मेरे लिए इस जेपी आंदोलनकारी नेता के सवाल का कोई मतलब नहीं था। मैंने केवल उनसे इतना कहा कि जेपी ओबीसी के आरक्षण के विरोधी थे और इस कारण उन्होंने मुंगेरीलाल कमीशन का विरोध किया था। जब कर्पूरी ठाकुर को बिहार के सवर्ण गालियां दे रहे थे - आरक्षण की नीति कहां से आयी, कर्पूरिया के ...., तब जेपी ने अपने मुंह पर टेप लगा लिया था। मंडल कमीशन के गठन का विरोध भी जेपी ने किया था। चूंकि इस संबंध में मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूं तो बार-बार लिखने का कोई मतलब नहीं रह जाता।
खैर, यह जनसत्ता का अपना मामला है। मैं जनसत्ता को बेहद खास मानता हूं। दरअसल, भारत में प्रकाशित अन्य अखबारों की तुलना में इस अखबार की रीढ़ थोड़ी अधिक मजबूत है। अभी कल ही पटना के एक संपूर्ण क्रांति सेनानी ने मुझे फोन कर कहा कि आपने जेपी को याद नहीं किया। जिन्होंने मुझे फोन किया, वे इन दिनों भाजपा के बड़े नेता हैं और 1977 में जनसंघ में थे तथा पहली बार विधायक बने थे। उस समय बिहार में जो कर्पूरी ठाकुर की सरकार बनी थी, जिसमें जनसंघ भी शामिल था, में वह मंत्री बनने से चूक गए थे। चूक इसलिए गए थे क्योंकि उनकी जाति के ही एक दबंग ने उनका पत्ता साफ कर दिया था। यह इसके बावजूद कि वे जेपी के बहुत करीब थे।
खैर, मेरा यह अनुमान मात्र है। गोयनका जी का अर्थशास्त्र तो वही जान सकते हैं जो उस समय उनके करीब रहे होंगे। मैं तो आज की बात करता हूं। आखिर क्या वजह रही कि जिस अखबार ने एक सप्ताह तक लखीमपुर खीरी नरसंहार से जुड़ी हर छोटी-बड़ी खबर को पहले पन्ने पर जगह दिया हो, उसने अंतिम अरदास में जुटी हजारों की भीड़ को अनदेखा किया तथा प्रधानमंत्री के बयान को प्रमुखता से प्रकाशित किया?
खैर, मेरा यह अनुमान मात्र है। गोयनका जी का अर्थशास्त्र तो वही जान सकते हैं जो उस समय उनके करीब रहे होंगे। मैं तो आज की बात करता हूं। आखिर क्या वजह रही कि जिस अखबार ने एक सप्ताह तक लखीमपुर खीरी नरसंहार से जुड़ी हर छोटी-बड़ी खबर को पहले पन्ने पर जगह दिया हो, उसने अंतिम अरदास में जुटी हजारों की भीड़ को अनदेखा किया तथा प्रधानमंत्री के बयान को प्रमुखता से प्रकाशित किया?