-दृष्टि मिलती है। इस संदर्भ में धर्म, मोहनजोदड़ो की आखिरी सीढ़ी से और औरत शीर्षक कविताओं को देखा जा सकता है।

निष्कासन के बाद, जब से विद्रोहीजी जेएनयू के स्वयंभू नागरिक बन बैठे तभी से गंगा ढाबा सहित जेएनयू के ढाबे, उनके साथी पता बन गए। बिना नागा किए शाम को जेएनयू पहुंच जाते विद्रोहीजी और जब तक सभी ढाबे बंद न हो जाते तब तक तो वहीं बने रहते, फिर कहीं न कहीं चले जाते। उस समय विद्रोही की दिनचर्या के बारे में प्रणय कृष्ण ने लिखा है- ‘‘1993-94 में, कुछ दिन तक वे कमरे में या मैं जिस भी हास्टल के जिस कमरे में रहूँ, विद्रोही वहीं ठहर जाते। एक दिन सुबह-सुबह भाभीजी पधारीं उन्हें लिवा ले जाने। कई दिनों से घर में महाशय के पांव ही नहीं पड़े थे। भाभीजी सामान्य-सी नौकरी करती हैं। फिर भी उन्होंने विद्रोही का साथ निभाया है। विद्रोही का साथ निभाया, उनके ही जिगर की बात है।’’5 जेएनयू के ढाबों पर देर रात तक क्यों पड़े रहते थे विद्रोही, क्या करते थे और यह क्यों कहते थे कि गंगा ढाबे पर नूर बरसता है, इसे पूरे विस्तार के साथ बता रहे हैं विद्रोही के दूसरे आलोचक बृजेश यादव

‘‘साढ़े चार बजे शाम से लगाकर ढाई बजे रात तक किसी भी मौके पर गंगा ढाबे पर बैठे हुए लोगों एक एक निगाह डालिए तो सहज ही आप देख लेंगे कि वहां का पूरा बिजनेस ही अलग है इसलिए बिजी होने का मतलब भी अलग है। ये लोग ऊंच-नीच, लूट-खसोट, दलाली-चापलूसी और गलाकाट स्पर्द्धा की भगदड़ और भभ्भड़ से दूर किसी दूसरी जगह बैठे हुए लोग हैं जहां असहमति और सहमति को ‘सेटिल’ करने के नए दृष्टिपूर्ण तरीके विकसित कर लिए गए हैं।’’

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बदलते समय में सत्य, न्याय व ज्ञान के नव-नवल भाष्य, अवतारवादी, आदर्शवादी भूलभुलैया को भेदकर किस प्रकार हमारी सभ्यता की ज्ञानात्मक परंपरा को समृद्ध कर रहे हैं- यह देखना हो तो गंगा ढाबे की मौज में कभी आए। …इनकी गंभीरता का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि ये हाथापाई कभी नहीं करते हैं लेकिन ‘मार’ रोज होती है। अगले दिन तर्कों और उदाहरणों और संदर्भों के नए शस्त्र लेकर महारथी फिर जुटते हैं और फिर ‘मार’ होती है। कहना न होगा कि इसी घमासान के बीच से बोध-प्रबोध के वे नए चराग जलते हैं, जिनसे लौ लेकर भविष्य के भारत को अभी जगमग होना है। इसी को विद्रोही कहते थे कि ‘गंगा ढाबे पर नूर बरसता है।’’ 6 इन्हीं नए चरागों में से विद्रोही एक ऐसे जगमाते चराग हैं, स्वयं जिनके चेहरे से एक खास तरह का नूर टपकता है। कहा जा सकता है कि यदि जलते समंदर की बड़वाग्नि में मौत का विस्तार विद्रोही की कविता का लोकेल है तो गंगा ढाबा उसकी आंच को निर्घात झेल जाने की प्रेरणा भूमि, जहां से उनकी कविता में ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान के अंकुर फूटे हैं, वह प्रेरणा भूमि जिसने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा है, मांजा है और पराजित योद्धा को अपराजेय बना दिया है। गंगा ढाबे की तासीर का अनुभव वही कर सकता है जो जेएनयू का छात्र रहा है या जिसे वहां के वैचारिक युद्ध में एकाधिक बार शामिल होने का सौभाग्य मिला हो। मेरा विश्वास है कि जेएनयू का कोई पूर्व छात्र, देश के किसी भी कोने में हो गंगा ढाबे की स्मृति उसे ‘हान्ट’ करती होगी, वह उसके लिए जरूर हुड़कता होगा।

विद्रोही बड़े सपनों का कवि है, छोटे कद का बड़ा कवि। मनुष्यता उसमें कूट-कूटकर भरी हुई है। सपना वह नहीं जो हम सोते समय देखते हैं, सपना वह जो हमें सोने नहीं देता, जैसे कबीर का सपना, समाज बदलने का सपना-

सुखिया सब संसार है, खावे अरु सोवै।

दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवै।।7

कबीर और विद्रोही का दुख व्यक्तिगत दुख नहीं, बल्कि हजारों साल में अशिक्षा और अज्ञानता के अंधकार में डूबे वंचित समाज का दुख है। ऐसे अधिकार-वंचितों की मुक्ति के लिए इन्हें रात-रात भर जागना पड़ा है। वैसे तो कवि होना ही बड़ी बात है, जनकवि होना और भी बड़ी बात है, लेकिन किसी बड़े जनकवि का बड़ा मनुष्य होना सबसे बड़ी बात है। इसमें दो राय नहीं कि कबीर और विद्रोही दोनों जितने बड़े जनपक्षधर कवि थे, उतने ही बड़े मनुष्य भी थे।

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बहुत ही खतरनाक ढंग से कविता के भीतर प्रवेश करने का अदम्य साहस रखने वाले, प्रतिरोध के प्रखर कवि कबीर के सच्चे वारिस का नाम है- रमाशंकर विद्रोही। जो मुख्यधारा के हिन्दी साहित्य में गुमनामी का जीवन जीने को अभिशप्त रहा है। कबीर के वारिसों की लंबी सूची है जिनमें प्रतिरोध की परंपरा को विकसित करने वाले जनवादी कवि भी आते हैं और अंबेडकरवादी कवि भी। कविता के भीतर खतरनाक ढंग से प्रवेश कर जोखिम उठाने वाले जनवादी कवियों में नागार्जुन, पाश, मुक्तिबोध, धूमिल, वेणु गोपाल, आलोक धन्वा, गोरख पांडेय, वीरेन उंगवाल, महेश्वर तथा अंबेडकरवादी कवियों में वशिष्ठ कवि मलखान सिंह, जयप्रकाश् लीलवान, सी. वी. भारती, असंग घोष और पंजाबी दलित कवि लाल सिंह दिल के नाम उल्लेखनीय हैं। इन्हीं में से एक नाम रमाशंकर विद्रोही का भी है, जिन्हें मैंने कबीर का सच्चा वारिस कहा है। अक्खड़ता, फक्कड़ता और बेपरवाह मस्ती भरा जीवने जीने की दृष्टि से विद्रोही कबीर जैसे मलंग के जितने निकट प्रतीत होते हैं, उतना कोई दूसरा नहीं। दोनों लिखित के बरक्श मूलत: वाचिक परंपरा के कवि हैं। दोनों कविता लिखते नहीं, कविता कहते हैं। एक की वाणियों को संत धर्मदास ने लिपिबद्ध किया तो दूसरे की कविताओं को जेएनयू के छात्रों ने ‘रेकार्ड’ और लिपिबद्ध किया, जिसे संपादित कर प्रणय कृष्ण ने नयी खेती शीर्षक से प्रकाशित किया। एक मध्यकालीन है तो दूसरा आधुनिक जनवादी कवि। इसी के साथ यह भी सच है कि प्रतिरोध का प्रखर कवि कबीर अपनी सांस्कृतिक जनवाद की कीमती विरासत के साथ संत काव्य और आधुनिक प्रगतिशील कविता के बीच आवाजाही का संबंध-सेतु है।

विद्रोही भले फटेहाल कवि रहे, पर उनमें आत्म करुणा का भाव लेशमात्र भी नहीं था, विरोधियों के सामने यह तनकर खड़े रहे और इसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा। विद्रोही कविता करते हैं, कविता बोलते और कविता को जीते हैं, यही कवि-कर्म उनके क्रियाशील जीवन की सार्थकता है। कविता करना उनका पेशा है और वे कविता के ‘होल टाइमर’ कवि हैं। इस पर उन्हें गर्व है। यह जानते हुए भी, जो लोग यह जानना चाहते हैं कि विद्रोही आखिर करते क्या हैं, उन पर व्यंग्य करते हुए विद्रोही बड़े फख्र के साथ कहते हैं-

जब कवि गाता है/ तब भी कविता होती है

और जब कवि रोता है/ तब भी कविता होती है

कर्म है कविता/ जिसे मैं करता हूं

फिर भी लोग मुझसे पूछते हैं-

विद्रोही!

तुम क्या करते हो? 8

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अपने कवि-कर्म पर कितना गर्व है विद्रोही को। ‘कविता क्या है’ इस प्रश्न पर रचनाकार से लेकर आलोचक तक मंथन करते आए हैं, धूमिल से लेकर रामचंद्र शुक्ल तक। खेती-किसानी और कविता ही विद्रोही का पेशा है। अत: कविता के बारे में विद्रोही की लोकधर्मी दृष्टि किंचित भिन्न है। धूमिल ने कविता की अनेक परिभाषाएं दी हैं, मसलन ‘कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है’, या फिर ‘शब्दों की अदालत में/ मुजरिम के कठघरे में खड़े बेकसूर आदमी का हलफनामा है’, इसके बरक्श विद्रोही की सीधी-सरल छोटी भी परिभाषा है जो अनपढ़ आदमी की समझ में भी आ जाए-

कविता क्या है/ खेती है

बेटा-बेटी है

बाप का सूद है/ मां की रोटी है।9

और यही कविता में भाषा होने की तमीज भी है। विद्रोही की कविता वस्तुत: बोलचाल से निकली गंभीर अर्थों वाली और मुक्ति के भव्य आशयों वाली कविता है। कवि विद्रोही और उनकी कविता की सामाजिक भूमि व भूमिका को रेखांकित करते हुए प्रणय कृष्ण ने लिखा है- ‘‘विद्रोही हमारे अपवंचित राष्ट्र के कवि हैं, उन लोगों के कवि जिन्हें अभी राष्ट्र बनना है। विद्रोही मूलत: इस देश के एक अत्यंत जागरुक किसान-बुद्धिजीवी हैं, जिसने अपनी अभिव्यक्ति कविता में पाई है। विद्रोही सामान्य किसान नहीं हैं, वे पूरी व्यवस्था की बुनावट को समझने वाले किसान हैं। मतलब यह कविता उनका जीवन है। किसानी और कविता उनका यहां एकमेक है।’’10 अत: कवि विद्रोही और उनकी कविता, तथा कविता व किसानी के अत: संबंधों को ठीक से समझने, उसके निहितार्थ और तेवर को ठीक से पहचानने के लिए उनकी ‘कविता और लाठी’ शीर्षक कविता को देखा जा सकता है-

मेरी कविता वस्तुत:/ लाठी ही है

इसे लो और भांजो/ मगर ठहरो!

ये वो लाठी नहीं है जो/ हर तरफ भंज जाती है

ये सिर्फ उस तरफ भंजती है/ जिधर मैं इसे प्रेरित करता हूं

मसलन तुम इसे बड़ों के खिलाफ भांजोगे/ भंज जाएगी

छोटों के खिलाफ भांजोगे/ न/ नहीं भंजेगी

तुम इसे भगवान के खिलाफ भांजोगे/ भंज जाएगी

लेकिन इसे इनसान के खिलाफ भांजोगे/ न/ नहीं भंजेगी

कविता और लाठी में यहीं अंतर रहे। 11

सहज पठनीयता और बोधगम्यता भी कविता का एक विशिष्ट गुण है जो रचनाकार और पाठकों के बीच एक सामाजिक संबंध स्थापित करता है। शोषक और शोषित के कंट्रास्ट में रची गई यह कविता और उसका निहितार्थ इतना स्पष्ट है कि किसी के भी समझ में आ जाए। पूंजीवाद, सामंतवाद, मार्क्सवाद की फार्मूलाबद्ध शब्दावली का प्रयोग किए बिना अपने प्रतिरोध को साफ-सुथरी भाषा में पूरे तेवर के साथ व्यक्त किया जा सकता है, विद्रोही की कविताएं इसकी गवाही देती हैं। इनसान के पक्ष में ईश्वर पर लाठी भांजने वाली तमाम कविताएं, मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र और दलित सौंदर्यशास्त्र के बीच आवाजाही का मार्ग प्रशस्त करती हैं।

पुनर्पाठ की परंपरा 19वीं शताब्दी में ज्योतिबा फुले ने आरंभ की थी। पुनर्पाठ माने पुनर्मूल्यांकन नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन के माध्यम से व्यवस्था-परिवर्तन की वह प्रक्रिया है, जिससे समतामूलक समाज-निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो। इसके लिए वर्चस्ववादी सत्ता की विचारधारा को पुष्ट करने वाले, पूर्व स्थापित मिथकों व प्रतीकों को ध्वस्त कर वैकल्पिक मिथकीय प्रतीकों की संरचना की जरूरत होती है। हिन्दी में पुनर्पाठ की यह प्रक्रिया देर से बीसवीं शताब्दी के आखिरी दशकों में शुरू हो पाती है; पहले स्त्री-पाठ, फिर दलित-पाठ और काफी देर से आदिवासी पाठ। जाति-व्यवस्था और श्रेष्ठता को स्थापित करने वाली ब्राह्मणवादी संरचना ने पाप और पुण्य, स्वर्ग और नरक, ब्राह्मण और अब्राह्मण, आर्य और अनार्य के बीच विभाजक रेखा खींचकर, नरक और पाप के भय से वंचित समाजों को भयभीत कर गुलामी की बेड़ियों में जकड़ रखा है। ईश्वरीय चमत्कारों से इस व्यवस्था को उसने बराबर अक्षुण्य बनाए रखा। विद्रोही का संघर्ष इस गुलामी के विरुद्ध वंचित समाज की मुक्ति का संघर्ष है जो हजारों साल से वर्चस्ववादी सत्ता के शोषण का शिकार रहा है।

वंचित समाज के विद्रोही उस व्यवस्था के पीड़ित थे जिसके उत्तराधिकारी आज खुलेआम हक छोड़ने की बात कर रहे हैं। वर्तमान शिक्षण व्यवस्थाएं, हक की लड़ाई में अपना हक मांगने वालों को ही कुचल देने पर आमादा हैं। विद्रोही अपना हक छोड़ देने से साफ इनकार करते हैं। तुम चाहे हमारी कमर तोड़ दो, चाहे सिर फोड़ दो पर हम अपना हक नहीं छोड़ेंगे, हरगिज नहीं छोड़ेंगे। हम लड़ेेंगे और अपना हक लेकर रहेंगे। जुल्मो-सितम के रहते विद्रोही ने जिद ठान ली है कि हम गुलामी की अंतिम हदों तक लड़ेंगे-

जिसकी खातिर लड़ाई ये छेड़ी गई

जो शुरू से अभी तक चली आ रही

और चली जाएगी अंत के अंत तक

हम गुलामी की अंतिम हदों तक लड़ेंगे। 12

रमाशंकर विद्रोही सत्ता परिवर्तन के नहीं, प्रेमचंद की तरह व्यवस्था परिवर्तन के रचनाकार थे। इसीलिए वे शोषित-वंचित समाज की मुक्ति के लिए आजादी की दूसरी लड़ाई लड़ रहे थे। वह वंचित समुदाय जो आजाद भारत में भी आजाद नहीं है। इसीलिए विद्रोही की कविताओं में एक सात्विक आक्रोश भी है, जिसके चलते उनका प्रतिरोध कभी-कभी प्रतिशोध का रूप ले लेता है-

जुल्म न होता, जलन न होती

जोत न जगती, क्रांति न होती

बिना क्रांति के खुले खजाना

कहीं कभी भी शांति न होती। 13

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व्यवस्था परिवर्तन की प्रक्रिया सामाजिक क्रांति के लिए जितनी जरूरी है, उतनी ही कठिन और चुनौतीपूर्ण भी। सामाजिक क्रांति की पहल करने वाले प्रतिरोध के नायकों- बुद्ध, कबीर, फुले, अंबेडकर, पेरियार, भगत सिंह सभी को इस चुनौती का सामना करना पड़ा है और उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा है। व्यवस्था परिवर्तन के लिए, सत्ता व्यवस्था द्वारा स्थापित मिथकीय संरचनाओं को खंडित कर वैकल्पिक अवधारणाएं विकसित करनी पड़ती हैं। व्यवस्था-परिवर्तन की इस लड़ाई में विद्रोही को धर्मसत्ता, पितृसत्ता और राजसत्ता से बार-बार टकराना पड़ता है। इस लड़ाई में वे थकते हैं, हारते हैं पर हार नहीं मानते, फिर से उठ खड़े होते हैं। वह महसूस करते हैं कि ब्राह्मणवादी तंत्र को ध्वस्त करने की प्रक्रिया में ईश्वर सबसे बड़ी चुनौती है जिसे सामंतवाद के ब्राह्मणवादी तंत्र ने बड़ी मजबूती के साथ जमीन पर रोप दिया है। उसने ईश्वर के चमत्कार से चमत्कृत जनता को धार्मिक पाखंडों व अंधविश्वासों में बुरी तरह जकड़ रखा है। ईश्वरीय चमत्कार का विरोध वैकल्पिक चमत्कार की अवधारणाओं से ही किया जा सकता है। अत: विद्रोही ब्राह्मणवादी तंत्र की चमत्कारी संस्कृति के बरक्श किसान संस्कृति से एक वैकल्पि अवधारणा विकसित करते हैं-‘आसमान में धान बोना’ और अपने ही जमीनी मोर्चे पर ईश्वर से लड़ाई ठान लेते हैं-

मैं किसान हूं

आसमान में धान बो रहा हूं

कुछ लोग कह रहे हैं/ कि पगले आसमान में धान नहीं जमता

मैं कहता हूं कि/ गेगले-गोगले

अगर जमीन पर भगवान जम सकता है

तो  आसमान में धान भी जम सकता है

और अब तो/ दोनों में एक होकर रहेगा-

या तो जमीन से भगवान उखड़ेगा

या आसमान में धान जमेगा। 14

यह है ठेठ किसान, जनवादी कवि विद्रोही की नयी खेती का नया संदेश जो अपनी जमीन पर जड़ जमाए बैठे ईश्वर को उखाड़ फेंकने की प्रेरणा देता है। लेकिन भगवान को अपनी जमीन से उखाड़ फेंकने पर आमादा विद्रोही अच्छी तरह जानते हैं कि झूठ-फरेब, छल-छद्म, अंधविश्वास और पाखंड की धुरी पर टिकी धर्मसत्ता कितनी क्रूर और निष्ठुर है। वहां ‘मर्यादा पुरुषोत्तम के वंशजों को’ शंबूकों का गांव उजाड़ फेंकने की पूरी छूट है तो एकलव्य का अंगूठा काट लेने और उसके खिलाफ तमाम झूठी दस्तखतें बना देने का भी पूरा अधिकार है, क्योंकि-

बाभन का बेटा

बूढ़े चमार के बलिदान पर जीता है

भूसुरों के गांव में सारे बाशिंदे

किरायेदार होते हैं। 15

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विद्रोही का आक्रोश छाती पीटने वाला आक्रोश नहीं है

मैं नहीं समझता कि दलित कवियों के अलावा ऐसी कविता कोई जनवादी कवि भी लिख सकता है, नागार्जुन जैसे कुछ अपवाद हो सकते हैं। इस संदर्भ में विद्रोही जनवादी कवियों के बीच अपनी विशिष्ट पहचान बनाते हैं। ‘धर्म’ शीर्षक कविता इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। ब्राह्मणवादी तंत्र में धर्म देश से बड़ा होता है और उससे भी बड़ा होता है धर्म का निर्माता जिसकी रक्षा के लिए पुरानी पोथियां हथियार मुहैया कराती हैं। दुनिया में भारत अकेला ऐसा देश है, जहां ईश्वर सहित सभी देवी-देवता लगभग हथियारबंद हैं और खुलेआम अपनी क्रूरता और हिंसक-वृत्ति का प्रदर्शन करते हैं। धर्मसत्ता के पाखंडों और भेदभाव पर आधारित अमानवीय उसूलों का उल्लंघन करने वालों की गर्दन नापने के लिए ये हथियार हमेशा तैयार रहते हैं। धर्म-विरोधी को पापी बताकर नरक के भय से भयभीत किया जाता है लेकिन अपने लाभ के लिए पुरोहितों ने स्वर्ग जाने के लिए चोर दरवाजे का खुला विकल्प भी छोड़ रखा है-

धर्म के मुताबिक उनको मिल सकता है

वैतरणी का रिजर्वेशन

बशर्ते कि संकल्प दें अपनी बूढ़ी गाय

और खोज लाएं सवा रुपया कर्ज

ताकि गाय को घोड़ी बनाया जा सके

किसान की गाय

पुरोहित की घोड़ी होती है। 16

धार्मिक पाखंडों और अनेक छल-छद्मों से किसानों की जमीन हड़पने का धर्म-धंधा बड़ा पुराना है और आज तो ब्राह्मणवादी तंत्र और ‘कारपोरेट’ के गठबंधन ने और जटिल बना दिया है। आदिवासियों की कीमती जमीनें, सत्ता और उद्योगपतियों की मिलीभगत से हड़पकर उद्योग चमकाए जा रहे हैं और लाखों आदिवासियों को निर्वासित होने को मजबूर किया जा रहा है। लेकिन मैदानी इलाकों में गरीब किसानों की जमीन हड़पने का धंधा भी चल रहा है। रात के अंधेरे में उनके काले कारनामों का चमत्कार, सबेरे-सबेरे गरीब किसान के खेत में सहसा उग आई किसी देवी या देवता की मूर्ति के दृश्य में दिखाई देता है और लुटेरों का दल झांझ मजीरा लेकर कीर्तन शुरू कर देता है। लाख कोशिश के बावजूद किसान की जमीन की सच्चाई झूठ बनकर रह जाती है-

गवाहियां बेमानी बन जाती है

और मेरा गांव सदियों की जोत से वंचित हो जाता है

क्योंकि कागजात बताते हैं कि

विवादित भूमि राम-जानकी की है। 17

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देश का सिरदर्द बना रामजन्म भूमि का धार्मिक विवाद बहुत दिनों से राजनीति का अखाड़ा बना हुआ है। राजनीति जब धर्मसत्ता की गुलाम हो जाती है तो न्याय की अदालतें भी मुंह मोड़ लेती हैं। धर्मसत्ता के पाखंड को तार-तार करते हुए रमाशंकर विद्रोही, निष्कर्ष के रूप में जब नुकीली सूक्तियों का प्रयोग करते हैं तो प्रतिरोध का निहितार्थ कहीं ज्यादा गंभीर और अर्थ-सघन होकर उभरता है। धर्म शीर्षक कविता की कुछ चुनिंदा सूक्तियों को देखिए, उनकी धार को परखिए-

  1. किसान की गाय पुरोहित की घोड़ी होती है।
  2. धर्म की भीख ईमान की गर्दन होती है।
  3. अदालतों के फैसले आदमी नहीं, पुरानी पोथियां करती हैं।
  4. भूसुरों के गांव में सारे बाशिंदे किरायेदार होते हैं।
  5. बाभन का बेटा बूढ़े चमार के बलिदान पर जीता है।
  6. ऊसरों को तोड़ती आत्माएं नरक में ढकेल दी जाती हैं।

विद्रोही की धर्म और औरत शीर्षक लंबी कविताएं, जनवादी कवियों के लिए चुनौती हैं। धर्मसत्ता ने अपने धार्मिक वर्चस्व की सुरक्षा के लिए जिस कल्पित ईश्वर की सृष्टि की है, उसी के भय से जनता को भयभीत कर, सदियों के उसका शोषण करती आई है। वह ईश्वर भी गजब का मायावी है, कभी सिंह के रूप में प्रकट होता है तो कभी सूअर के रूप में। अत: विद्रोही उसे आमने-सामने की लड़ाई के लिए ‘गुरिल्ले’ का वैकल्पिक प्रतीक गढ़ते हैं, और मायावी ईश्वर की ललकारते हैं-

और जब हम एक दिन/ जमीन से आसमान तक

खड़े-खड़े फाड़ देंगे तुम्हारी मेहरावें/तो न तो उसमें से कोई/

कच्छप निकलेगा, न ही कोई नरसिंह/

तुम सूअरों से लेकर सिंहों तक/ सारे जानवरों का स्वभाव

अपना लो/ मगर, हम तो गुरिल्लों की औलाद हैं/

और गुरिल्ले ही रहेंगे। 18

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के प्रतिरोध का प्रतीक ‘भेड़िया’ है तो रमाशंकर विद्रोही के प्रतिरोध में ढालते प्रतिरोध का प्रतीक ‘गुरिल्ला’ है, जिसके माध्यम से कवि ईश्वर के विरुद्ध छापामार युद्ध की घोषणा कर देता है। यह कविता धर्म शीर्षक कविता का उपसंहार है। यह मात्र एक पराजित योद्धा के आक्रोश को शिनाख्त करने वाली कविता नहीं है, बल्कि हजारों साल से दबे-कुचले वंचित समुदाय के हृदय में दबी पड़ी वेदना और पीड़ा की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति है। यह छाती पीटने वाला निष्क्रिय आक्रोश नहीं बल्कि दलित आक्रोश की गवाही देती कविता है, जो अपने खोए हुए हक व हकूक को छीन लेने के लिए प्रतिबद्ध है। ‘धर्म’ और ‘गुरिल्ला’ शीर्षक जनवादी कविताओं को, दलित आक्रोश वाली मलखान सिंह और जयप्रकाश लीलवान की कविताओं के साथ रखकर भी पढ़ा जा सकता है। लंबी कविता ‘धर्म’ वस्तुत: जनवादी कविताओं और दलित कविताओं के बीच आवाजाही का मार्ग प्रशस्त करती है।

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विद्रोही ऐसे कवि थे जो अपने गलत चित्रण का हमेशा विरोध करते थे

धर्मसत्ता के साथ ही पितृसत्ता व राजसत्ता के शोषणकारी दमन-तंत्र को तार-तार करते हुए रमाशंकर विद्रोही, स्त्री के दमन की गवाही देने वाले धर्म ग्रंथों और इतिहास के पन्नों की गहरी छानबीन करते हैं और निष्कर्ष निकालते हैं कि स्त्रियों की हत्या व आत्महत्या संबंधी जो विवरण प्रशासनिक रिकार्डों और धर्मग्रंथों में दर्ज हैं, वे सभी पुरुष-पक्ष को मजबूत बनाने वाले स्त्री-विरोधी झूठे विवरण है जिन्हें निरस्त करते हुए कवि संकल्प करता है-

मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित

दोनों को एक ही साथ

औरतों की अदालत में तलब करूंगा

और बीच की सारी अदालतों को

मंसूख कर दूंगा। 19

कवि स्त्रियों की हत्या व आत्महत्या संबंधी घटनाओं की पूरी छानबीन करता है और अपने समय, समाज में हो रही दस्तावेजों की हेराफेरी के बरक्श उनकी मिलान करता है तो विचलित हो जाता है। वह देखता है कि जुल्म के सारे सबूतों को मिटाया जा रहा है, चंदन लेपित मस्तक को उठाए पुरोहित और तमगों से लैस सीना फुलाए हुए सैनिक महाराज की जय बोल रहे हैं-

वे महाराज जो मर चुके हैं

और महारानियां सती होने की तैयारियां कर रही हैं

जब महारानियां नहीं रहेंगी

तो नौकरानियां क्या करेंगी

इसलिए वे भी तैयारियां कर रही हैं

मुझे महारानियों से ज्यादा चिंता

नौकरानियों की होती है

जिनके पति जिंदा हैं और

बेचारे रो रहे हैं। 20

[bs-quote quote=”रमाशंकर विद्रोही की कुछ महत्वपूर्ण कविताएं स्मृति कविताएं हैं जिनमें कवि अपने से बड़े और वरिष्ठ कवियों की कविताओं से होड़ लेता-सा दिखाई देता है। कन्हई कहार त्रिलोचन की बहुचर्चित कविता नगई महरा की याद दिलाती है तो जन-गण-मन और नूर मियां का सुरमा क्रमश: विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर लिखित राष्ट्रगीत जन गण-मन अधिनायक तथा वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह की मार्मिक कविता नूरमियां से प्रतिस्पर्द्धा करती, विद्रोही की चुनी हुई महत्वपूर्ण कविताएं हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

राजसत्ता और पितृसत्ता की स्त्री-विरोधी सबसे क्रूर और वीभत्स परंपरा सती प्रथा थी जिसके विरुद्ध सबसे पहले एक स्त्री-मीराबाई ने आवाज उठाई थी, आज से लगभग 600 साल पहले। बाद में आधुनिक काल में राजा राममोहन राय को सती प्रथा के खिलाफ वाकायदा आंदोलन चलाना पड़ा। महाराज की मृत्यु के बाद उनकी रानियों और सेवा में लगे नौकर-नौकरानियों को जीने का कोई अधिकारी नहीं था, सब महाराज के गुलाम थे। मध्यकाल के सामंती युग में लिखे गए सूफी काव्यों में एक खंड ‘सती खंड’ का होता था जिसके अनुसार राजा की मृत्यु के बाद क्रमश: उनकी रानियों के सती हो जाने पर, एक-एक कर सभी नौकर-नौकरानियों को भी सती होना पड़ता था। यहां तक कि तमोली को भी इसलिए सती होना पड़ता था कि स्वर्ग में महाराज को पान कौन खिलाएगा। कवि उस्मान की चित्रावली में सबसे दिलचस्प विवरण मिलता है। उस्मान व्यंग्य करते हैं कि पान खिलाने के लिए तमोली को तो सती होना पड़ता था पर यह चिंता नहीं कि राजा को खाना कौन खिलाएगा? रसोइया को सती नहीं होना पड़ता था क्योंकि वह ब्राह्मण था। उस्मान और विद्रोही की चिंताएं एक समान हैं।

सामंती समाज व्यवस्था में स्वयं रानियां महलों के खूबसूरत कैदखाने में जीने को अभिशप्त थीं, कालिदास के अनुसार-असूर्यपश्या राजमहिषी रानियां और सेवा में लगी सभी नौकरानियां तथा अन्य नौकर-चाकर के गुलाम थे। गुलामी की अंतिम हद लड़ने की जिद ठान बैठे रमाशंकर विद्रोही का हृदय, इस क्रूरता को देखकर कलकलाता रहा था। स्त्री-उत्पीड़न और उसकी हत्या को जब वह पूरे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो उनके प्रश्नाकुल मन में तरह-तरह के सवाल कुलबुलान लगते हैं, मसलन-यही कि इतिहास में पहली स्त्री-हत्या किसने की और क्यों की? पितृसत्ता कब अस्तित्व में आई? और कवि की दृष्टि परशुराम और जमदग्नि पर जाकर टिक जाती है। लेकिन लाख टके का प्रश्न यह है कि-

इतिहास में वह पहली और कौन थी

जिसे सबसे पहले जलाया गया

मैं नहीं जानता

लेकिन जो भी रही होगी

मेरी मां रही होगी

लेकिन मेरी चिंता यह है कि

भविष्य में वह आखिरी औरत कौन होगी

जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा

मैं नहीं जानता

लेकिन जो भी होगी

मेरी बेटी होगी-

मैं यह नहीं होने दूंगा। 21

कहना न होगा, विद्रोही ने जिस बेलौस ढंग से धर्मसत्ता, पितृसत्ता और राजसत्ता के छल-छद्म, पाखंड, धोखाधड़ी और निरंकुश क्रूरता का पर्दाफाश करते हुए उनकी आंतरिक सच्चाइयों को उजागर किया है तथा धर्म, औरत एवं मोहनजोदड़ो की आखिरी सीढ़ी से शीर्षक कविताओं के माध्यम से जिस तेवर के साथ दलित और स्त्री अस्मितताओं के सवालों को उठाया है, वह जनवादी कवियों के लिए एक मिसाल है। इसके साथ ही ये सवाल रामविलास शर्मा और नामवर सिंह जैसे आलोचकों को भी आईना दिलाने का साहस करते-से प्रतीत होते हैं जिन्होंने अस्मिता आंदोलनों से उठ खड़े हुए सवालों को कोई तवज्जों नहीं दी। इसका एक कारण तो यह है कि विद्रोही वंचित समुदाय से ताल्लुक रखते हैं और सही मायने में मार्क्सवाद वंचित समुदाय को ही रास आता है। प्रसंगवश, प्रणय कृष्ण ने इस पुस्तक की भूमिका में एक घटना का उल्लेख किया है- ‘‘नामवरजी की एक किताब हाल में आई है- कविता की जमीन और जमीन की कविता। विद्रोही ने एक दिन मुझसे कहा कि इस किताब में विद्रोही कहीं नहीं है जबकि आलोचक तो जेएनयू में ही लंबे समय तक रहे। असल में विद्रोही कविता कहते रहे, छपे कहीं नहीं।’’ तब नामवर जी की किताब में होने का सवाल ही कहां उठता है। यह विद्रोही  की सहज जिज्ञासा मात्र है।

वस्तुत: मोहनजोदड़ो की आखिरी सीढ़ी से मूलत: सभ्यता-विमर्श की लंबी कविता है जिसमें स्त्री-अस्मिता के सवाल बार-बार टकराते हैं। दुनिया की प्राचीन सभ्यताओं का इतिहास जिस पर हम गर्व करते हैं, साम्राज्यवाद की क्रूरता का इतिहास है। स्त्रियों की जली हुई लाशें और इंसानों की बिखरी हुई हड्डियां हर सभ्यता के भग्नावशेषों में मिल जाएंगी। एक प्रकार से देखा जाए तो यह कविता वैश्विक सभ्यताओं के विमर्श का शोधपरक आख्यान है जिसका निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कवि को एक सवाल बारहां व्यथित कर देता है- आखिर क्या बात है कि हर सभ्यता के मुहाने पर औरत की जली हुई लाश और इनसानों को बिखरी हुई हड्डियां मिलती हैं। बात केवल मोहनजोदड़ों तक सीमित नहीं है; बेबीलोनिया से लेकर मेसोपोटामिया तक, सीथिया की चट्टानों से लेकर सवाना के जंगलों तक यह सिलसिला फैला हुआ है। यह उनकी बर्बरता का काला पक्ष है जो स्त्री की जली हुई लाश और इनसानों की बिखरी हुई हड्डियों के रूप में अपना निशान छोड़ गया है। विद्रोही उन सभ्यताओं के नीचे दबी पड़ी आंतरिक सच्चाइयों का पर्दाफाश करते हैं-

यह लाश जली नहीं है, जलाई गई है

ये हड्डियां बिखरी नहीं है; बिखेरी गई हैं

ये आग लगी नहीं, लगाई गई है

ये लड़ाई छिड़ी नहीं है, छेड़ी गई है

लेकिन कविता भी लिखी नहीं, लिखी गई है

और जब कविता लिखी जाती है

तो आग भड़क जाती है। 22

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रमाशंकर विद्रोही की कुछ महत्वपूर्ण कविताएं स्मृति कविताएं हैं जिनमें कवि अपने से बड़े और वरिष्ठ कवियों की कविताओं से होड़ लेता-सा दिखाई देता है। कन्हई कहार त्रिलोचन की बहुचर्चित कविता नगई महरा की याद दिलाती है तो जन-गण-मन और नूर मियां का सुरमा क्रमश: विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर लिखित राष्ट्रगीत जन गण-मन अधिनायक तथा वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह की मार्मिक कविता नूरमियां से प्रतिस्पर्द्धा करती, विद्रोही की चुनी हुई महत्वपूर्ण कविताएं हैं। इसमें दो राय नहीं कि नूरमियां केदारनाथ सिंह की बड़ी ही मर्मस्पर्शी कविता है लेकिन उसे यदि विद्रोही की कविता को सामने रखकर पढ़ा जाए तो विद्रोही की कविता बीस ही पड़ेगी, उन्नीस नहीं। उसका सबसे मार्मिक और संवेदनशील अंश है, नूरमियां का पाकिस्तान चले जाना। आखिर क्यों चले गए पाकिस्तान नूरमियां? यह अनेक सवाल छोड़ जाता है-

कहते हैं नूरमियां के कोई था नहीं

तब क्या हम कोई नहीं होते थे नूरमियां के

नूरमियां क्यों चले गए पाकिस्तान?

बिना हमको बताए

बिना हमारी दादी को बताए

नूरमियां क्यों चले गए पाकिस्तान। 23

विद्रोही से पहले वरिष्ठ कवि रघुवीर सहाय के मन में यह प्रश्न उठा था, आखिर कौन है यह जन-गण-मन अधिनायाक? और भारत-भाग्य विधाता कौन है?

राष्ट्रगीत में भला कौन वह/भारत-भाग्य-विधाता है/

फटा सुथन्ना पहने जिसका/गुन हरचरना गाता है।

कौन-कौन वह जन-गण-मन/अधिनायक वह महाबली

डरा हुआ मन बेमन जिसका/बाजा रोज बजाता है। 24

रघुवीर सहाय ने जिस भाग्य-विधाता और अधिनायक को प्रश्नांकित कर छोड़ दिया था, विद्रोही मरते दम तक उनसे लड़ने की जिद ठान लेते हैं। विद्रोही की जन-गण-मन शीर्षक कविता एक पराजित योद्धा के बयान से शुरू होती है, ऐसा योद्धा जो जलते हुए समंदर की बड़वाग्नि में मौत का विस्तर बिछाकर पड़ गया है। वह सोचता है कि मौत तो उसे छोड़ेगी नहीं। वैसे भी एक न एक दिन मरना तो सबको है, लेकिन सामंतवाद-अधिनायकवाद को मारे बिना मरना भी कोई मरना है? मृत्यु वह जिसे लोग याद करें। अत: विद्रोही निश्चय करते हैं-

मैं भी मरूंगा

भारत भाग्य-विधाता भी मरेगा।

मरना जन-गण-मन अधिनायक को भी पड़ेगा

लेकिन मैं चाहता हूं कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें

फिर भारत भाग्य-विधाता मरें/फिर साधू के

काका मरें/यानी सारे बड़े लोग पहले मर लें/

ऊफर मैं मरूं/उधर चलकर वसंत धातु में/

जब दानों में दूध/आमों में चौदहआ जाता है/

या फिर तब/जब महुआ चूने लगता है/

या फिर तब/जब बनवेला फूलती है/नदी किनारे

मेरी चिता दहक कर महके/और मित्र सब

करें दिल्लगी-/कि यह विद्रोही भी क्यो तगड़ा

कवि था/जो सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा। 25

जलते हुए समंदर की बड़वाग्नि में मौत का विस्तर बिछाकर लेटे हुए पराजित योद्धा रमाशंकर विद्रोही की, हास-परिहास की शैली में इच्छा-मृत्यु की यह कामना, महाभारत की युद्धभूमि में शर-शय्या पर लेटे भीष्म पितामह की इच्छा-मृत्यु से कहीं ज्यादा सार्थक और जीवंत है। इसमें संदेह नहीं कि विद्रोही की ‘जन-गण-मन’ कविता, राष्ट्रगीत में अभिव्यक्त अधिनायकवादी सामंती दृष्टि का तीखा प्रत्याख्यान करने के साथ ही जन-गण और अधिनायकवाद के बीच चिह्नित अंतर्विरोधों को भी स्पष्ट करती है। बहुजन पात्रों पर केन्द्रित त्रिलोचना की दो कविताएं ‘नगई महरा’ और भोरई केवट के घर पर बहुचर्चित कविताएं हैं जिनमें ‘नगई महरा’ के बरक्श विद्रोही की ‘कन्हाई कहार’ भी कमजोर कविता नहीं है।’

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सुल्तानपुर जनपद में चिरानी पट्टी गांव के निवासी त्रिलोचन तथा अहिरी गांव के बाशिंदे, विद्रोही दोनों में कई एक समानताएं हैं। दोनों को खेती-किसानी के श्रमशील जीवन का गहरा अनुभव है, दोनों ने खड़ी बोली के अलावा अपनी मातृभाषा अवधी भी उसी सामर्थ्य से कविताएं लिखी हैं। दोनों मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित जनकवि हैं और दोनों ‘जनसंस्कृति मंच’ से जुड़े रहे हैं। दोनों की काव्य-भाषा अमूर्तता से मुक्त, सहज, पठनीय भाषा है जिसमें गद्य की लयात्मकता का गुण मौजूद है। नागार्जुन की तरह दोनों अपने मातृभाषा के मंजे हुए कवि हैं। विद्रोही ने भी नागार्जुन की तह आंदोलनधर्मी कविताएं लिखी हैं जो जनवादी आंदोलनों को प्रेरणास्रोत रही है। विद्रोही का मजबूर पर लिखा निम्न अवधी गीत लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय रहा है। जब जुलूसों में विद्रोही इसे सुनाते थे तो समां बंध जाता था-

जनि जनिहा मनइया जगीर माँगऽऽता

कलजुगहा मजूर पूरी सीर माँगऽऽता

इ पसिनवा कै बाबू आपन रेट माँगऽऽता

इ भरुकवा की जगहा गिलास माँगऽऽता

औ पतरवा कइ बदला इ थार माँगऽऽता

पूरा माल माँगऽऽता

मलिकाना माँगऽऽता

बाबू हमसे पूछा त ठकुराना माँगऽऽता

दूधे दहिए के बरे अहिराना माँगऽऽता

इ सड़किया के बीचे खुलेआम माँगऽऽता

मांगै बहुत सकारे सरे साम माँगऽऽता

आधी रतियौ क मांगें आपन दाम माँगऽऽता

इ तौ खाय बदे घोंघवा कइ खीर माँगऽऽता

दुलहिनिया क द्रौपदी कइ चीर माँगऽऽता

औ नचावै बरे बानर महावीर माँगऽऽता’’25

यह आंदोलनधर्मी जनवादी गीत, संभवत:दुनिया भर की भाषाओं में लिखे गए चुनिंदा मजदूर-गीतों में शामिल किए जाने की प्रवल दावेदारी पेश करता है, ऐसा विद्रोही के दूसरे आलोचक बृजेश यादव का दावा है। उसके अलावा इस संग्रह में कई और अवधी कविताएं शामिल हैं जिनमें- छिड़ी वा लड़ाई मोरे खेत खरिहनवां, नापि कय बंटाय लेव, घूमइ दे मथानी अम्मा के नाम उल्लेखनीय हैं।

आर्थिक विपन्नता के मारे किसी गरीब आदमी का अपमान होता देख विद्रोही का खून खौल उठता है। वह उनकी जन-प्रतिबद्धता भी है और वैचारिक प्रतिबद्धता भी। साधन विहीन व अधिकार वंचित व्यक्ति का अपमान उन्हें अपना अपमान लगता है। एक जनकवि की प्रतिबद्धता जीने वाले विद्रोही जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी महसूस करते हैं और उत्तरदायित्व का निर्वाह करना, अपना कर्त्तव्य समझते हैं। वस्तुत: रमाशंकर विद्रोही संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना के लोकधर्मी कवि हैं। उनकी कविताएं कवि के विचारबोध की आईना हैं तो भाव-बोध की प्रतिमा भी। यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि विद्रोही के हृदय में कभी प्रेमांकुर प्रस्फुटित ही नहीं हुआ था बल्कि यही कि परिस्थितियों के चलते उनके प्रेम का सोता सूख गया था-

मैंने कभी नहीं सोचा था

कि मेरे प्रेम का सोता सुख जाएगा,

लेकिन पूंजीवादी समाज की चौपालो!

और सामंतवादी समाज के दलालो!

और का तन और मुर्दे का कफन

बिकता देखकर

मेरे प्यार का सोता सूख गया। 26

ऐसा नहीं कि विद्रोही प्यार करना जानते ही नहीं थे। आखिर वह तीन-तीन बहनों के भाई थे, बहनों ने हल्दी, दूध और गले की हंसुली से चूम-चूमकर प्यार करना सिखाया था। हां, प्यार करने की प्रक्रिया उसका आधार और आशय, उन लोगों से भिन्न अवश्य थे जो दिन-रात प्रेम में डूबे रहते हैं। प्यार और सौंदर्य विद्रोही को कर्म-क्षेत्र में प्रवृत्त होने की प्रेरणा देते हैं-

जब मैं तुम्हें देखता हूं/ मुझे लगता है/ क्रांति होगी

तुम्हारा सौंदर्य मुझे/ विचार से समर की ओर ढकेलता है

और मेरे संघर्ष की भावना/ सैकड़ों तो क्या/ सहस्रों गुना

बढ़ जाती है। 27

प्यार विद्रोही को संघर्ष करने की प्रेरणा देता है और लड़ाई जीतने की ऊर्जा भी। इस संदर्भ में निराला की कविता राम की शक्ति पूजा का वह दृश्य याद आता है जब युद्ध में पराजित राम थके-हारे वापस आते हैं। निराशा और अवसाद की मनोदशा में उनकी उदासी और बढ़ने लगती हैं तो सहसा उन्हें विदेह के उपवन में सीता के साथ प्रथम मिलन का दृश्य याद आता है- पलकों का उत्थान-पतन, नयनों का नयनों से गोपन, प्रिय संभाषण और वे ऊर्जा से भर जाते हैं। दूसरे दिन की लड़ाई जीतने की अपार शक्ति उन्हें मिल जाती है।

अपने समय समाज की उथल-पुथल, राजनीतिक उठा-पठक पर विद्रोही को कड़ी नजर है जिसके लिए वे सीधी कार्रवाई पर उतर आते हैं-

यह कविता करने का वक्त नहीं है दोस्तो/ मार करने का वक्त है।

ये बदमाश लोग कुछ मान ही नहीं रहे है/ न सामाजिक न्याय मान रहे हैं

न सामाजिक जनवाद की बात मान रहे हैं/ एक मध्ययुगीन तनाव

के चलते/ तनाव पैदा कर रहे हैं/ जो अमरीकी संस्कृति की विरासत है। 28

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नागार्जुन की तरह विद्रोही की राजनीतिक बोध वाली तत्कालीन कविताएं समाज की विडंबनाओं पर तीखा प्रहार करती है। अखंड भारत की बात करने वाले ये ‘दंगों के व्यापारी’ देश को खंड-खंड करने पर आमादा हैं। ये इतिहास को उलट देने का अधिकार चाहते हैं। ये सेठों, पूंजीपतियों, रजवाड़ों के अधिकार की बात करते हैं, जनता जाए चूल्हे भाड़ में अमेरिका स्वयं अब्राहम लिंकन की परिभाषा से दूर चला गया है। जातीय दंगे, सांप्रदायिक दंगे, भाषाएं दंगे, हमारे यहां दिल्ली तक फैले हैं। विकलांग श्रद्धा का दौर चल रहा है, लोकतंत्र के मुंह पर ताला लटका है। यह केवल राजनीतिकबोध नहीं, समकालीन बोध की जीवंत कविता है।

संदर्भ

  1. नयी खेती, भूमिका पृ.-5, दूसरा संस्वरण पृष्ठ 18, नवारुण प्रकाशन, गाजियाबाद
  2. वही, भूमिका, पृ. 28
  3. वही, ‘दंगों के व्यापारी शीर्षक’ कविता, पृष्ठ 148
  4. वही, भूमिका, पृ. 28
  5. वही, भूमिका, पृ. 27-28
  6. वही, भूमिका, पृ. 21
  7. कबीर ग्रंथावली, श्यामसुंदर दास, ‘विरह की अंग’, दोहा 145, पृ. 57, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण 2011
  8. ‘नयी खेती’, दूसरा संस्करण, संपा. बृजेश यादव, ‘कवि-कर्म’ शीर्षक कविता, पृ. 124
  9. वही, ‘परिभाषा’ शीर्षक कविता, पृ. 123
  10. वही, भूमिका-2, पृ. 30
  11. वही, ‘कविता और लाठी’ शीर्ष कविता, पृ. 108-109
  12. वही, ‘हम गुलामी की अंतिम हदों तक लड़ेंगे’ शीर्षक कविता, पृ. 162
  13. वही, ‘पुरखे’ शीर्षक कविता, पृ. 64
  14. वही, ‘नयी खेती’ शीर्षक कविता, पृ. 45
  15. वही, ‘धर्म’ शीर्षक कविता, पृ. 45
  16. वही, पृ. 45
  17. वही पृ. 47
  18. वही, ‘गुरिल्ले’ शीर्षक कविता, पृ. 43
  19. वही, ‘औरत’ शीर्षक कविता, पृ. 39
  20. वही, पृ. 40-41
  21. वही, पृ. 41
  22. वही, ‘मोहनजोदड़ो की आखिरी सीढ़ी से’ शीर्षक कविता, पृ. 53
  23. वही, ‘नूरमियां का सुरमा’ शीर्षक कविता, पृ. 70
  24. रघुवीर सहाय : प्रतिनिधि कविताएं, ‘अधिनायक’ शीर्षक कविता, पृ. 46, राजकमल प्रकाशन (पेपर बैक) संस्करण, 2012
  25. ‘नयी खेती’, ‘जनि जनिहा मनइया जगीर मांगात’, पृ. 178-79
  26. वही, ‘इक आग का दरिया है’ शीर्षक कविता, पृ. 129
  27. वही, ‘इक आग का दरिया है’, पृ. 130
  28. वही, ‘दंगों के व्यापारी’ शीर्षक कविता, पृ. 49
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